हमारा प्रयास हिंदी विकास आइये हमारे साथ हिंदी साहित्य मंच पर ..

लेख लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
लेख लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 13 मार्च 2012

वैज्ञानिक एवं सर्वश्रेष्ठ है नागरी लिपि- जस्टिस जोइस

नई दिल्ली। ‘नागरी लिपि पूर्णतयः वैज्ञानिक एवं विश्व की सर्वश्रेष्ठ लिपि है। भारत की सभी भाषाओं की एक अतिरिक्त लिपि के रूप में यह राष्ट्रीय एकता का सेतूबंध है इसलिए मैंने संसद सदस्य के रूप में पेश अपे प्राईवेट बिल के द्वारा हर भारतीय नागरिक के लिए इसका प्रशिक्षण अनिवार्य करने का सुझाव दिया है।’ सांसद जस्टिस एम.रामा जोइस ने आजाद भवन में नागरी लिपि राष्ट्रीय संगोष्ठी में मुख्य अतिथि के पद से बोलते हुए संसद में विभिन्न स्थानों पर सुनहरी अक्षरों से नागरी लिपि में लिखे सद्वाक्यों की चर्चा भी की। भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद एवं नागरी लिपि परिषद के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित इस एक दिवसीय संगोष्ठी के अध्यक्ष सांसद डॉ. रामप्रकाश, विशिष्ट अतिथि पूर्व सांसद डॉ. रत्नाकर पाण्डेय, विशेष अतिथि लोकसभा चैनल के संपादक श्री ज्ञानेन्द्र पाण्डेय, प्रवासी साहित्यकार डॉ. उषा राजे सक्सेना ने भी नागरी लिपि की जरूरत पर बल दिया। इससे पूर्व संस्था के महामंत्री डॉ. परमानंद डा. पांचाल ने आचार्य विनोबा भावे द्वारा स्थापित नागरी लिपि परिषद के उद्देश्यों की चर्चा करते हुए नागरी को विश्वलिपि बनने के सर्वदा योग्य बताया। सभी का स्वागत श्री बलदेवराज कामराह ने किया।
इसी सत्र में प्रतिष्ठित विनोबा नागरी सम्मान कर्नाटक से पधारे नागरी सेवा डा. इसपाक अली को प्रदान किया गया। पुरस्कार में पुण्पगुच्छ, स्मृतिचिन्ह, प्रशस्तिपत्र, शाल तथा आठ हजार की नकद राशि प्रदान की गई। नागरी लिपि के प्रचार- प्रसार में अपना सर्वस्व समर्पित कर देने वाले प. गौरीदत्त की स्मृति में आरंभ किया गया प्रथम प.गौरीदत्त नागरी सेवी सम्मान श्री आनंद स्वरूप पाठक को उनकी दीर्घकालीन नागरी सेवाओं के लिए प्रदान किया गया। इसके अरिक्त राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित नागरी निबन्ध प्रतियोगिता के विजेता छात्रों और उनके विद्यालयों को भी पुरस्कार प्रदान किए गए। धन्यवाद ज्ञापन गगनांचल के संपादक डा. अजय गुप्ता ने किया।
भोजनोपरान्त सत्र ‘सूचना प्रौद्योगिकी और नागरी लिपि कम्प्यूटर प्रयोग के संदर्भ में’ विषय पर महत्वपूर्ण चर्चा को समर्पित रहा। इस सत्र की अध्यक्षता जाने- माने पत्रकार श्री राहुलदेव ने की। वक्ता डॉ. ओम विकास, डॉ. बी.एन.शुक्ला, श्री अनिल जोशी, डॉ.. भारद्वाज ने वर्तमान युग को सूचना का युग बताते हुए इन्टरनेट पर हिन्दी के बढ़ते कदमों से परिचित करवाया वहीं इसके अधिकाधिक प्रयोग के लिए आधुनिकतम प्रौद्योगिकी की जानकारी पर बल दिया। बहुत बढ़ी संख्या में उपस्थित हिन्दी, नागरी प्रेमियों ने विशेषज्ञों से अनेक प्रश्न भी पूछे जो उनकी रूचि से अधिकं आवश्यकता का प्रमाण थे। अंत में संस्था की कार्यसमिति के सदस्य श्री विनोद बब्बर ने सभागार में उपस्थित विद्वानों, का आभार व्यक्त करते हुए ऐसी कार्यशालाओं की आवश्यकता पर बल दिया।

बुधवार, 27 जुलाई 2011

पर्दा प्रथा: विडंबना या कुछ और---------मिथिलेश दुबे

अपने देश में महिलाओं को (खासकर उत्तर भारत में ज्यादा) पर्दे में रखने का रिवाज है । इसके पीछे का कारण शायद ही कोई स्पष्ट कर पाये फिर भी ये सवाल तो कौंधता ही है कि आखिर क्यों ? मनुष्यों में समान होने के बावजूद भी महिलाओ‍ को ढककर या छिपाकर रखने के पीछे का क्या कारण हो सकता है ? ये सवाल हमारे समाज में अक्सर ही किया जाता रहा है, कुछ विद्वानों का मानना है कि पर्दा प्रथा समाज के लिये बहुत ही आवश्यक है इसके पीछे के कारण के बारे में उनका कहना है कि इस प्रथा से पुरूष कामुकता को वश में किया जा सकता है । लेकिन इस जवाब के संदर्भ में ये सवाल भी खड़ा होता है कि क्या पुरूष की कामुकता इतनी बढ़ गयी है कि उसे अपने ही समकक्ष महिला साथी को कैदियों की तरह रखना पड़ रहा है? तो क्या ये माना जाये कि पर्दा प्रथा से दूराचार रोका जा सकता है ? जहाँ तक मेरा मानना है कि ऐसा सोचना व्यर्थ ही होगा क्योंकि दुनियां में जितने भी गलत काम होते हैं वे चोरी छिपे ही होते हैं । तो इस परिपेक्ष्य में ऐसा सोचना मुर्खता मात्र ही होगा । तन ढकने या पर्दा करने से पुरूषों की या किसी अन्य की प्रवृत्ति या सोच पर अंकुश लगाया जा सकता है ? शायद आपका जवाब नहीं होगा। आपको ये जानकर हैरानी होगी जिन देशों, प्रदेशों या जातियों में पर्दा प्रथा की प्रचलन ज्यादा है वहाँ दुराचार जैसे मामलें सबसे ज्यादा प्रकाश में आते है । इससे ये बात तो साफ हो जाती है कि दुराचार रोकने के मामले में पर्दे का रिवाज का कोई संबंध नहीं है। आज समाज को जरुरत तन को ढकने की नहीं मन को ढकने की जरुरत ज्यादा है । फिर भी कुछ लोग अनाचार की रोकथाम के लिए पर्दा प्रथा को जरुरी समझते है तो इस व्यवस्था को नर पर लागू करने की जरुरत ज्यादा है क्योंकि नारी की अपेक्षा नर ज्यादा उच्छंखल होता है ।नारी की अपेक्षा पुरुष ज्यादा स्वछंद घूमता है ऐसी दशा में उसके पतित होने की आशंका ज्यादा है। महिलाएं तो ज्यादातर घरेलू कामों में व्यस्त रहती हैं और घर में ही रहती हैं, पुरुष काम के चलते बाहर होते हैं इसलिए पर्दे की जरुरत उन्हें ज्यादा है।

इस प्रथा के चलते हम अपने प्रिय संबंधिनी को बेहद निरीह स्थिति में ढकेल देते हैं जिससे वह अपनी योग्यता, क्षमता और के वजूद को भी खो देती है। प्रतिभा संपन्न होने के बावजूद वह नारी अपने परिवार के लिए व अपने हित के लिए कुछ भी नहीं कर पाती और आज की भारभूत स्थिति में अपंग मात्र ही बनकर रह गयी है । इस बात को जितनी जल्दी गंभीरतापूर्वक सोचा जाए जाएगा उतना ही स्पष्ट होता जाएगा कि इस पर्दा प्रथा कुछ और नहीं अपनी कुल्हाणी से अपने ही पैरों को अनवरत रूप से काटने चले जाना है । आज जब हम प्रगति पथ पर बढ रहे हैं, देश विकास कर रहा है ऐसी स्थिति में पर्दा जैसी विडंबनाओ को अपनाने का आग्रह करना, जोर देने का मतलब समझ ही नहीं आता। कारण चाहे जो भी हो इस प्रथा से स्त्री अपने क्षमता को खोती है तथा वह खुद को असहाय समझने लगती है तथा खुद को कायर, निर्बल और भीरूता की कतार में खड़ी पाती है। पर्दे में रखकर उसे कमजोर और अविश्वषनीय होने का अहसास कराया जाता है। पर्दा प्रथा हमारे देश या संस्कृति में कभी भी प्रचलित नहीं रही है । प्राचीनकाल में स्त्रियां सभी क्षेत्रों में काम करती थी और उन्हे विद्याध्ययन योग्यता अभिवर्धन और अपनी प्रतिभा से समाज को लाभ पहुंचाने की खुली छूट थी, उन्हें कहीं किसी प्रतिबंध में नहीं रहना पड़ता था। भारत में पर्दा प्रथा का आगमन विदेशी आक्रमणकारियों के साथ हुआ। सर्वविदित है कि पर्दा प्रथा पहले मुस्लिम दशों मे शरू हुआ था। इस घातक परंपरा को समूल नष्ट करने के लिए किसी स्त्री का घूंघट खुलवा देना पर्दा न करने के लिए तैयार कर देना भर पर्याप्त नहीं है। कितना अच्छा होत कि वर्तमान भारत का समाज अपने घरों के अन्दर से इस बनावटी परदा को हटा कर उस भीषण भूल का प्रतिरोध करे, जिसके कारण हमारे घर ही देवियां एक न एक रोग से पीड़ित रहती हैं । घर के बाहर की दुनियां से अनजान रहकर घूटती रहती हैं ।

कितने ही लोगों का भ्रम अब भी नहीं मिटा कि परदा छोड देने से स्त्रियां स्वतंत्र हो जाती हैं, किंतु यह उनका भ्रम ही नहीं अंधविश्वास है। गुजरात महाराष्ट्र, मद्रास की स्त्रियों ने परदाक न कर कौन से शील धर्म को नष्ट किया है ? वरन यों कहिए कि भारत के नारी धर्म का वास्तविक मान आन इन्ही प्रान्तों ने रख लिया, आज स्त्री अपरहण, बलात्कार की जितनी घटनाएं अपने देश मे घटित होती है क्या उनसे शतांश घटनाएं परदा हटाने वाने देशों में हुआ है। नारी का शोषण उन प्रदेशों में ज्यादा हो रहा है जहां परदा प्रथा हो धर्म तथा संस्कुति से जाड़कर जबरदस्ती इस कुप्रथा को थोपा जा रहा है। यह तो माना हुआ सिद्धांत है कि जो वस्तु जितनी छिपा कर रखी जाएगी बाहरी परिस्थियां उसे प्रकाश में लाने के लिए उतनी ही विशेष उत्कंठा दिखाएगी और भीतरी परिस्थिति उसे छिपाने के लिए उतनी ही संकीर्ण और निर्बल होती रहेगी। ऐसे प्रथा के निर्वहन का बोझ हम अक्सर पुत्रवधू पर डालते हैं, हमे ध्यान रखना चाहिए कि पुत्रवधू बुटी के समान होती है । अब समय आ गया है जब पर्दा प्रथा जैसी कुरीति को हटाए जाए । नर और नारी दोनों एक ही मानव समाज के अभिन्न अंग है। दानो का कर्तव्य और एक हैं । नियत प्रतिबंध और कानून दानों के प्रति एक जेसे होने चाहिए। यदि पर्दा प्रथा शील सदाचार की रक्षा के लिए है तो उसे नर पर लागू किया जाना चाहिए कयोंकि दूराचार में पुरूष हमशा आगे रहता है। यदि यह पुरूष के लिए आवश्यक नही है तो नारी पर भी इस प्रकार का प्रतिबंध नहीं होना चाहिए अवांछनीय हैं। मेरा पर्दा प्रथा के विरोध करने का ये मतलब कतई नहीं है की असंगत कपड़े पहनने की छूट दी जाये मेरा। वस्त्रेणेव वासया मन्मता शुचिम् ऋगवेद 1।140।1 हम उत्तम वस्त्र से गोपनीय अंगो को ढक देते हैं।

जब पशु पक्षी पर्दा नहीं करते, मुंह नही ढकते उनमे ऐसी कोई प्रतिबद्धता नहीं है तो मानव में आजादी का हरण इस तरह क्यों हो रहा है?

रविवार, 3 जुलाई 2011

चवन्नी का अवसान : चवनिया मुस्कान--------श्यामल सुमन


सच तो ये है कि चवन्नी से परिचय बहुत पहले हुआ और"चवनिया मुस्कान" से बहुत बाद में। आज जब याद करता हूँ अपने बचपन को तो याद आती है वो खुशी, जब गाँव का मेला देखने के लिए घर में किसी बड़े के हाथ से एक चवन्नी हथेली पर रख दिया जाता था "ऐश" करने के लिए। सचमुच मन बहुत खुश होता था और चेहरे पर स्वाभाविक चवनिया मुस्कान आ जाती थी। हालाकि बाद में चवनिया मुस्कान का मतलब भी समझा। मैं क्या पूरे समाज ने समझा। मगर उस एक दो चवन्नी का स्वामी बनते ही जो खुशी और "बादशाहत" महसूस होती थी, वो तो आज हजारों पाकर भी नहीं महसूस कर पाता हूँ।

15 अगस्त 1950 से भारत में सिक्कों का चलन शुरू हुआ। उन दिनों "आना" का चलन था आम जीवन में। आना अर्थात छः पैसा और सोलह आने का एक रूपया। फिर बाजार और आम आदमी की सुविधा के लिए 1957 में दशमलव प्रणाली को अपनाया गया यानि रूपये को पैसा में बदल कर। अर्थात एक रूपया बराबर 100 पैसा और 25 पैसा का सिक्का चवन्नी के नाम से मशहूर हो गया।

भले ही 1957 में यह बदलाव हुआ हो लेकिन व्यवहार में बहुत बर्षों बाद तक हमलोग आना और पैसा का मेल कराते रहते थे। यदि 6 पैसे का एक आना और 16 आने का एक रूपया तो उस हिसाब से एक रुपया में तो 16x6 = 96 पैसे ही होना चाहिए। लेकिन उसको पूरा करने के लिए हमलोगों को समझाया जाता था कि हर तीन आने पर एक पैसा अधिक जोड़ देने से आना पूरा होगा। मसलन 3 आना = 3x6+1=19 पैसा। इस हिसाब से चार आना 25 पैसे का, जो चवन्नी के नाम से मशहूर हुआ। फिर इसी क्रम से 7 आने पर एक पैसा और अधिक जोड़कर यानि 7x6+2 = 44 पैसा, इसलिए आठ आना = 50 पैसा, जो अठन्नी के नाम से आज भी मशहूर है और अपने अवसान के इन्तजार में है। उसके बाद 11 आने पर 3 पैसा और 14 आने पर 4 पैसा जोड़कर 1 रुपया = 16x6+4 = 100 पैसे का हिसाब आम जन जीवन में खूब प्रचलित था 1957 के बहुत बर्षों बाद तक भी।

