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गुरुवार, 13 मई 2010

अच्छा लगा.........(ग़ज़ल )....श्यामल सुमन जी


हाल पूछा आपने तो पूछना अच्छा लगा
बह रही उल्टी हवा से जूझना अच्छा लगा

दुख ही दुख जीवन का सच है लोग कहते हैं यही
दुख में भी सुख की झलक को ढ़ूँढ़ना अच्छा लगा

हैं अधिक तन चूर थककर खुशबू से तर कुछ बदन
इत्र से बेहतर पसीना सूँघना अच्छा लगा

रिश्ते टूटेंगे बनेंगे जिन्दगी की राह में
साथ अपनों का मिला तो घूमना अच्छा लगा

कब हमारे चाँदनी के बीच बदली आ गयी
कुछ पलों तक चाँद का भी रूठना अच्छा लगा

घर की रौनक जो थी अबतक घर बसाने को चली
जाते जाते उसके सर को चूमना अच्छा लगा

दे गया संकेत पतझड़ आगमन ऋतुराज का
तब भ्रमर के संग सुमन को झूमना अच्छा लगा



लेखक परिचय :-

नाम : श्यामल किशोर झा

लेखकीय नाम : श्यामल सुमन

जन्म तिथि: 10.01.1960

जन्म स्थान : चैनपुर, जिला सहरसा, बिहार

शिक्षा : स्नातक, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र एवं अँग्रेज़ी

तकनीकी शिक्षा : विद्युत अभियंत्रण में डिप्लोमा

सम्प्रति : प्रशासनिक पदाधिकारी टाटा स्टील, जमशेदपुर

साहित्यिक कार्यक्षेत्र : छात्र जीवन से ही लिखने की ललक, स्थानीय समाचार पत्रों सहित देश के कई पत्रिकाओं में अनेक समसामयिक आलेख समेत कविताएँ, गीत, ग़ज़ल, हास्य-व्यंग्य आदि प्रकाशित
स्थानीय टी.वी. चैनल एवं रेडियो स्टेशन में गीत, ग़ज़ल का प्रसारण, कई कवि-सम्मेलनों में शिरकत और मंच संचालन।

अंतरजाल पत्रिका "अनुभूति, हिन्दी नेस्ट, साहित्य कुञ्ज, आदि में अनेक रचनाएँ प्रकाशित।
गीत ग़ज़ल संकलन प्रेस में प्रकाशनार्थ

रुचि के विषय : नैतिक मानवीय मूल्य एवं सम्वेदना

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

गजल ......(परिचय )....कवि दीपक शर्मा



दीपक शर्मा जी का जन्म २२ अप्रैल १९७० में चंदौसी जिला मुरादाबाद ( उ.प) में हुआ . दीपक जी ने वस्तु प्रबंधन में परा स्नातक की शिक्षा प्राप्त की है . दीपक जी कारपोरेट जगत में एक प्रबंधक के पद पर आसीन हैं .

दीपक जी की रचनाएँ नज़्म , गीत , ग़ज़ल एवं कविताओं के रूप में शारदा प्रकाशन द्वारा उनकी दो पुस्तकों " फलक दीप्ति " एवं " मंज़र" में प्रकाशित की गई हैं.

पूरा नाम : दीपक शर्मा
+ उपनाम : कवि दीपक शर्मा
+ चित्र : संलग्न है
+ जन्मतिथी ; २२ अप्रैल 1970
+ जन्मस्थान : चंदौसी जिला मुरादाबाद ( उ.प)

+वर्तमान पता : 186,2ND Floor,Sector-5,Vaishali Ghaziabad(U.P.)
+ प्रकाशित पुस्तको और उनके प्रकाशकों के नाम

१. फलक दीप्ति : गीत, ग़ज़ल, नज़्म एवं कविताओं का पहला

मौलिक संग्रह सन २००५ में इंडियन बुक डिपो

( शारदा प्रकाशन ) द्वारा प्रकाशित

२. मंज़र : गीत, ग़ज़ल, नज़्म एवं कविताओं का दूसरा

मौलिक संग्रह सन २००६ में लिट्रेसी हाउस

( शारदा प्रकाशन द्वारा प्रकाशित )

दीपक शर्मा जी हिंदी कवि सम्मलेन और मुशायरों में अनवरत रूप से अपनी रचनाएन प्रस्तुत करते रहते हैं.देश विदेश में पिछले २० सालों से अपनी रचनायों के द्वारा साहित्य की सेवा कर रहे हैं.




