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रविवार, 23 मई 2010

--प्रेम काव्य--प्रेम परक अनुपम काव्य संग्रह

(---पुस्तक --प्रेम काव्य , रचनाकार- डा श्याम गुप्त, प्रकाशक-- प्रतिष्ठा साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्था, आलम बाग़ , लखनऊ , समीक्षक --श्री विनोद चन्द्र पाण्डेय 'विनोद' IAS , पूर्व निदेशक, हिन्दी संस्थान ,लखनऊ, उ. प्र.)

  उत्तर रेलवे चिकित्सालय लखनऊ में वरिष्ठ चिकित्सा अधीक्षक पद से सेवा-निवृत्त डा श्याम गुप्त हिन्दी के लब्ध-प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं | विशेष रूप से काव्य-विधा में उनका महत्वपूर्ण योगदान रेखांकित करने योग्य है | उनकी अनेक काव्य कृतियों का प्रकाशन हो चुका है | इसी श्रृंखला में 'प्रेम काव्य' की प्रस्तुति स्वागत योग्य है |
  मानव जीवन में प्रेम का अत्यधिक महत्त्व है | प्रेम जहां मानवता को एक सूत्र में आबद्ध करता है वहीं जन जन को प्रेरणा प्रदान करता है | प्रेम के अनेक रूपों का मानव मन पर अलग-अलग प्रभाव परिलक्षित होता है | संयोग और वियोग -प्रेम के दो प्रमुख पक्ष हैं | प्रेम की अनेक स्थितियां भी मानव को प्रभावित करतीं हैं , जिससे सुख-दुःख, ईर्ष्या-वेदना,प्रतिस्पर्धा आदि भावों की अनुभूति मानव मन को होती है | प्रेम काव्य में कविवर डा श्याम गुप्त द्वारा रचित प्रेमाधारित गीतों और कविताओं का संग्रह किया गया है | इसमे प्रेम के विविध रूप दृष्टव्य हैं | रचना वस्तुतः गीति विधा महाकाव्य है |
  प्रेम काव्य के अंतर्गत स्वयं कवि ने 'प्रेम काव्य' के रचना विधान के सम्बन्ध में युक्तिसंगत उदगार इस प्रकार अभिव्यक्त किये हैं--"सृष्टि,जीवन, जगत,सत्य, अहिंसा, दर्शन , धर, अध्यात्म , आत्म तत्त्व, अमृतत्व, ईश्वर, ब्रह्म सब प्रेम के ही रूप हैं | आदि इच्छा, ईषत इच्छा, -परमात्मा का आदि प्रेम भाव ही है जो चराचर की उत्पत्ति का कारण-मूल है उसी प्रेम को नमन ही प्रेम की पराकाष्ठा है , पराकाष्ठा स्वयं प्रेम है | उसी प्रेम के प्रेम में नत होकर, रत होकर ही इस 'प्रेम काव्य' की रचना होसकी है जो ईश्वर के मानव के प्रति प्रेम के विना संभव नहीं है |" कवि के इस कथन की यथार्थता 'प्रेम काव्य' कृति स्वयं प्रमाणित करती है |  
  प्रेम काव्य, जिसे गीति -विधा महाकाव्य की संज्ञा दी गयी है , में एकादश सुमनान्जलियाँ हैं जिनके शीर्षकों को अलग अलग नामों में अभिहित किया गया है | इस महाकाव्य का नायक कोई मूर्त व्यक्तित्व नहीं है अपितु मनोभाव " प्रेम " ही नायकत्व की भूमिका का निर्वाह करता है |
  मंगलाचरण से महाकाव्य के शुभारम्भ के नियम का अनुपालन भी कवि द्वारा किया गया है| भाव पक्ष पुष्ट और सबल है | कावी-कृति भाव संपदा से समृद्ध व सुसंपन्न है | यथार्थ , दर्शन, एवं 
अध्यात्म की त्रिवेणी प्रवाहित होने से रचना स्वयमेव उदात्त और उत्कृष्ट होगई है | कविवर श्याम गुप्त ने प्रेम के समस्त पक्षों का गहन अध्ययन, अनुशीलन एवं अनुभव किया है; अतः अनुभूति की यथार्थता और अभिव्यक्ति की कुशलता यत्र तत्र सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है | असार संसार में रचनाकार ने प्रेम को ही सर्व सुख का सार स्वीकार किया है---
  " इस संसार असार में , श्याम प्रेम ही सार |
  प्रेम करे दोनों मिलें , ज्ञान और संसार || "  
कवि ने प्रेम को साकार मोक्ष माना है -----"प्रेम सभी से कीजिये ,सकल शास्त्र का सार |
  ब्रह्मानंद मिले उसे , श्याम' मोक्ष साकार || "
  प्रेम काव्य की भाषा परिष्कृत , प्रांजल, परिनिष्ठित एवं संस्कृत- निष्ठ है | पाठकों को भावानुकूल श्रेष्ठ भाषा अवश्य ही प्रभावित करेगी और प्रेरित करेगी | कवि की वर्णन कुशलता भी उल्लेखनीय है | प्रकृति और वातावरण का चित्रण मनोरम है | बसंत, ग्रीष्म, पावस, शरद, हेमंत और शिशिर ऋतुओं का वर्णन बड़े मनोयोग से किया गया है | प्रकृति और पुरुष का तादाम्य भी ऋतु- वर्णन की प्रमुख विशेषता है |
  ' प्रेम काव्य' का सृजन विविध छंदों में किया गया है | अलग अलग मात्राओं के अलग अलग छंदों का चयन , कवि के छंद-ज्ञान का परिचायक है | गुप्तजी छंदोबद्ध कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं |
अतः उनके छंद प्रवाह- पूर्ण एवं गति यति युक्त हैं |
  काव्य कृति में प्रेम के मूल तत्व के निरूपण के कारण श्रृंगार रस की प्रधानता है , किन्तु वात्सल्य,करुणा एवं शांत रस का आभास और परिपाक भी दृष्टव्य है |यत्र तत्र अलंकारों की छटा काव्य को कमनीयता प्रदान करती है | मुख्य रूप से अनुप्रास, उपमा,उत्प्रेक्षा,आदि अलंकारों का प्रयोग अवलोकनीय है|
  प्रेम के महत्त्व को प्रतिपादित करने में कवि को पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है | इसप्रकार उद्देश्य की दृष्टि से भी यह गीति विधा महाकाव्य " प्रेम काव्य " अपनी सार्थकता सिद्ध करता है |

