मंगलवार, 13 मार्च 2012
वैज्ञानिक एवं सर्वश्रेष्ठ है नागरी लिपि- जस्टिस जोइस
बुधवार, 27 जुलाई 2011
पर्दा प्रथा: विडंबना या कुछ और---------मिथिलेश दुबे
रविवार, 3 जुलाई 2011
चवन्नी का अवसान : चवनिया मुस्कान--------श्यामल सुमन

सच तो ये है कि चवन्नी से परिचय बहुत पहले हुआ और"चवनिया मुस्कान" से बहुत बाद में। आज जब याद करता हूँ अपने बचपन को तो याद आती है वो खुशी, जब गाँव का मेला देखने के लिए घर में किसी बड़े के हाथ से एक चवन्नी हथेली पर रख दिया जाता था "ऐश" करने के लिए। सचमुच मन बहुत खुश होता था और चेहरे पर स्वाभाविक चवनिया मुस्कान आ जाती थी। हालाकि बाद में चवनिया मुस्कान का मतलब भी समझा। मैं क्या पूरे समाज ने समझा। मगर उस एक दो चवन्नी का स्वामी बनते ही जो खुशी और "बादशाहत" महसूस होती थी, वो तो आज हजारों पाकर भी नहीं महसूस कर पाता हूँ।
15 अगस्त 1950 से भारत में सिक्कों का चलन शुरू हुआ। उन दिनों "आना" का चलन था आम जीवन में। आना अर्थात छः पैसा और सोलह आने का एक रूपया। फिर बाजार और आम आदमी की सुविधा के लिए 1957 में दशमलव प्रणाली को अपनाया गया यानि रूपये को पैसा में बदल कर। अर्थात एक रूपया बराबर 100 पैसा और 25 पैसा का सिक्का चवन्नी के नाम से मशहूर हो गया।
भले ही 1957 में यह बदलाव हुआ हो लेकिन व्यवहार में बहुत बर्षों बाद तक हमलोग आना और पैसा का मेल कराते रहते थे। यदि 6 पैसे का एक आना और 16 आने का एक रूपया तो उस हिसाब से एक रुपया में तो 16x6 = 96 पैसे ही होना चाहिए। लेकिन उसको पूरा करने के लिए हमलोगों को समझाया जाता था कि हर तीन आने पर एक पैसा अधिक जोड़ देने से आना पूरा होगा। मसलन 3 आना = 3x6+1=19 पैसा। इस हिसाब से चार आना 25 पैसे का, जो चवन्नी के नाम से मशहूर हुआ। फिर इसी क्रम से 7 आने पर एक पैसा और अधिक जोड़कर यानि 7x6+2 = 44 पैसा, इसलिए आठ आना = 50 पैसा, जो अठन्नी के नाम से आज भी मशहूर है और अपने अवसान के इन्तजार में है। उसके बाद 11 आने पर 3 पैसा और 14 आने पर 4 पैसा जोड़कर 1 रुपया = 16x6+4 = 100 पैसे का हिसाब आम जन जीवन में खूब प्रचलित था 1957 के बहुत बर्षों बाद तक भी।
हलाँकि आज के बाद चवन्नी की बात इतिहास की बात होगी लेकिन चवन्नी का अपना एक गौरवमय इतिहास रहा है। समाज में चवन्नी को लेकर कई मुहाबरे बने, कई गीतों में इसके इस्तेमाल हुए। चवन्नी की इतनी कीमत थी कि एक दो चवन्नी मिलते ही खुद का अन्दाज "रईसाना" हो जाता था गाँव के मेलों में। लगता है उन्हीं दिनों मे किसी की कीमती मुस्कान के लिए"चवनिया मुस्कान" मुहाबरा चलन में आया होगा। चवन्नी का उन दिनों इतना मोल था कि "राजा भी चवन्नी ऊछाल कर ही दिल माँगा करते थे"। यह गीत बहुत मशहूर हुआ आम जन जीवन में जो 1977 में बनी फिल्म "खून पसीना" का गीत है।
"मँहगाई डायन" तो बहुत कुछ खाये जात है। मँहगाई बढ़ती गयी और छोटे सिक्के का चलन बन्द होता गया। 1970 में 1,2और 3 पैसे के सिक्के का चलन बन्द हो गया और धीरे धीरे चवन्नी का मोल भी घटता गया। चवन्नी का मोल घटते ही "चवन्नी छाप व्यापारी", "चवन्नी छाप डाक्टर" आदि मुहाबरे चलन में आये जो क्रमशः छोटे छोटे व्यापारी और आर०एम०पी० डाक्टरों के लिए प्रयुक्त होने लगा।
और आज चवन्नी का इतना मोल घट गया "मंहगाई डायन" के कारण कि आज उसका का अतिम संस्कार है। चवन्नी ने मुद्रा विनिमय के साथ साथ समाज से बहुत ही रागात्मक सम्बन्ध बनाये रखा बहुत दिनों तक। अतः मेरी विनम्र श्रद्धांजलि है चवन्नी को उसके इस शानदार अवसान पर।
