
गंगा की घाटों पे वो फिरता,
न जाने है कितना अकेला।
इक बहाव में बह गया वो,
आज की शाम,
जाने कब से निर्झर है ये शांत।
युगों युगों से देखा है जिसने कई सदी।
शाम की आरती का है समय,
तन्हाईयों ने कर दिया फिर से अकेला।
गंगा की घाटों पे वो फिरता,न जाने है कितना अकेला।
ये शाम अब भी वैसा है,आसमां में चाँद,गँगा की धार में बहते कई नाव।गँगा के उस पार अब भी दिखता है इक गाँव।
वो लोगों का जमावड़ा भी वैसे ही है,जैसा कभी हुआ करता था पहले।
बदला तो है बस जहा मेरा,कल...