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

तुम इतने समीप आओगे मैंन कभी नहीं सोचा था......- डा. बुद्धिनाथ मिश्र


मधेपुरा की ऐतिहासिक साहित्यिक परम्परा को सम्वर्द्धित करते हुए बी. एन मंडल विश्वविधालय, मधेपुरा के वर्तमान कुलपति डा. आर. पी. श्रीवास्तव के सद्प्रयास से विश्वविधालय के सभागार में काव्य संध्या का एक महत्वपूर्ण आयोजन किया गया। विश्वविधालय स्थापना के 17 वर्षों में यह पहला मौका था जब साहित्य की एक महत्वपूर्ण विधा (कविता) पर रचनाकारों का इस तरह भव्य समागम हुआ। विशिष्ठ अतिथि एवं गीतकाव्य के शिखर पुरुष डा. बुद्धिनाथ मिश्र (देहरादून) सहित अन्य कवियों को श्रोताओं ने जी भर सुना। कवियों में डा. रवीन्द्र कुमार ‘रवि’, डा. कविता वर्मा, डा.पूनम सिंह, रमेश ऋतंभर (मुजफ्फरपुर) डा. रेणु सिंह, डा. एहसान शाम, रेयाज बानो फातमी, (सहरसा) डा. विनय चौधरी, अरविन्द श्रीवास्तव (मधेपुरा) ने काव्य पाठ किया। डा. बुद्धिनाथ मिश्र ने एक मुक्तक से काव्य पाठ आरम्भ किया - राग लाया हूँ, रंग लाया हूँ, गीत गाती उमंग लाया हूँ। मन के मंदिर मे आपकी खातिर, प्यार का जलतरंग लाया हूँ।  

डा. मिश्र ने अपने कई गीतों का सस्वर पाठ किया, देखें कुछ की बानगी-

नदिया के पार जब दिया टिमटिमाए
अपनी कसम मुझे तुम्हारी याद आये.....