गजल



मेरे जेहन में कई बार ये ख्याल आया
की ख्वाब के रंग से तेरी सूरत संवारूँ

इश्क में पुरा डुबो दूँ तेरा हसीन पैकर
हुस्न तेरा निखारू और ज्यादा निखारूँ ।

जुल्फ उलझाऊँ कभी तेरी जुल्फ सुलझाऊँ
कब्भी सिर रखकर दामन में तेरे सो जाऊँ

कभी तेरे गले लगकर बहा दूँ गम अपने
कभी सीने से लिपटकर कहीं खो जाऊँ

कभी तेरी नज़र में उतारूँ मैं ख़ुद को
कभी अपनी नज़र में तेरा चेहरा उतारूँ।

इश्क में पूरा डुबो दूँ तेरा हसीन पैकर
हुस्न तेरा निखारू और ज्यादा निखारूँ ॥

अपने हाथों में तेरा हाथ लिए चलता रहूँ
सुनसान राहों पर, बेमंजिल और बेखबर

भूलकर गम सभी, दर्द तमाम, रंज सभी
डूबा तसव्वुर में बेपरवाह और बेफिक्र

बस तेरा साथ रहे और सफर चलता रहे
सूरज उगता रहे और चाँद निकलता रहे

तेरी साँसों में सिमटकर मेरी सुबह निकले
तेरे साए से लिपटकर मैं रात गुजारूँ

इश्क में पुरा डुबो दूँ हँसीन पैकर
हुस्न तेरा निखारूँ और ज्यादा निखारूँ ॥

मगर ये इक तसव्वुर है मेरी जान - जिगर
महज़ एक ख्वाब और ज्यादा कुछ भी नहीं

हहिकत इतनी तल्ख है की क्या बयाँ करूँ
मेरे पास कहने तलक को अल्फाज़ नहीं ।

कहीं पर दुनिया दिलों को नहीं मिलने देती
कहीं पर दरम्यान आती है कौम की बात

कहीं पर अंगुलियाँ उठाते हैं जग के सरमाये
कहीं पर गैर तो कहीं अपने माँ- बाप ॥

कहीं दुनिया अपने ही रंग दिखाती है
कहीं पर सिक्के बढ़ाते हैं और ज्यादा दूरी

कहीं मिलने नहीं देता है और ज़ोर रुतबे का
कहीं दम तोड़ देती है बेबस मजबूरी ॥

अगर इस ख़्वाब का दुनिया को पता चल जाए
ख़्वाब में भी तुझे ये दिल से न मिलने देगी

कदम से कदम मिलकर चलना तो क़यामत
तुझे क़दमों के निशान पे भी न चलने देगी ।

चलो महबूब चलो , उस दुनिया की जानिब चलें
जहाँ न दिन निकलता हो न रात ढलती हो

जहाँ पर ख्वाब हकीकत में बदलते हों
जहाँ पर सोच इंसान की न जहर उगलती हो ।।
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शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

प्रेम से परहेज नहीं है ........कविता ........[आशुतोष ओझा]



प्रेम से परहेज नहीं है
लेकिन
उसके ' नरभक्षी' होने से
डरता हूँ।
देह का अपना प्रमेय है
उसमें अंक नहीं
सिर्फ, रेखायें ही दिखती हैं
उनके उतार-चढ़ाव की कोणदृष्टि
से बनी ' गजगामिनी'
सभी को भाती है
लेकिन,
जांघों के बीच समां जाने को
परिणति नहीं मानता
प्रेम से परहेज नहीं है
लेकिन,
उसके 'नरभक्षी' होने से
डरता हूँ।

गंगा में डुबकी लगाना
मन वचन और कर्म से पावन है
लेकिन
खापों और पंचायतों के सम्मान में
असमय उसमें समा जाने की
' कायरता ' को
प्रेम के लिए परित्याग नहीं मानता
प्रेम से परहेज नहीं है
लेकिन
उसके ' नरभक्षी' होने से
डरता हूँ ।