हलाँकि आज के बाद चवन्नी की बात इतिहास की बात होगी लेकिन चवन्नी का अपना एक गौरवमय इतिहास रहा है। समाज में चवन्नी को लेकर कई मुहाबरे बने, कई गीतों में इसके इस्तेमाल हुए। चवन्नी की इतनी कीमत थी कि एक दो चवन्नी मिलते ही खुद का अन्दाज "रईसाना" हो जाता था गाँव के मेलों में। लगता है उन्हीं दिनों मे किसी की कीमती मुस्कान के लिए"चवनिया मुस्कान" मुहाबरा चलन में आया होगा। चवन्नी का उन दिनों इतना मोल था कि "राजा भी चवन्नी ऊछाल कर ही दिल माँगा करते थे"। यह गीत बहुत मशहूर हुआ आम जन जीवन में जो 1977 में बनी फिल्म "खून पसीना" का गीत है।

"मँहगाई डायन" तो बहुत कुछ खाये जात है। मँहगाई बढ़ती गयी और छोटे सिक्के का चलन बन्द होता गया। 1970 में 1,2और 3 पैसे के सिक्के का चलन बन्द हो गया और धीरे धीरे चवन्नी का मोल भी घटता गया। चवन्नी का मोल घटते ही "चवन्नी छाप व्यापारी", "चवन्नी छाप डाक्टर" आदि मुहाबरे चलन में आये जो क्रमशः छोटे छोटे व्यापारी और आर०एम०पी० डाक्टरों के लिए प्रयुक्त होने लगा।

और आज चवन्नी का इतना मोल घट गया "मंहगाई डायन" के कारण कि आज उसका का अतिम संस्कार है। चवन्नी ने मुद्रा विनिमय के साथ साथ समाज से बहुत ही रागात्मक सम्बन्ध बनाये रखा बहुत दिनों तक। अतः मेरी विनम्र श्रद्धांजलि है चवन्नी को उसके इस शानदार अवसान पर।

शनिवार, 2 जुलाई 2011

सरकार भी संसद से ऊपर नहीं - शम्भु चौधरी

भारत जब से आज़ाद हुआ इसके आज़ादी के मायने ही बदल गये। सांप्रदायिकता के नये-नये अर्थ शब्द कोश में भरने लगे। इसका सबसे ताजा उदाहरण है भ्रष्टाचार की बात करने वाले भी अब सांप्रदायिक तकतों से हाथ मिला लिये। कुछ दिन पहले बाबा रामदेव के लिए लाला कारपेट बिछाने वाली कांग्रेस को अचानक से एक ही दिन में सांप्रदायिक नजर आने लगे। अब अन्ना हजारे पर भी आरोप मढ़ दिया कि वे भ्रष्टाचार की लड़ाई में सांप्रदायिक ताकतों को साथ लेकर सरकार से लड़ाई कर रहे हैं। जब तक कांग्रेसियों का मन होगा और आप उनकी बात मानते रहेगें वो धर्मनिरपेक्ष नहीं तो सांप्रदायिक।

इस लेख को पढ़ने से पहले हम इस बात पर बहस शुरु करें कि हमें बात किस विषय पर करनी है? हमारी बातों का मुख्य मुद्दा क्या है? भ्रष्टाचार है कि सांप्रदायिकता।

सरकार जो जन लोकपाल बिल संसद के सदन में रखने जा रही है उसमें किन-किन बातों का उल्लेख सरकार करना चाहती है और कौन से मुद्दे को वो अलोकतांत्रिक मानती है? और किसे लोकतांत्रिक।

सरकार के जो बयान हमें पढ़ने और सुनने को मिल रहें हैं वे न सिर्फ तानाशाही बयान है बल्कि भ्रष्टाचार के मुद्दे की उन सभी बातों को सांप्रदायिकता के साथ जोड़ मुसलमानों के एक वर्ग को इस आन्दोलन से अलग-थलग रखना चाहती है। कांग्रेस एक तरफ असम का उदाहरण देती है तो दूसरी तरफ तामिलनाडू के चुनाव परिणामों को बताना भूल जाती है। एक तरफ देश में भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए अपनी प्रतिबद्धता दर्शाती है तो दूसरी तरफ अपंग जन लोकपाल बिल की वकालत करती है। एक तरफ विधेयक के प्रारूप पर चर्चा करने के लिए सर्वदलीय बैठक बुला रही है तो दूसरी तरफ सिविल सोसाइटी के सदस्यों को सांप्रदाकिता से जोड़ कर देश को गुमराह करना चाहती है। भला हो भी क्यों नहीं? पिछले 30 सालों में देश के अन्दर धर्मनिपेक्षता के मायने काफी बदल गये। देश में बुद्धिजीवियों की एक बहुत बड़ी जमात पैदा हो गई जो देश को सांप्रदायिक ताकतों से बचाकर रखना चाहती है। ये वही है जो एक समय देश को गांधी परिवार से बचा कर रखना चाहती थी। सरकार चाहती है कि वे अपनी सभी बातों को सांप्रदायिकता की आड़ लेकर मना लें। भला हो भी क्यों नहीं हम जब अन्ना को तानाशाह के रूप में स्वीकार कर सकतें हैं तो सरकार के सभी बातों को जायज क्यों नहीं मान सकते। सिविल सोसाइटी के सदस्य क्या चाहतें हैं और इनके द्वारा सूझाये गये सुझावों को कौन संसद में कानून की मान्यता देगा? जब मान्यता देने वाले ही वे लोग है जो खुद को चुने हुए देश के प्रतिनिधि मानते हैं तो उनको इतना भय किस बात का हो गया कि वे 16 अगस्त के अनशन को संसद को चुनौती मान रहे हैं? जब सरकार अपने सूझाये गये बिल पर इतनी ईमानदार है तो बजाय बिल में सूझाये गये अपने पक्ष को मजबूती से रखने के समाज सदस्यों पर बयानबाजी करने की क्या जरूरत पड़ गई? जब सरकार खुद ही मानती है कि संसद से ऊपर कोई नहीं, तो इसमें यह भी जोड़ दें कि सरकार भी संसद से ऊपर नहीं है। जन लोकपाल का विधेयक संसद में सरकार लायेगी और गलत विधेयक का संसद के बाहर विरोध करना और उसके विरोध में जनता के बीच अपनी बातों को पंहुचाना जनता का लोकतांत्रिक अधिकार है। परन्तु सरकार शब्दों के प्रयोग से देश को भ्रमित करने का प्रयास कर रही है। माना कि भारत की अदालतें शब्दों के बाजीगर को महत्व देती है पर यहाँ अदालत में बहस नहीं देश की संसद के भीतर सांसदगण अपना पक्ष रखेगें। देश की जनता से जुड़े कई सवाल इस लोकपाल बिल से जुड़ चुकें हैं। आज सत्तापक्ष के 4-5 मंत्री भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में हवा खा रहें हैं ऐसे में जनता एक सीधा सा सवाल जानना चाहती है कि जिस भ्रष्टाचार की बात देश की जनता करना चाह रही है, क्या सरकार द्वारा सुझाये गये लोकपाल विधेयक में उसी बातों को उल्लेख है? यदि हाँ! तो सरकार साफ तौर पर उसका जिक्र करें न कि कभी सांप्रदायिकाता की आड़ लें तो कभी संसद की आड़ लेकर देश को गुमराह करने का काम करें।

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

बच्चे की मदर----- मिथिलेश

कई दिनों से घर जाने की तैयारी चल रही थी और अब तो होली बस दो ही दिन दूर था। हमेशा की तरह इस बार भी घर जाने को लेकर मन बहुत ही उत्साहित था । भले ही अब घर जाने के बीच का अंतराल कम हो गया हो लेकिन घर पर एक अलग तरह का ही सुख मिलता है। घर पर न तो काम का बोझ और न ही खाना बनाने की चिंता, बर्तन और कपड़े धोना जो मुझे सबसे ज्यादा दुष्कर लगता है उससे भी छुटकारा मिल जाता है। घर पर बार-बार खाने को लेकर मम्मी का आग्रह उनका प्यार अच्छा लगता है। नहीं तो जब बाहर होते हैं तो खाना खा लें समय पे बड़ी बात है अब ये बात और है कि ये सारे सुख कुछ दिन के ही होते हैं। जब से लखनऊ हूं महीनें दो महीनें में एक चक्कर घर का तो हो ही जाता है। इस बार होली होने के कारण घर जाने का उत्साह दो गुना था। सुबह 7 बजे की ट्रेन थी, साढ़े छः के आस पास स्टेशन पहुंचा। मैं स्टेशन पर अभी ठिक से खड़ा ही हुआ अगले क्षण जो भी देखा मेरी ऑखें खुली की खुली ही रह गईं। जिस ट्रेन से मुझे जाना था वह अभी आउटर पर ही थी, लेकिन ये क्या लोग तो आउटर से ही ट्रेन पर बैठना शुरू कर दिये। थोड़ी देर तक स्थिति समझने में लगा रहा, उसके बाद मैं भी ट्रेन की तरफ भागा। अन्दर जाने के बाद जो स्थिति सामने थी उससे हतप्रभ था । पहली बार इस ट्रेन में इतनी भीड़ थी जबकि गाड़ी अभी आउटर पर ही थी। खैर इतनी भीड़ होने के बावजूद खिड़की के पास वाली सीट ढूंढने में लगा था।

डब्बे में काफी देर तक टहलने के बाद जब ये कनर्फम हो गया कि आज तो खिड़की वाली सीट मिलने से , सीटों की मारा मारी देखकर अब तो सीट मिल जाए यही प्राथमिकता शेष थी। काफी मशक्कत करने के बाद अन्ततः सीट मिल ही गई। हॉं इस बार खिड़की वाली सीट नही मिली। मेरे सामने वाले बर्थ पर भी इतनी जगह थी कि एक लोग उसपर बैठ सकते थे। कुछ देर बाद गाड़ी आउटर से प्लेटफार्म पर आ खड़ी हुई। अब काफी राहत महसूस कर रहा था , बैग को रखकर अब थोड़ा आराम के मूड में था। मुझे क्या पता कि मेरा ध्यान कुछ ही देर में भंग होने वाला है। ट्रेन का हार्न हो चुका था , गाड़ी अब चलने को ही थी तभी भागमभाग की स्थिति में एक महिला का मेरे वाले डब्बे में प्रवेश होता है, लोगों की नजरें उस रास्ते की ओर थी जिस ओर से वे सरपट कदम चले आ रहे थे । मैं भी बाट जोहने लगा , मैंने भी सोचा कौन आ रहा देख ही लिया जाए । अभी गर्दन उचका ही रहा था कि वह सुंदर मैडम मेरे पास आ पहुंची और जरा हटने के लिए कहा मैं डर के मारे बगल हो गया और मैडम जी मेरे सामने वाली खाली सीट बैठ गईं । मैडम का चेहरा सौम्य था ,पहनावे से बडे़ घर की लग रही थीं , ब्लू जींस पर ब्लैक टी शर्ट फब रहा था। अभी मैं पहनावे से उनको पढ़ने की कोशिश कर ही रहा था कि बच्चे के राने की आवाज आई , ऊपर सर उठा के देखा तो उनके गोदी में छोटा बच्चा जो करिब पॉंच छे महीनें का लग रहा था । अब तक मैडम जी अपने सीट पर बैठ चुकी थीं, मेरे सामने वाले सीट पर। बच्चा अभी सो रहा था। गाड़ी अब अपने पुरे स्पीड से भाग रही थी। कुछ देर चलने के बाद स्पीड थोड़ी कम हुई , मेरा अनुमान सही निकला , अगले स्टेशन पर गाड़ी रुकने वाली थी।

बच्चे ने झटके से दूध का बोतल गिरा दिया और दोबारा से रोने लगा। ये सब देखकर बगल में बैठी आंटीने दोबारा अपनी खामोशी तोड़ी, बेटी अपना दूध पिला दो कहते-कहते न जाने क्यों खामोश हो गईं। मैं बहुत देर तक उस खामोशी और चेहरे पर आई सिकन का कारण ढूंढ़ता रहा।


मेरे बगल में बैठे भाई साहब इसी स्टॉप पर उतरने के लिए तैयारी करने लगें, गाड़ी रुकती है भाई साहब उतर जाते हैं । तभी किसी ने मुझसे कहा बेटा जरा साईड हो जाओ ,देखा तो एक महिला साड़ी में जो मेरे दादी की उम्र की लग रहीं थी, एक छोटे बैग के साथ मेरे बगल वाली खाली सीट पर बैंठ गईं । कुछ देर के स्टोपेज के बाद ट्रेन दोबारा से चल पड़ी । सामने वाली मैडम के गोदी में उनका बच्चा सोते हुए बड़ा ही प्यारा लग रहा था। बगल में बैठी महिला ने मुझसे बेटा कहॉं तक जाओगे , मैंने कहा मैं तो वाराणसी तक जाऊंगा ,आप ? आंटी जी ने कहा कि मैं तो प्रतापगढ़ तक जाऊंगी , इस पर मैंने हूं कहते हुए गर्दन हिलाया ।
ट्रेन के कोलाहल के बीच सामनें वाले सीट पर अपनी मां के गोदी में आंचल ना सही किसी प्लास्टिक नुमा लीवास में दुनिया दारी से परे सो रहा मासूम सा बच्चा अचानक उठा और रोने से सबका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। कुछ देर तक मां के पुचकारने से वह चुप तो हुआ लेकिन बहुत देर तक शांत न रहा , रोना चलता रहा। ये सब देख बगल में बैठी आंटी से रहा न गया और उन्होंने बच्चे को दूध पिलाने का इशारा किया। कुछ देर तक सोचने के बाद मैडम ने दूध का पोटली बच्चे के मुंह में लगा दिया। बच्चे ने झटके से दूध का बोतल गिरा दिया और दोबारा से रोने लगा। ये सब देखकर बगल में बैठी आटी ने दोबारा अपनी खामोशी तोड़ी, बेटी अपना दूध पिला दो कहते-कहते न जाने क्यों खामोश हो गईं। मैं बहुत देर तक उस खामोशी और चेहरे पर आई सिकन का कारण ढूंढ़ता रहा।

