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बुधवार, 12 मई 2010

कुछ क्षणिकाएं..........मनोशी जी


दो अश्रु

एक अश्रु मेरा
एक तुम्हारा
ठहर कर कोरों पर
कर रहे प्रतीक्षा
बहने की
एक साथ

रात

पिघलती जाती है
क़तरा क़तरा
सोना बन कर निखरने को,
कसमसाती है
ज़र्रा ज़र्रा
फूल बन कर खिलने को,
हर रोज़
रात

दो बातें

दो बातें,
एक चुप
एक मौन
कर रहे इंतज़ार
एक कहानी बनने की

अजनबी

चलो फिर बन जायें अजनबी
एक नये अनजाने रिश्ते में
बँध जायें फिर,
नया जन्म लेने को

सप्तऋषि

जुड़ते हैं रोज़
कई कई सितारे
बनाने एक सप्तऋषि
हर रात
हमारे बिछड़ने के बाद

नज़्म ....कवि दीपक शर्मा


बात घर की मिटाने की करते हैं
तो हजारों ख़यालात जेहन में आते हैं

बेहिसाब तरकीबें रह - रहकर आती हैं
अनगिनत तरीके बार - बार सिर उठाते हैं ।


घर जिस चिराग से जलना हो तो
लौ उसकी हवाओं मैं भी लपलपाती है

ना तो तेल ही दीपक का कम होता है
ना ही तेज़ी से छोटी होती बाती है ।


अगर बात जब एक घर बसाने की हो तो
बमुश्किल एक - आध ख्याल उभर के आता है

तमाम रात सोचकर बहुत मशक्कत के बाद
एक कच्चा सा तरीका कोई निकल के आता है ।


वो चिराग जिससे रोशन घरोंदा होना है
शुष्क हवाओं में भी लगे की लौ अब बुझा

बाती भी तेज़ बले , तेल भी खूब पिए दीया
रौशनी भी मद्धम -मद्धम और कम रौनक शुआ ।


आज फ़िर से वही सवाल सदियों पुराना है
हालत क्यों बदल जाते है मकसद बदलते ही

फितरतें क्यों बदल जाती है चिरागों की अक्सर
घर की देहरी पर और घर के भीतर जलते ही ।

बुढिया -------- {लघुकथा} ----------- सन्तोष कुमार "प्यासा"

कल शाम को पढने के बाद सोंचा कुछ सब्जी ले आई जाए ! यही उद्देश्य लेकर सब्जी मंडी पहुँच गए ! मंडी में बहुत भीड़ थी ! दुकानदार चिल्ला-चिल्ला कर भाव बता रहे थे ! सब अपनी अपनी सुध में थे ! तभी मेरी नजर एक ऐसे स्थान पर पड़ी जहां पर सड़ी सब्जिओं का ढेर पड़ा था ! जिसके पास करीब ५५-६० वर्ष की एक वृद्धा बैठी थी ! उसके उसके पूरे बाल चाँदी के रंग के थे ! चेहरे पर अजीब सी शिकन और चिंता की लकीरे साफ़ झलक रही थी ! तन पर हरे रंग की जीर्ण मलिन साड़ी और एक कपडे का थैला उसके पास था ! सब्जी के ढेर से वह लोगों की नजरें बचाकर पालक के पत्तों को अपने थैले में रख रही थी ! पहले वह सरसरी निगाह से लोगों को देखती फिर पालक के सही पत्तों का चुनाव कर अपने थैले में रख लेती ! इस दृश्य को देख कर मैंने उन तमाम लोगों और अपने आप को धिक्कारा ! मेरे मन ने मुझसे कहा "तू इस दीन, दुखिया, असहाय वृद्धा की मज़बूरी को तमाशे की तरह देख रहा है ! मै अपने मन की बातों को सुन ही रहा था, तभी दो व्यक्ति आए उनमे से एक ने बिना कुछ बोले पूंछे उस वृद्धा का थैला उठा कर दूर फेंक दिया ! दुसरे व्यक्ति ने चिल्ला कर कहा " क्यू री बुढिया एक बार की बात तेरे दिमाग में नहीं घुसती क्या ? कल ही तुझसे कहा था न इस ढेर से दूर रहना, ये सब्जी जानवरों के चाराबाज़ार में बेचने के लिए है तेरे लिए नहीं !" बेचारी वृद्धा मजबूरीवस् निरुत्तर थी ! उसकी आँखों से मजबूरी की धारा बह निकली ! वह उठी और अपना थैला लेकर चली गई !