शनिवार, 2 जुलाई 2011
सरकार भी संसद से ऊपर नहीं - शम्भु चौधरी
इस लेख को पढ़ने से पहले हम इस बात पर बहस शुरु करें कि हमें बात किस विषय पर करनी है? हमारी बातों का मुख्य मुद्दा क्या है? भ्रष्टाचार है कि सांप्रदायिकता।
सरकार जो जन लोकपाल बिल संसद के सदन में रखने जा रही है उसमें किन-किन बातों का उल्लेख सरकार करना चाहती है और कौन से मुद्दे को वो अलोकतांत्रिक मानती है? और किसे लोकतांत्रिक।
सरकार के जो बयान हमें पढ़ने और सुनने को मिल रहें हैं वे न सिर्फ तानाशाही बयान है बल्कि भ्रष्टाचार के मुद्दे की उन सभी बातों को सांप्रदायिकता के साथ जोड़ मुसलमानों के एक वर्ग को इस आन्दोलन से अलग-थलग रखना चाहती है। कांग्रेस एक तरफ असम का उदाहरण देती है तो दूसरी तरफ तामिलनाडू के चुनाव परिणामों को बताना भूल जाती है। एक तरफ देश में भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए अपनी प्रतिबद्धता दर्शाती है तो दूसरी तरफ अपंग जन लोकपाल बिल की वकालत करती है। एक तरफ विधेयक के प्रारूप पर चर्चा करने के लिए सर्वदलीय बैठक बुला रही है तो दूसरी तरफ सिविल सोसाइटी के सदस्यों को सांप्रदाकिता से जोड़ कर देश को गुमराह करना चाहती है। भला हो भी क्यों नहीं? पिछले 30 सालों में देश के अन्दर धर्मनिपेक्षता के मायने काफी बदल गये। देश में बुद्धिजीवियों की एक बहुत बड़ी जमात पैदा हो गई जो देश को सांप्रदायिक ताकतों से बचाकर रखना चाहती है। ये वही है जो एक समय देश को गांधी परिवार से बचा कर रखना चाहती थी। सरकार चाहती है कि वे अपनी सभी बातों को सांप्रदायिकता की आड़ लेकर मना लें। भला हो भी क्यों नहीं हम जब अन्ना को तानाशाह के रूप में स्वीकार कर सकतें हैं तो सरकार के सभी बातों को जायज क्यों नहीं मान सकते। सिविल सोसाइटी के सदस्य क्या चाहतें हैं और इनके द्वारा सूझाये गये सुझावों को कौन संसद में कानून की मान्यता देगा? जब मान्यता देने वाले ही वे लोग है जो खुद को चुने हुए देश के प्रतिनिधि मानते हैं तो उनको इतना भय किस बात का हो गया कि वे 16 अगस्त के अनशन को संसद को चुनौती मान रहे हैं? जब सरकार अपने सूझाये गये बिल पर इतनी ईमानदार है तो बजाय बिल में सूझाये गये अपने पक्ष को मजबूती से रखने के समाज सदस्यों पर बयानबाजी करने की क्या जरूरत पड़ गई? जब सरकार खुद ही मानती है कि संसद से ऊपर कोई नहीं, तो इसमें यह भी जोड़ दें कि सरकार भी संसद से ऊपर नहीं है। जन लोकपाल का विधेयक संसद में सरकार लायेगी और गलत विधेयक का संसद के बाहर विरोध करना और उसके विरोध में जनता के बीच अपनी बातों को पंहुचाना जनता का लोकतांत्रिक अधिकार है। परन्तु सरकार शब्दों के प्रयोग से देश को भ्रमित करने का प्रयास कर रही है। माना कि भारत की अदालतें शब्दों के बाजीगर को महत्व देती है पर यहाँ अदालत में बहस नहीं देश की संसद के भीतर सांसदगण अपना पक्ष रखेगें। देश की जनता से जुड़े कई सवाल इस लोकपाल बिल से जुड़ चुकें हैं। आज सत्तापक्ष के 4-5 मंत्री भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में हवा खा रहें हैं ऐसे में जनता एक सीधा सा सवाल जानना चाहती है कि जिस भ्रष्टाचार की बात देश की जनता करना चाह रही है, क्या सरकार द्वारा सुझाये गये लोकपाल विधेयक में उसी बातों को उल्लेख है? यदि हाँ! तो सरकार साफ तौर पर उसका जिक्र करें न कि कभी सांप्रदायिकाता की आड़ लें तो कभी संसद की आड़ लेकर देश को गुमराह करने का काम करें।
