एक मौन, शाश्वत मौन, तोड़ने की कोशिश में और बिखर-बिखर जाता मौन। कितना आसान लगता है कभी-कभी एक कदम उठाना और फिर उसे वापस रखना, और कभी-कभी कितना ही मुश्किल सा लगता है एक कदम उठाना भी। डरना अपने आपसे और चल देना डर को मिटाने, कहीं हो न जाये कुछ अलग, कहीं हो जाये न कुछ विलग। अपने को अपने में समेटना, अपने को अपने में सहेजना, भागना अपने से दूर, देखना अपने को मजबूर, क्यों....क्यों....क्यों??? कौन देगा इन प्रश्नों के जवाब? फिर पसर सा जाता है वही मौन... वही मौन... जैसे कुछ हुआ ही न हो, जैसे कुछ घटा ही न हो। ----------------------किसी भी गलत को होता देखने...