हमारा प्रयास हिंदी विकास आइये हमारे साथ हिंदी साहित्य मंच पर ..

मंगलवार, 31 मार्च 2009

मैं तो यहीं हूँ.....तुम कहाँ हो....!!.......[एक कविता] भूतनाथ जी की कलम से


इक दर्द है दिल में किससे कहूँ.....
कब लक यूँ ही मैं मरता रहूँ !!
सोच रहा हूँ कि अब मैं क्या करूँ
कुछ सोचता हुआ बस बैठा रहूँ !!
कुछ बातें हैं जो चुभती रहती हैं
रंगों के इस मौसम में क्या कहूँ !!
हवा में इक खामोशी-सी कैसी है
इस शोर में मैं किसे क्या कहूँ !!
मुझसे लिपटी हुई है सारी खुदाई
तू चाहे "गाफिल" तो कुछ कहूँ !!
०००००००००००००००००००००००००
००००००००००००००००००००००००
दूंढ़ रहा हूँ अपनी राधा,कहाँ हैं तू...
मुझको बुला ले ना वहाँ,जहाँ है तू !!
मैं किसकी तन्हाई में पागल हुआ हूँ
देखता हूँ जिधर भी मैं,वहाँ है तू !!
हाय रब्बा मुझको तू नज़र ना आए
जर्रे-जर्रे में तो है,पर कहाँ है तू !!
मैं जिसकी धून में खोया रहता हूँ
मुझमें गोया तू ही है,निहां है तू !!
"गाफिल"काहे गुमसुम-सा रहता है
मैं तुझमें ही हूँ,मुझमें ही छुपा है तू !!

सोमवार, 30 मार्च 2009

एक कविता .........[निर्मला कपिला जी की प्रस्तुति]


कुछ आढे तिरछे
शब्द लिखे
चाहती थी
कविता लिखना
उन तमाम पलों की
जिनमें मैने
उम्र को जीया
बचपन के वो नटखट पल
उछलना कूदना
धूम मचाना
आँख मिचौली
छूना छुआना
कुछ खो कर भी
हंसते जाना
दादी नानी की
कहानियों से
दिल बहलाना
परियों के संग
आसमान मे उडते जाना
मिट्टी के संग मिट्टी
हो जाना
फिर बरखा की
रिमझिम मे
किलकारियां मार नहाना
तालाब मे तैर घडे पर
उस पार निकल जाना
फिर हंसते खेलते
यौवन का आना
खेल खेल मे
किसी के दिल की
धडकन हो जाना
छुप सखियों से
ख्वाबों के महल बनाना
फिर एक हवा के झोंके से
ख्वाबों का उड जाना
एक पीडा एक अनुराग का
ऐहसास रह जाना
फिर दुनियां की रस्मों को
रिश्तों मे निभाना
उन पन्नो मे
ममता के क्षण पाना
वत्सल्य के ऐह्सास से
छातिओं से दूध कि धारा बह जाना
नटखट किल्कारियों मे
सब दुख भूल जाना
फिर इस ड्गर पर कुछ
आढी तिरछी रेखाओं का आना
रिश्तों का
रिश्तों से टकराना
फिर ममता के पंछिओं का
अपनी डगर उड जाना
फिर लिखते लिखते
मेरी कलम का रुक जाना
क्या खोया क्या पाया क
हिसाब लगाना पर
सोचने पर भी कुछ
हाथ ना आना
यहाँ से मेरी कलम ने
मोड लिया
मुझे इक सच्चाई से जोड दिया
कि जीवन नहीं रुकने का नाम्
करना है कुछ अच्छा काम
इस कलम को अपना
धर्म् बना लो
इस समाज के लिये भी
कुछ लिख डालो
बस अब लिखना छाहती हूँ
कविता कविता कविता

रविवार, 29 मार्च 2009

एक कविता [निर्मला कपिला जी प्रस्तुति]



  1. अतीत कहाँ खो गया
  2. वो अतीत कहाँ खो गया
    जब मैं थी
    तुम्हारी धाती
    तुम्हारी भार्या
    तुम थे मेरे स्वामी
    मेरे पालनहार
    मैं थी समर्पित
    तुम को अर्पित
    अबला, कान्ता
    कामिनी,रमनी
    तुम थे मेरे
    बल,भर्ता
    कान्त कामदेव
    तुम मेरे पालनहा
    मुझ पर् निस्सार
    मेरी आँखों मे देखा करते
    मेरी पीडा समझा करते
    तुम थके हारे
    बाहरी उलझनों के मारे
    मेरे आँचल की छाँव मे
    आ सिमटते
    मेरा तन मन
    तेरी सेवा क
    आतुर हो उठते
    फिर होती
    रात की तन्हाई
    चंचल मन्मथ
    अनुग्रह, अनुकम्पा
    मित जाती
    सब तकरारें
    एक लय हो जाती
    दोनो की धुनकी की तारें
    आह्! वो लय
    वो सुर
    कहाँ खो गया
    मेरी पीढी का सुर
    बेसुर क्यों हो गया
    आज नारी हो गयी
    अर्पित से दर्पित
    समर्पित से गर्वित
    पुरुष भर्ता से हर्ता
    पालन्हार से शोषणकर्ता
    दायित्व से कर्तव्यविमूढ
    उसका रूह पर नहीं
    जिस्म पर अधिकार हो गया
    सुरक्षा का दायित्व
    समाप्त हो गया
    क्योंकि
    विवाह पवित्र बन्धन नही
    व्यापार हो गया
    मेरा अतीत
    जाने कहाँ खो गया