सोमवार, 25 अप्रैल 2011
बच्चे की मदर----- मिथिलेश
डब्बे में काफी देर तक टहलने के बाद जब ये कनर्फम हो गया कि आज तो खिड़की वाली सीट मिलने से , सीटों की मारा मारी देखकर अब तो सीट मिल जाए यही प्राथमिकता शेष थी। काफी मशक्कत करने के बाद अन्ततः सीट मिल ही गई। हॉं इस बार खिड़की वाली सीट नही मिली। मेरे सामने वाले बर्थ पर भी इतनी जगह थी कि एक लोग उसपर बैठ सकते थे। कुछ देर बाद गाड़ी आउटर से प्लेटफार्म पर आ खड़ी हुई। अब काफी राहत महसूस कर रहा था , बैग को रखकर अब थोड़ा आराम के मूड में था। मुझे क्या पता कि मेरा ध्यान कुछ ही देर में भंग होने वाला है। ट्रेन का हार्न हो चुका था , गाड़ी अब चलने को ही थी तभी भागमभाग की स्थिति में एक महिला का मेरे वाले डब्बे में प्रवेश होता है, लोगों की नजरें उस रास्ते की ओर थी जिस ओर से वे सरपट कदम चले आ रहे थे । मैं भी बाट जोहने लगा , मैंने भी सोचा कौन आ रहा देख ही लिया जाए । अभी गर्दन उचका ही रहा था कि वह सुंदर मैडम मेरे पास आ पहुंची और जरा हटने के लिए कहा मैं डर के मारे बगल हो गया और मैडम जी मेरे सामने वाली खाली सीट बैठ गईं । मैडम का चेहरा सौम्य था ,पहनावे से बडे़ घर की लग रही थीं , ब्लू जींस पर ब्लैक टी शर्ट फब रहा था। अभी मैं पहनावे से उनको पढ़ने की कोशिश कर ही रहा था कि बच्चे के राने की आवाज आई , ऊपर सर उठा के देखा तो उनके गोदी में छोटा बच्चा जो करिब पॉंच छे महीनें का लग रहा था । अब तक मैडम जी अपने सीट पर बैठ चुकी थीं, मेरे सामने वाले सीट पर। बच्चा अभी सो रहा था। गाड़ी अब अपने पुरे स्पीड से भाग रही थी। कुछ देर चलने के बाद स्पीड थोड़ी कम हुई , मेरा अनुमान सही निकला , अगले स्टेशन पर गाड़ी रुकने वाली थी।
बच्चे ने झटके से दूध का बोतल गिरा दिया और दोबारा से रोने लगा। ये सब देखकर बगल में बैठी आंटीने दोबारा अपनी खामोशी तोड़ी, बेटी अपना दूध पिला दो कहते-कहते न जाने क्यों खामोश हो गईं। मैं बहुत देर तक उस खामोशी और चेहरे पर आई सिकन का कारण ढूंढ़ता रहा। |
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मेरे बगल में बैठे भाई साहब इसी स्टॉप पर उतरने के लिए तैयारी करने लगें, गाड़ी रुकती है भाई साहब उतर जाते हैं । तभी किसी ने मुझसे कहा बेटा जरा साईड हो जाओ ,देखा तो एक महिला साड़ी में जो मेरे दादी की उम्र की लग रहीं थी, एक छोटे बैग के साथ मेरे बगल वाली खाली सीट पर बैंठ गईं । कुछ देर के स्टोपेज के बाद ट्रेन दोबारा से चल पड़ी । सामने वाली मैडम के गोदी में उनका बच्चा सोते हुए बड़ा ही प्यारा लग रहा था। बगल में बैठी महिला ने मुझसे बेटा कहॉं तक जाओगे , मैंने कहा मैं तो वाराणसी तक जाऊंगा ,आप ? आंटी जी ने कहा कि मैं तो प्रतापगढ़ तक जाऊंगी , इस पर मैंने हूं कहते हुए गर्दन हिलाया ।