प्रेम की संकरी गली में
'संत ' बनकर आराधना करना
सौभाग्य है
लेकिन
विरह, वियोग , विछोभ
बेबसी के निश्चित ' प्रसाद ' को
बेहूदा न्याय मानता हूँ।
प्रेम से परहेज नहीं है
लेकिन
उसके' नरभक्षी' होने से डरता हूँ ।।।।


सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर--------[महाकवि गोपालदास नीरज]


उपनाम-नीरज
जन्म स्थान-पुरावली, इटावा, उत्तर प्रदेश, भारत
कुछ प्रमुख-
कृतियाँ-
दर्द दिया है, प्राण गीत, आसावरी, गीत जो गाए नहीं, बादर बरस गयो, दो गीत, नदी किनारे, नीरज की गीतीकाएँ, नीरज की पाती, लहर पुकारे, मुक्तकी, गीत-अगीत, विभावरी, संघर्ष, अंतरध्वनी, बादलों से सलाम लेता हूँ, कुछ दोहे नीरज के
विविध-1991 में पद्म भूषण से सम्मानित
पद्मश्री गोपालदास नीरज जी का आज जन्मदिंन है, इस अवसर पर हिन्दी साहित्य मंच पर एक विशेष प्रस्तुति---

जन्म 8 फरवरी 1926, ग्राम: पुरावली इटावा, उत्तर प्रदेश , कालेज मे अध्यापन, मंच पर कविता-वाचन और चित्रपट के लिये गीत रचना में लोकप्रिय हैं । नीरज जी से हिन्दी संसार अच्छी तरह परिचित है जन समाज की दृष्टि में वह मानव प्रेम के अन्यतम गायक हैं। 'भदन्त आनन्द कौसल्यानन' के शब्दों में उनमें हिन्दी का अश्वघोष बनने की क्षमता है। दिनकर के अनुसार वे हिन्दी की वीणा हैं। अन्य भाषा-भाषियों के विचार में वे 'सन्त-कवि' हैं और कुछ आलोचक उन्हें 'निराश-मृत्युवादी' मानते हैं। वर्तमान समय में सर्वाधिक लोकप्रिय और लाड़ले कवि हैं जिन्होंने अपनी मर्मस्पर्शी काव्यानुभूति तथा सरल भाषा द्वारा हिन्दी कविता को एक नया मोड़ दिया है और बच्चन जी के बाद नयी पीढी को सर्वाधिक प्रभावित किया है। आज अनेक गीतकारों के कण्ठ में उन्हीं की अनुगूँज है।


प्रस्तुत है महाकवि नीरज जी की एक रचना -----


पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर!
वह मुसाफिर क्या जिसे कुछ शूल ही पथ के थका दें?
हौसला वह क्या जिसे कुछ मुश्किलें पीछे हटा दें?
वह प्रगति भी क्या जिसे कुछ रंगिनी कलियाँ तितलियाँ,

मुस्कुराकर गुनगुनाकर ध्येय-पथ, मंजिल भुला दें?
जिन्दगी की राह पर केवल वही पंथी सफल है,
आँधियों में, बिजलियों में जो रहे अविचल मुसाफिर!
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर॥

जानता जब तू कि कुछ भी हो तुझे ब़ढ़ना पड़ेगा,
आँधियों से ही न खुद से भी तुझे लड़ना पड़ेगा,
सामने जब तक पड़ा कर्र्तव्य-पथ तब तक मनुज ओ!
मौत भी आए अगर तो मौत से भिड़ना पड़ेगा,

है अधिक अच्छा यही फिर ग्रंथ पर चल मुस्कुराता,
मुस्कुराती जाए जिससे जिन्दगी असफल मुसाफिर!
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर।

याद रख जो आँधियों के सामने भी मुस्कुराते,
वे समय के पंथ पर पदचिह्न अपने छोड़ जाते,

चिन्ह वे जिनको न धो सकते प्रलय-तूफान घन भी,
मूक रह कर जो सदा भूले हुओं को पथ बताते,
किन्तु जो कुछ मुश्किलें ही देख पीछे लौट पड़ते,
जिन्दगी उनकी उन्हें भी भार ही केवल मुसाफिर!
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर॥