शनिवार, 28 मार्च 2009

रजनी माहर की एक कविता- प्रस्तुति डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक




मेरी गुड़िया जब से, मेरे जीवन में आयी हो।

सूने घर आँगन में मेरे, नया सवेरा लायी हो।

पतझड़ में बन कर बहार, मेरे उपवन में आयी हो।

गुजर चुके बचपन को मेरे, फिर से ले आायी हो।

सुप्त हुई सब इच्छाओ को, तुमने पुनः जगाया।

पानी को मम कहना, मुझको तुमने ही सिखलाया।

तुमने किट्टू को तित्तू ,तुतली जबान से बतलाया।

मम्मी को मी पापा को पा,कह अपना प्यार जताया।

मेरी लाली-पाउडर तुम, अपने गालों पर मलती हो।

मुझको कितना अच्छा लगता, जब ठुमके भर कर चलती हो।

सजे-सजाये घर को तुम, पल भर मे बिखराती हो।

फिर भी गुड़िया रानी तुम, मम्मी को हर्षाती हो।

छोटी सी भी चोट तुम्हारी, मुझको बहुत रुलाती है।

तुतली-तुतली बातें तेरी, मुझको बहुत लुभाती हैं।

दादा जी की ऐनक-डण्डा, लेकर तुम छिप जाती हो।

फिर भी गुड़िया रानी तुम, दादा जी को भाती हो।

अपनी भोली बातों से तुम, सबके दिल पर छायी हो।

मेरी गुड़िया जब से, मेरे जीवन में आयी हो।

सूने घर आँगन में मेरे, नया सवेरा लायी हो।


हम आजाद है ..........[एक कविता] - निर्मला कपिला जी की प्रस्तुति


हम आज़ाद हैं
दुनिया के सब से बडे लोकतन्त्र मे
आज हम आज़ाद हैं
आज़ाद हैंभ्रष्टाचार के लिये
चोरी डकैती, व्यभिचार के लिये
पर नहीं आज़ाद
अपने अधिकार के लिये
हम आज़ाद हैंदेश की
सरकार बनाने में
प्रजातन्त्र के गुन गाने मे
पर नहीं आज़ाद
दो वक्त की रोटी पाने मे
हम आज़ाद हैं
कानून की धज्जियां उडाने मे
बेकसूर को सज़ा दिलाने मे
पर नही आज़ाद
कानून की आँख से
पट्टी उठाने मे

शुक्रवार, 27 मार्च 2009

हाय समाज...........हाय समाज............!![भूतनाथ जी ]

............न पुरूष और न ही स्त्री..............दरअसल ये तो समाज ही नहीं.........पशुओं के संसार में मजबूत के द्वारा कमजोर को खाए जाने की बात तो समझ आती है......मगर आदमी के विवेकशील होने की बात अगर सच है तो तो आदमी के संसार में ये बात हरगिज ना होती.......और अगरचे होती है.....तो इसे समाज की उपमा से विभूषित करना बिल्कुल नाजायज है....!! पहले तो ये जान लिया जाए कि समाज की परिकल्पना क्या है.....इसे आख़िर क्यूँ गडा गया.....इसके मायने क्या हैं....और इक समाज में आदमी होने के मायने भी क्या हैं....!!
..............समाज किसी आभाषित वस्तु का नाम नहीं है....अपितु आदमी की जरूरतों के अनुसार उसकी सहूलियतों के लिए बनाई गई एक उम्दा सी सरंचना है....जिसमें हर आदमी को हर दूसरे आदमी के साथ सहयोग करना था....एक दूसरे की जरूरतों को पूरा करना था.....एक आदमी ये काम करता.....और दूसरा वो काम करता....तीसरा कुछ और....हर आदमी अपने-अपने हुनर और कौशल के अनुसार समाज में अपने कार्यों का योगदान करता....और इस तरह सबकी जरूरतें पूरी होती रहतीं.....साथ ही हारी-बीमारी में भी लोग एक-दूसरे के काम आते....मगर हुआ क्या............??हर आदमी ने अपने हुनर और कौशल का इस्तेमाल को अपनी मोनोपोली के रूप में परिणत कर लिया...........और उस मोनोपोली को अपने लालच की पूर्ति के एकमात्र कार्यक्रम में झोंक दिया.......लालच की इन्तेहाँ तो यह हुई कि सभी तरह के व्यापार में ,यहाँ तक कि चिकित्सा आदि के क्षेत्रों में भी लालच की ऐसी पराकाष्ठा का यही घृणित रूप तारी हो गया.....और आज यह राजनीति और सेवा कार्यों में तक में भी यही खेल मौजूं हो गया है....तो फ़िर समाज नाम की चीज़ अगर हममे बची है तो मैं जानना चाहता हूँ कि वो है तो आख़िर कहाँ है....एक समाज के सामाजिक लोगों के रूप में हमारे कार्य आख़िर क्या हैं.....कि हम जहाँ तक हो सके एक-दूसरे को लूट सकें...........????
....................क्या यह सच नहीं कि हम सब एक दूसरे को सहयोग देने की अपेक्षा,उसका कई गुणा उसे लूटते हैं.....वरना ये पेटेंट आदि की अवधारणा क्या है......??और ये किसके हित के लिए है.....लाभ कमाने के अतिरिक्त इसकी उपादेयता क्या है.....??क्या एक सभ्य समाज के विवेकशील मनुष्य के लिए ये शोभा देने वाली बात है कि वो अपनी समझदारी या फ़िर अपने किसी भी किस्म के गुण का उपयोग अपनी जरूरतों की सम्यक पूर्ति हेतु करे ना कि अपनी अंधी भूख की पूर्ति हेतु......??मनुष्य ने मनुष्य को आख़िर देना क्या है.....??क्या मनुष्यता का मतलब सिर्फ़ इतना है कि कभी-कभार आप मनुष्यता के लिए रूदन कर लो.....या कभी किसी पहचान वाले की जरुरत में काम आ जाओ....??..........या कि अपने पाप-कर्म के पश्ताताप में थोड़ा-सा दान-धर्म कर लो.......??
.......................मनुष्यता आख़िर क्या है...........??............अगर सब के सब अपनी-अपनी औकात या ताकत के अनुपात में एक दूसरे को चाहे किसी भी रूप में लूटने में ही मग्न हों....??..........और मनुष्य के द्वारा बनाए गए इस समाज की भी उपादेयता आख़िर क्या है..........??.........और अपने-अपने स्वार्थ में निमग्न स्वार्थियों के इस समूह को आख़िर समाज कहा ही क्यूँ जाना चाहिए..........??.........हम अरबों लोग आख़िर दिन और रात क्या करते हैं........??उन कार्यों का अन्तिम परिणाम क्या है......??अगर ये सच है कि परिणामों से कार्य लक्षित होते हैं.............तो फ़िर मेरा पुनः यही सवाल है कि इस समूह को आखर समाज कैसे और क्यूँ कहा जा सकता है......और कहा भी क्यूँ जाना चाहिए.......??
जहाँ कदम-दर-कदम एक कमज़ोर को निराश-हताश-अपमानित-प्रताडित-और शोषित होना पड़ता है......जहाँ स्त्रियाँ-बच्चे-बूढे और गरीब लोग अपना स्वाभाविक जीवन नहीं जी सकते........??जहाँ हर ताकतवर आदमी एक दानव की तरह व्यवहार करता है........!!??
.........दोस्तों मैं कहना चाहता हूँ कि पहले हम ख़ुद को देख लें कि आख़िर हम कितने पानी हैं.....और हमें इससे उबरने की आवश्यकता है या इसमें और डूबने की........??हम ख़ुद से क्या चाहते हैं.........ये अगर हम सचमुच इमानदारी से सोच सकें तो सचमुच में एक इमानदार समाज बना सकते हैं............!!याद रखिये समाज बनाने के लिए सबसे पहले ख़ुद अपने-आप की आवश्यकता ही पड़ती है........तत्पश्चात ही किसी और की.....!!आशा करता हूँ कि इसे हम पानी अपने सर के ऊपर से गुजर जाने के पूर्व ही समझ पायेंगे..........!!!!