मोर के पाँव ही न देख तू
मोर के पंख भी तो देख 
शूल भी फूल हैं बस इक नजर
गौर से जिन्दगी तो देख.....

एक बार और जाल फेंक रे मछेरे 
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो.......

तुम इतने समीप आओगे मैंन कभी नहीं सोचा था......

 काव्य संध्या की अध्यक्षता करते हुए डा. रिपुसूदन श्रीवास्तव ने कविता को मानव हृदय का स्पंदन कहा। उन्होंने अपनी कविता कुछ इस तरह सुनायी-

जंग, धुआं, गम के साये में जैसे-तैसे रात ढ.ली
एक कली चटकी गुलाब की, सुबह जो तेरी बात चली........।

 इस अवसर पर प्रकृति भी मेहरबान दिखी, बारिश की हल्की फुहार के साथ इस यादगार काव्य संध्या का समापन हुआ।

आभार ....जन्शब्द 

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

समीक्षा—— कृति --शूर्पणखा-----


समीक्षा—— कृति --शूर्पणखा -(अगीत विधा- खंड काव्य), रचयिता—डा श्याम गुप्त-

समीक्षक---मधुकर अस्थाना, प्रकाशन—सुषमा प्रकाशन , आशियाना एवम

अखिल भारतीय अगीत परिषद, लखनऊ, मूल्य-७५/=



नारी विमर्श का खन्ड-काव्य : शूर्पणखा

समकालीन साहित्य में नारी-विमर्श बहुत महत्वपूर्ण होगया है, इस सम्बन्ध में विभिन्न विधाओं में पर्याप्त सृजन किया जा रहा है, जिसमें नारी स्वतन्त्रता, समानता के साथ ही उसका मनोविश्लेषण भी प्रस्तुत करने का भरपूर प्रयास किया जारहा है। वस्तुतः विश्व की आधी जनसंख्या होने के बावज़ूद नारी को पुरुषों की भांति स्वाधीनता प्राप्त नही है और उसका हर प्रकार से शोषण किया जारहा है।नारी समुदाय का ७५% प्रतिशतशिक्षा व अज्ञान के अंधेरे में जीने को विवश है। नारियों को उचित प्रतिनिधित्व देने के सम्बन्ध में अभी तक संसद में भी कोई कानून व नियम नहीं बन सका है। विदेशों में जहां विकास उत्कर्ष पर है ,वहां परिवार टूट रहे हैं, परिवार विघटन पर हैं, जनसंख्या मे असंतुलन बढ रहा है। इन परिस्थितियों में डा.श्याम गुप्त का यह खन्ड काव्य “शूर्पणखा” अत्यंत महत्वपूर्ण होजाता है। इस कृति के माध्यम से उन्होंने अनेक एसे प्रश्न उठाये हैं जो विघटन कारी हैं एवम उनके समाधान को खोजने का भी प्रयास किया है। डा गुप्त ने इस खन्ड काव्य मे उन्मुक्त एवं उच्छ्रन्खल नारी तथा भारतीय संस्कृति -सभ्यता के अनुरूप आदर्श नारी का भी विशद वर्णन किया है जो समाज़ को उचित दिशा देने में समर्थ है।