ट्रेन के कोलाहल के बीच सामनें वाले सीट पर अपनी मां के गोदी में आंचल ना सही किसी प्लास्टिक नुमा लीवास में दुनिया दारी से परे सो रहा मासूम सा बच्चा अचानक उठा और रोने से सबका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। कुछ देर तक मां के पुचकारने से वह चुप तो हुआ लेकिन बहुत देर तक शांत न रहा , रोना चलता रहा। ये सब देख बगल में बैठी आंटी से रहा न गया और उन्होंने बच्चे को दूध पिलाने का इशारा किया। कुछ देर तक सोचने के बाद मैडम ने दूध का पोटली बच्चे के मुंह में लगा दिया। बच्चे ने झटके से दूध का बोतल गिरा दिया और दोबारा से रोने लगा। ये सब देखकर बगल में बैठी आटी ने दोबारा अपनी खामोशी तोड़ी, बेटी अपना दूध पिला दो कहते-कहते न जाने क्यों खामोश हो गईं। मैं बहुत देर तक उस खामोशी और चेहरे पर आई सिकन का कारण ढूंढ़ता रहा।
मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011
मत बाँटो देश (लेख)-----मिथिलेश
कभी मंदिर और कभी मस्जिद तो कभी जातीयता को रिझाने की कशिश । दुःख तो तब और होता है जब इस तरह के मामलो में शिक्षित वर्ग भी शामिल दिखता है । ये सब किस तरह की कुटिलताएँ है और इनका संचायन वे लोग कर रहे है जो स्वयं को समाज का कर्णधार मानते हैं । इन धर्मो एवं जातियो के झगड़ो को हमारी कमजोरियों दूर करने का सही तरीका केवल यही है कि देश के कुछ साहसी एंव सत्यनिष्ठ व्यक्ति इन कट्टरताओं की कुटिलता के विरुद्ध एक महासंग्राम छेड़ दें। जब तक यह मूर्खता नष्ट न होगी, तब तक देश का कल्याण-पथ प्रशस्त ना होगा । समझौता कर लेनें, नौकरियों का बँटवारा कर लेने और अस्थायी सुलह नामों को लिखकर, हाथो में कालीख पोत लेने से ,तोड़फोड़ कर लेने से कभी राष्ट्रीयता व मानवीयता का उपवन नहीं महकेगा । हालत आज इतनी गई-गुजरी हो गई है कि व्यापक महांसंग्राम छेडे बिना काम चलता नहीं दिखता । धर्म , क्षेत्र एवं जाति का नाम लेकर घृणित व कुत्सित कुचक्र रचनें वालों की संख्या रक्तबीज तरह बढ रही है । ऐसे धूर्तो की कमी नहीं रही, पर मानवता कभी भी संपूर्णतया नहीं हुई और न आगे ही होगी, लेकिन बीच-बीच में ऐसा अंधयूग आ ही जाता है , जिसमें धर्म , जाति एवं क्षेत्र के नाम पर झूठे ढकोसले खड़े हो जाते हैं । कतिप्रय उलूक ऐसे में लोगो में भ्रातियाँ पैदा करने की चेष्टा करने लगते है । भारत का जीवन एवं संस्कृति वेमेल एवं विच्छन्न भेदभावों की पिटारी नहीं है । जो बात पहले कभी व्यक्तिगत जीवन में घटित होती थी, वही अब समाज की छाती चिरने लगें । भारत देश के इतिहास में इसकी कई गवाहिँया मेजुद हैं । हिंसा की भावना पहले कभी व्यक्तिगत पूजा-उपक्रमो तक सिमटी थी, बाद में वह समाज व्यापिनी बन गयी । गंगा, यमुना सरस्वती एवं देवनंद का विशाल भू-खण्ड एक हत्याग्रह में बदल गया । जिसे कुछ लोग कल तक अपनी व्यक्तिगत हैसियत से करते थे, अब उसे पूरा समाज करने लगा । उस समय एक व्यापक विचार क्रान्ति की जरुरत महसूस हुई । समाज की आत्मा में भारी विक्षोभ हुआ ।
शनिवार, 12 फ़रवरी 2011
क्यूकी बाप भी कभी बेटा था ......संतोष कुमार "प्यासा"
एक जमाना था जब लड़के अपने घर के बड़े बुजुर्गों का कहना सम्मान करते थे उनका कहा मानते थे ! कोई अपने पिता से आंख मिलाकर बात भी नहीं करता था ! उस समय कोई अपने पिता के सामने कुर्सी या पलंग पर भी नहीं बैठता था ! तब प्यार जैसी बात को अपने बड़े बुजुर्गों से बंटाना "बिल्ली के गले में घंटी बाधने" जैसा था ! प्रेम-प्रसंग तो सदियों से चला आ रहा है ! लेकिन पहले के प्रेम में मर्यादा थी ! उस समय यदि किसी के पिता को पता चल जाता था की उसका बेटा या बेटी किसी से नैन लड़ाते( प्रेम करते) घूम रहे है तो समझों की उस लड़के या लड़की की शामत आ गई !