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

मत बाँटो देश (लेख)-----मिथिलेश

नया युग वैज्ञानिक अध्यात्म का है । इसमें किसी तरह की कट्टरता मूढता अथवा पागलपन है। मूढताए अथवा अंधताये धर्म की हो या जाति की अथवा फिर भाषा या क्षेत्र की पूरी तरह से बेईमानी हो चुकी है । लेकिन हमारें यहां की राजनीति इतनी भ्रष्ट हो गई है कि उन्हे देश को बाँटने के सिवाय कोई और मुद्दा ही नहीं दिखता । कभी वे अलग राज्य के नाम पर राजनीति कर रहे हैं तो कभी जाति और धर्म के नाम पर । जिस दश में लोग बिना खाए सो जा रहे हो , कुपोषण का शिकार हो रहें हो , लड़किया घर से निकलने पर डर रही हो उस देश में ऐसे मुद्दों पर राजनीति करना मात्र मूर्खता ही कही जा सकती है । आज से पाँच-छह सौ साल पहले यूरोप जिस अंधविश्वास दंभ एंव धार्मिक बर्बरता के युग में जी रहा था, उस युग में आज अपने देश को घसीटने की पूरी कोशिश की जा रही है जो किसी भी तरह से उचित नही है। जो मूर्खतायें अब तक हमारे निजी जीवन का नाश कर रही थी वही अब देशव्यापी प्रागंण में फैलकर हमारी बची-खुची मानवीय संवेदना का ग्रास कर रही है । जिनकें कारण अभी तक हमारे व्यक्तित्व का पतन होता रहा है जो हमारी गुलामी का प्रमुख कारण रही, अब उन्ही के कारण हमारा देश एक बार फिर तबाही के राह पर है । धर्म के नाम पर , जाति के नाम पर,क्षेत्र के नाम, और भाषा के नाम पर जो झगड़े खड़े किए जा रहे है उनका हश्र सारा देश देख रहा है ।
कभी मंदिर और कभी मस्जिद तो कभी जातीयता को रिझाने की कशिश । दुःख तो तब और होता है जब इस तरह के मामलो में शिक्षित वर्ग भी शामिल दिखता है । ये सब किस तरह की कुटिलताएँ है और इनका संचायन वे लोग कर रहे है जो स्वयं को समाज का कर्णधार मानते हैं । इन धर्मो एवं जातियो के झगड़ो को हमारी कमजोरियों दूर करने का सही तरीका केवल यही है कि देश के कुछ साहसी एंव सत्यनिष्ठ व्यक्ति इन कट्टरताओं की कुटिलता के विरुद्ध एक महासंग्राम छेड़ दें। जब तक यह मूर्खता नष्ट न होगी, तब तक देश का कल्याण-पथ प्रशस्त ना होगा । समझौता कर लेनें, नौकरियों का बँटवारा कर लेने और अस्थायी सुलह नामों को लिखकर, हाथो में कालीख पोत लेने से ,तोड़फोड़ कर लेने से कभी राष्ट्रीयता व मानवीयता का उपवन नहीं महकेगा । हालत आज इतनी गई-गुजरी हो गई है कि व्यापक महांसंग्राम छेडे बिना काम चलता नहीं दिखता । धर्म , क्षेत्र एवं जाति का नाम लेकर घृणित व कुत्सित कुचक्र रचनें वालों की संख्या रक्तबीज तरह बढ रही है । ऐसे धूर्तो की कमी नहीं रही, पर मानवता कभी भी संपूर्णतया नहीं हुई और न आगे ही होगी, लेकिन बीच-बीच में ऐसा अंधयूग आ ही जाता है , जिसमें धर्म , जाति एवं क्षेत्र के नाम पर झूठे ढकोसले खड़े हो जाते हैं । कतिप्रय उलूक ऐसे में लोगो में भ्रातियाँ पैदा करने की चेष्टा करने लगते है । भारत का जीवन एवं संस्कृति वेमेल एवं विच्छन्न भेदभावों की पिटारी नहीं है । जो बात पहले कभी व्यक्तिगत जीवन में घटित होती थी, वही अब समाज की छाती चिरने लगें । भारत देश के इतिहास में इसकी कई गवाहिँया मेजुद हैं । हिंसा की भावना पहले कभी व्यक्तिगत पूजा-उपक्रमो तक सिमटी थी, बाद में वह समाज व्यापिनी बन गयी । गंगा, यमुना सरस्वती एवं देवनंद का विशाल भू-खण्ड एक हत्याग्रह में बदल गया । जिसे कुछ लोग कल तक अपनी व्यक्तिगत हैसियत से करते थे, अब उसे पूरा समाज करने लगा । उस समय एक व्यापक विचार क्रान्ति की जरुरत महसूस हुई । समाज की आत्मा में भारी विक्षोभ हुआ ।

इस क्रम में सबसे बडा हास्यापद सच तो यह है कि जो लोग अपने हितो के लिए धर्म , क्षेत्र की की दुहाई देते है उन्हे सांप्रदायिक कहा जाता है, परन्तु जो लोग जाति-धर्म क्षेत्र के नाम पर अपने स्वार्थ साधते हैं , वे स्वयं को बडा पुण्यकर्मि समझते हैं । जबकि वास्तविकता तो यह है कि ये दोंनो ही मूढ हैं , दोनो ही राष्ट्रविनाशक है । इनमें से किसी को कभी अच्छा नहीं कहा जा सकता । ध्यान रहे कि इस तरह की मुढतायें हमारे लिए हानिकारक ही साबित होंगी , अंग्रजो ने तो हमारे कम ही टुकडे किय, परन्तु अब हम अगर नहीं चेते तो खूद ही कई टूकडों में बँट जायेंगे, क्या भरोसा है कि जो चन्द स्वार्थि लोग आज अलग राज्य की माँग कर रहे हैं वे कल को अलग देश की माँग ना करे, इस लिए अब हमें राष्ट्रचेतना की जरुरत है, हो सकता है शुरु में हमें लोगो का कोपाभजन बनना पड़े , पर इससे डरने की जरुरत नही है । तो आईये मिलकर राष्ट्र नवसंरचना करने का प्रण लें ।

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

क्यूकी बाप भी कभी बेटा था ......संतोष कुमार "प्यासा"


एक जमाना था जब लड़के अपने घर के बड़े बुजुर्गों का कहना सम्मान करते थे उनका कहा मानते थे ! कोई अपने पिता से आंख मिलाकर बात भी नहीं करता था ! उस समय कोई अपने पिता के सामने कुर्सी या पलंग पर भी नहीं बैठता था ! तब प्यार जैसी बात को अपने बड़े बुजुर्गों से बंटाना "बिल्ली के गले में घंटी बाधने" जैसा था ! प्रेम-प्रसंग तो सदियों से चला आ रहा है ! लेकिन पहले के प्रेम में मर्यादा थी ! उस समय यदि किसी के पिता को पता चल जाता था की उसका बेटा या बेटी किसी से नैन लड़ाते( प्रेम करते) घूम रहे है तो समझों की उस लड़के या लड़की की शामत आ गई !
 पिता गुस्से में लाल पीला हो जाता था ! तरह तरह की बातें उसके दिमाग में गूंजने लगती थी ! मन ही मन सोंचता था "समाज में मेरी कितनी इज्ज़त है, नालायक की वजह से अब सर उठा कर भी नहीं चल सकता, सीधे मुह जो लोग बात करते डरते थे अब वही मुह पर हजारों बातें सुनाएगे, मेरी इज्ज़त को मिट्टी में मिला दिया इसने" कही ऐसा करने वाली लड़की होती तो उसके हाँथ पैर तोड़ दिए जाते थे, घर से निकलना बंद कर दिया जाता था ! साथ ही लड़के या लड़की को खुद शर्म महसूस होती थी ! लड़कियों का तो गली मोहल्ले से निकलना मुश्किल हो जाता था ! लोफ़र पार्टी तरह तरह की फब्ती कसते थे ! कहते थे " देखो तो इशक लड़ाती फिरती है, जवानी संभाले नहीं संभलती...." कभी कभी तो बेचारी को घर की इज्ज़त और कायली के कारण आत्महत्या भी करनी पड़ जाती थी ! इसके विपरीत कुछ लड़के अपने प्यार को बुजुर्गों से बाटना बुरा नहीं समझते थे ! ऐसे विचार के युवकों को उस समय बद्त्मीच और संस्कारहीन समझा जाता था ! यहाँ तक की उस समय फ़िल्मी गाना गाना भी असभ्य समझा जाता था ! समय के साथ बाप और बेटों के विचारों में बदलाव आया ! अब बेटा अपने प्यार के बारे में अपने पिता से आसानी से कहता है और पिता सरलता से सुनता है ! समय ने बेटियों को भी इतना सक्षम बना दिया है की वे भी अब अपने मन की बात अपने पिता से बेहिचक कह सकती है ! वर्तमान समय में पिताओं की भूमिका "शादी के कार्ड छपवाने और मैरिज हाल बुक करने तक ही रह गई है !" अब बेटा सीधे एक लड़के को घर में लाता है और कहता है "डैड मै इससे प्यार करता हूँ !" यह सुनकर अब कोई पिता गुस्से से लाल पीला नहीं होता और न ही वह समाज के बारे में सोंचता है ! क्युकी उसे पता है की आज हर दूसरे घर में यही हो रहा है ! पिता मन ही मन सोंचता है "अच्छा हुआ कम से कम एक जिम्मेवारी तो ख़त्म हुई !अब माता पिताओं को "बहु और दामाद" ढूँढने में ज्यादा दिक्कत नहीं होती ! शायद ऐसा समय के बदलाव के कारण हुआ है ! समय ने पिता को एहसास दिला दिया है की "बाप भी कभी बेटा था" ! पिता भी सोंच लेता है की एक समय था जब हमने भी किसी से प्यार किया था, लेकिन वह समय स्थिति ऐसी नहीं थी की हम अपने प्यार के बारे में किसीको बता पाते ! आज के पिताओं ने अपने पिताओं की गलती को दोहराना बंद कर दिया है ! इस व्यवस्था में अच्छाई और बुराई दोनों है !
अच्छाई यह की, अब माता पिता बच्चों की भावनाओ को समझने लगे है, उनकी इच्छाओं और भावनाओं को दबाना बंद कर दिया है ! जिससे बेटा या बेटी "कुंठा उन्माद तनाव और आत्महत्या जैसी बुराई से बचे रहते है ! पहले प्यार के बारे में दोनों पक्षों के परिवारों को पता होने के बावजूद शादी होना संभव न था ! जिससे जवानी के जोश और प्यार के जूनून में बच्चे आत्महत्या कर लेते थे !

बुराई यह की, पिताओ के द्वारा प्राप्त इस मानसिक स्वतंत्रता का आज के युवा गलत फायदा उठा रहे है ! पहले के युवा घर की इज्ज़त और सामाजिक भय के कारण अपने जीवनसाथी का चुनाव बड़ी सावधानी से करते थे ! लेकिन आज के नवयुवाओं ने प्यार को खेल समझ लिया है ! बॉयफ्रेंड या गर्लफ्रेंड बनाना एक शौक समझ लिया है ! घर का दबाव न होने के करण आज के युवा गैर्जिम्मेवारी ढंग से अपने साथी कचुनव करते है !फलत: चार दिन बाद प्रेमप्रसंग टूट (ब्रेकउप) जाता है ! बेतिओं को भी घर का डर नहीं रह गया ! ऐसी दशा में कभी कभी ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है जो शादी के बाद होनी चाहिए ! बुजुर्गों ने बच्चो को मन की बात कहने की छूट क्या दे दी ! युवावर्ग तो बड़ो का सम्मान करना ही भूल गए ! घर की मन मर्यादा की कोई चिंता नहीं शायद इसी वजह से आज तलाक ज्यादा हो रहे है ! इस स्वतंत्रता का आज के युवा इस तरह लाभ उठा रहे है की "प्रेम और प्रेमियों का व्याकरण" ही बदल गया ! घर, समाज और मान अपमान का डर न होने के कारण कुछ युवा बलात्कार जैसे पाप कर डालते है ! जो इस स्वतंत्रता को शर्मसार कर डालता है ! बाप तो यह समझ गया की "वो भी कभी बेटा था" पर शायद बेटा यह भूल गया है की "वह भी कभी बाप बनेगा !

शिक्षा अनिवार्यता का सच ... ..... ( शिव शंकर)

भारत में ६ से १४ साल तक के बच्चो के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार का कानून भले ही लागू हो चुका हो, लेकिन इस आयु वर्ग की लडकियों में से ५० प्रतिशत तो हर साल स्कुलो से ड्राप- आउट हो जाति है। जाहिर है,इस तरह से देश की आधि लडकियां कानून से बेदखल होती रहेगी। यह आकडा मोटे तैर पर दो सवाल पैदा करते है। पहला यह कि इस आयु वर्ग के १९२ मिलियन बच्चों में से आधी लडकिया स्कुलो से ड्राप-आउट क्यो हो जाती है ? दूसरा यह है कि इस आयु वर्ग के आधी लडकिया अगर स्कुलो से ड्राप- आउट हो जाती है तो एक बडे परिद्श्य में मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार कानून का क्या अर्थ रह जाता है ? इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन(१९९६) की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि दुनिया भर में ३३ मिलियन लडकिया काम पर जाती है,जबकि काम पर जाने वाले लडको की संख्या ४१ मिलियन है। लेकिन इन आकडो मे पूरे समय घरेलू काम काजो मे जूटी रहने वाली लडकियो कि संख्या नहीं जोडी गई थी ।

इसी तरह नेशनल कमीशन फाँर प्रोटेक्शन आँफ चिल्ड्रेन्स राइटस की एक रिपोर्ट में भी बताया गया है कि भारत मे ६ से १४ साल तक कि अधिकतर लडकियो को हर रोज औसतन ८ घंटे से भी अधिक समय केवल अपने घर के छोटे बच्चो को संभालने मे बिताना पडता है। सरकारी आकडो मे भी दर्शाया गया है कि ६ से १० साल तक कि २५ प्रतिशत और १० से १३ साल तक की ५० प्रतिशत (ठीक दूगनी) से भी अधिक लडकियो को हर साल स्कुलो से ड्राप- आउट हो जाना पडता है। एक सरकारी सर्वेक्षण (२००८) के दौरान ४२ प्रतिशत लडकियों ने बताया कि वह स्कुल इस लिए छोड देती है कि क्योंकि उनके माता-पिता उन्हे घर संभालने और छोटे भाई बहनों की देखभाल करने के लिए कहते है,आखिरी जनगणना के मुताबिक ,२२.९१ करोड महिलाएं निरक्षर है,एशिया में भारत की महिला साक्षरता दर सबसे कम है। एन्युअल स्टेटस आफ एजुकेशन रिपोर्ट (२००८) के मुताबिक ,शहरी और ग्रामीण इलाके की महिलाओं और पुरुषों के बीच साक्षरता दर क्रमशः ५१.१ प्रतिशत और ६८.४ प्रतिशत दर्ज हैं। क्राई के एक रिपोर्ट के अनुसार,५ से ९ साल तक की ५३ प्रतिशत भारतीय लडकिया पढना नहीं जानती, इनमे से अधिकतर रोटी के चक्कर मे घर या बाहर काम करती है। ग्रामीण इलाकों में १५ प्रतिशत लडकियों की शादी १३ साल की उम्र में ही कर दी जाति है। इनमें से तकरीबन ५२ प्रतिशत लडकियां १५ से १९ साल की उम्र मे गर्भवती हो जाती है। इन कम उम्र की लडकियों से ७३ प्रतिशत (सबसे अधिक) बच्चे पैदा होते है। फिलहाल इन बच्चो में ६७ प्रतिशत (आधे से अधिक) कुपोषण के शिकार है। लडकियों के लिए सरकार भले हि सशक्तिकरण के लिए शिक्षा जैसे नारे देना जितना आसान है,लक्ष्य तक पहुंचना उतना ही कठीन।