कंटकित यह पंथ भी हो जायगा आसान क्षण में,
पाँव की पीड़ा क्षणिक यदि तू करे अनुभव न मन में,
सृष्टि सुख-दुख क्या हृदय की भावना के रूप हैं दो,
भावना की ही प्रतिध्वनि गूँजती भू, दिशि, गगन में,
एक ऊपर भावना से भी मगर है शक्ति कोई,
भावना भी सामने जिसके विवश व्याकुल मुसाफिर!
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर॥

देख सर पर ही गरजते हैं प्रलय के काल-बादल,
व्याल बन फुफारता है सृष्टि का हरिताभ अंचल,
कंटकों ने छेदकर है कर दिया जर्जर सकल तन,
किन्तु फिर भी डाल पर मुसका रहा वह फूल प्रतिफल,
एक तू है देखकर कुछ शूल ही पथ पर अभी से,
है लुटा बैठा हृदय का धैर्य, साहस बल मुसाफिर!
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर॥


गुरुवार, 11 जून 2009

प्रथम कविता प्रतियोगिता की सर्वश्रष्ठ कविता - पुकार " कवि कुलवंत सिंह जी की "

हिन्दी साहित्य मंच की प्रथम कविता प्रतियोगिता के सफल समापन के पश्चात द्वितीय कविता प्रतियोगिता की घोषणा जल्द ही की जायेगी ।
प्रथम कविता प्रतियोगिता में साहित्य प्रेमियों ने जिस तरह से बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया । वह प्रशंसनीय है । इस कविता प्रतियोगिता में हमें उम्मीद से अधिक रचनाएं प्रप्त हुई । परन्तु दुखद बात यह रही कि कई प्रतिभागियों ने अपनी रचना हिन्दी फांट में नहीं भेजी । जिससे वह रचनाएं अस्वीकार कर दी गयी । अतः आप सभी से अनुरोध है कि अपनी रचना हिन्दी फांट में ही भेजें ।
प्रथम कविता प्रतियोगिता में आयी सभी कविताओं का प्रकाशन हिन्दी साहित्य मंच पर क्रमिक रूप से किया जायेगा । सर्वप्रथम विजेता कविताओं का प्रकाशन किया जा रहा है । प्रथम कविता प्रतियोगिता में प्रथम स्थान पर रही कविता " पुकार " कवि कुलवंत सिंह जी की आज प्रकाशित की जा रही है । इस कविता ने प्रथम चरण में ( 10.70) के साथ सातवें स्थान पर रही । द्वितीय चरण में यह कविता (9.70) अंको के साथ प्रथम स्थान पर रही । (अधिकतम अंक १० थे द्वितीय चरण में ) । और सर्वश्रेष्ठ कविता चुनी गयी ।

जीवन परिचय - कवि कुलवंत सिंह
जन्म - ११ जनवरी , रूड़की , उत्तराखण्ड
शिक्षा- बी.ई ( आई आई टी , रूड़की ) , एमबीए( इग्नू से)
प्रकाशित पुस्तकें -निकुंज( कविता संग्रह), चिरंतन ( कविता संग्रह ), कई प्रमुख पत्रिकाओं में लेख और कविताएं प्रकाशित ।
सम्मान- कवि भूषण सम्मान , अभिव्यक्ति सम्मान २००७, भारत गर्व सम्मान, बाबा अंबेडकर मेडल , दिल्ली ।
रूचियां- मंचीय कार्यक्रम , कवि सम्मेलन, कविता लेखन , इत्यादि ।
व्यवसाय - नौकरी
संपर्क- २ डी , बद्रीनाथ बिल्डिंग, अनुशक्ति नगर,मुंबई -४००९४
ई-मेल - singhkw@barc.gov.in / kavi.kulwant@gmail.com

पुकार - सर्वश्रेष्ठ कविता

सहिष्णुता की वह धार बनो
पाषाण हृदय पिघला दे ।
पावन गंगा बन धार बहो
मन निर्मल उज्ज्वल कर दे ।
कर्मभूमि की वह आग बनो
चट्टानों को वाष्प बना दे ।
धरती सा तुम धैर्य धरो
शोणित दीनों को प्रश्रय दे ।
ऊर्जित अपार सूर्य सा दमको
जग में जगमग ज्योति जला दे ।
पावक बन ज्वाला सा दहको
कर दमन दाह कंचन निखरा दे ।
अति तीक्ष्ण धार तलवार बनो
भूपों को भयकंपित रख दे ।