गुरुवार, 26 मार्च 2009

‘‘आर्य समाज: नागार्जुन की दृष्टि में’’ डॉ0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’



राजकीय महाविद्यालय, खटीमा में हिन्दी के विभागाध्यक्ष वाचस्पति जी थे । बाबा नागार्जुन अक्सर उनके यहाँ प्रवास कर लिया करते थे ।
इस बार भी जून के अन्तिम सप्ताह में बाबा का प्रवास खटीमा में हुआ । दो जुलाई, 1989, महर्षि दयानन्द विद्या मन्दिर टनकपुर में बाबा नागार्जुन के सम्मान में कवि गोष्ठी का आयोजन था । उसमें बाबा ने कहा शास्त्री जी 5,6,7 जुलाई को मैं खटीमा मे आपके घर रहूँगा ।
प्रातःकाल 5 जुलाई को प्रातःकाल शर्मा जी का बड़ा पुत्र अनिमेष बाबा को मेरे निवास पर पहुँच गया । 6 जुलाई को सुबह बाबा का मनपसन्द नमकीन दलिया नाश्ते में बनाया गया । बाबा जी बड़ ही अच्छे मूड में थे । दलिया भी कुछ गरम था ।
उसी समय बाबा ने अपने जीवन के बाल्यकाल का संस्मरण सुनाया - ‘‘शास्त्री जी उस समय मेरी आयु 12 या 14 वर्ष की रही होगी । उस समय में संस्कृत विद्यालय बनारस में पढ़ता था । मन में विचार आया कि इलाहाबाद में पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय आर्य समाज के बहुत बड़े कार्यकर्ता हैं, उनसे मिला जाये । उस समय आर्य समाज की बड़ी धूम भी थी । मैंने अपने दो सहपाठी साथ में चलने के तैयार कर लिए तो पदल ही बनारस से इलाहाबाद को चल पड़े । चलते-चलते प्यास लगने लगी । आगे एक गाँव रास्ते में पड़ा तो कुएँ पर गये । पनिहारिनों ने पानी पिलाने से मना कर दिया और कहा भाई तुम पण्डितों के लड़का मालूम होते हो । हम तो नीच जाति की है, हम तुम्हारा धर्म नही बिगाड़ेंगी । प्यास बहुत जोर की लगी थी । हमने बहुत अनुनय-विनय की तो उन्होंने पानी पिलाया । हम तीनों ने ओक से पानी पिया । उसी रास्ते पर एक ऊँट वाला भी जा रहा था । वह आगे-आगे सबसे कहता चला जा रहा था कि भाई पीछे जो तीन ब्राह्मण लड़के आ रहे हैं , इन्होंने दलितों के कुएँ पर पानी पिया है । इनका धर्म भ्रष्ट हो गया है । अतः लोग हमें बड़ी उपेक्षा की दृष्टि से देखते । अन्ततः हमने रास्ता छोड़ खेतो की मेढ़-मेढ़ चलना शुरू कर दिया । साथ के देानो सहपाठी तो कष्टों को देख कर घबरा कर साथ छोड़ कर वापिस चले गये...वगैरा-वगैरा । किसी तरह इलाहाबाद पहुँचा तो पं0 ग्रंगाप्रसाद उपाध्याय का घर पूछा- लोगों ने बताया कि चैक में पंडित जी रहते हैं । खैर पण्डित जी के घर पँहुचा, उनकी श्रीमती जी से कहा बनारस से आया हूँ, पैदल, पण्डित जी से मिलना है । उन्होंने प्यार से भीतर बुलाया, तख्त पर बैठाया और गर्म-गर्म दूध एक कटोरे में ले आयीं । जब मैंने दूध पी लिया तो उन्होंने कहा कि तुम विश्राम करो । पं0 जी शाम को 7 बजे तक आयेंगे । शाम को जब पण्डित जी आये तो बातचीत हुई । उन्होंने कहा कि तुम बहुत थके हो कल सभी बातें विस्तार में होगी और अपनी पत्नी कलावती को आवाज लगाई, कहा कि देखो ये अपने सत्यव्रत जी के ही समान हैं , इनको 3-4 दिन तक खूब खिलाओ-पिलाओ.....वगैरा-वगैरा ।
3-4 दिन तक पण्डित जी के यहाँ रहा खूब प्रेम से बाते हुईं । जब विदा हुए तो पण्डित जी, उनकी पत्नी और पुत्र सत्यव्रत रेलगाड़ी पर पहुँचाने आये , टिकट दिलाया । अन्त में उनकी पत्नी ने (उस समय में ) दो रुपये जेब खर्च के लिए दिये ।
पण्डित जी बोले कि देखो कभी पैदल मत आना । जब भी इच्छा हो टिकट कटा कर रेलगाड़ी से आया करो । उसके पश्चात 2-3 बार पण्डित जी के यहाँ गया व एक - एक सप्ताह ठहरा । अन्त में बाबा नागार्जुन ने बताया कि ‘आर्य समाज बहुत ही अच्छी संस्था है’ परन्तु आजकल पण्डित गंगाप्रसाद उपाध्याय सरीखे लोगों की कमी हो गयी है ।’’ साथ ही बताया कि ’’आर्य समाज ऊँचा उठने की प्रथम सीढ़ी है ।’’