दूसरी तरफ कानून मे मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार कह देने भर से अधिकार नहीं मिल जाएगा, बलिक यह भी देखना होगा कि मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार के अनुकूल ।खास तौर से लडकियो के लिए ,भारत में शिक्षा की बुनियादी संरचना है भी या नहीं ।आज ६ से १४ साल तक के तकरीबन २० करोड भारतीय बच्चो की प्राथमिक शिक्षा के लिए पर्याप्य स्कूल ,कमरे , प्रशिक्षित शिक्षक और गुणवतायुक्त सुविधाएं नहीं है, देश की ४० प्रतिशत बस्तियों में तो स्कूल ही नहीं हैं और इसी से जुडा एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ४६ प्रतिशत सरकारी स्कूलो में लडकियों के लिए शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं है। मुख्य तौर पर सामाजिक धारणाओं,घरेलू कामकाजो और प्राथमिक शिक्षा में बुनियादि व्यवस्था के अभाव के चलते एक अजीब सी विडंबना हमारे सामने हैकि देश की आधी लडकियों के पास अधिकार तो हैं,मगर बगैर शिक्षा के । इसलिए इससे जुडे अधिकारो के दायरे में लडकियों की शिक्षा को केंद्रीय महत्व देने की जरुरत है, माना कि यह लडकिया अपने घर से लेकर छोटे बच्चों को संभालने तक के बहुत सारे कामों से भी काफी कुछ सीखती है। लेकिन अगर यह लडकियां केवल इन्ही कामों में रात- दिन उलझी रहती है ,भारी शारीरिक और मानसिक दबावों के बीच जीती हैं,पढाई के लिए थोडा सा समय नहीं निकाल पाती हैं और एक स्थिति के बाद स्कुल से ड्राप्आउट हो जाती है तो यह देश की आधी आबादी के भविष्य के साथ खिलवाड ही हुआ। आज समय की मांग है कि लडकियों के पिछडेपन को उनकी कमजोरी नहीं, बल्कि उनके खिलाफ मौजूद परिस्थतियो के रुप में देखा जाए। अगर लडकी है तो उसे ऐसे ही रहना चाहिए ,जैसे बातें उनके विकाश के रास्ते में बाधा बनती हैं। लडकियों की अलग पहचान बनाने के लिए जरुरी है कि उनकी पहचान न उभर पाने के पीछे छिपे कारणो की खोजबीन और भारतीय शिक्षा पद्दती ,शिक्षकों की कार्यप्रणाली एवं पाठ्यक्रमों की पुनर्समीक्षा की जाए ,लडकियों की शिक्षा से जुडी हुई इन तमाम बाधाओं को सोचे- समझे और तोडे बगैर शिक्षा के अधिकार का बुनियादी मकसद पूरा नहीं हो सकता है ।

सोमवार, 31 जनवरी 2011

प्यार का पहला एहसास (तुम्हारे जाने के बाद)……......(सत्यम शिवम)

टिमटिमाते तारों से भरी वो तमाम राते कैसे भूल सकता हूँ?वो एहसास भी बड़ा अजीब था।प्यार का पहला एहसास।बेखबर दुनिया से होता था मै।सुध ना थी किसी की बस इंतजार होता था तुम्हारा और तुम्हारे फोन का।बाते होती तो बाते होती रहती और ना होती तुम तो तुम्हारी यादे तुम्हारे साथ होने का एहसास करा जाती।
आज की ये शीतलहरी की ठंडक भरी सुबह।कुहासे ने आसमान को ढ़ँक दिया था।कुछ दिख नहीं रहा था।ये मंजर मुझे बिल्कुल तुम्हारे प्यार सा जान पड़ा,जो आज कल न जाने किस कुहासे से ढ़ँका था।

याद आया मुझे वो दिन जब पहली बार तुम्हे देखा था।तुम आयी थी मेरे घर और मै तो तुम्हे देखता ही रह गया।पता ना था उस वक्त ये आँखों ही आँखों में जो मैने रिश्ता जोड़ा था तुमसे कभी प्यार के उस मँजिल तक ले जायेगा मुझे जिसके बारे में कभी ना सोचा था।उस रोज बस देखता रहा तुम्हे और ईश्वर से प्रार्थना करता रहा कि काश तुम मिल जाती मुझे।बेजुबान होकर बहुत कुछ कहने की कोशिस क्या रँग लायी पता ना चला।तुम चली गई मेरे घर से और मै जीने लगा तुम्हारी उन दो पल के यादों के साथ।

जीवन की आपाधापी में व्यस्त होता गया मै,पर आज भी कभी कभी,कही कही तुम्हारी कमी खलती थी।बस एक मुलाकात का असर इतना रँग लायेगा,क्या पता था।तुम आ जाओगी मेरी जिंदगी में बन के बहार,क्या पता था।आज सुबह सुबह बिस्तर पर पड़ा था मै कि फोन की घंटी बजने लगी।मैने फोन उठाया पर उधर से कोई कुछ बोलता ही न था।मै जानता हूँ तुमने क्या सोचा होगा,पर मैने तुम्हारे निःशब्दता को सुन लिया।जानती हो क्यों,क्योंकि उस रोज जो पहली बार मिली थी तुम तुम्हारी आँखों ने सब कह दिया था।मौन को भी जुबान दे देते है ये नैन।मेरा दिल जोर जोर से धड़कने लगा और हिम्मत कर के तुम्हारा नाम ले लिया।तुमने हामी भर दि और उस रोज खूब हुई बाते।उस पहले दिन की सारी बाते जो अधूरी थी,होने लगी पूरी।इजहार मेरे प्यार का मेरी बातों ने कर दिया।और तुमने एहसास दिलाया मुझे उस रोज मेरा पहला प्यार।एक ऐसा एहसास जो था मेरे जीवन में पहले प्यार का एहसास।सिलसिला यूँही चलता रहा ,हम दूर होके भी हर पल करीब होते रहे एक दूसरे के।
कितने शिकवे गिले है आज तुमसे,तुम्हारे जाने के बाद।पता है तुम्हे फिर से,वही ठँडे की भोर होती है यहा।फिर से यहा दिन में जाड़े की धूप और अब भी राते होती है वैसी ही चाँदनी।बस इक तुम ही तो ना हो,तुम्हारे जाने के बाद।जिंदगी चल रही है मायूस सी,खामोश डगर भी अब हैरान सा है।गुजरते थे कभी जिन राहों से हम दोनों साथ साथ वो डगर भी मुझे अकेला देख पूँछ लेता है मुझसे कभी,तुम्हारे जाने के बाद।पुकारता हूँ,आवाज लगाता हूँ तुम्हे हर उस पल जब याद आती हो तुम।पर अब कहा पहूँचती है मेरी बाते तुम तक,तुम्हारे जाने के बाद।

आज कितने सालों के बाद भी बस वो तुम्हारा दो पल का साथ बस गया मेरे जेहन में यादों की कोई बारात बन कर।विश्वास नहीं होता कि जीवन में तुम्हारा साथ भी था कभी या बस इक सपने को सच समझ बैठा था मै।जिंदगी का रुप आज बिल्कुल बदल गया है दुनिया के मायने में,पर किसे बताऊँ कि आज भी वो एहसास यूँही बसा हुआ है मेरी यादों की पोटली में ज्यों का त्यों।जब सब चले जाते है,कोई साथ नहीं होता,तो सिर्फ तुम्हारी यादे ही तो होती है जो मेरी लेखनी से पन्नों पे उतरती रहती है।गीत बनाकर गुनगुनाता रहता हूँ और जीता रहता हूँ पुरानी यादों के सहारे।

लगता है अब ना आओगी तुम।पर क्या करुँ,ये दिल तो समझना चाहता ही नहीं।मै भूल जाता तुम्हे,पर ये दिल तुम्हे भूलता ही नहीं।आज फिर वैसी ही चाँदनी में तारों से भरी आसमान को निहारता छत पे बैठा अकेला मै।लगा ऐसा कि तुम आने वाली हो।आज फिर एक टुटते तारे से माँगा मैने बहुत कुछ जो कभी अधूरा रह गया था माँगना।चाँद की चाँदनी से रात में फिर वैसा ही मंजर मुझे एहसास दिलाता रहा,तुम्हारे न होते हुए भी हर पल तुम्हारे होने का।नजर मेरी जाने क्यों हर पल इंतजार तुम्हारा करती रहती है और चाँदनी रातों में अब भी छत पे तुम्हारा इंतजार करता हूँ मै,कि आज तुम आओगी...................।

बुधवार, 26 जनवरी 2011

जरा याद इन्हे भी कर लें-----------मिथिलेश

गणतंत्र दिवस के अवसर पर इनके परवानों को तो याद किया ही जा रहा है, लेकिन उन गुमनाम हीरोज़ को भी याद करने की जरूरत है, जिन्होंने अपने तरीके से आजादी की मशाल जलाई।
ऐसे अवसर पर बङे लोगो को याद तो करते हैं, लेकिन इनके बिच कुछ नाम ऐसे भी है जिनको बहुत कम ही लोग जानते है। वहीं देखा जाये तो हमारे आजादी मे इनका योगदान कम नही है। इनका नाम आज भी गुमनाम है, लेकीन इन्होने जो किया वह काबिले तारीफ है। ये वे लोग जिन्होने आजादी के लिए बिगूल फुकंने का काम किया और ये लोग अपने काम मे सफल भी हुये। तो आईये इस गणतंत्र दिवस के शुभ अवसर पे इनको याद करें और श्रद्धाजंली अर्पित करें।

ऊधम सिंह----------ऊधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 में पंजाब के संगरूर ज़िले के सुनाम गाँव में हुआ। ऊधमसिंह की माता और पिता का साया बचपन में ही उठ गया था। उनके जन्म के दो साल बाद 1901 में उनकी माँ का निधन हो गया और 1907 में उनके पिता भी चल बसे। ऊधमसिंह और उनके बड़े भाई मुक्तासिंह को अमृतसर के खालसा अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। 1917 में उनके भाई का भी निधन हो गया। इस प्रकार दुनिया के ज़ुल्मों सितम सहने के लिए ऊधमसिंह बिल्कुल अकेले रह गए। स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में सन 1919 का 13 अप्रैल का दिन आँसुओं में डूबा हुआ है, जब अंग्रेज़ों ने अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में सभा कर रहे निहत्थे भारतीयों पर अंधाधुंध गोलियाँ चलायीं और सैकड़ों बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतार दिया। मरने वालों में माँओं के सीने से चिपके दुधमुँहे बच्चे, जीवन की संध्या बेला में देश की आज़ादी का सपना देख रहे बूढ़े और देश के लिए सर्वस्व लुटाए को तैयार युवा सभी थे।
इस घटना ने ऊधमसिंह को हिलाकर रख दिया और उन्होंने अंग्रेज़ों से इसका बदला लेने की ठान ली। हिन्दू, मुस्लिम और सिख एकता की नींव रखने वाले 'ऊधम सिंह उर्फ राम मोहम्मद आजाद सिंह' ने इस घटना के लिए जनरल माइकल ओ डायर को ज़िम्मेदार माना जो उस समय पंजाब प्रांत का गवर्नर था। गवर्नर के आदेश पर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड, एडवर्ड हैरी डायर, जनरल डायर ने 90 सैनिकों को लेकर जलियांवाला बाग़ को चारों तरफ से घेर कर मशीनगन से गोलियाँ चलवाईं .........ऊधम सिंह ने मार्च 1940 में मिशेल ओ डायर को मारकर जलियांवाला बाग हत्याकांड का बदला लिया। इस बाग में 4,000 मासूम, अंग्रेजों की क्रूरता का शिकार हुए थे। ऊधम सिंह इससे इतने विचलित हुए कि उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया और एक देश से दूसरे देश भटकते रहे। अंत में वह लंदन में इस क्रूरता के लिए जिम्मेदार गवर्नर डायर तक पहुंच गए और जलियांवाला हत्याकांड का बदला लिया। ऊधम सिंह को राम मोहम्मद सिंह आजाद के नाम से भी पुकारते थे। जो हिंदू, मुस्लिम और सिख एकता का प्रतीक है।

जतिन दास --------- जतिन को 16 जून 1929 को लाहौर जेल लाया गया। जेल में स्वतंत्रता सेनानियों के साथ बहुत बुरा सुलूक किया जाता था। जतिन ने कैदियों के साथ मानवीय व्यवहार करने की मांग पर भूख हड़ताल शुरू कर दी। जेल के कर्मचारियों ने पहले तो इसे अनदेखा किया, लेकिन जब भूख हड़ताल के 10 दिन हो गए तो जेल प्रशासन ने बल प्रयोग करना शुरू किया। उन्होंने जतिन की नाक में पाइप लगाकर उन्हें फीड करने की कोशिश की। लेकिन जतिन ने उलटी कर सब बाहर निकाल दिया और अपने मिशन से पीछे नहीं हटे। दिनांक 15 जुलाई को जेल सुप्रिंटेन्डेंट ने आई.जी (कारावास) को एक रिपोर्ट भेजी कि 14 जुलाई को भगत सिंह व दत्त को विशेष भोजन प्रस्तुत किया गया था, क्यों कि आई.जी (कारावास) ने ऐसा आदेश टेलीफोन पर दिया था। पर भगत सिंह ने उन्हें बताया कि वे विशेष भोजन तब तक स्वीकार न करेंगे, जब तक विशेष डाइट का वह मानदंड सरकारी गज़ट में प्रकाशित न किया जाएगा कि यह मानदंड सभी कैदियों के लिए है।

इस भूख हड़ताल में जतिन दास की स्थिति दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी। भगत सिंह साथियों से सलाह लेने के बहाने बोर्स्टल जेल जा कर सभी साथियों के स्वस्थ्य का समाचार पूछ लिया करते थे। उन्हें कभी नहीं लगता था कि वे अकेले हैं, बल्कि देश-भक्ति की एक ज्वाला थी, जो सब को सम्पूर्ण रूप से जोड़े रहती थी। इधर चिकित्सा अधिकारी ने रिपोर्ट दी कि दास की स्थिति बहुत चिंताजनक है। वे दवाई लेने तक से इनकार कर रहे हैं। एक डॉ. गोपीचंद ने दास से पूछा भी- आप दवाई तथा पानी क्यों नहीं ले रहे?
दास ने निर्भीक उत्तर दिया - मैं देश के लिए मरना चाहता हूँ... और कैदियों की स्थिति को सुधारने के लिए।

21 अगस्त को कांग्रेस के एक अन्य देशभक्त नेता बाबू पुरुषोत्तम दास टंडन ने दास को बहुत मनाया- दवाई ले लो। सिर्फ़ जीवित रहने के लिए। भले ही भूख हड़ताल न तोड़ो। मेरे कहने पर सिर्फ़ एक बार प्रयोग के तौर पर दवा ले लो, और पन्द्रह दिन तक देखो। अगर तुम्हारी मांगें नहीं मानी जाती, तो दवाई छोड़ देना।