पीर फकीरों की दुआ बनों
हर दरिद्र का दर्द मिटा दे ।
शौर्य पौरुष सा दिखला दो
दमन दबी कराह मिटा दे ।

अंबर में खीचित तड़ित बनो
जला जुल्मी को राख कर दे ।
सिंहों सी गूंज दहाड़ बनो
अन्याय धरा पर होने न दे ।

बन रुधिर शिरा मृत्युंजय बहो
अन्याय धरा पर होने न दे ।
अपमान गरल प्रतिकार करो
आर्त्तनाद कहीं होने न दे ।

बन प्रलय स्वर हुंकार भरो
शासक को शासन सिखला दे ।
पद दलितों की आवाज बनो
मूकों का चिर मौन मिटा दे ।

कर असि धर विषधर नाश करो
सत्य न्याय सर्वत्र समा दे ।
सृष्टि सृजन का साध्य बनो
विहगों को आकाश दिला दे ।
बन शीतल मलय बहार बहो
हर जीवन को सुरभित कर दे ।

गुरुवार, 28 मई 2009

मेरी दीवानगी [ गज़ल ] - मुस्तकीम खान


नाम- मुस्तकीम खान
शिक्षा-स्नातक( बी.काम) , परास्नातक ( मास्टर आफ आर्ट एण्ड मास कम्युनिकेशन ) , माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय , नोएडा कैंपस,
जन्म- २९ मार्च १९८८ , आगरा , उत्तर प्रदेश ।
रूचि- गज़ल, गीत लेखन ,गायन ।
संपर्क- मुस्तफा क्वाटर्स , आगरा कैंट, आगरा ।
मो- ०९९९०८४०३३९ .




मेरी दीवानगी




मुझको किसी से नफरत नहीं है ,
इतना आवार हूँ कि फुर्सत नहीं है ।
प्यार की कुर्बानी गिना रहे हो,,
कहते क्यूँ नहीं कि हिम्मत नहीं है ।।

हुस्न के बाजार मे दिल का ये हाल है,
हीरा है फिर भी कोई कीमत नहीं है।
छुपाती हैं आँखें कई गम अपने अंदर,,
खुशी किसी चेहरे की हकीकत नहीं है।

कह तो दिया तुम दोस्त हो अच्छे,
वो और कैसे कहें कि मोहब्बत नहीं है ।

रविवार, 17 मई 2009

विजय कुमार सप्पत्ति जी पांच रचनाएं [आमंत्रित कवि ]


कवि परिचय -
विजय कुमार सप्पत्ति जी हैदराबाद में रहते हैं । वर्तमान समय में एक कंपनी में Sr.GM- Marketing के पद पर कार्यरत हैं । साहित्य से बहेद लगाव है आपका । अबतक करीब २५० कवितायें, नज्में , गज़लें लिखी है आपने । पत्राचार सपंर्क हेतु -
V I J A Y K U M A R S A P P A T T I
FLAT NO.402, FIFTH FLOOR,
PRAMILA RESIDENCY; HOUSE NO. 36-110/402,
DEFENCE COLONY, SAINIKPURI POST,
SECUNDERABAD- 500 094 [A.P.]
Mobile no : +91 9849746500
email ID : vksappatti@rediffmail.com


सिलवटों की सिहरन



अक्सर तेरा साया


एक अनजानी धुंध से चुपचाप चला आता है


और मेरी मन की चादर में सिलवटे बना जाता है …..


मेरे हाथ ,


मेरे दिल की तरह कांपते है , जब मैं


उन सिलवटों को अपने भीतर समेटती हूँ …..


तेरा साया मुस्कराता है और मुझे उस जगह छु जाता है


जहाँ तुमने कई बरस पहले मुझे छुआ था ,


मैं सिहर सिहर जाती हूँ ,कोई अजनबी बनकर तुम आते हो


और मेरी खामोशी को आग लगा जाते हो …


तेरे जिस्म का एहसास मेरे चादरों में धीमे धीमे उतरता है


मैं चादरें तो धो लेती हूँ पर मन को कैसे धो लूँ


कई जनम जी लेती हूँ तुझे भुलाने में ,


पर तेरी मुस्कराहट ,


जाने कैसे बहती चली आती है ,


जाने, मुझ पर कैसी बेहोशी सी बिछा जाती है …..