डॉ0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ पूर्वसदस्य-अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग,उत्तराखण्ड-सरकार, देहरादून। कैम्प-खटीमा, जिला-ऊधमसिंहनगर फोन नं0-05943-250207, मो०-09456383898, 09368499921

बुधवार, 25 मार्च 2009

क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में, मैं गजल? (डॉ0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

अब हवाओं में फैला गरल ही गरल।

क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।।

गन्ध से अब, सुमन की-सुमन है डरा,

भाई-चारे में, कितना जहर है भरा,

वैद्य ऐसे कहाँ, जो पिलायें सुधा-

अब तो हर मर्ज की है, दवा ही अजल।

क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।।

धर्म की कैद में, कर्म है अध-मरा,

हो गयी है प्रदूषित, हमारी धरा,

पंक में गन्दगी तो हमेशा रही-

अब तो दूषित हुआ जा रहा, गंग-जल।

क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।।

आम, जामुन जले जा रहे, आग में,

विष के पादप पनपने, लगे बाग मे,

आज बारूद के, ढेर पर बैठ कर-

ढूँढते हैं सभी, प्यार के चार पल।

क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।।


आओ! शंकर, दयानन्द विष-पान को,

शिव अभयदान दो, आज इन्सान को,

जग की यह दुर्गति देखकर, हे प्रभो!

