अलमस्त हो जाय प्रभा की मधुर बेला
छेड़ दो वो प्रीत-गीत फिर से विहाग
मिटें निज मन के मनभेद सभी
देश-काल, अन्तराल का भेद मिटाने को
हे सरित सुनाओ राग
अज्ञान तिमिर सब हिय से मिट जाय
बस संचारित हो तो स्नेह सौहार्द और मोह
मधुप की मधुर गुन-गुन सुनकर
कटे जन्म-जन्मातर के विछोह
जगे अन्तरम में इक ललक ऐसी
विजय-मार्ग रोके न भय, कभी बन कारा
सुकर्म कर रचे नवयुग ऐसा
स्नेह सुरभि से सुवासित हो जग-सारा
4 comments:
vaah kyaa andaaz hai mubark ho ..akhtar khan akela kota rajsthan
BAHUT BADIYAA PRASTUTI.BADHAAI AAPKO.
अच्छी व सुदर भाव भरी कविता .
भविष्य की सुन्दर परिकल्पना, भगवान करे सच हो जाये।
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