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शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

शाम

शाम की छाई हुई धुंधलीचादर से ढ़क जाती हैं मेरी यादें , बेचैन हो उठता है मन, मैं ढ़ूढ़ता हूँ तुमको , उन जगहों पर , जहां कभी तुम चुपके-चुपके मिलने आती थी , बैठकर वहां मैं महसूस करना चाहता हूँ तुमको , हवाओं के झोंकों में , महसूस करना चाहता हूँ तुम्हारी खुशबू को , देखकर उस रास्ते को सुनना चाहता हूँ तुम्हारे पायलों की झंकार को , और देखना चाहता हूँ टुपट्टे की आड़ में शर्माता तुम्हारा वो लाल चेहरा , देर तक बैठ मैं निराश होता हूँ , परेशान होता हूँ कभी कभी , आखें तरस खाकर मुझपे, यादें बनकर आंसू उतरती है गालों पर , मैं खामोशी से हाथ बढ़ाकर , थाम...

समंदर - कविता ( मधुलिका की प्रस्तुति )

इतना कि _जितना उससे नहीं हो सकता थाहूलते हुए दर्द को पी जाना सहज न थातब तो वह जानती ही न थीदर्द कहते किसे हैंवह तो _खेलते हुए ठोकर लग जाने कोदर्द का का नाम देकरमाँ के आँचल के खूंटे से बाँध आती थीतब तो पता ही न थाकि - पहली बार किए गए प्यार में भीखून कि धार का दर्द लिपटा होता हैऔर मिलन की सारी उमंगसहसा भय की सिसकियों में बदल जाया करती हैइसी को तो कौमार्य व्रत भंग कहते हैंऔर तब सहसाभूली हुई कुंती याद आती हैयह कैसा लोक लाज हैजिसे लाज नहीं आती...