सहज़ सरल प्रवाहपूर्ण प्रसाद-गुण संपन्न, संप्रेषणीय भाषा, नवीनतम शिल्पविधान-- संस्कृत के वर्णवृत्त छंदों के समान छ: पंक्तियों में कथ्य की निबद्धता आदि पाठकों को प्रत्येक द्रष्टि से नूतनता का परिचय देती है। रचनाकार ने इस काव्य में अपनी मौलिकता सूझ-बूझ का उपयोग करते हुए अपनी भाषा,शिल्प, कथ्य व शैली का स्वयं विकास किया है जिसे किसी विशेष विधा से जोडना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। भारतीय संस्कृति -सभ्यता से नहाया हुआ डा गुप्त का अन्तर्मन –पुरुष व नारी दोनों की गरिमा पर ध्यान देते हुए एसा मध्य मार्ग चिन्हित करता है जो भारतीय परिस्थिति के तो सर्वथा अनुकूल है ही, यदि पूरे विश्व में इसका समुचित प्रचार-प्रसार होजाये तो उसकी तीन-चौथाई समस्याओं का समाधान होजाये ।यद्यपि डा श्याम गुप्त ने आजीविका के लिये शल्यक के पद पर कार्य किया एवम रेलवे से वरिष्ठ चिकित्सा अधीक्षक पद से सेवा निवृत्त हुए किन्तु भारतीय संस्कृति व साहित्य में विशेष अभिरुचि के कारण निरंतर अध्ययनशील रहे । वे अनेक साहित्यिक संस्थाओं के केन्द्र बिन्दु हैं,

२.

हिन्दी साहित्य में प्रचलित लगभग समस्त विधाओं में वे सिद्धहस्त लेखन में संलग्न हैं। सेवा निवृत्ति के उपरान्त अल्पकाल में हे उन्होंने हिन्दी जगत में चर्चित स्थान बना लिया है। स्वाध्याय को समर्पित उनके द्वारा प्रस्तुत स्थापनाएं, आम आदमी का मार्ग प्रशस्त करती हैं, उनके

विचार से समाज़ में विश्रन्खलता व विघटन का मूल कारण मानव मन में नैतिक बल का अभाव है। अति भौतिकता,महत्वाकांक्षा, के सम्मुख नैतिकता, सामाज़िकता, धर्म, अध्यात्म, व्यवहारिक शुचिता, धैर्य, समानता, संतोष, अनुशासन आदि मानवीय गुणों का संतुलन समाप्त होजाता है। डा गुप्त के अनुसार शास्त्रकारों ने कहा है—

“आपदां कथितः पन्था इन्द्रियाणामसंयमः।

तज्जय: संपदां मार्गो येनेष्ट तेन गम्यताम ॥“

अर्थात इन्द्रिय असंयम को विपत्ति तथा उन पर विजय को संपत्ति का मार्ग समझना चाहिये; दोनों पन्थों का विचार करके ही उचित मार्ग पर चलना चाहिये। अतीत के संदर्भों में वर्तमान के प्रासन्गिक प्रश्नों से झूझते हुए इस क्रति में कवि ने नारी-मुक्ति आंदोलनों के नाम पर होरहे आन्तरिक अनाचार, भ्रष्टाचार को भी तटस्थ रूप से व्यक्त किया है। विद्रूपताओं से युक्त पाश्चात्य जीवन शैली का प्रभाव भारत पर भी पडा है एवम तलाक, वाइफ़ स्वेपिन्ग आदि की घटनाएं बढी हैं। अनुचित कार्यों के प्रतिरोधक- स्वयं की अंतरात्मा, समाज़ का भय, परिवार का ्डर, कानून का निषेध आदि निरर्थक सिद्ध होरहे हैं। एसी विषम परिस्थिति में इस रचना का महत्व और बढ जाता है।