कोई पीर पैगम्बर मुझे तेरा पता बता दे ,


कोई माझी ,तेरे किनारे मुझे ले जाए ,


कोई देवता तुझे फिर मेरी मोहब्बत बना दे.......


या तो तू यहाँ आजा ,


या मुझे वहां बुला ले......


मैंने अपने घर के दरवाजे खुले रख छोडे है ........





मौनता



मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,


जिसे सब समझ सके ,


ऐसी परिभाषा देना ;


मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना.



मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,

ताकि ,

मैं अपने शब्दों को एकत्रित कर सकूँ


अपने मौन आक्रोश को निशांत दे सकूँ,


मेरी कविता स्वीकार कर मुझमे प्राण फूँक देना


मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,



मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,


ताकि मैं अपनी अभिव्यक्ति को जता सकूँ


इस जग को अपनी उपस्तिथि के बारे में बता सकूँ



मेरी इस अन्तिम उद्ध्ङ्तां को क्षमा कर देना


मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,



मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,


ताकि ,मैं अपना प्रणय निवेदन कर सकूँ


अपनी प्रिये को समर्पित , अपना अंतर्मन कर सकूँ


मेरे नीरस जीवन में आशा का संचार कर देना


मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,



मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,


ताकि ,मैं मुझमे जीवन की अनुभूति कर सकूँ


स्वंय को अन्तिम दिशा में चलने पर बाध्य कर सकूँ


मेरे गूंगे स्वरों को एक मौन राग दे देना


मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,





मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,


ताकि मुझमे मौजूद हाहाकार को शान्ति दे सकूँ


मेरी नपुसंकता को पौरुषता का वर दे सकूँ


मेरी कायरता को स्वीकृति प्रदान कर देना


मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,



मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,


ताकि मैं अपने निकट के एकांत को दूर कर सकूँ


अपने खामोश अस्तित्व में कोलाहल भर सकूँ


बस, जीवन से मेरा परिचय करवा देना


मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,



मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,


ताकि , मैं स्वंय से चलते संघर्ष को विजय दे सकूँ


अपने करीब मौजूद अन्धकार को एकाधिकार दे सकूँ


मृत्यु से मेरा अन्तिम आलिंगन करवा देना


मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,



मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,


जिसे सब समझ सके , ऐसी परिभाषा देना ;


मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना….




परायों के घर


कल रात दिल के दरवाजे पर दस्तक हुई ;


नींद की आंखो से देखा तो ,


तुम थी ,


मुझसे मेरी नज्में मांग रही थी,


उन नज्मों को, जिन्हें संभाल रखा था , मैंने तुम्हारे लिए ,


एक उम्र भर के लिए ...


आज कही खो गई थी , वक्त के धूल भरे रास्तों में ......


शायद उन्ही रास्तों में ..


जिन पर चल कर तुम यहाँ आई हो....


क्या किसी ने तुम्हे बताया नही कि,


परायों के घर भीगी आंखों से नही जाते.....




आंसू



उस दिन जब मैंने तुम्हारा हाथ पकड़ा ,


तो तुमने कहा..... नही..


और चंद आंसू जो तुम्हारी आँखों से गिरे..


उन्होंने भी कुछ नही कहा... तो नही ... तो हाँ ..


अगर आंसुओं कि जुबान होती तो ..


सच झूठ का पता चल जाता ..


जिंदगी बड़ी है .. या प्यार ..


इसका फैसला हो जाता...




दर्द



जो दर्द तुमने मुझे दिए ,


वो अब तक संभाले हुए है !!


कुछ तेरी खुशियाँ बन गई है


कुछ मेरे गम बन गए है


कुछ तेरी जिंदगी बन गई है


कुछ मेरी मौत बन गई है


जो दर्द तुमने मुझे दिए ,


वो अब तक संभाले हुए है !!