पिता गुस्से में लाल पीला हो जाता था ! तरह तरह की बातें उसके दिमाग में गूंजने लगती थी ! मन ही मन सोंचता था "समाज में मेरी कितनी इज्ज़त है, नालायक की वजह से अब सर उठा कर भी नहीं चल सकता, सीधे मुह जो लोग बात करते डरते थे अब वही मुह पर हजारों बातें सुनाएगे, मेरी इज्ज़त को मिट्टी में मिला दिया इसने" कही ऐसा करने वाली लड़की होती तो उसके हाँथ पैर तोड़ दिए जाते थे, घर से निकलना बंद कर दिया जाता था ! साथ ही लड़के या लड़की को खुद शर्म महसूस होती थी ! लड़कियों का तो गली मोहल्ले से निकलना मुश्किल हो जाता था ! लोफ़र पार्टी तरह तरह की फब्ती कसते थे ! कहते थे " देखो तो इशक लड़ाती फिरती है, जवानी संभाले नहीं संभलती...." कभी कभी तो बेचारी को घर की इज्ज़त और कायली के कारण आत्महत्या भी करनी पड़ जाती थी ! इसके विपरीत कुछ लड़के अपने प्यार को बुजुर्गों से बाटना बुरा नहीं समझते थे ! ऐसे विचार के युवकों को उस समय बद्त्मीच और संस्कारहीन समझा जाता था ! यहाँ तक की उस समय फ़िल्मी गाना गाना भी असभ्य समझा जाता था ! समय के साथ बाप और बेटों के विचारों में बदलाव आया ! अब बेटा अपने प्यार के बारे में अपने पिता से आसानी से कहता है और पिता सरलता से सुनता है ! समय ने बेटियों को भी इतना सक्षम बना दिया है की वे भी अब अपने मन की बात अपने पिता से बेहिचक कह सकती है ! वर्तमान समय में पिताओं की भूमिका "शादी के कार्ड छपवाने और मैरिज हाल बुक करने तक ही रह गई है !" अब बेटा सीधे एक लड़के को घर में लाता है और कहता है "डैड मै इससे प्यार करता हूँ !" यह सुनकर अब कोई पिता गुस्से से लाल पीला नहीं होता और न ही वह समाज के बारे में सोंचता है ! क्युकी उसे पता है की आज हर दूसरे घर में यही हो रहा है ! पिता मन ही मन सोंचता है "अच्छा हुआ कम से कम एक जिम्मेवारी तो ख़त्म हुई !अब माता पिताओं को "बहु और दामाद" ढूँढने में ज्यादा दिक्कत नहीं होती ! शायद ऐसा समय के बदलाव के कारण हुआ है ! समय ने पिता को एहसास दिला दिया है की "बाप भी कभी बेटा था" ! पिता भी सोंच लेता है की एक समय था जब हमने भी किसी से प्यार किया था, लेकिन वह समय स्थिति ऐसी नहीं थी की हम अपने प्यार के बारे में किसीको बता पाते ! आज के पिताओं ने अपने पिताओं की गलती को दोहराना बंद कर दिया है ! इस व्यवस्था में अच्छाई और बुराई दोनों है !
अच्छाई यह की, अब माता पिता बच्चों की भावनाओ को समझने लगे है, उनकी इच्छाओं और भावनाओं को दबाना बंद कर दिया है ! जिससे बेटा या बेटी "कुंठा उन्माद तनाव और आत्महत्या जैसी बुराई से बचे रहते है ! पहले प्यार के बारे में दोनों पक्षों के परिवारों को पता होने के बावजूद शादी होना संभव न था ! जिससे जवानी के जोश और प्यार के जूनून में बच्चे आत्महत्या कर लेते थे !
बुराई यह की, पिताओ के द्वारा प्राप्त इस मानसिक स्वतंत्रता का आज के युवा गलत फायदा उठा रहे है ! पहले के युवा घर की इज्ज़त और सामाजिक भय के कारण अपने जीवनसाथी का चुनाव बड़ी सावधानी से करते थे ! लेकिन आज के नवयुवाओं ने प्यार को खेल समझ लिया है ! बॉयफ्रेंड या गर्लफ्रेंड बनाना एक शौक समझ लिया है ! घर का दबाव न होने के करण आज के युवा गैर्जिम्मेवारी ढंग से अपने साथी कचुनव करते है !फलत: चार दिन बाद प्रेमप्रसंग टूट (ब्रेकउप) जाता है ! बेतिओं को भी घर का डर नहीं रह गया ! ऐसी दशा में कभी कभी ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है जो शादी के बाद होनी चाहिए ! बुजुर्गों ने बच्चो को मन की बात कहने की छूट क्या दे दी ! युवावर्ग तो बड़ो का सम्मान करना ही भूल गए ! घर की मन मर्यादा की कोई चिंता नहीं शायद इसी वजह से आज तलाक ज्यादा हो रहे है ! इस स्वतंत्रता का आज के युवा इस तरह लाभ उठा रहे है की "प्रेम और प्रेमियों का व्याकरण" ही बदल गया ! घर, समाज और मान अपमान का डर न होने के कारण कुछ युवा बलात्कार जैसे पाप कर डालते है ! जो इस स्वतंत्रता को शर्मसार कर डालता है ! बाप तो यह समझ गया की "वो भी कभी बेटा था" पर शायद बेटा यह भूल गया है की "वह भी कभी बाप बनेगा !
