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सोमवार, 16 मार्च 2009

ईमानदारी का पुरूस्कार

एक बड़े व्यापारिक संस्थान की शाखा का कार्यालय पास ही के उपनगर में था जहां कार्यालय में एक कर्मचारी ओटो रिक्शा से आता था। उसे दैनिक भत्ते के सिवाय ओटो का भाड़ा भी दिया जाता था। भाड़ा चालीस रूपए के आस-पास बनता था। मगर कर्मचारियों ने परस्पर तय कर लिया था। जो भी आये-जाये वह खर्च का सौ रूपये का ही वाउचर बनाएगा। बाकी बचा रूपया अपनी जेब के हवाले कर देगा। इसमें वाउचर मंजूर करने वाले अधिकारी का भी प्रतिशत बंधा था। कर्मचारी और अधिकारी की सांठ-गांठ थी।ये समझो क उन लोगों की दसों उंगलियॉं घी में और सिर कढ़ाई में था.हर तीन माह बाद यह डयूटी बदलती रहती थी। थोडे...

ऊँचे दृष्टिकोण (डॉ.रुपचन्द्र शास्त्री मयंक)

भूल चुके हैं आज सब, ऊंचे दृष्टिकोण, दृष्टि तो अब खो गयी, शेष रह गया कोण। शेष रह गया कोण, स्वार्थ में सब हैं अन्धे, सब रखते यह चाह, मात्र ऊँचे हो धन्घे। कह मयंक उपवन में, सिर्फ बबूल उगे हैं, सभी पुरातन आदर्शो को, भूल चुके ह...

मूछ वाणी । (कुण्डलियाँ छन्द में कुछ पुरानी रचनाऐं) (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री मयंक)

(१)आभूषण हैं वदन का, रक्खो मूछ सँवार,बिना मूछ के मर्द का, जीवन है बेकार।जीवन है बेकार, शिखण्डी जैसा लगता,मूछदार राणा प्रताप, ही अच्छा दिखता,कह ‘मंयक’ मूछों वाले, ही थे खरदूषण ,सत्य वचन है मूछ, मर्द का है आभूषण। (२)पाकर मूछें धन्य हैं, वन के राजा शेर,खग-मृग सारे काँपते, भालू और बटेर।भालू और बटेर, केसरि नही कहलाते,भगतसिंह, आजाद मान, जन-जन में पाते।कह ‘मयंक’ मूछों से रौब जमाओ सब पर,रावण धन्य हुआ जग में, मूछों को पा कर। (३) मूछें बिकती देख कर, हर्षित हुआ ‘मयंक’,सोचा-मूछों के बिना, चेहरा लगता रंक।चेहरा लगता रंक, खरीदी तुरन्त हाट से,ऐंठ-मैठ कर चला, रौब...