नौ सर्गों में विभक्त यह खन्ड काव्य पारम्परिक शैली में प्रारम्भ होता है। वंदना में भी संपूर्ण विश्व की कामना निहित है। कवि का फ़लक विशाल है जिसमें संपूर्ण श्रष्टि समाहित रहती है – “ग्यान भाव से सकल विश्व को ,करें पल्लवित मातु शारदे” मानव कल्याण भाव से ही इस काव्य का सृजन किया गया है,ताकि लोग इसे पढकर उचित-अनुचित, स्वच्छंदता-अनुशासन, सुकर्म-कुकर्म, सदाचरण- कदाचरण में अन्तर और उनके दुष्परिणामों से अवगत हॊं;” पूर्वा-पर’ में वे शूर्पणखा के चरित्र का परिचय देते हैं-

“सुख विचरण, स्वच्छंद आचरण / असुर वंश की रीति नीति युत / नारी की ही

प्रतिकृति थी वह ।“

स्वतंत्रता एक सीमा तक तो उचित है, परंतु समाज़ में अनुशासन व मर्यादा भी है; केवल नारी ही नहीं , पुरुष के लिये भी आचरण की व्यवस्था है, जो नारी-पुरुष में संतुलन्रखती है। सर्ग अरण्य-पथ में कहा है—“पुरुष धर्म से जो गिर जाता / अवगुण युक्त वही पति करता / पतिव्रत धर्म हीन नारी को।“

सर्ग छः “शूर्पणखा” में मूल कथ्य में कवि शूर्पणखा द्वारा दानव-कुल पुरुष विद्युज्जिहव से प्रेम विवाह करलेने पर एवम रावण द्वारा उसके पति की हत्या करदेने पर उसके असामान्य मनोवैज्ञानिक रूप का चित्रण किया गया है—

“पर पति की हत्या होने पर/ घ्रणा-द्वेष का ज़हर पिये थी ।

“पुरुष जाति प्रति घ्रणा भाव में/ काम दग्ध रूपसी बनगयी/ एक वासना की पुतली वह”

राक्षस कुल , भोग वासना पद्दति में पली शूर्पणखा ने आचरण युक्त जीवन नहीं सीखा था अतः वह स्वच्छंद आचरण व कामाचार में लिप्त रहने लगी।

३.

रचना में साम्प्रदायिक जातीय दम्भ का भी रचना में संज्ञान लिया गया है जिसके कारण शूर्पणखा के पति की हत्या हुई एवम जो आगे उसके नैतिक पतन एवम विभिन्न घटनाओं का कारण बनी।

पंचवटी सर्ग में शूर्पणखा के नखशिख का वर्णन किया गया है जो उनकी सौन्दर्य-द्रष्टि का परिचायक है।---

“ सब विधि सुन्दर रूपसि बनकर/ काम बाण दग्धा शूर्पणखा…

भरकर नयनों में आकर्षण / प्रणय निवेदन किया राम से ।“

कामोन्मादित नारी किसी भी शिक्षा, नीति आचरण, उपदेश पर अमल नहीं करती। जब शूर्पणखा सीता को ही मारने दौडती है तो राम के इन्गित पर लक्षमण द्वारा उसकी नाक काट ली जाती है---“सीता पर करने वार चली/ कामातुर राक्षसी नारी ।“

“नाक कान से हीन कर दिया/ रावण को संदेश देदिया।“

तत्पश्चात राम भयभीत वन बासियों, ऋषियों ,मुनियों को आश्वश्त करते है एवम साबधान रहने का निर्देश भी देते हैं । लक्षमण को समझाते हुए संदेश देते हैं कि अति भौतिकता, अनीति, मर्यादाहीनता, स्वच्छंद सामाज़िक व्यवस्था वर्ज़ित होनी चाहिये, इससे अहन्कार व अधिक भौतिक सुख की आकान्क्षा मानव को पतन की ओर लेजाती है।----

“ यह ही रावणत्व रावण का/ विडम्बना है शूर्पणखा की;

जिसके कारण लंकापति को/ अपनी भगिनी के पति को भी;