शुक्रवार, 1 मई 2009

मजदूर (श्रमिक दिवस पर विशेष)

जब भी देखता हूँ
किसी महल या मंदिर को
ढूँढने लगता हूँ अनायास ही
उसको बनाने वाले का नाम
पुरातत्व विभाग के बोर्ड को
बारीकी से पढ़ता हूँ
टूरिस्टों की तीमारदारी कर रहे
गाइड से पूछता हूँ
आस-पास के लोगों से भी पूछता हूँ
शायद कोई सुराग मिले
पर हमेशा ही मिला
उन शासकों का नाम
जिनके काल में निर्माण हुआ
लेकिन कभी नहीं मिला
उस मजदूर का नाम
जिसने खड़ी की थी
उस मंदिर या महल की नींव
जिसने शासकों की बेगारी कर
इतना भव्य रूप दिया
जिसकी न जाने कितनी पीढ़ियाँ
ऐसे ही जुटी रहीं महल व मंदिर बनाने में
लेकिन मेरा संघर्ष जारी है
किसी ऐसे मंदिर या महल की तलाश में
जिस पर लिखा हो
उस मजदूर का नाम
जिसने दी उसे इतनी भव्यता !!!
कृष्ण कुमार यादव
भारत सरकार की सिविल सेवा में अधिकारी होने के साथ-साथ हिंदी साहित्य में भी जबरदस्त दखलंदाजी रखने वाले बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी कृष्ण कुमार यादव का जन्म १० अगस्त १९७७ को तहबरपुर आज़मगढ़ (उ. प्र.) में हुआ. जवाहर नवोदय विद्यालय जीयनपुर-आज़मगढ़ एवं तत्पश्चात इलाहाबाद विश्वविद्यालय से १९९९ में आप राजनीति-शास्त्र में परास्नातक उपाधि प्राप्त हैं. समकालीन हिंदी साहित्य में नया ज्ञानोदय, कादम्बिनी, सरिता, नवनीत, आजकल, वर्तमान साहित्य, उत्तर प्रदेश, अकार, लोकायत, गोलकोण्डा दर्पण, उन्नयन, दैनिक जागरण, अमर उजाला, राष्ट्रीय सहारा, आज, द सण्डे इण्डियन, इण्डिया न्यूज, अक्षर पर्व, युग तेवर इत्यादि सहित 200 से ज्यादा पत्र-पत्रिकाओं व सृजनगाथा, अनुभूति, अभिव्यक्ति, साहित्यकुंज, साहित्यशिल्पी, रचनाकार, लिटरेचर इंडिया, हिंदीनेस्ट, कलायन इत्यादि वेब-पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में रचनाओं का प्रकाशन. अब तक एक काव्य-संकलन "अभिलाषा" सहित दो निबंध-संकलन "अभिव्यक्तियों के बहाने" तथा "अनुभूतियाँ और विमर्श" एवं एक संपादित कृति "क्रांति-यज्ञ" का प्रकाशन. बाल कविताओं एवं कहानियों के संकलन प्रकाशन हेतु प्रेस में. व्यक्तित्व-कृतित्व पर "बाल साहित्य समीक्षा" व "गुफ्तगू" पत्रिकाओं द्वारा विशेषांक जारी. शोधार्थियों हेतु आपके व्यक्तित्व-कृतित्व पर एक पुस्तक "बढ़ते चरण शिखर की ओर : कृष्ण कुमार यादव" शीघ्र प्रकाश्य. आकाशवाणी पर कविताओं के प्रसारण के साथ दो दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित काव्य-संकलनों में कवितायेँ प्रकाशित. विभिन्न प्रतिष्ठित सामाजिक-साहित्यिक संस्थाओं द्वारा समय-समय पर सम्मानित. अभिरुचियों में रचनात्मक लेखन-अध्ययन-चिंतन के साथ-साथ फिलाटेली, पर्यटन व नेट-सर्फिंग भी शामिल. बकौल साहित्य मर्मज्ञ एवं पद्मभूषण गोपाल दास 'नीरज'- " कृष्ण कुमार यादव यद्यपि एक उच्चपदस्थ सरकारी अधिकारी हैं, किन्तु फिर भी उनके भीतर जो एक सहज कवि है वह उन्हें एक श्रेष्ठ रचनाकार के रूप में प्रस्तुत करने के लिए निरंतर बेचैन रहता है. उनमें बुद्धि और हृदय का एक अपूर्व संतुलन है. वो व्यक्तिनिष्ठ नहीं समाजनिष्ठ साहित्यकार हैं जो वर्तमान परिवेश की विद्रूपताओं, विसंगतियों, षड्यंत्रों और पाखंडों का बड़ी मार्मिकता के साथ उदघाटन करते हैं."सम्प्रति/सम्पर्क: कृष्ण कुमार यादव, भारतीय डाक सेवा, वरिष्ठ डाक अधीक्षक, कानपुर मण्डल, कानपुर