नेत्र मेरे हुए जार हे हैं, सजल ।

क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।।


वर्तमान शिक्षा पद्धति ओर संस्कारहीनता

चाहे कोई भी युग हो,प्रत्येक युग का भविष्य उसकी आगामी पीढ़ी पर ही निर्भर करता है। जिस युग की नई पीढ़ी जितनी अधिक शालीन, सुसंस्कृत, सुघड़ और शिक्षित होती है, उस युग के विकास की संभावनाएं भी उतनी ही अधिक रहती है। राष्ट्र, समाज और परिवार के साथ भी यही सिद्धांत घटित होता है। आज सर्वाधिक महत्वपूर्ण या करणीय कार्य है भावी पीढी को संस्कारित करना।
अक्सर सुनने में आता है कि बाल्य मन एक सफेद कागज की भांती होता है। उस पर व्यक्ति जैसे चाहे, वैसे चित्र उकेर सकता है,या फिर जैसा भी चाहें,लिख सकते हैं। उसकी सोच को जिस दिशा में मोड़ना हो, सरलता से मोड़ा जा सकता है। एक दृष्टि से यह मंतव्य सही हो सकता है पर यह सर्वांगीण दृष्टिकोण नहीं है। क्योंकि हर बच्चा अपने साथ अनुवांशिकता लेकर आता है, जो कि गुणसूत्र (क्रोमोसोम) और संस्कार सूत्र (जीन्स) के रूप में विधमान रहते हैं।
सामाजिक वातावरण भी उसके व्यक्तित्व का एक घटक है। इसका अर्थ यह हुआ कि संस्कार-निर्माण के बीज हर बच्चा अपने साथ लाता है। सामाजिक या पारिवारिक वातावरण में उसे ऐसे निमित्त मिलते हैं, जिनके आधार पर उसके संस्कार विकसित होते हैं। प्राय: देखा जाता है कि माता-पिता अपनी संतान के लिए भौतिक सुख-सुविधाओं के साधन जुटा देते हैं, शिक्षा एवं चिकित्सा की व्यवस्था कर देते हैं,किन्तु उनके लिए सर्वांगीण विकास के अवसर नहीं खोज पाते। कुछ अभिभावक तो ऐसे होते हैं, जो उनकी शिक्षा और आत्मनिर्भरता के बारें में भी उदासीन रहते हैं।
उचित मार्गदर्शन के अभाव में अथवा अधिक लाड़-प्यार में या तो बच्चे कुछ करते नहीं या इस प्रकार के काम करते हैं, जो उन्हें भटकाने में निमित्त बनते हैं। ऐसी परिस्थिति में हर समझदार माता पिता का यह दायित्व है कि वे अपने बच्चों की परवरिश में संस्कार-निर्माण की बात को न भूलें।
आधुनिक युग में मां-बाप भी बच्चों को स्कूलों के भरोसे छोडकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं
अगर देखा जाए तो इस तरह से हम लोग कहीं न कहीं उनके साथ अन्याय ही कर रहे हैं। क्यों कि वर्तमान शिक्षा पद्धति का ये सबसे बडा दोष है कि इसमें सिर्फ बौद्धिक विकास को ही महत्व दिया गया है,संस्कृ्ति एवं संस्कारपक्ष को तो पूरी तरह से ही त्याग दिया गया है ऎसे में हम लोग किस प्रकार ये अपेक्षा कर सकते हैं कि बच्चों का समग्र विकास हो पाएगा। कान्वेंट्स और पब्लिक स्कूल आधुनिक कहलाने वाले अभिभावकों के लिए आकर्षण का केन्द्र बन चुके है। वे मानते हैं कि इन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे आधुनिक रूप से विकसित होते हैं, समाज में जीने के तौर-तरीके बहुत अच्छे ढंग से सीखते हैं। कुछ अंशों में यह बात सही हो सकती है। परन्तु सिर्फ सामाजिक तौर तरीके ही जीवन नहीं है।
जीवन की समग्रता के लिए संस्कृति, परम्परा,राष्ट्रप्रेम, अनुशासन, विनय, सच्चाई, सेवाभावना आदि अनेक मूल्यों को जीना सिखाने की जरूरत है।आप अगर कान्वैंट या पब्लिक स्कूल के विधार्थी से मुंशी प्रेमचन्द,जयशंकर प्रसाद इत्यादि के बारे में पूछ के देखें तो बगलें झांकने लगेगा,लेकिन माईकल जैक्सन के बारे में वो शर्तिया जानता होगा। वन्देमातरम की उसे भले एक लाईन न आती हो,लेकिन ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार पूरा सुना देगा जिस शिक्षाक्रम में संस्कृति के मूल पर ही कुठाराघात हो, उससे संस्कार-निर्माण की अपेक्षा करना तो एक प्रकार से मूर्खता ही कही जा सकती है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि बच्चों को निरंतर ऐसा वातावरण मिले और उनके शिक्षाक्रम में कुछ ऐसी चीजें जुडें, ज़ो उन्हे बौध्दिक विकास के साथ-साथ भावनात्मक विकास के शिखर तक पहुंचा सके।

अलग-अलग त्रिवेनियाँ - एक कविता [ साहित्य मंचीय नये कवि भूतनाथ का परिचय ]

भूतनाथ....जी का वास्तविक नाम राजीव थेपडा । आपकी शिक्षा स्तानक( कला) स्तर तक हुई । आपने फिलहाल व्यापार और अनियमित लेखन (तथा आकाशवाणी में अनियमित नाटक आदि ) को चुना । आप १९८५ से २००० तक लेखन....गायन...अभिनय....निर्देशन....चित्रकारी आदि सभी विद्याओं में अनियमित रूप से सक्रिय....कभी इसमें....कभी उसमें....सैकडों नाटकों एवं कईस्वलिखित व् स्वनिर्देशित नाटकों का मंचन....तथा उनमें ढेरों पुरस्कार....गायन में ढेरों पुरस्कार....अभिनय में कईयों बार बेस्ट ऐक्टर का खिताब,विभिन्न राज्य स्तरीयप्रतियोगिताओं में.....मगर इन सबके बीच घरेलु मोर्चे पर इक अलग ही तरह की ऊहापोह....या कहूँ कि जंग....और अंततः व्यापार में जाने की मजबूरी....!!

आपका शौक साहित्य से जुड़ा रहा । आपने कई स्थानीय अखबार और पत्रिकाओ मं लेखन कार्य किया है ।
भूतनाथ जी की आप पहले भी दो रचनाएं पढ़ चुके हैं इसी श्रृंखला में आज एक और रचना आपके पढ़न हेतु प्रस्तुत है -

अलग-अलग त्रिवेनियाँ



अजी कुरेदते हैं क्या राख मिरी
जो मर गए क्या ख़ाक मिलेंगे...!!
तमाम सीनों को चीर के देखो
दिल तो सबके ही चाक मिलेंगे....!!
क्या अदा है इन अदावारों की
दूर से ही कहते हैं,फिर मिलेंगे.....!!
आज सोना बटोर कर खुश होते हैं
और कल जमीं पर राख मिलेंगे....!!
गले मिलने की नौबत कब आएगी
भई,पहले तो प्यार से हाथ मिलेंगे !!
अभी तुझमें बहुत गर्मी है "गाफिल"
तुझसे इक ठोकर के बाद मिलेंगे !!
०००००००००००००००००००००००००००
००००००००००००००००००००००००००००

हम धरती पर प्यार से जी सकें,गर ये हो
तो यही हमसब पर हमारा धन्यवाद हो !!
हमारे आदमी होने में ही भलाई है सच
हम आदमियों से हमारी दुनिया आबाद हो !!
हम हर उस किसी के काम आ सकें याँ पे
जिस किसी की भी याँ जिन्दगी नासाज हो !!
धरती पर बहुतों को प्यार से हम याद आ सकें
इतना बेहतरीन जीकर हम याँ से खैरबाद हों..!!
आसमान हर किसी का ही तो है "गाफिल"
अच्छा हो कि हर किसी का यहाँ परवाज हो !!

