हमारा प्रयास हिंदी विकास आइये हमारे साथ हिंदी साहित्य मंच पर ..

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

शाश्वत मौन ==== कविता=== डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

एक मौन, शाश्वत मौन, तोड़ने की कोशिश में और बिखर-बिखर जाता मौन। कितना आसान लगता है कभी-कभी एक कदम उठाना और फिर उसे वापस रखना, और कभी-कभी कितना ही मुश्किल सा लगता है एक कदम उठाना भी। डरना अपने आपसे और चल देना डर को मिटाने, कहीं हो न जाये कुछ अलग, कहीं हो जाये न कुछ विलग। अपने को अपने में समेटना, अपने को अपने में सहेजना, भागना अपने से दूर, देखना अपने को मजबूर, क्यों....क्यों....क्यों??? कौन देगा इन प्रश्नों के जवाब? फिर पसर सा जाता है वही मौन... वही मौन... जैसे कुछ हुआ ही न हो, जैसे कुछ घटा ही न हो। ----------------------किसी भी गलत को होता देखने...

"जीवन तो है क्षण भंगुर"-------[कविता]-------कुसुम ठाकुर

बिछड़ कर ही समझ आता, क्या है मोल साथी का ।जब तक साथ रहे उसका, क्यों अनमोल न उसे समझें ।अच्छाइयाँ अगर धर्म है, क्यों गल्तियों पर उठे उँगली ।सराहने मे अहँ आड़े, अनिच्छा क्यों सुझाएँ हम ।ज्यों अहँ को गहन न होने दें, तो परिलक्षित होवे क्यों ।क्यों साथी के हर एक इच्छा, को मृदुल-इच्छा न समझे हम ।सामंजस्य की कमी जो नहीं, कटुता का स्थान भी न हो ।कहने को नेह बहुत, तो फ़िर क्यों न वारे हम ।खुशियों को सहेजें तो, आपस का नेह अक्षुण क्यों न हो ।दुःख भी तो रहे न सदा, आपस मे न बाटें क्यों ।समर्पण को लगा लें गले, क्यों अधिकार न त्याजे हम ।यह जीवन तो क्षण भंगुर,...