दास ने कहा - मुझे इस सरकार में कोई आस्था नहीं है। मैं अपनी इच्छा-शक्ति से जी सकता हूँ। भगत सिंह ने दबाव डालना जारी रखा। इस पर दास ने केवल दो शर्तों पर दवाई लेना स्वीकार किया, कि दवाई डॉ. गोपीचंद ही देंगे। और कि भगत सिंह दोबारा ऐसा आग्रह नहीं करेंगे।
26 अगस्त को चिकित्सा अधिकारी ने रिपोर्ट दी कि दास की स्थिति अत्यन्त शोचनीय हो गई है। वे शरीर के निचले अंगों को हिला डुला नहीं सकते। बातचीत नहीं कर सकते, केवल फुसफुसा रहे हैं। और 4 सितम्बर को उनकी नब्ज़ को कमज़ोर व अनियमित बताया गया, उल्टियाँ हुई। 9 को नब्ज़ बेहद तेज़ हो गई। 12 को उल्टी हुई, नब्ज़ अनियमित... 13 सितम्बर, अपने अनशन के ठीक चौंसठवें दिन, दोपहर एक बज कर दस मिनट पर इस बहादुर सपूत ने भारत माँ की शरण में अपने प्राणों की आहुति दे कर इतिहास के एक पन्ने को अपने बलिदान से लिख डाला।
इस युवा देव-पुरूष के अन्तिम शब्द थे - मैं बंगाली नहीं हूँ। मैं भारतवासी हूँ। जी एस देओल ऊपर संदर्भित पुस्तक में जतिन दास की शहादत पर लिखते हैं -'ब्रिटिश के लिए ईसा मसीह भी शायद एक भूली-बिसरी कथा थे'। जिस प्रकार यीशु सत्य की राह पर सूली चढ़ गए, जतिन दास सत्य के लिए युद्ध करते करते शहीद हो गए।

विशाल भारत की तरह आयरलैंड जैसे छोटे-छोटे देश भी ब्रिटिश की पराधीनता का अभिशाप सह चुके थे। आयरलैंड के ही एक क्रांतिकारी युवा पुरूष टेरेंस मैकस्विनी ने भी जतिन दास की तरह ही शहादत दी थी। जतिन दास के जाने की ख़बर विश्व के अखबारों में छपी थी। इसे पढ़ कर मैकस्विनी की बहादुर पत्नी ने एक तार भेज कर लिखा - टेरेंस मैकस्विनी का परिवार इस दुःख तथा गर्व की घड़ी में सभी बहादुर भारतवासियों के साथ है। आज़ादी आएगी। जेल के बाहर कई कांग्रेसी नेताओं के नेतृत्व में असंख्य भीड़ जमा थी।

जतिन दास जिंदाबाद ... इन्किलाब जिंदाबाद के नारों से आसमान गूँज उठा। सुभाष चन्द्र बोस ने देश के इस सपूत को अपना सलाम भेजा। जतिन दास को पूरा देश नमन कर रहा था। अख़बार श्रद्धांजलियों से भरे थे। जतिन दास के भाई के.सी दास ने अपने भाई का पार्थिव शरीर प्राप्त किया जिसे लाहौर में एक भारी जुलूस के बीच कई जगहों से होते हुए रेलवे स्टेशन तक लाया गया। लाखों लोगों की आंखों में आंसू थे। आसमान फिर उन्हीं देश-भक्ति से ओत-प्रोत नारों से गूंजा था।

जतिन दास जिंदाबाद ... इन्किलाब जिंदाबाद

भीकाजी कामा--आजादी की लड़ाई में उन्‍हीं अग्रणियों में एक नाम आता है - मैडम भीकाजी कामा का। इनका नाम आज भी इतिहास के पन्‍नों पर स्‍वर्णाक्षरों से सुसज्जित है। 24 सितंबर 1861 को पारसी परिवार में भीकाजी का जन्‍म हुआ। उनका परिवार आधुनिक विचारों वाला था और इसका उन्‍हें काफी लाभ भी मिला। लेकिन उनका दाम्‍पत्‍य जीवन सुखमय नहीं रहा।

दृढ़ विचारों वाली भीकाजी ने अगस्‍त 1907 को जर्मनी में आयोजित सभा में देश का झंडा फहराया था, जिसे वीर सावरकर और उनके कुछ साथियों ने मिलकर तैयार किया था, य‍ह आज के तिरंगे से थोड़ा भिन्‍न था। भीकाजी ने स्‍वतंत्रता सेनानियों की आर्थिक मदद भी की और जब देश में प्‍लेग फैला तो अपनी जान की परवाह किए बगैर उनकी भरपूर सेवा की। स्‍वतंत्रता की लड़ाई में उन्‍होंने बढ़-चढ़कर हिस्‍सा लिया। वो बाद में लंदन चली गईं और उन्‍हें भारत आने की अनुमति नहीं मिली। लेकिन देश से दूर रहना उनके लिए संभव नहीं हो पाया और वो पुन: अपने वतन लौट आईं। सन् 1936 में उनका निधन हो गया, लेकिन य‍ह काफी दु:खद था कि वे आजादी के उस सुनहरे दिन को नहीं देख पाईं, जिसका सपना उन्‍होंने गढ़ा था
इन्होंने जर्मनी में रहकर आजादी की अलख जगाई। वहां भीकाजी ने इंटरनैशनल सोशलिस्ट कॉन्फ़रन्स में 22 अगस्त 1907 को भारतीय आजादी का झंडा फहराया। कॉन्फ़रन्स के दौरान झंडा फहराते हुए उन्होंने कहा कि यह झंडा भारत की आजादी का है।

शनिवार, 22 जनवरी 2011

मेरी मौत खुशी का वायस होगी ----[मिथिलेश]


जिन्दगी जिन्दादिली को जान ए रोशन यहॉं
वरना कितने मरते हैं और पैदा होते जाते हैं।

क्रान्तिकारी रोशन सिंह का जन्म शाहजहॉंपुर जिले के नबादा ग्राम में हुआ था । यह गांव खुदागंज कस्बे से लगभग दस किलोमीटर की दूरी पर है। इनके पिता का नाम ठाकुर जंगी सिंह था। इस परिवार पर आर्य समाज का बहुत प्रभाव था। उन दिनों आर्य समाज द्वारा चलाए जा रहे देशहित के कार्यों से ठाकुर साहब का परिवार अछूता ना रहा। श्री जंगी सिंह के चार पुत्र ठाकुर रोशन सिंह, जाखन सिंह, सुखराम सिंह, पीताम्बर तथा दो लड़कियॉं थी । आपका जन्म 22 जनवरी को सन् 1892 को हुआ था। ठाकुर साहब काकोरी काण्ड के क्रान्तिकारियों में आयु में सबस बड़े तथा सबसे अधिक बलवान तथा अचूक निशानेबाज थे । असहयोग आन्दोलन में शाहजहॉंपुर तथा बरेली जिले के ग्रामिण क्षेत्र में उन्होने बड़े उत्साह कार्य किया। उन दिनों बरेली में एक गोली कांड हुआ था जिसमें उन्हें दो वर्ष की बड़ी सजा दी गई । वे उन सच्चे देशभक्तों में थे जिन्होने अपने खून की अन्तिम बूद भी भारत मॉं की भेंट चढ़ा दी । रामप्रसाद बिस्मिल , अशफाक उल्ला खॉं, राजेन्द्र लाहिड़ी की तरह वे भी बहुत साहसी और सच्चे देशभक्त थे। हिन्दी और उर्दू का अच्छा ज्ञान था । बरेली गोली काडं का सजा के बाद उनकी रामप्रसाद बिस्मिल से भेंट हुई जो उन दिनों बड़ी क्रान्तिकारी योजनाओं का खाका तैयार करने में लगे थे। रोशन सिंह के विचारों और व्यक्तित्व से प्रभावित होकर बिस्मिल ने उन्हें भी अपने दल में शामिल कर लिया । क्षत्रिय होनेके कारण उन्हें तलवार, बन्दूक चलाने, कुश्ती और घुड़सवारी का भी शौक था। अचूक निशानेबाज थे। उनके साथी उन्हें भीमसेन कहा करते थे। ठाकुर रोशन सिंह के दो पुत्र चंन्द्रदेव सिंह तथा बृजपाल सिंह हुए। असहयोग आन्दोलन में भी ठाकुर साहब ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। काकोरी काण्ड में कुल चार डकैतियों को शामिल किया गया जिनमें अन्य डकैतियों मे ठाकुर रोशन सिंह ने बिस्मिल जी का साथ दिया था। काकोरी ट्रेन डकैती काण्ड के करीब डेढ़ महिनें बाद धरपकड़ शुरु हुई और आपको भी अन्य सहयोगियों के साथ गिरफ्तार करके लखनऊ जेल भेजा गया। जेल में क्रान्तिकारियों के साथ अच्छा व्यवहार न होने कारण आपने जेल में अनशन किया । करीब दो सप्ताह तक अनशन पर रहने के बाद भी आपके स्वास्थ्य पर कोई विपरीत असर नहीं पडा़। अंग्रेज सरकार ने उनकी हवेली को ध्वस्त करवा दिया और सारी स़म्पत्ति कुर्क करा ली थी।

अदालती निर्णय के अनुसार अंग्रेज जज हेमिल्टन ने आपको फॉंसी की सजा दी। अदालती निर्णय सुनते ही ठाकुर जी नें ईश्वर का ध्यान किया और ओम का उच्चारण किया। काकोरी केस के सम्बन्ध में वकीलों और उनके साथियों का ख्याल था कि ठाकुर साहब को ज्यादा सजा नहीं मिलेगी उनके यह विचार जानकर ठाकुर साहब को बहुत ठेस लगती थी वे बुत दुखी हो जाते थे। जब जज ने उन्हें भी फॉंसी की सजा सुनाई तो उनके साथी आश्चर्यचकित और दुखी नेत्रों से ठाकुर साहब की ओर देखने लगे परन्तु ठांकुर साहब चेहरा ठाकुरी चमक से खिल उठा। उन्होंने मुस्कुराते हुए फॉंसी की सजा पाए हुए अपने अन्य साथियों का आलिंगन करते हुए कहा क्यों भाई हमें छाड़कर आप अकेले जाना चाहते थे । उनके सभी साथियों ने उनकी वीरता पर गदगद होकर उनके चरण स्पर्श किए । फॉंसी के लिए उन्हें इलाहाबाद जेल भेज दिया गया था।

ठाकुर साहब स्वतन्त्रता की लडाई को भी धर्म युद्व मानते थे। 13 सितम्बर 1927 को उन्होंने अपने एक मित्र को लिख था कि आप मेरे लिए हरगिज रंज न करे मेरी मौत खुशी का बायस होगी, हमारे शास्त्रों में लिखा है कि धर्म युद्व में मरने वालों की वही गति होती है जो तपस्या करने वाले ऋषि मुनियों की हाती है। फॉंसी के एक सप्ताह पूर्व उन्होंने एक मित्र को पत्र भेजा था इसी से साहस और ईश्वर में विश्वास का अनुपात लगाया जा सकता है। इस सप्ताह के अन्दर ही मेरी फॉंसी होगी । प्रभु से प्रार्थना है कि वह आपके मोहब्बत का बदला दे , आप मुझ ना चीज के लिए हरगिज दुखी न हों मेरी मौत खुशी का वायस होगी।
दुनिया में पैदा होकर इन्सान अपने को बदनाम न करे। इसलिए मेरी मौत किसी प्रकार भी अफसास के लायक नहीं है। दो साल से मैं परिवार से और बच्चो से अलग हू। इस बीच वे सब मुझे कुछ भूल गए होंगे। किसी हद तक भूल जाना भी अच्छा है। तन्हाई में ईश्वर भजन का मौका खूब मिला।इससे मेरा मोह कुछ छूट गया और काई वासना बाकी नहीं रही। मेरा पूरा विश्वास है कि दूनिया की कष्टमयी यात्रा समाप्त करके मैं अब आराम की जिंदगी व्यतीत करने के लिए जा रहा हू। फॉंसी से पहले रात ठाकुर साहब कुछ घण्टे सोए देर रात से ही ईश्वर भजन करते रहे। प्रातः निवृत्त होकर गीता का पाठ किया। प्रहरी के आते ही अपनी गीता हाथ में उठाई और फॉंसी की कोठरी को प्रसन्नता के साथ अन्तिम नमस्कार करके फॉंसी के तख्ते की ओर चल दिए। फॉंसी के तख्ते पर वन्दे मातरम् और ओम नाम को गुँजाते हुए भारत का ये नरनाहर अपने नश्वर शरीर को भारत की मिट्टी में मिल गया। आज ठाकुर साहब हमारे बीच नहीं है। परन्तु उनकी अमर आत्मा सजग प्रहरी की भॉंति देश के करोड़ो नवयुवको के दिल में भारत की समृद्वि और सुरक्षा की अलख युगों-युगों तक रहेगी। इलाहाबाद जेल के सामनें हजारों लोग भारत मॉं के इस सपूत की लाश को लेने के लिए खड़े थे। इलाहाबाद में ही भारत माता के इस बहादुर सपूत की अन्तिम संस्कार पूर्ण वैदिक रीति के साथ सम्पन्न हुआ ।

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

युवा बनाम भारतीय संस्कृति-------------[शिव शंकर]

एक समय था जब हमारे युवाओं के आदर्श, सिद्धांत, विचार, चिंतन और व्यवहार सब कुछ भारतीय संस्कृति के रंग में रंगे हुए होते थे। वे स्वयं ही अपने संस्कृति के संरक्षक थे, परंतु आज उपभोक्तावादी पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध से भ्रमित युवा वर्ग को भारतीय संस्कृति के अनुगमन में पिछडेपन का एहसास होने लगा है। आज अंगरेजी भाषा और अंगरेजी संस्कृति के रंग में रंगने को ही आधुनिकता का पर्याय समझा जाने लगा है। जिस युवा पिढी के उपर देश के भविष्य की जिम्मेदारी है , जिसकी उर्जा से रचनात्मक कार्य सृजन होना चाहिए,उसकी पसंद में नकारात्मक दृष्टिकोण हावी हो चुका है। संगीत हो या सौंदर्य,प्रेरणास्त्रोत की बात हो या राजनीति का क्षेत्र या फिर स्टेटस सिंबल की पहचान सभी क्षेत्रो में युवाओं की पाश्चात्य संस्कृति में ढली नकारात्मक सोच स्पष्ट परिलछित होने लगी है। आज मरानगरों की सडकों पर तेज दौडती कारों का सर्वेक्षण करे तो पता लगेगा कि हर दूसरी कार में तेज धुनों पर जो संगीत बज रहा है वो पॉप संगीत है। युवा वर्ग के लिए ऐसी धुन बजाना दुनिया के साथ चलने की निशानी बन गया है। युवा वर्ग के अनुसार जिंदगी में तेजी लानी हो या कुछ ठीक करना हो तो गो इन स्पीड एवं पॉप संगीत सुनना तेजी लाने में सहायक है।

हमें सांस्कृतिक विरासत में मिले शास्त्रीय संगीत व लोक संगीत के स्थान पर युवा पीढी ने पॉप संगीत को स्थापित करने का फैसला कर लिया है। नए गाने तो बन ही रहे है,साथ ही पुराने गानो को भी पॉप मिश्रत नए रंग रूप मे श्रोताओ के समक्ष पेश किये जा रहे है। आज बाजार की यह स्थिति है कि नई फिल्म के गानो का रिमिक्स यानि तेज म्यूजिक डाले गए कैसेट आ जाने के बाद संमान्य कैसेट के बिक्री में बहुत ज्यादा गिरावट आई है। आज सब कुछ पॉप में ढाल कर युवाओं को परोसा जा रहा है और पसंद भी किया जा रहा है। आज विदेशी संगीत चैनल युवाओं की पहली पसंद बनी हुई है। इन संगीत चैनलो के ज्यादा श्रोता 15 से 34 वर्ष के युवा वर्ग है। आज युवा वर्ग इन चैनलो को देखकर अपने आप को मॉडर्न और उचे ख्यालो वाला समझ कर इठला रहा है। इससे ये एहसास हो रहा है कि आज के युवा कितने भ्रमित है अपने संस्कृति को लेकर और उनका झुकाव पाश्चात्य संस्कृति की ओर ज्यादा है। ये भारतिय संस्कृति के लिए बहुत दुख: की बात है।

