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शनिवार, 12 जून 2010

अस्तित्व....................(कविता)...................... सुमन 'मीत'

दी मैनें दस्तक जब इस जहाँ मेंकई ख्वाइशें पलती थी मन के गावं मेंसोचा था कुछ करके जाऊंगीजहाँ को कुछ बनकर दिखलाऊंगीबचपन बदला जवानी ने ली अंगड़ाईजिन्दगी ने तब अपनी तस्वीर दिखाईमन पर पड़ने लगी अब बेड़ियांरिश्तों में होने लगी अठखेलियांजुड़ गए कुछ नव बन्धनमन करता रहा स्पन्दनबनी पत्नि बहू और माँअर्पित कर दिया अपना जहाँ भूली अपने अस्तित्व की चाहकर्तव्य की पकड़ ली राहरिश्तों की ये भूल भूलैयाबनती रही सबकी खेवैयाफिसलता रहा वक्त का पैमानान रुका कोई चलता रहा जमाना चलती रही जिन्दगी नए पगपकने लगी स्याही केशों की अबहर रिश्ते में आ गई है दूरीजीना बन गया है...