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

जागरण [लघुकथा]-कुमारेन्द्र सिंह सेंगर



कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - आपका जन्म जनपद-जालौन, 0प्र0 के नगर उरई में वर्ष 1973 में जन्म। प्रारम्भिक शिक्षा उरई में तथा उच्च शिक्षा भी उरई में सम्पन्न हुई। लेखन की शुरुआत वर्ष 1882-83 में एक कविता (प्रकाशित) के साथ हुई और तबसे निरंतर लेखन कार्य में लगे हैं। हिन्दी भाषा के प्रति विशेष लगाव ने विज्ञान स्नातक होने के बाद भी हिन्दी साहित्य से परास्नातक और हिन्दी साहित्य में ही पी-एच0डी0 डिग्री प्राप्त की।लेखन कार्य के साथ-साथ पत्रकारिता में भी थोड़ा बहुत हस्तक्षेप हो जाता है। वर्तमान तक देश की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। रचनाओं में विशेष रूप से कविता, ग़ज़ल, कहानी, लघुकथा, आलेख प्रिय हैं। महाविद्यालयीन अध्यापन कार्य से जुड़ने के बाद लेखन को शोध-आलेखों की ओर भी मोड़ा। अभी तक एक कविता संग्रह (हर शब्द कुछ कहता है), एक कहानी संग्रह (अधूरे सफर का सच), शोध संग्रह (वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यासों में सौन्दर्य बोध) सहित कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।

युवा आलोचक, सम्पादक श्री, हिन्दी सेवी, युवा कहानीकार का सम्मान प्राप्त डा0 सेंगर सामाजिक संस्थादीपशिखा’, शोध संस्थासमाज अध्ययन केन्द्रतथापी-एच0 डी0 होल्डर्स एसोसिएशनके साथ-साथ जन-सूचना अधिकार का राष्ट्रीय अभियान का संचालन।सम्प्रति एक साहित्यिक पत्रिकास्पंदनका सम्पादन कार्य कर रहे हैं। एक शोध-पत्रिका का भी सम्पादन किया जा रहा है।
इंटरनेट पर लेखन की शुरुआत ब्लाग के माध्यम से हुई। अपने ब्लाग के अतिरिक्त कई अन्य ब्लाग की सदस्यता लेकर वहाँ भी लेखन चल रहा है। शीघ्र ही एक इंटरनेट पत्रिका का संचालन करने की योजना है।

सम्पर्क- 110 रामनगर, सत्कार के पास, उरई (जालौन) 0प्र0 285001
फोन - 05162-250011, 256242, 9415187965, 9793973686


जागरण

वह अपनी पूरी ताकत से
, अपनी पूरी शक्ति लगा कर सड़क पर दौड़ी चली जा रही थी। सीने से अपनी नन्हीं बच्ची को दोनों हाथों के घेरे में छिपाये बार-बार पीछे मुड़ कर भी देखती जाती थी। दो-चार की संख्या में उसके पीछे पड़े लोग उसकी बच्ची को छीन कर मारना चाह रहे थे। तभी अचानक वह एक ठोकर खाकर सड़क पर गिर पड़ी, बच्ची उसकी बाँहों के सुरक्षित घेरे से छिटक कर सड़क पर जा गिरती है। इससे पहले कि वह उठ कर अपनी बच्ची को उठा पाती, एक तेज रफ्तार से दौड़ती हुई कार ने समूची सड़क को बच्ची के खून और लोथड़े से भर दिया। उसकी चीख ने समूचे वातावरण को हिला दिया।
‘‘क्या हुआ?’’ उसकी चीख सुन कर साथ में सो रहे उसके पति ने उसको सहारा देते हुए पूछा। तेज चलती अनियंत्रित सांसों पर किसी तरह नियंत्रण कर उसके मुँह से बस इतना ही निकला-‘‘मैं अपनी बच्ची की हत्या नहीं होने दूँगी।’’ पति ने उसकी हथेलियों को अपने हाथों में लेकर थपथपाते हुए उसे दिलासा दी। वह मातृत्व भाव समेट कर अपने पेट पर हाथ फेर कर कोख में पल रही बच्ची को दुलार करने लगी।