म्रत्यु दंड देना पडता है ? चाहे कारण राज़नीति हो।“

अन्तिम सर्ग में रावण का मानसिक चिन्तन व शूर्पणखा-मन्दोदरी संबाद है जो नई दृष्टि है। विषय एवम वर्णन की दृष्टि से समाजोपयोगी एवं प्रासंगिक यह खन्ड काव्य चिन्तन प्रधान भी है, जिसके लिये रचनाकार की विवेक सम्मत विचारशीलता की सराहना की जानी चाहिये। प्रत्येक दृष्टि से उत्कृष्ट इस खंड काव्य का निश्चित रूप से हिन्दी जगत में स्वागत होगा।



विद्यायन,एस एस १०८-१०९ मधुकर अष्ठाना

सेक्टर-ई,एल डी ए कालोनी व. साहित्यकार व नवगीतकार

कानपुर रोड, लखनऊ-२२६०१२

९४५०४४७५७९

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

पुस्तक समीक्षा ................... समीक्षक---डा श्याम गुप्त.



पुस्तक---मधु- माधुरी , रचनाकार ---श्रीमती मधु त्रिपाठी , प्रकाशक --अखिल भारतीय अगीत परिषद् , राजाजी पुरम , मूल्य--१२५/=
समीक्षक----डा श्याम गुप्त .


समीक्षा------—- कृति --मधु-माधुरी ( गीत संग्रह) , रचनाकार—श्रीमती मधु त्रिपाठी,  

  प्रकाशन---अ. भा. अगीत परिषद, राजाजी पुरम, लखनऊ., मूल्य-१२५/-

 
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  सृष्टि की सबसे सुन्दर है कृति है मानव , और मानव की कृतियों में सबसे सुन्दर है-कविता; तथा गीत-- काव्य की सुन्दरतम प्रस्तुति है । गीत होते ही हैं मानव मन के सुख-दुख व अन्तर्द्वन्द्वों के अनुबन्धों की गाथा । जहां भावुक नारी मन गीत सृष्टा हो तो वे मानव ह्रदय, जीवन, जगत, की सुखानुभूति, वेदना, संवेदना के द्वन्द्वों व अन्तर्संबंधों की संगीतमय यात्रा हो जाते हैं । मधु त्रिपाठी जी का प्रस्तुत गीत सन्ग्रह ’मधु-माधुरी’ मूलतः नारी के भावुक मन, अन्तश्चेतना व जीव-जगत संबन्धों के व्यष्टि से समष्टिगत सरोकारों से उत्पन्न अन्तरवेदना के संगीतमय गीतों की भाव यात्रा है। ये गीत वस्तुतः मानव ह्रदय की पूंजी होते है--स्वान्त सुखायः- कवयित्री स्वयं कहती है-“ यह मेरी सम्पति है, मन का दर्पण है।“

  मधु जी के इन गीतों में मूलत नारी जीवन के राग-विराग, कर्तव्य बन्धनों की अनिवार्यता की स्वीकृति के साथ-साथ मुक्त गगन में उडान की छटपटाहट की व्यष्टि चेतना के साथ नारी जगत की समष्टिगतता भी निहित है; और निहित है समाज व विश्वकल्याण की भावना,जब वे कहतींहैं—“वंदना में विश्व के कल्याण की हों कामनायें”।

  नारी जीवन के संत्रासों, घुटन, विडम्बनाओं, इच्छाओं के दमन को वे समष्टि द्रिष्टि देती हुई कहतीं हैं—“ अब न भटको मन पखेरू ..” तथा ----- 

  “चांदनी कितनी ही मुस्कुराए,  

  चांद के सपने उसे छलते रहेंगे ।“

सात्विक प्रेम तो बिना प्रतिदान मांगे ही होता है,वे कहती हैं—“ प्यार का प्रतिदान मुझको दो न दो तुम,चिर सुहागिन मेंतुम्हारी ही रहूंगी ।“ मन की कल्पनायें, ऊंची उडानें, एक छलावा व भटकन ही हैं----“कल्पित प्रतिबिम्बों की छाया छूना मत,