आज युवाओ के लिए सौंदर्य का मापदण्ड ही बदल गया है। विश्व में आज सौंदर्य प्रतियोगिता कराये जा रहे है, जिससे सौंदर्य अब व्यवासाय बन गया है। आज लडकिया सुन्दर दिख कर लाभ कमाने की अपेक्षा लिए ऐन -केन प्रकरण कर रही है। जो दया, क्षमा, ममता ,त्याग की मूर्ति कहलाती थी उनकी परिभाषा ही बदल गई है। आज लडकियां ऐसे ऐसे पहनावा पहन रही है जो हमारे यहॉ इसे अनुचित माना जाता है। आज युवा वर्ग अपने को पाश्चात्य संस्कृति मे ढालने मात्र को ही अपना विकाश समझते है।आज युवाओ के आतंरिक मूल्य और सिद्धांत भी बदल गये है। आज उनका उददेश्य मात्र पैसा कमाना है। उनकी नजर में सफलता की एक ही मात्र परिभाषा है और वो है दौलत और शोहरत । चाहे वो किसी भी क्षेत्र में हो । इसके लिए वो कुछ भी करने को तैयार है। राजनीति का क्षेत्र भी युवाओ में आए मानसिक परिवर्तन से अछुता नहीं है। इतिहास पर दृष्टि डाले तो पता चलता है कि स्वतंत्रता संग्राम पूरी तरह युवाओ के त्याग,. बलिदान ,साहस व जटिलता पर ही आधारित था। अंगरेजो के शोषण, दमन और हिंसा भरी राजनीति से युवाओं ने ही मुक्ति दिलाई थी। भारतीय राजनीति के दमकते सूर्य को जब आपात काल का ग्रहण लगा तब इसी युवा पीढी ने अपना खून पसीना एक कर उनके अत्याचारो को सहते हुए अपने लोकतंत्र की रक्षा की थी। आज जबकि परिस्थितियॉ और चुनौतियॉ और ज्यादा विकट है एभारतीय राजनीति अकंठ भ्रष्टाचार में डूब चुकी है,देश आर्थिक गुलामी की ओर अग्रसर है, ऐसे में भ्रष्टाचार और कुशासन से लोहा लेने के बजाय समझौतावादी दृष्टिकोण युवाओ का सिद्धांत बन गया है। उनके भोग विलाश पूर्ण जीवन में मूत्यों और संघर्षो के लिए कही कोई स्थान नहीं है।

भारतीय संस्कृति में सदा से मेहनत, लगन, सच्चाई का मूल्यांकन किया जाता रहा है,परंतु आज युवाओ का तथाकथित स्टेटस सिंबल बदल चुका है, जिन्हे वो रूपयो के बदले दुकानो से खरीद सकते हे। कुछ खास . खास कंपनियों के कपडे, सौंदर्य. प्रसाधन एवं खाध सामग्री का उपयोग स्तर दर्शाने का साधन बन चुका है। महंगे परिधान ,आभूषण, घडी ,चश्मे, बाइक या कार आदि से लेकर क्लब मेंबरशिप, महॅंगे खेलो की रूचि तक स्टेटस. सिंबल के प्रदर्शन की वस्तुए बन चुकी है। संपन्नता दिखाकर हावी हो जाने का ये प्रचलन युवाओं को सबसे अलग एवं श्रेष्ठ दिखाने की चाहत के प्रतीक लगते हैं। आखिर युवाओं की इस दिग्भ्रांति का कारण क्या है ?

इसका जवाब यही है कि कारण अनेक है। सबसे प्रमुख कारण है ,प्रचार -.प्रसार माध्यम ।युवा पीढी तो मात्र उसका अनुसरण कर रही है। आज भारत में हर प्रचार माध्यम के बीच स्वस्थ प्रतियोगिता के स्थान पर पश्चिमी मानदंडों के अनुसार प्रतिद्धंद्धी को मिटाने की होड लगी हुई है। सनसनीखेज पत्रकारिता के माध्यम से आज पत्र. पत्रिकाए, ऐसी समाजिक विसंगतियो की घटनाओं की खबरो से भरी होती हैंए जिसको पढकर युवाओ की उत्सुकता उसके बारे में और जानने की बढ जाती है। युवा गलत तरह से प्रसारित हो रहे विज्ञापनों से इतने प्रभावित हो रहे है कि उनका अनुकरण करने में जरा भी संकोच नहीं कर रहें है। अगर भारत सरकार को भरतीय संस्कृति की रक्षा करनी है तो ऐसे प्रसारणो पर सख्ती दिखानी चाहिए ,जो गलत ढंग से प्रस्तुत किये जाते हैं। इन प्रसारणो से समाज में गलत संदेश जाता है। इन्ही पत्र. पत्रिकाए ,विज्ञापनो को गलत ढंग से पेश कर समाज मे युवाओ को भ्रमित किया जाता है। अगर हमारी संस्कृति को प्रभावी बनाना है तो युवाओ को आगे आना होगा । लेकिन आज युवाओ का झुकाव पाश्चात्य संस्कृति की ओर है ,जो हमारे संस्कृति के लिए गलत है। आज सरकार और देशवासियो को मिलकर संस्कृति के रक्षा के लिए नए कदम उठाने की जरूरत आन पडी है,जिससे संस्कृति को बचाया जा सके।

परिवर्तन प्रकृति का नियम है, लेकिन ये परिवर्तन हमें पतन के ओर ले जायेगा । युवाओ को ऐसा करने से रोकना चाहिए नहीं जिस संस्कृति के बल पर हम गर्व महसूस करते है, पूरा विश्व आज भारतीय संस्कृति की ओर उन्मूख है लेकिन युवाओं की दीवानगी चिन्ता का विषय बनी हुई है। हमारे परिवर्तन का मतलब सकारात्मक होना चाहिए जो हमे अच्छाई से अच्छाई की ओर ले जाए । युवाओ की कुन्ठीत मानसिकता को जल्द बदलना होगा और अपनी संस्कृति की रक्षा करनी होगी । आज युवा ही अपनी संस्कृति के दुश्मन बने हुए है। अगर भारतीय संस्कृति न रही तो हम अपना अस्तित्व ही खो देगें।संस्कृति के बिना समाज में अनेक विसंगतियॉं फैलने लगेगी ,जिसे रोकना अतिआवश्यक है। युवाओ को अपने संस्कृति का महत्व समझना चाहिये और उसकी रक्षा करनी चाहिए । तभी भारतीय संस्कृति को सुदृढ और प्रभावी बनाया जा सकता है।

सोमवार, 3 जनवरी 2011

नारी उत्थान में निहित भारत विकास-------------मिथिलेश

नारी के महान बलिदान योगदान के कारण ही भारत प्राचीन में समपन्न और विकसित था . प्राचीन काल में नर-नारी के मध्य कोई भेद नहीं था और नारियां पुरुषों के समकक्ष चला करती थी फिर चाहे वह पारिवारिक क्षेत्र हो या धर्म , ज्ञान विज्ञानं या कोई अन्य , सर्वांगीण विकास और उत्थान में नारी का योगदान बराबर था . नारी न सिर्फ सर्वांगीण विकास में सहायक थी पुरुष को दिशा और बल भी प्रदान करती थी . भारत के विकास में नारी योगदान अविस्मरणीय है. शायद इनके योगदान बिना भारत के विकास का आधार ही न खड़ा हो पता . इतिहास में भी नारी का लम्बा हस्तकक्षेप रहा . प्राचीन भारत को जो सम्मान मिला उसके पीछे नारियों का सहयोग व सहकार कि भावना सन्निहित रही है .वर्तमान समय में भले ही नारी शिक्षा का अवमूल्यन हो रहा हो , अन्धानुकरण के उफान पर भले ही उसकी शालीनता , मातृत्वता को मलीन और धूमिल किया गया हो परन्तु प्राचीन भारत में ऐसा नहीं था . तब चाहे कोई क्षेत्र हो , ज्ञान का हो या समाज का हो, नारी को समान अधिकार प्राप्त थे . नर-नारी को समान मानकर समान ऋषिपद प्राप्त था .

वैदिक ऋचाओं की द्रष्टा के रूप में सरमा , अपाला, शची , लोवामुद्रा , गोधा ,विस्वारा आदि ऋषिकाओं का आदरपूर्वक स्थान था .यही नहीं सर्वोच्य सप्तऋषि तक अरुंधती का नाम आता है. नर और नारी में भेद करना पाप समझा जाता है . इसी कारण हमारे प्राचीन इतिहास में इसे अभेद मन जाता रहा है.ब्रह्मा को लिंग भेद से परे और पार मन जाता है . ब्रह्मा के अव्यक्त एवं अनभिव्यक्त स्वरुप को सामन्य बुद्धि के लोग समझ सके इसीलिए ब्रह्मा ने स्वयं को व्यक्त्त किया तो वे नर और नारी दोनों के रूप में प्रकट हुए . नर के रूप को जहाँ परमपुरुष कहा गया वाही नारी को आदिशक्ति परम चेतना कहा गया . नर और नारी में कोई भेद नहीं हैं . केवल सतही भिन्नता है और यही भ्रम नारी और पुरुष के बिच भेद कि दीवार खड़ी करती है. शास्त्रों में ब्रह्मा के तीनों रुपों को जहां ब्रह्मा, विष्णु, महेश कहा गया तो वहीं नारियों को आदिशक्ति, महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली कहा गया । देवासुर संग्राम में जब देवताओं को पराजय का मुँह देखना पड़ा था तब देवीशक्ती के रुप में देवताओं की मदद करना तथा राक्षसों को पराजित करना अध्यात्म-क्षेत्र में नारी को हेय समझने वाली मान्यता को निरस्त करती है ।

नारी शक्ति के बिना भगवान शिव को शव के समान माना जाता है । पार्वती के बिना शंकर अधुरे हैं । इसी तरह विष्णु के साथ लक्ष्मी, राम के साथ सीता को हटा दिया तो वह अधूरा सा लगता है । रामायण से अगर सीता जी को हटा दिया तो वह अधूरा सा लगता है । द्रोपदी, कुंती गांधारी का चरित्र ही महाभारत को कालजयी बनाता है अन्यथा पांडवो का समस्त जीवन बौना सा लगता । नारी कमजोर नहीं है, अबला नहीं है, वह शक्ति पर्याय है । देवासुर संग्राम में शुंभ निशुंभ, चंड-मुंड, रक्तबीज, महिषासुर आदि आसुरी प्रोडक्ट को कुचलने हेतु मातृशक्ति दुर्गा ही समर्थ हुई । इसी तरह अरि ऋषि की पत्नी अनुसूइया ने सूखे-शुष्क विंध्याचल को हरियाली से भर देनें के लिए तपश्चर्या की और चित्रकूट से मंदाकिनी नदी को बहने हेतु विवश किया । यह घटना भागीरथ द्वारा गंगावतरण की प्रक्रिया से कम नहीं मानी जा सकती ।
साहस और पराक्रम के क्षेत्र में भी नारी बढ‌ी-च‌ढी़ । माता सीता उस शिवधनुष को बड़ी सहजता से उठा लेती जिसे बड़े-बड़े योद्धा नहीं उठा पाते थे । इनके अलावा नारियां वर्तमान समय में भी विभिन्न क्षेत्रों, जैसे-- प्रशासनिक क्षत्र में किरण वेदी , खेल में सानिया नेहवाल, सानिया मिर्जा, झूल्लन गोस्वामी, राजनीति में सोनिया गांधी, प्रतिभा देवी सिंह पाटील, मीरा कुमार, विज्ञान के क्षेत्र में कल्पना चावला, सुनिता विलियम्स, आदि सभी अपने क्षेत्रों में अग्रणी रही हैं और भारत स्वाभीमान को बढ़ाया है ।
इस तरह ऐसे बहुत से प्रमाण हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि भारत के विकास के लिए आदर्शवादी नारियों ने अपनी क्षमता योग्यता का योगदान दिया । समाज में नारी के विकास के लिए समुचित व्यवस्थाएं की जाए । नारी के
विकास से ही भारत अपनी प्रतिष्ठा, सम्मान, गौरव को पुनः प्राप्त कर सकता है ।

रविवार, 2 जनवरी 2011

नये वर्ष में नयी उड़ान... {नजरिया} सन्तोष कुमार "प्यासा"




जब भी हम कुछ नये के बारे में सोंचते है तो मन में एक नयी उमंग उठने लगती है ! उस नये के लिए हम खुद को भी नया कर लेते(कर लेना चाहते है) है! सच में नवीनता में आनंद देने की शक्ति है, फिर चाहे वह नवीनता किसी भी प्रकार की क्यूँ न हो ! जब नवीनता किसी बच्चे के रूप में किसी के यहाँ जन्म लेने वाली होती है तो उस घर को ही नहीं बल्कि पुरे परिवार को एक नयी ख़ुशी एक नयी शांति प्रदान करती है ! सब उस नन्हे मेहमान के आने का बेसब्री से इंतजार करते है! तरह-तरह की योजनाएं बने जाती है ! कोई उसके नाम के बारे में सोंचता है तो कोई उसके खिलौनों, कपड़ों के बारे में ! इस नए मेहमान में इतनी शक्ति होती है की "बूढ़े दादा-दादी, नाना-नानी, जिन्हें अच्छा खाने, पहनने इत्यादि से कोई ख़ुशी नहीं होती उन्हें ये नन्हा मेहमान अपार खुशी देता है, और उनके बचे हुए जीवन को आनंद से भर देता है !
नवीनता का यही लक्षण है! नवीनता ऐसे ही अपने साथ खुशियाँ है ! जब किसी बच्चे के लिए नये खिलौने या कपडे आते है तो वो उन्हें पाकर खुशी से उछल पड़ता है ! या जब कभी किसी बच्चे का दाखिला किसी नये स्कूल के कराया जाता है, तो उस समय भी उसके (बच्चे के) चेहरे में एक नयी उमंग एक नया कौतुहल देखा जा सकता है !
वास्तव में नवीनता शक्ति और आनन्द की पुंज है ! नवीनता गहरे-से-गहरे दुःख, दर्द को इस भांति ढक लेती है, जैसे शरद-ऋतु के प्रारंभ में पुष्प काश्मीर की वादियों को ढक लेते हैं !
वैसे तो नवीनता स्वत: ही हमरी समस्याओं को ऐसे मिटा देती है जैसे सावन-की-बहार पतझड़ को मिटती है, पर यदि हम अपनी समस्याओं/गलतियों को हटाने का प्रयाश करें तो नवीनता उसी प्रकार हमरे जीवन को सुन्दर-मनोरम बना देगी, जैसे माली पतझड़ की सुखी पत्तियों, खास फूस आदि को हटा कर उपवन को सुन्दर बनता है !
हमें पिछली बैटन को भूलकर, पुरानी असफलताओं से सीख लेकर पुन: नवरूप से मन में नव-उमंग भर सफलता के लिए प्रयास करना चाहिए। नये वर्ष का आगमन हो चुका है। अब हमें अपने जीवन को नये रंग ढंग से सजाने का संकल्प लेना चाहिए ! पिछले वर्ष दशे में जो कुछ भी अशुभ घटा उसके लिए अफसेास न कर हमें प्रयास करना चाहिए की अब आगे से हम एैसा न होने देंगें हंमारी ही गलतियों से समाज में समस्याएं उत्पन्न होतीं है, जिन्हे हमें सुधारना हैं।
नया वष्र हाॅथ में मंगल थाल लिये हमारी प्रतीक्षा कर रहा है, खुशिंयाॅ हाॅथों में पुश्प् लिए हमारे चारो ओर खडीं हैं, दिशाऐं शाॅती का राग गा रही हैं। हम अपनी गलतियों को सुधार कर नए वर्ष के संग शुभ कार्य करने एवं भाईचारे की भावना को जिवित रखने का संकल्प लेते हैं।