सोमवार, 23 मार्च 2009

मैं भी कुछ कहूँ.........!![एक कविता] भूतनाथ की

बस तुझे बसा रखा है आंख भर....
अब कुछ नहीं बसता आँख पर !!
मरने के बाद खुद को देखा किया
मैं बचा हुआ था बस राख भर....!!
झुक जाने में आदम को शर्म कैसी
कौन बैठा रहता है तिरी नाक पर !!
दिन को तो फुरसत नहीं मिलती
शब रोया करती है रोज़ रात भर !!
गौर से देखो तो अलग नहीं तुझसे
खुदा इत्ता-सा है,बस तेरी आँख भर !!
बसा तो लेता गाफिल तुझे भी भीतर
दामन ही छोटा-सा था,बस चाक भर !

शनिवार, 21 मार्च 2009

कहीं आदमी पागल तो नहीं......!![राजीव जी की प्रस्तुति]

लड़का होता तो लड्डू बनवाते....लड़का होता रसगुल्ले खिलाते......... इस बात को इतनी जगह...इतनी तरह से पढ़ चूका कि देखते ही छटपटाहट होती है....मेरी भी दो लडकियां हैं...और क्या मजाल कि मैं उनकी बाबत लड़कों से ज़रा सा भी कमतर सोचूं....लोग ये क्यूँ नहीं समझ पाते....कि उनकी बीवी...उनकी बहन....उनकी

चाची...नानी...दादी....ताई.....मामी...और यहाँ तक कि जिन-जिन भी लड़कियों या स्त्रियों को वे प्रशंसा की दृष्टि से देखते हैं...वो सारी की सारी लड़किया ही होती हैं....लोगों की बुद्धि में कम से कम इतना भर भी आ जाए कि आदमी के तमाम रिश्ते-नाते और उनके प्यार का तमाम भरा-पूरा संसार सिर्फ-व्-सिर्फ लड़कियों की बुनियाद पर है....पुरुष की सबसे बड़ी जरुरत ही स्त्री है....सिर्फ इस करके उसने वेश्या नाम की स्त्री का ईजाद करवा डाला......कम-से-कम इस अनिवार्य स्थिति को देखते हुए भी वो एक सांसां के तौर पर औरत को उसका वाजिब सम्मान दे सकता है...बाकी शारीरिक ताकत या शरीर की बनावट के आधार पर खुद को श्रेष्ट साबित करना इक झूठे दंभ के सिवा कुछ भी नहीं....!!

अगर विपरीत दो चीज़ों का अद्भुत मेल यदि ब्रहमांड में कोई है तो वह स्त्री और पुरुष का मेल ही है.....और यह स्त्री-पुरुष सिर्फ आदमी के सन्दर्भ में ही नहीं अपितु संसार के सभी प्राणियों के सन्दर्भ में भी अनिवार्यरूपेण लागू होता है....और यह बात आदमी के सन्दर्भ में अपने पूरे चरमोत्कर्ष पर हैं....और बेहयाई तो ये है कि आदमी अपने दुर्गुणों या गैर-वाजिब परम्पराओं और रूदीवादिताओं के कारण उत्पन्न समस्याओं का वाजिब कारण खोजने की बजाय आलतू-फालतू कारण ढूँढ लिए हैं....और अगर आप गलत रोग ढूँढोगे तो ईलाज भी गलत ही चलाओगे.....!!और यही धरती पर हो रहा है....!!


अगर सच में पुरुष नाम का का यह जीव स्त्री के बगैर जी भी सकता है...तो बेशक संन्यास लेकर किसी भी खोह या कन्दरा में जा छिपा रह सकता है.....मगर " साला "यह जीव बिलकुल ही अजीब जीव है....एक तरफ तो स्त्री को सदा " नरक का द्वार "बताता है ....और दूसरी तरफ ये चौबीसों घंटे ये जीव उसी द्वार में घुसने को व्याकुल भी रहता है...ये बड़ी भयानक बात इस पुण्यभूमि "भारत"में सदियों से बिला वजह चली आ रही है...और बड़े-बड़े " पुण्यग्रंथों "में लिखा हुआ होने के कारण कोई इसका साफ़-साफ़ विरोध भी नहीं करता....ये बात बड़े ही पाखंडपूर्ण ढंग से दिलचस्प है कि चौबीसों घंटे आप जिसकी बुद्धि को घुटनों में हुआ बताते हो......उन्हीं घुटनों के भीतर अपना सिर भी दिए रहते हो..... !!


मैं व्यक्तिगत रूप से इस पाखंडपूर्ण स्थिति से बेहद खफा और जला-जला....तपा-तपा रहता हूँ....मगर किसी को कुछ भी समझाने में असमर्थ....और तब ही ऐसा लगता है....कि मनुष्य नाम का यह जीव कहीं पागल ही तो नहीं....शायद अपने इसी पगलापंती की वजह से ये स्वर्ग से निकाल बाहर कर...इस धरती रुपी नरक में भटकने के लिए छोड़ दिया गया हो.....!!या फिर अपनी पगलापंती की वजह से ही इसने धरती को नरक बना दिया हो....जो भी हो....मगर कम-से-कम स्त्री के मामले में पुरुष नाम के जीव की सोच हमेशा से शायद नाजायज ही रही है....और ये नाजायज कर्म शायद उसने अपनी शारीरिक ताकत के बूते ही तो किया होगा.....!!