शिक्षा अनिवार्यता का सच ... ..... ( शिव शंकर)
सोमवार, 31 जनवरी 2011
प्यार का पहला एहसास (तुम्हारे जाने के बाद)……......(सत्यम शिवम)
आज की ये शीतलहरी की ठंडक भरी सुबह।कुहासे ने आसमान को ढ़ँक दिया था।कुछ दिख नहीं रहा था।ये मंजर मुझे बिल्कुल तुम्हारे प्यार सा जान पड़ा,जो आज कल न जाने किस कुहासे से ढ़ँका था।
याद आया मुझे वो दिन जब पहली बार तुम्हे देखा था।तुम आयी थी मेरे घर और मै तो तुम्हे देखता ही रह गया।पता ना था उस वक्त ये आँखों ही आँखों में जो मैने रिश्ता जोड़ा था तुमसे कभी प्यार के उस मँजिल तक ले जायेगा मुझे जिसके बारे में कभी ना सोचा था।उस रोज बस देखता रहा तुम्हे और ईश्वर से प्रार्थना करता रहा कि काश तुम मिल जाती मुझे।बेजुबान होकर बहुत कुछ कहने की कोशिस क्या रँग लायी पता ना चला।तुम चली गई मेरे घर से और मै जीने लगा तुम्हारी उन दो पल के यादों के साथ।
जीवन की आपाधापी में व्यस्त होता गया मै,पर आज भी कभी कभी,कही कही तुम्हारी कमी खलती थी।बस एक मुलाकात का असर इतना रँग लायेगा,क्या पता था।तुम आ जाओगी मेरी जिंदगी में बन के बहार,क्या पता था।आज सुबह सुबह बिस्तर पर पड़ा था मै कि फोन की घंटी बजने लगी।मैने फोन उठाया पर उधर से कोई कुछ बोलता ही न था।मै जानता हूँ तुमने क्या सोचा होगा,पर मैने तुम्हारे निःशब्दता को सुन लिया।जानती हो क्यों,क्योंकि उस रोज जो पहली बार मिली थी तुम तुम्हारी आँखों ने सब कह दिया था।मौन को भी जुबान दे देते है ये नैन।मेरा दिल जोर जोर से धड़कने लगा और हिम्मत कर के तुम्हारा नाम ले लिया।तुमने हामी भर दि और उस रोज खूब हुई बाते।उस पहले दिन की सारी बाते जो अधूरी थी,होने लगी पूरी।इजहार मेरे प्यार का मेरी बातों ने कर दिया।और तुमने एहसास दिलाया मुझे उस रोज मेरा पहला प्यार।एक ऐसा एहसास जो था मेरे जीवन में पहले प्यार का एहसास।सिलसिला यूँही चलता रहा ,हम दूर होके भी हर पल करीब होते रहे एक दूसरे के।
कितने शिकवे गिले है आज तुमसे,तुम्हारे जाने के बाद।पता है तुम्हे फिर से,वही ठँडे की भोर होती है यहा।फिर से यहा दिन में जाड़े की धूप और अब भी राते होती है वैसी ही चाँदनी।बस इक तुम ही तो ना हो,तुम्हारे जाने के बाद।जिंदगी चल रही है मायूस सी,खामोश डगर भी अब हैरान सा है।गुजरते थे कभी जिन राहों से हम दोनों साथ साथ वो डगर भी मुझे अकेला देख पूँछ लेता है मुझसे कभी,तुम्हारे जाने के बाद।पुकारता हूँ,आवाज लगाता हूँ तुम्हे हर उस पल जब याद आती हो तुम।पर अब कहा पहूँचती है मेरी बाते तुम तक,तुम्हारे जाने के बाद।
आज कितने सालों के बाद भी बस वो तुम्हारा दो पल का साथ बस गया मेरे जेहन में यादों की कोई बारात बन कर।विश्वास नहीं होता कि जीवन में तुम्हारा साथ भी था कभी या बस इक सपने को सच समझ बैठा था मै।जिंदगी का रुप आज बिल्कुल बदल गया है दुनिया के मायने में,पर किसे बताऊँ कि आज भी वो एहसास यूँही बसा हुआ है मेरी यादों की पोटली में ज्यों का त्यों।जब सब चले जाते है,कोई साथ नहीं होता,तो सिर्फ तुम्हारी यादे ही तो होती है जो मेरी लेखनी से पन्नों पे उतरती रहती है।गीत बनाकर गुनगुनाता रहता हूँ और जीता रहता हूँ पुरानी यादों के सहारे।
लगता है अब ना आओगी तुम।पर क्या करुँ,ये दिल तो समझना चाहता ही नहीं।मै भूल जाता तुम्हे,पर ये दिल तुम्हे भूलता ही नहीं।आज फिर वैसी ही चाँदनी में तारों से भरी आसमान को निहारता छत पे बैठा अकेला मै।लगा ऐसा कि तुम आने वाली हो।आज फिर एक टुटते तारे से माँगा मैने बहुत कुछ जो कभी अधूरा रह गया था माँगना।चाँद की चाँदनी से रात में फिर वैसा ही मंजर मुझे एहसास दिलाता रहा,तुम्हारे न होते हुए भी हर पल तुम्हारे होने का।नजर मेरी जाने क्यों हर पल इंतजार तुम्हारा करती रहती है और चाँदनी रातों में अब भी छत पे तुम्हारा इंतजार करता हूँ मै,कि आज तुम आओगी...................।
बुधवार, 26 जनवरी 2011
जरा याद इन्हे भी कर लें-----------मिथिलेश
इस भूख हड़ताल में जतिन दास की स्थिति दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी। भगत सिंह साथियों से सलाह लेने के बहाने बोर्स्टल जेल जा कर सभी साथियों के स्वस्थ्य का समाचार पूछ लिया करते थे। उन्हें कभी नहीं लगता था कि वे अकेले हैं, बल्कि देश-भक्ति की एक ज्वाला थी, जो सब को सम्पूर्ण रूप से जोड़े रहती थी। इधर चिकित्सा अधिकारी ने रिपोर्ट दी कि दास की स्थिति बहुत चिंताजनक है। वे दवाई लेने तक से इनकार कर रहे हैं। एक डॉ. गोपीचंद ने दास से पूछा भी- आप दवाई तथा पानी क्यों नहीं ले रहे?
