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गुरुवार, 26 नवंबर 2009

भूख का एहसास - लघुकथा (कुमारेन्द्र सिंह सेंगर)

उसने पूरी ताकत से चिल्लाकर कुछ पाने की गुहार लगाई। कई बार आवाज लगाने और दरवाजा भड़भड़ाने पर अंदर से घर की मालकिन बाहर निकलीं।-‘‘क्या है? क्यों शोर कर रहे हो?’’-‘‘कुछ खाने को दे दो, दो दिन से कुछ खाया नहीं’’ उस बच्चे ने डरते-डरते कहा।.............‘‘बहुत भूख लगी है’’ लड़के ने अपनी बात पूरी की।मालकिन ने उसको ऊपर से नीचे तक घूरा और कुछ कहती उससे पहले अंदर से उसके बेटे ने साड़ी खींचते हुए अपनी माँ से सवाल किया-‘‘मम्मी, भूख क्या होती है?’’उस औरत ने अपने बच्चे को गोद में उठाकर दरवाजे के बाहर खड़े बच्चे को देखा और कुछ लाने के लिए घर के अंदर चली ...

बादलों में चांद छिपता

बादलों में चांद छिपता है,निकलता है ,कभी अपना चेहरा दिखाता है ,कभी ढ़क लेता है ,उसकी रोशनी कम होती जाती हैफिर अचानक वही रोशनीएक सिरे से दूसरे सिरे तक तेज होती जाती है ।मैं इस लुका छिपी के खेल कोदेखता रहता हूँ देर तक,जाने क्यूँ बादलों सेचांद का छिपना - छिपानाअच्छा लग रहा है ,खामोश रात में आकाश की तरफ देखना ,मन को भा रहा है ,उस चांद में झांकते हुएन जाने क्यूँ तुम्हारा नूर नजर आ रहा है ।ऐसे में तुम्हारी कमी का एहसासबार - बार हो रहा है ।तुम्हारी यादें चांद ताजा कर रहा है,मैं तुमको भूलने की कोशिश करके भी ,आज याद कर रहा हूँ ,इन यादों की तड़प सेमन विचलित...