मगर अगर यह जीव सच में अपने भीतर बुद्धि के होने को स्वीकार करता है....तो उसे स्त्री को अपनी अनिवार्यरूह की तरह ही स्वीकार करना होगा....स्त्री आदमी की तीसरी आँख है....इसके बगैर वह दुनिया के सच शुद्दतम रूप में नहीं समझ सकता....." मंडन मिश्र " की तरह....!!और यह अनिवार्य सच या तथ्य (जो कहिये) वो जितनी जल्दी समझ जाए...यही उसके लिए हितकर होगा....क्योंकि इसीसे उसका जीवन स्वर्ग तुल्य बनने की संभावना है.....इसीसे अर्धनारीश्वर रूप क सार्थक होने की संभावना है.....इसी से धरती पर प्रेम क पुष्प खिलने की संभावना है....इसीसे आदमी खुद को बतला सकता है कि हाँ सच वही सच्चा आदमी है....एक स्त्री क संग इक समूचा आदमी......!!!!!



कभी रस्सी की तरह तनी-सी देखी है
कभी परी की तरह बनी-सी देखी है !!
रात को रोया है अक्सर ही आसमां
सुबह को जमीं में नमी-सी देखी है !!
पिघलती रही है जो आग की मानिंद
अगले पल मोम-सी जमी-सी देखी है !!
ये औरत है याकि डर का दूसरा नाम
हर बखत किसी से सहमी-सी देखी है !!
हर बार ये आदमी से दब जाती है यूँ
अपना घर बचाने को ठनी-सी देखी है !!
मैं उससे बचना चाहता हूँ एय "गाफिल"
इक औरत जो "दुर्गा"सी बनी-सी देखी है !!


हिन्दी साहित्य मंच के नये वाहक राजीव की भेंट .............

गुरुवार, 19 मार्च 2009

किसान

सूखी हुई पत्तियों को,

बिखेरती चिड़िया,

चर्र-चर्र की आती आवाज,

हवा के एक झोंके से,


महुए की गंध चारों तरफ फैलती है ,



करौदें के पेड़ पर ,

बैठा बुलबुल चहकता हुआ

प्यार बिखरेता है ।


खेतों की हरियाली,

सूख चली है ,

सूरज की गर्म किरणों के बीच,

तपता किसान,

हाथों में हसिया लिए,

चेहरे पर मुस्कान की रेखा खींचता है,


पसीने की बूँदों से तर-बतर उसका शरीर,

उसे परेशान नहीं करता ,


वह तो खुश है अपनी फसल को देख ,

अपने जीवन को देख,


पेड़ की छावं में छाया नहीं जीवन की ,

फिर भी

उसी की आड़ में बैठ ,

मदमस्त है,


प्रसन्न है ।

सोमवार, 16 मार्च 2009

ईमानदारी का पुरूस्कार

एक बड़े व्यापारिक संस्थान की शाखा का कार्यालय पास ही के उपनगर में था जहां कार्यालय में एक कर्मचारी ओटो रिक्शा से आता था। उसे दैनिक भत्ते के सिवाय ओटो का भाड़ा भी दिया जाता था। भाड़ा चालीस रूपए के आस-पास बनता था। मगर कर्मचारियों ने परस्पर तय कर लिया था। जो भी आये-जाये वह खर्च का सौ रूपये का ही वाउचर बनाएगा। बाकी बचा रूपया अपनी जेब के हवाले कर देगा। इसमें वाउचर मंजूर करने वाले अधिकारी का भी प्रतिशत बंधा था। कर्मचारी और अधिकारी की सांठ-गांठ थी।ये समझो क उन लोगों की दसों उंगलियॉं घी में और सिर कढ़ाई में था.

हर तीन माह बाद यह डयूटी बदलती रहती थी। थोडे दिनों बाद एक निकम्मे (ईमानदार) कर्मचारी की डयूटी लगी तो उसने चालीस रूपए खर्च का वाउचर बनाया।

निचले वर्ग के अधिकारी ने कहा कि वाउचर तो सौ रूपए का बनता था है। क्या तुम इतना भी नहीं जानते?
सर! मैंने तो ओटो का भाड़ा चालीस रूपए ही दिया है। मैं अधिक भाड़ा कैसे ले सकता हूं? अधिकारी के बार-बार समझाने पर भी वह अपनी बात पर अडिग रहा। अनीति का धन लेना यानी कंपनी के साथ धोखा। बचपन में मां ने नीति का ही पाठ पढ़ाया था। अधिकारी उससे ज्यादा न उलझा।

उसने प्रतिष्ठान के बड़े अफसर से मुलाकात करनी चाही। अपने केबिन से बाहर निकल ही रहा था कि द्वार पर खडे दो-चार कर्मचारियों ने कहा, 'क्यों, यार, हमारे पेट पर लात मारते हो?' वाउचर सौ रूपए का बनाते तो तुम्हारा क्या घिस जाता? मगर उसने सुनी अनसुनी कर दी। सीधा बड़े साहब के केबिन में गया। सारी घटना कह सुनाई। बड़े साहब ने तो उसकी ईमानदारी की भूरि भूरि प्रशंसा की।

