मैं भी चाहता हूँ की हुस्न पे ग़ज़लें लिखूँमैं भी चाहता हूँ की इश्क के नगमें गाऊंअपने ख्वाबों में में उतारूँ एक हसीं पैकरसुखन को अपने मरमरी लफ्जों से सजाऊँ ।लेकिन भूख के मारे, ज़र्द बेबस चेहरों पेनिगाह टिकती है तो जोश काफूर हो जाता हैहर तरफ हकीकत में क्या तसव्वुर में फकत रोटी का है सवाल उभर कर आता है ।ख़्याल आता है जेहन में उन दरवाजों काशर्म से जिनमें छिपे हैं जवान बदन कितने जिनके तन को ढके हैं हाथ भर की कतरनजिनके सीने में दफन हैं , अरमान कितने जिनकी डोली नहीं उठी इस खातिर क्योंकिउनके माँ-बाप ने शराफत की कमाई हैचूल्हा एक बार ही जला...