  पता नहीं कब कौन छवि धूमिल होजाये।“

“ जीवन है महाकाव्य, भोगे बनवासों का” व “इतनी पीर दिये जाओगे” में वे महादेवी वर्माजी की-“मैं नीर भरी दुख की बदली…” के सन्निकट दिखाई पडती हैं । आज के संदर्भ में नारी मर्यादा के रक्षक ही भक्षक पर उनका कथन है—“ होते छल छंद यहां मित्रॊं के वेश में” व “ सीतायें छली जातीं रामों के हाथ ..” ।

  नारी कर्तव्य व अन्तस की उडान के द्वन्द्व को वे “जग की दीवाली” में स्पष्ट करती हैं---=” तुम में सिमट गये बस चारों धाम,” व : “सैलानी मनअपना कब तक बहलाऊं” । हर नारी, पत्नी. प्रेयसि के सुखद स्वप्न, स्वीकारा हुआ जीवन सत्य, सुखद ग्रहस्थ आश्रम् को वे “सोने के रस रन्ग भरे दिन ..” में स्वीकृति प्रदान करती हैं। आयु का छीज़ना जीवन की सबसे कठिनतम स्वीकारोक्ति है----“ देहरी में दुबक बैठी, एक अंजुरी धूप । छीज़ता दिन दिन सलोना सोन पांखी रूप॥“ अनियन्त्रित अमर्यादित प्रेम की मृग तृष्णा पर भारतीय नारी के भाव में कहा है—“ मन की प्यास बुझाने वाला बिना तुम्हारे कौन।“ औरतों की बन्धित जीवन-शैली पर वे प्रहार करती हैं व जन्ग का एलान करती दिखती हैं-“औरतों की ज़िन्दगी है क्या, गुलामी किस्तवार” 

  “ इक तरफ़ हैं हम अकेले,इक तरफ़ लश्कर तमाम “

  जीवन भर यान्त्रिक पत्नीत्व, प्रेम व कर्तव्य पथ पर चलते हुएभी भावुक मन्की उन्मुक्त विहगता की इच्छा रूपी पीडा, जो नारी जीवन क एक और यथार्थ है-राधा से मीरा-महादेवी तक—“ बरसो आज नयन घन..” में परिलक्षित होती हैं ।

  विप्रलम्भ, आगमन संदेश, स्म्रितियां, जीवन की शून्यता, परकीया भाव, संयोग श्रन्गार, लोकगीत आदि सभी पक्षों पर मधुजी ने कलम चलाई है।

  सामाजिक सरोकार के बिना कोई भी कविता व साहित्य अधूरा ही है।विभिन्न सामाजिक सरोकार व उनके समाधान पर भी मधु जी ने खूब गाया है। “ जागो युवा बन्धु..” में युवा पीढी को आव्हान है, प्रक्रिति, पर्यावरण, प्रदूषण,यान्त्रिकता, सर्वधर्म सम भाव, मानव एकता, नारी जागरण, अधूरा विकास, मूल्यों का क्षरण, आदि का भी काव्यीकरण किया गया है। “ सगुन चिरैया…”समष्टि हित की वन्दना ही है ।

  रचना की भाषा के रूप मे मधुजी का अवधी व खडी बोली पर समान अधिकार परिलक्षित होता है। कही-कहीं उर्दू के श्ब्द भी प्रयोग हुए हैं। भाव मूलतः छायावादी हैं। रचनायें सुष्ठु, शुद्ध, परिष्क्रत व स्पष्ट भाव संप्रेषणीय हैं। समुचित स्थान पर अलंकार,

भावालंकार, लक्षणाएं, व्यन्जनाएं प्रयुक्त हुई हैं जो अर्थ प्रतीति व भावाव्यक्ति को बल देती हैं। भाव दोष, मात्रा दोष, अर्थ व कथ्य दोष मुझे नहीं मिले। विश्वमान्य-सत्य –तथ्य दोष भी देखने को नहीं मिले। अतः प्रस्तुति कृति एक सुन्दर, पुष्ट काव्यमय रचना है । श्रीमती मधु त्रिपाठी जी बधाई की पात्र हैं ।