उसी शाम को चपरासी द्वारा पीले रंग का लिफाफा मिला। उसमें लिखा था। प्रतिष्ठान को आपकी जरूरत नहीं है। और वो बेचारा हाथ मे लिफाफा पकडे यही सोचता रहा कि उसे ईमानदारी का ये कैसा पुरूस्कार मिला है?।

ऊँचे दृष्टिकोण (डॉ.रुपचन्द्र शास्त्री मयंक)

भूल चुके हैं आज सब, ऊंचे दृष्टिकोण,

दृष्टि तो अब खो गयी, शेष रह गया कोण।


शेष रह गया कोण, स्वार्थ में सब हैं अन्धे,


सब रखते यह चाह, मात्र ऊँचे हो धन्घे।


कह मयंक उपवन में, सिर्फ बबूल उगे हैं,


सभी पुरातन आदर्शो को, भूल चुके हैं।

मूछ वाणी । (कुण्डलियाँ छन्द में कुछ पुरानी रचनाऐं) (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री मयंक)

(१)

आभूषण हैं वदन का, रक्खो मूछ सँवार,

बिना मूछ के मर्द का, जीवन है बेकार।

जीवन है बेकार, शिखण्डी जैसा लगता,

मूछदार राणा प्रताप, ही अच्छा दिखता,

कह ‘मंयक’ मूछों वाले, ही थे खरदूषण ,

सत्य वचन है मूछ, मर्द का है आभूषण।

(२)


पाकर मूछें धन्य हैं, वन के राजा शेर,

खग-मृग सारे काँपते, भालू और बटेर।

भालू और बटेर, केसरि नही कहलाते,

भगतसिंह, आजाद मान, जन-जन में पाते।

कह ‘मयंक’ मूछों से रौब जमाओ सब पर,

रावण धन्य हुआ जग में, मूछों को पा कर।

(३)

मूछें बिकती देख कर, हर्षित हुआ ‘मयंक’,

सोचा-मूछों के बिना, चेहरा लगता रंक।

चेहरा लगता रंक, खरीदी तुरन्त हाट से,

ऐंठ-मैठ कर चला, रौब से और ठाठ से।

कह ‘मंयक’ आगे का, मेरा हाल न पूछें,

हुई लड़ाई, मार-पीट में, उखड़ थी मूछें।

रविवार, 15 मार्च 2009

प्रेम फैलाओ

क्षेत्रवाद कि बातें छोड़ो

प्रेम-वर्षा करते जाऒ

विष वमन में नहीं कुछ

अमर बेल तुम फैलाऒ

जाऒ समझाये उनको

बैर फैलाना नासमझी

उपद्रव से नहीं बनती

प्रेम शांती की बस्ती

देख रहा जग हमको

आशा भरी नजरों से

मत मचाऒ उपद्रव

शर्मों हया छोड़के

रोको, बहुत हुआ

ये जंगली खेल

चल पड़ो संकल्पित हो

बना ध्येय फैलाना प्रेम.


प्रस्तुति- कवि विनोद बिस्सा जी

शनिवार, 14 मार्च 2009

सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं। डॉ0 रूपचन्द्र शास्त्री मयंक

सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।

अनुबन्ध आज सारे, बाजार हो गये हैं।।

न वो प्यार चाहता है,

न दुलार चाहता है,

जीवित पिता से पुत्र,

अब अधिकार चाहता है,

सब टूटते बिखरते, परिवार हो गये हैं।

सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।।

घूँघट की आड़ में से, दुल्हन का झाँक जाना,

भोजन परस के सबको, मनुहार से खिलाना,

ये दृश्य देखने अब, दुश्वार हो गये हैं।

सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।।

वो सास से झगड़ती, ससुरे को डाँटती है,

घर की बहू किसी का, सुख-दुख न बाटँती है,

दशरथ, जनक से ज्यादा लाचार हो गये हैं।

सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।।

जीवन के हाँसिये पर, घुट-घुट के जी रहे हैं,

माँ-बाप सहमे-सहमे, गम अपना पी रहे हैं,

कल तक जो पालते थे, अब भार हो गये हैं।

सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।।

हिन्दी साहित्य मंच - एक सामूहिक प्रयास हिन्दी उत्थान हेतु

हिन्दी साहित्य मंच द्वारा एक सामूहिक प्रयास हिन्दी उत्थान हेतु । साहित्य के नये, युवा रचनाकार ,कविओं और हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में उभरते हुए लोगों के लिए । यह मंच आपके सुझाव एवं आमंत्रण को स्वीकार करता हैं । इस प्रयास में आपकी भागीदारी अत्यंत आवश्यक और महत्तवपूर्ण है ।भाषा के विकास और गिरते स्तर को देखकर यह मंच स्थापित किया गया है ।

हमारी आपकी सहभागिता से ही विकास के पथ को अग्रसर किया जा सकता है । साथ ही एक महत्तवपूर्ण प्रश्न यह भी आता है कि हम किस तरह से कार्य करें कि सफलता के नये रास्ते और नये आयाम तक पहुंचा जा सके । आप अपनी बात कहें और आम सहमति से निर्णय लिया जायेगा।
इस तरह के और भी लोग सामूहिक प्रयास कर रहे हैं और सफल भी हुए है । तो आप भी क्यों न आपना अहम योगदान और प्रयास इस ' हिन्दी साहित्य मंच ' दें ।

आप अपना मेल और अपनी राय इस पते पर दें -www.hindisahityamanch@gmail.com

संचालक- हिन्दी साहित्य मंच ( हिन्दी साहित्य प्रेमियों का मंच)
मोबाइल नं-०९८१८८३७४६९