दास ने निर्भीक उत्तर दिया - मैं देश के लिए मरना चाहता हूँ... और कैदियों की स्थिति को सुधारने के लिए।
21 अगस्त को कांग्रेस के एक अन्य देशभक्त नेता बाबू पुरुषोत्तम दास टंडन ने दास को बहुत मनाया- दवाई ले लो। सिर्फ़ जीवित रहने के लिए। भले ही भूख हड़ताल न तोड़ो। मेरे कहने पर सिर्फ़ एक बार प्रयोग के तौर पर दवा ले लो, और पन्द्रह दिन तक देखो। अगर तुम्हारी मांगें नहीं मानी जाती, तो दवाई छोड़ देना।
दास ने कहा - मुझे इस सरकार में कोई आस्था नहीं है। मैं अपनी इच्छा-शक्ति से जी सकता हूँ। भगत सिंह ने दबाव डालना जारी रखा। इस पर दास ने केवल दो शर्तों पर दवाई लेना स्वीकार किया, कि दवाई डॉ. गोपीचंद ही देंगे। और कि भगत सिंह दोबारा ऐसा आग्रह नहीं करेंगे।
26 अगस्त को चिकित्सा अधिकारी ने रिपोर्ट दी कि दास की स्थिति अत्यन्त शोचनीय हो गई है। वे शरीर के निचले अंगों को हिला डुला नहीं सकते। बातचीत नहीं कर सकते, केवल फुसफुसा रहे हैं। और 4 सितम्बर को उनकी नब्ज़ को कमज़ोर व अनियमित बताया गया, उल्टियाँ हुई। 9 को नब्ज़ बेहद तेज़ हो गई। 12 को उल्टी हुई, नब्ज़ अनियमित... 13 सितम्बर, अपने अनशन के ठीक चौंसठवें दिन, दोपहर एक बज कर दस मिनट पर इस बहादुर सपूत ने भारत माँ की शरण में अपने प्राणों की आहुति दे कर इतिहास के एक पन्ने को अपने बलिदान से लिख डाला।
इस युवा देव-पुरूष के अन्तिम शब्द थे - मैं बंगाली नहीं हूँ। मैं भारतवासी हूँ। जी एस देओल ऊपर संदर्भित पुस्तक में जतिन दास की शहादत पर लिखते हैं -'ब्रिटिश के लिए ईसा मसीह भी शायद एक भूली-बिसरी कथा थे'। जिस प्रकार यीशु सत्य की राह पर सूली चढ़ गए, जतिन दास सत्य के लिए युद्ध करते करते शहीद हो गए।
विशाल भारत की तरह आयरलैंड जैसे छोटे-छोटे देश भी ब्रिटिश की पराधीनता का अभिशाप सह चुके थे। आयरलैंड के ही एक क्रांतिकारी युवा पुरूष टेरेंस मैकस्विनी ने भी जतिन दास की तरह ही शहादत दी थी। जतिन दास के जाने की ख़बर विश्व के अखबारों में छपी थी। इसे पढ़ कर मैकस्विनी की बहादुर पत्नी ने एक तार भेज कर लिखा - टेरेंस मैकस्विनी का परिवार इस दुःख तथा गर्व की घड़ी में सभी बहादुर भारतवासियों के साथ है। आज़ादी आएगी। जेल के बाहर कई कांग्रेसी नेताओं के नेतृत्व में असंख्य भीड़ जमा थी।
जतिन दास जिंदाबाद ... इन्किलाब जिंदाबाद के नारों से आसमान गूँज उठा। सुभाष चन्द्र बोस ने देश के इस सपूत को अपना सलाम भेजा। जतिन दास को पूरा देश नमन कर रहा था। अख़बार श्रद्धांजलियों से भरे थे। जतिन दास के भाई के.सी दास ने अपने भाई का पार्थिव शरीर प्राप्त किया जिसे लाहौर में एक भारी जुलूस के बीच कई जगहों से होते हुए रेलवे स्टेशन तक लाया गया। लाखों लोगों की आंखों में आंसू थे। आसमान फिर उन्हीं देश-भक्ति से ओत-प्रोत नारों से गूंजा था।
जतिन दास जिंदाबाद ... इन्किलाब जिंदाबाद