रविवार, 19 दिसंबर 2010

" 19 दिसम्बर की वह सुबह "--------(लेख)----मिथिलेश दुबे


रोज की तरह उस दिन भी सुबह होती है, लेकिन वह ऐसी सुबह थी जो सदियों तक लोगों के जेहन में रहेगी । दिसंबर का वह दिंन तारीख 19 , फांसी दी जानी थी पंडित रामप्रसाद बिस्मिल को । बिस्मिल को गोरखपुर जेल में फांसी दी जानी थी । रोज की तरह बिस्मिल ने सुबह उठकर नित्यकर्म किया और फांसी की प्रतीक्षा में बैठ गए । निरन्तर परमात्मा के मुख्य नाम ओम् का उच्चारण करते रहे । उनका चेहरा शान्त और तनाव रहित था । ईश्वर स्तुति उपासना मंन्त्र ओम् विश्वानि देवः सवितुर्दुरुतानि परासुव यद्रं भद्रं तन्न आसुव का उच्चारण किया । बिस्मिल बहुत हौसले के इंसान थे । वे एक अच्छे शायर और कवि थे ,जेल में भी दोनों समय संध्या हवन और व्यायाम करते थे । महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती को अपना आदर्श मानते थे । संघर्ष की राह चले तो उन्होंने दयानन्द जी के अमर ग्रन्थों और उनकी जीवनी से प्रेरणा ग्रहण की थी । 18 दिसंबर को उनकी मां से जेल में भेट हुई । वे बहुत हिम्मत वाली महिला थी । मां से मिलते ही बिस्मिल की आखों मे अश्रु बहने लगे थे । तब मां ने कहा कहा था कि " हरीशचन्द्र, दधीचि आदि की तरह वीरता से धर्म और देश के लिए जान दो, चिन्ता करने और पछताने की जरुरत नही है । बिस्मिल हंस पड़े और बोले हम जिंदगी से रुठ के बैठे हैं" मां मुझे क्या चिंतन हो सकती, और कैसा पछतावा, मैंने कोई पाप नहीं किया । मैं मौत से नहीं डरता लेकिन मां ! आग के पास रखा घी पिघल ही जाता है । तेरा मेरा संबंध कुछ ऐसा ही है कि पास आते ही मेरी आंखो में आंसू निकल पड़े नहीं तो मैं बहुत खुश हूँ ।
अब जिंदगी से हमको मनाया न जायेगा।
यारों है अब भी वक्त हमें देखभाल लो, फिर कुछ पता हमारा लगाया न जाएगा । बह्मचारी रामप्रसाद बिस्मिल के पूर्वज ग्वालियर के निवासी थे । इनके पिता श्री मुरली धर कौटुम्बिक कलह से तंग आकर ग्वालियर छोड़ दिया और शाहजहाँपुर आकर बस गये थे । परिवार बचपन से ही आर्थिक संकट से जूझ रहा था । बहुत प्रयास के उपरान्त ही परिवार का भरण पोषण हो पाता था । बड़े कठिनाई से परिवार आधे पेट भोजन कर पाता था । परिवार के सदस्य भूख के कारण पेट में घोटूं देकर सोने को विवश थे । उनकी दादी जी एक आदर्श महिला थी , उनके परिश्रम से परिवार में अच्छे दिंन आने लगे । आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ और पिता म्यूनिसपिल्टी में काम पर लग गए जिन्हे १५ रुपए मासिक वेतन मिलता था और शाहजहाँपुर में इस परिवार ने अपना एक छोटा सा मकान भी बना लिया । ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष ११ (निर्जला एकादशी) सम्वत १९५४ विक्रमी तद्ननुसार ११ जून वर्ष १८९७ में रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म हुआ । बाल्यकाल में बीमारी का लंबा दौर भी रहा । पूजारियों के संगत में आने से इन्होंने ब्रह्मचर्य का पालन किया । नियमित व्यायाम से देह सुगठित हो गई और चेहरे के रंग में निखार भी आने लगा । वे तख्त पर सोते और प्रायः चार बजे उठकर नियमित संध्या भजन और व्यायाम करते थे । केवल उबालकर साग, दाल, दलिया लेते । मिर्च खटाई को स्पर्श तक नहीं करते । नमक खाना छोड़ दिया था । उनके स्वास्थ्य को लोग आश्चर्य से देखने लगे थे । वे कट्टर आर्य समाजी थे, जबकि उनके पिता इसके विरोधी थे जिसके चलते इन्हे घर छोड़ना पड़ा । वे दृढ़ सत्यवता थे । उनकी माता उनके धार्मिक कार्यों में और शिक्षा मे बहुत मदद करती थी । उस युग के क्रान्तिकारी गैंदालाल दीक्षित के सम्पर्क में आकर भारत में चल रहे असहयोग आन्दोलन के दौरान रामप्रसाद बिस्मिल क्रान्ति का पर्याय बन गये थे । उन्होंने बहुत बड़ा क्रान्तिकारी दल (ऐच आर ए) हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेसन के नाम से तैयार किया और पूरी तरह से क्रान्ति की लपटों के बीच ठ गए । अमरीका को स्वाधीनता कैसे मिली नामक पुस्तक का उन्होनें प्रकाशन किया बाद मे ब्रिटिश सरकार नेजब्त कर लिया । बिस्मिल को दल चलाने लिए धन का अभाव हर समय खटकता था । धन के लिए उन्होंने सरकारी खजाना लूटने का विचार बनाया । बिस्मिल ने सहारनपुर से चलकर लखनऊ जाने वाली रेलगाड़ी नम्बर ८ डाऊन पैसेंन्जर में जा रहे सरकारी खजाने को लूटने की कार्ययोजना तैयार की । इसका नेतृत्व मौके पर स्वयं मौजूद रहकर रामप्रसाद बिस्मिल जी ने किया था । उनके साथ क्रान्तिकारीयों में पण्डित चन्द्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खां , राजेन्द्र लाहिड़ी, मन्मनाथ गुप्त , शचीन्द्रनाथ बख्शी, केशव चक्रवर्ती, मुरारी लाल, बनवारी लाल और मुकुन्दीलाल इत्यादि थे । काकोरी ट्रेन डकैती की घटना की सफलता ने जहां अंग्रजों की नींद उड़ा दी वहीं दूसरी ओर क्रान्तिकारियों का इस सफलता से उत्साह बढ़ा । इसके बाद इनकी धर पकड़ की जाने लगी । विस्मिल, ठा़ रोशन सिंह , राजेन्द्र लाहिड़ी, मन्मनाथ गुप्त, गोविन्द चरणकार, राजकुमार सिन्हा आदि गिरफ्तार किए गए । सी. आई. डी की चार्जशीट के बाद स्पेशल जज लखनऊ की अदालत में काकोरी केस चला । भारी जनसमुदाय अभियोग वाले दिन आता था । विवश होकर लखनऊ के बहुत बड़े सिनेमा हाल 'रिंक थिएटर को सुनवाई के लिए चुना गया । विस्मिल अशफाक , ठा़ रोशन सिंह व राजेन्द्र लाहिड़ी को मृयुदंड तथा शेष को कालापानी की सजा दी गई । फाँसी की तारीख १९ दिसंबर १९२७ को तय की गई । फाँसी के फन्दे की ओर चलते हुए बड़े जोर से बिस्मिल जी ने वन्दे मातरम का उदघोष किया । राम प्रसाद बिस्मिल फाँसी पर झूलकर अपना तन मन भारत माता के चरणों में अर्पित कर गए । प्रातः ७ बजे उनकी लाश गोरखपुर जेल अधिकारियों ने परिवार वालो को दे दी । लगभग ११ बजे इस महान देशभक्त का अन्तिम संस्कार पूर्ण वैदिक रीति से किया गया । स्वदेश प्रेम से ओत प्रोत उनकी माता ने कहा " मैं अपने पुत्र की इस मृत्यु से प्रसन्न हूँ दुखी नहीं हूँ ।" उस दिन बिस्मिल की ये पंक्तियां वहाँ मौजूद हजारो युवकों-छात्रों के ह्रदय में गूंज रही थी---------- यदि देशहित मरना पड़े हजारो बार भी , तो भी मैं इस कष्ट को निजध्यान में लाऊं कभी । हे ईश ! भारतवर्ष मे शत बार मेरा जन्म हो कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो
इस महान वीर सपूत को शत्-शत् नमन




पुस्तक आभार-- युग के देवता

रविवार, 24 अक्टूबर 2010

भारतोन्नति में बाधक हैं अतीत के सुनहरे स्वप्न!******* सन्तोष कुमार "प्यासा"



आजादी के सालों बाद भी भारत पूर्णरूपेण विकसित नही पाया यह चिन्तनीय विषय है। किसी भी राष्ट्र की उन्नती एवं विकाषषीलता के लिए जिन उपादानों की आवष्यकता पडती है, वह सभी हमारे देष में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं। 
तो फिर वह क्या कारण है जिससे हमारा देष अभी तक ठीक से अपने पैरों में खडा नही हो पाया ? क्या हमारे पास विवेक की कमीं है ? या फिर प्राक्रतिक संसाधनों की ? अथवा बल व पौरूष की ? गंभीरता से विचारने पर ज्ञात होता है कि हमारे पास वह सभी उपादान उपलब्ध हैं जो किसी राष्ट्र को विकसित करतीं हैं। तो फिर हम आजादी के 63 वर्षो पश्चात भी विकसति क्यूॅ नही हो पाये ? आखिर वह कौन सी कमी है, जो हमारे देष की उन्नती में बाधक है ? 
अरे 63 वर्ष तो एक दीर्घ समयावधि होती है। 63 वर्षो में तो एक मनुष्य की सम्पूर्ण जीवन लीला ही समाप्त हो जाती है। वह बाल्यावस्था से युवावस्था फिर ग्रहस्थ जीवन में प्रवेष करता हुआ बुडापे एवं अपने मृत्यु तक का सफर 63 वर्षो में तय कर लेता है। कुछ लोगांे की जीवन लीला तो 60 साल से पहले ही समाप्त हो जाती है। जब एक मनुष्य के जीवन का सफर 63 वर्षों खत्म हो सकता है, तो देष की उन्नती होना कोई बडी बात नही होती।

 भारतेन्दू जी ने भारतीयों को जापन से सीख लेने की सलाह दी थी। यदि हम भारतेन्दू जी की सलाह पर अमल करते और जापान से सीख लेते तो शायद अभी तक हम सफलता के कई पायदान चड चुके होते। अरे आजादी के बाद हमारे पास तो प्राक्रतिक और भौतिक दोनो प्रकार के संसाधन उपलब्ध थे, पर बेचारा जापान तो आजादी के बाद प्राक्रतिक और भौतिक दोनो प्रकार से अपाहिज था। लेकिन फिर भी अपने मेहनती स्वभाव और वर्तमान-पर चिंतन के गुण के कारण वह चंद समय मे ही सफलता के पायदान सरलता और सुगमता से चढता चला गया। विकाष में सहायक हर साधन के उपलब्ध होने के बाद भी भारत अभी तक विकसित नही हुआ यह बात खलती है। 
भारत की इस स्थिति का बारीकी से पडताल करने के बाद कुछ कारण सामने आये जो कि भारतोन्नती में बाधक हैं। हम भरतियों में सबसे बडी कमी है ‘खुद को अतीत के सुनहरे स्वप्नों में गम कर लेना’। यदि हम चाहे तो वर्तमान में उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करके खुद को विकसित कर सकतें हैं, लेकिन हमें अतीत की गाथा गाने से फुर्सत ही नही मिलती । हम बडे गर्व से कहा करतें है कि ‘भारत ने सम्पूर्ण विष्व को ज्ञान दिया है। भारत ने ‘‘शून्य’’ का ज्ञान कराकर दुनियाॅ को विज्ञान की कई महान उपलब्धियों का बोध कराया। भारत के विवेक के सन्मुख संसार नत्मस्तक हो चुका है। भारत के अध्यात्मिक ज्ञान को संसार ने महान माना है, इत्यादि कई प्रकार की बरबड्डी करते फिरतें हैं। हमें अपने वर्तमान की न कोई सुध है और न ही कोई चिन्ता। जितना समय हम अतीत की गाथा गाने मे नष्ट करते है यदि वही समय सामाजिक कार्यो में लगायें तों स्वयम् एवं देष की तरक्की एवं उन्नति में सहायक हो सकते हैं। भारत की उन्नति में बाधा उत्पन्न करने वाला दूसरा व अहम् तत्व है। दोषारोपण ! बात चाहे राजनितिक क्षेत्र की हो या सामाजिक अथवा व्योसयिक क्षेत्र की ! हर क्षेत्र में एक दूसरे के ऊपर दोष माड़कर खुद को कर्तब्य मुक्त कर लिया जाता है ! अज राजनितिक पार्टियों का कार्य विक्ष करना नहीं अपितु दोषारोपण करना है ! मुद्दा चाहे महंगाई का हो या राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रस्ताचार का, या नक्सली हमले का अथवा घ!टी की समस्याओं का ! इस तरह के सभी मुद्दों में राजनितिक पार्टियों की भूमिका छींटाकसी और दोषारोपण करने तक ही सिमित रहती है ! यही स्थिति सामाजिक व व्यावसायिक क्षेत्रों की भी है ! अतीत का गुणगान करना बुरा नहीं है ! पर अतीत के स्वप्नों में खो कर वर्तमान को भूल जाना बेवकूफी है ! अतीत के समय की राजनितिक एवं सामाजिक व्यवस्था दोषारोपण की बुराइयों से मुक्त थी ! अतीत के लोग (हमारे पूर्वज जिनकी हम गाथा गाते नहीं थकते ) दुसरे के ऊपर दोषारोपण करने को उचित नहीं समझते थे ! उनकी राय में "दूसरो की कमियां देखने से अच्छा है, अपनी कमियों को दूर किया जाये !" उनका मन्ना था की जितना समय हम दूसरों को दोष देने में गवाएंगे, उतने समय में हम प्रयत्न करके अपनी कमियों को दूर कर सकते है ! जिससे स्वयं एवं समाज की भलाई होगी ! वर्तमान की बड़ी समस्या यह है कि "हम अपने पूर्वजों के गुणों का बखान तो करते है, पर उसे अमल में नहीं लाते! यदि हम अतीत के महापुरुषों का गुणगान करने कि अपेक्षा उनके गुणों को निजी जिंदगी में अमल करें तो अपने साथ साथ समाज का भी भला कर सकते है !  

रविवार, 29 अगस्त 2010

पुरुष वेश्याएं , आधुनिकता की नयी उपज--------मिथिलेश दुबे

हाँ आपको सुनने में अटपटा जरूर लगा होगा . हाँ होगा भी कैसे नहीं है भी अटपटा .अगर इसे आधुनिकता की नयी खोज कहा जाये तो तनिक भी झूठ न होगा . पहले वेश्यावृत्ति का शब्द मात्र महिलाओं के लिए प्रयोग किया जाता था , लेकिन अब जब देश विकाशसील है तो बदलाव आना तो लाजिमी हैं ना. अगर देखा जाये तो वेश्या मतलब वो जिन्हें पुरुष अपने वासना पूर्ति के लिए प्रयोग करते थें , इन्हे एक खिलौना के माफिक प्रयोग किया जाता था, वाशना शांत होने के बाद इन्हे पैसे देकर यथा स्थिति पर छोड़ दिया जाता था . पुरुष वर्ग महिलाओं प्रति आकर्षित होते थे और ये अपनी वासना पूर्ति के लिए जिन्हें वेश्या कहते हैं, इनके माध्यम से अपनी शारीरिक भूख शांत करते थे . लेकिन अब समय बदल गया है पश्चिम की आधी ऐसी आई वहां की प्रगतिवादी महिलाओं ने कहा कि कि ये क्या बात हुयी , पुरुष जब चाहें अपनी वासना मिटा लें परन्तु महिलाएं कहाँ जाये ???? तत्पश्चात उदय हुआ है जिगोलो या पुरुष वेश्याओं का .
आज ये हमारें यहाँ खासकर बड़े शहरों में इनकी संख्या बहुत तेजी से बढ़ रही . साथ ही इनकी मांग भी दिन व दिन बढती ही जा रही है . जिगोलो का उपयोग महिलाएं अपनी वासना पूर्ति के लिए करती हैं. जब महिलाएं अपने देह का व्यापार करके पैसे कमा सकती हैं तो पुरुष क्यूँ नहीं, परिणाम वेश्याओं के समाज में नयी किस्म . आखिर हो भी क्यूँ न , इसमे पुरुष वर्ग फायदे में भी तो रहता है , एक तीर से दो निशाना जो हो जाता है, इन्हे आनंद तो मिलता ही है साथ ही पैसे भी वह भी अच्छे खाशे .
पुरुष वेश्याओं का प्रयोग ज्यादातर अकेली रहने वाली ,उम्रदराज महिलाएं या अपने पति से संतुष्ट न रहने वाली महिलाएं करती हैं . इनका चलन मेट्रो शहरों में ज्यादा है कारण इनका वहां आसानी से उपलब्धता .
ये नयी किस्म की गंदगी पश्चिम सभ्यता की देन है, यह वहां के नग्नता का परिचायक है . बङे शहरों में इनकी मांग ज्यदा इसलिए क्योंकि यहाँ की महिलाएं ज्यादा आधुनिक हैं .उन्मुक्त हो चुकी महिलाओं को अपनी वासना की पूर्ति के लिए जिगोलो के रुप में साधन मिला. भारत पश्चिम सभ्यता का हमेशा से ही नक़ल करता आया है, तो यहाँ पिछे रहने के कोई कारण ही नहीं है . हमारे देश के युवा उनके ही पदचिन्हों पर चल रहे हैं और इसका परिणाम किसी को बताने की जरूरत नहीं हैं , इतनी स्त्रियों से संबंध बनाने के बाद अक्सर उनमें से ज्यादातर एड्स या अन्य घातक बीमारियों के शिकार हो जाते हैं फिर चाहे पैसे कमाने के लिए अपनी मर्यादा ही क्यों न दाव पर लगा देनी पड़े .आज युवा अच्छे पैसे के लिए वह सबकुछ कर रहा है जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. शायद आधुनिकता की अन्धता यही है.समलैंगिक पुरुषों और देह व्यापार से जुड़े पुरुषों के लिए काम कर रहे हमसफ़र ट्रस्ट के अध्यक्ष अशोक राव कवि का मानना है कि "ये जिगोलो भी बाज़ार की वस्तु है जो समाज से आ रही माँग को पूरा कर रहे हैं. ये समाज के उच्चवर्ग की वस्तु बन गई है. समाज में माँग थी, जिसकी भरपाई करने के लिए सप्लाई आ गई है. इसने एक नया बाज़ार तैयार किया जो दोनों ही पक्षों की ज़रूरत को पूरा कर रहा है.
इन सबके आगे इस परीदृश्य को देखा जाये तो ये विकास की ये आधुनिकताहमारे सभ्य समाज को न सिर्फखोखला बल्कि विक्षिप्त भी कर रहा है . युवा पीढ़ी को कहा जाता है कि वह भारत का भविष्य सवारेगा वह अब ऐसे दलदल में फंशा जा रहा है जहाँ से इसकी कल्पना करना इनके साथ बेईमानी होगी . रोजगार की कमी को भी इसका कर्णधार कहा जा सकता है, लेकिन ये क्या जिस पीढ़ी को हमसे इतनी उम्मीद है उसके हौशले इतनी जल्द पस्त हो जाएंगे ऐसा कभी सोचा न था. भारत में समलैंगिकता और वेश्यावृत्ति तथा लिव इन रिलेशनशिप के प्रति दृष्टिकोण बदलने की बात की जा रही है। पहले ही इन मुद्दों पर बहुत विवाद हो चुका है। ऐसे में इस तरह के दूषित मानसिकता को रोकना अतिआवश्यक है । अगर देखा जाए तो मीडिया इनमे महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है और पाश्चात की चमचागिरी मे लगा है,ऐसे में फैसला आपके हाथ में है।

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

रक्षा बंधन


हिन्‍दू श्रावण मास (जुलाई-अगस्‍त) के पूर्णिमा के दिन मनाया जाने वाला यह त्‍यौहार भाई का बहन के प्रति प्‍यार का प्रतीक है। इस दिन बहन अपने भाइयों की कलाई में राखी बांधती है और उनकी दीर्घायु व प्रसन्‍नता के लिए प्रार्थना करती हैं ताकि विपत्ति के दौरान वे अपनी बहन की रक्षा कर सकें। बदले में भाई, अपनी बहनों की हर प्रकार के अहित से रक्षा करने का वचन उपहार के रूप में देते हैं। इन राखियों के बीच शुभ भावनाओं की पवित्र भावना होती है। यह त्‍यौहार मुख्‍यत: उत्‍तर भारत में मनाया जाता है।

रक्षा बंधन का इतिहास हिंदू पुराण कथाओं में है। हिंदू पुराण कथाओं के अनुसार, महाभारत में, (जो कि एक महान भारतीय महाकाव्‍य है) पांडवों की पत्‍नी द्रौपदी ने भगवान कृष्‍ण की कलाई से बहते खून (श्री कृष्‍ण ने भूल से खुद को जख्‍मी कर दिया था) को रोकने के लिए अपनी साड़ी का किनारा फाड़ कर बांधा था। इस प्रकार उन दोनो के बीच भाई और बहन का बंधन विकसित हुआ था, तथा श्री कृष्‍ण ने उसकी रक्षा करने का वचन दिया था।

यह जीवन की प्रगति और मैत्री की ओर ले जाने वाला एकता का एक बड़ा पवित्र कवित्त है। रक्षा का अर्थ है बचाव, और मध्‍यकालीन भारत में जहां कुछ स्‍थानों पर, महिलाएं असुरक्षित महसूस करती थी, वे पुरूषों को अपना भाई मानते हुए उनकी कलाई पर राखी बांधती थी। इस प्रकार राखी भाई और बहन के बीच प्‍यार के बंधन को मज़बूत बनाती है, तथा इस भावनात्‍मक बंधन को पुनर्जीवित करती है। इस दिन ब्रा‍ह्मण अपने पवित्र जनेऊ बदलते हैं और एक बार पुन: धर्मग्रन्‍थों के अध्‍ययन के प्रति स्‍वयं को समर्पित करते हैं।

हिन्दी साहित्य मंच परिवार की ओर से सभी भाई बहनों को रक्षा बंधन पर्व की बहुत-बहुत बधाई ।

आभार
http://bharat.gov.in

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

रक्तदान मे डेरा सच्चा सौदा बेमिसाल ......(लेख)..............मोनिका गुप्ता

रक्तदान महादान होता है .. हमे रक्तदान जरुर करना चाहिए .. ये बाते आमतौर पर लोगो को जागरुक करने के लिए कही जाती है ताकि लोग इसकी जरुरत जाने और आगे आकर लोगो की जिंदगी बचाए ... लेकिन जहाँ एक लाख से ज्यादा लोग इक्ट्ठे हो और कतार मे इस विश्वास से लगे हो कि चाहे कुछ हो जाए ... रक्त देकर ही जाना है तो उन लोगो के इस जज्बे को क्या नाम देंगे. 

ये कोई कल्पना नही हकीकत है और यह बात सामने आई सिरसा के डेरा सच्चा सौदा मे जहाँ कल यानि 8 अगस्त रविवार को संत महाराज गुरमीत राम रहीम जी के जन्म माह के पावन उपलक्ष मे विशाल रक्तदान शिविर का आयोजन किया गया. लगभग एक लाख से ज्यादा भक्तो ने ना सिर्फ इसमे हिस्सा लिया बलिक 43,732 यूनिट रक्त दान देकर एक नया इतिहास रच दिया.

 डेरा के प्रवक्ता पवन इंसा ने विस्तार से बताया कि अलग अलग राज्यो से 90 टीम रक्त लेने पहुँची और दो लाख स्कवेयर फीट मे बने सच खंड हाल मे 2500 पलंग लगाए गए. 7000 सेवादार, 50 चिकित्सक, 500 पैरामेडिकल स्टाफ के साथ साथ 200 काउंटर रजिस्ट्रेशन के लिए बनाए गए इतना ही नही जबरदस्त हूजूम देखते हुए सुरक्षा के कडे इंतजाम भी किए गए ताकि कोई अनहोनी होने पर निबटा जा सके.

सुबह ठीक सात बजे कैम्प का शुभारम्भ हुआ जोकि रात को दस बजे तक चला. लोगो मे रक्तदान के प्रति इतना जुनून इतना जुडाव किसी आश्चर्य से कम नही था.

वैसे ऐसा पहली बार नही हुआ. 7 दिसम्बर 2003 को शाह सतनाम जी धाम मे 15,432 यूनिट रक्त एकत्र किया गया था. 10 अक्टूबर 2004 को राजस्थान के गुरुसर मोडिया मे 17,921 यूनिट रक्त एकत्र किया गया. रक्तदान शिविर के लिए पहले से ही इनका नाम लिम्का बुक और गिनीज बुक आफ वर्ड रिकार्ड मे दर्ज है और कोई दो राय नही कि कल हुए इस विशाल रक्तदान कैम्प ने पिछ्ले सारे रिकार्ड तोड दिए है. इंडियन सोसाएटी आफ वर्ड ब्लड ट्रांसफ्यूजन एंड एम्यूनोहाईमोटोलाजी संस्था द्वारा भी प्रंशसा पत्र जारी किया गया है.

 

गौरतलब है कि डेरा सिर्फ रक्तदान मे ही नही बलिक समाज सेवा के अन्य क्षेत्रो मे और भी कई कीर्तिमान स्थापित कर चुका है जैसेकि पौधे लगाने मे इसने नया विश्व रिकार्ड रिकार्ड बनाया और तो और डेरा सच्चा सौदा की ग्रीन एस वेलफेयर के जांबाज अपने मे ही उदाहरण है किसी भी तरह की आपदा का मुँह तोड जवाब देने को तैयार रहते हैं. हाल ही मे आई बाढ मे इन लोगो का काम सराहनीय रहा.

इतना जोश, इतना उत्साह काबिले तारीफ है. अगर यही उत्साह आने वाले समय मे लोगो मे बरकरार रहा तो हमारा भारत देश हर क्षेत्र मे सबसे आगे होगा और दूसरे देश इसका अनुकरण करेगें.

सोमवार, 9 अगस्त 2010

कितने पास कितने दूर ...---(लेख) मोनिका गुप्ता

जमाना नेट का है. चारो तरफ कम्प्यूटर ही दिखाई देते हैं .बहुत अच्छा लगता है यह जान कर कि निसंदेह हम प्रगति के पथ पर अग्रसर है. जहाँ तक नौजवानो की बात है उनमे सीखने की लग्न बडो से कही ज्यादा है और वो ना सिर्फ जल्दी से सीख भी लेते हैं बलिक अपने बडो को भी सीखा देते हैं. पर सारा दिन उससे चिपके बैठे रहना भी तो सही नही है ना खाने की चिंता ना पढाई की. एक ही घर मे रहते हुए भी ऐसा लगता है कि सुबह से कोई बात ही नही हुई. स्कूल, कालिज या दफ़्तर से आते ही बस लगे रहते हैं कम्प्यूटर में ...

कल ही मेरे एक मित्र खुशी खुशी बता रहे थे कि उन्होनें वेब केम लिया है और अब वो भारत मे बैठे बैठे ही अपने विदेश मे रहने वालो से रिश्तेदारो को देख भी सकते है. सही है फायदे तो बहुत ही है इस बात से तो इंकार नही है क्योकि एक समय ऐसा था कि समय की कमी की वजह से हमारा अपने रिश्तेदारो से मिलना तो दूर बात तक करने का भी समय नही होता था पर धन्यवाद इस टेकनीक का ... आज इसकी वजह से सारे दोस्त , रिश्तेदार किसी ना किसी साईट पर मिल जाते है वहाँ ना उनकी नई पुरानी तस्वीरे देख सकते हैं बलिक उन्हे जन्मदिन या सालगिरह पर बधाई भी दे सकते हैं, बात कर सकते है . यानि अब किसी को उलहाना भी नही रहा कि आप आते नही या मिलते नही ... वगैरहा ... कुल मिला कर हम पास ही तो हो रहे है दूर तो नही..... पर यकीनन हम अपनो से दूर हो रहे हैं अपने ही परिवार से कट रहे हैं ... यही देखने मे आता है कि हम नेट पर सारा दिन बातो मे निकाल देंग़े पर अगर घर मे कोई महेमान आ जाए तो उठना और उससे बात करना मुसीबत से कम नही लगता ....घर के बडे इंतजार करते रहेंग़े कि चलो खाना तो साथ ही खाएगे .... पर जनाब... खाना भी वही बैठ कर खाया जाता है जहाँ कम्प्यूटर रखा होता है ..अब कोई करे तो क्या करे ...

ये बहुत अच्छी बात है कि हम नई टेकनोलोजी के साथ कदम मिला कर चल रहे हैं लेकिन अपनो से दूर भी जाना भी सही नही है ..नई दुनिया से जुडना .. नई बाते सीखना उतना ही जरुरी है जितना अपने परिवार को वक्त देना.. तो आप नई दुनिया से तो जुडे ही रहिए बहुत कुछ है सीखने को... पर अपनो का भी ध्यान आपने ही रखना है .. है ना...