इन्होंने जर्मनी में रहकर आजादी की अलख जगाई। वहां भीकाजी ने इंटरनैशनल सोशलिस्ट कॉन्फ़रन्स में 22 अगस्त 1907 को भारतीय आजादी का झंडा फहराया। कॉन्फ़रन्स के दौरान झंडा फहराते हुए उन्होंने कहा कि यह झंडा भारत की आजादी का है। |
शनिवार, 22 जनवरी 2011
मेरी मौत खुशी का वायस होगी ----[मिथिलेश]
गुरुवार, 20 जनवरी 2011
युवा बनाम भारतीय संस्कृति-------------[शिव शंकर]
सोमवार, 3 जनवरी 2011
नारी उत्थान में निहित भारत विकास-------------मिथिलेश
रविवार, 2 जनवरी 2011
नये वर्ष में नयी उड़ान... {नजरिया} सन्तोष कुमार "प्यासा"
जब भी हम कुछ नये के बारे में सोंचते है तो मन में एक नयी उमंग उठने लगती है ! उस नये के लिए हम खुद को भी नया कर लेते(कर लेना चाहते है) है! सच में नवीनता में आनंद देने की शक्ति है, फिर चाहे वह नवीनता किसी भी प्रकार की क्यूँ न हो ! जब नवीनता किसी बच्चे के रूप में किसी के यहाँ जन्म लेने वाली होती है तो उस घर को ही नहीं बल्कि पुरे परिवार को एक नयी ख़ुशी एक नयी शांति प्रदान करती है ! सब उस नन्हे मेहमान के आने का बेसब्री से इंतजार करते है! तरह-तरह की योजनाएं बने जाती है ! कोई उसके नाम के बारे में सोंचता है तो कोई उसके खिलौनों, कपड़ों के बारे में ! इस नए मेहमान में इतनी शक्ति होती है की "बूढ़े दादा-दादी, नाना-नानी, जिन्हें अच्छा खाने, पहनने इत्यादि से कोई ख़ुशी नहीं होती उन्हें ये नन्हा मेहमान अपार खुशी देता है, और उनके बचे हुए जीवन को आनंद से भर देता है !
नवीनता का यही लक्षण है! नवीनता ऐसे ही अपने साथ खुशियाँ है ! जब किसी बच्चे के लिए नये खिलौने या कपडे आते है तो वो उन्हें पाकर खुशी से उछल पड़ता है ! या जब कभी किसी बच्चे का दाखिला किसी नये स्कूल के कराया जाता है, तो उस समय भी उसके (बच्चे के) चेहरे में एक नयी उमंग एक नया कौतुहल देखा जा सकता है !
वास्तव में नवीनता शक्ति और आनन्द की पुंज है ! नवीनता गहरे-से-गहरे दुःख, दर्द को इस भांति ढक लेती है, जैसे शरद-ऋतु के प्रारंभ में पुष्प काश्मीर की वादियों को ढक लेते हैं !
वैसे तो नवीनता स्वत: ही हमरी समस्याओं को ऐसे मिटा देती है जैसे सावन-की-बहार पतझड़ को मिटती है, पर यदि हम अपनी समस्याओं/गलतियों को हटाने का प्रयाश करें तो नवीनता उसी प्रकार हमरे जीवन को सुन्दर-मनोरम बना देगी, जैसे माली पतझड़ की सुखी पत्तियों, खास फूस आदि को हटा कर उपवन को सुन्दर बनता है !
हमें पिछली बैटन को भूलकर, पुरानी असफलताओं से सीख लेकर पुन: नवरूप से मन में नव-उमंग भर सफलता के लिए प्रयास करना चाहिए। नये वर्ष का आगमन हो चुका है। अब हमें अपने जीवन को नये रंग ढंग से सजाने का संकल्प लेना चाहिए ! पिछले वर्ष दशे में जो कुछ भी अशुभ घटा उसके लिए अफसेास न कर हमें प्रयास करना चाहिए की अब आगे से हम एैसा न होने देंगें हंमारी ही गलतियों से समाज में समस्याएं उत्पन्न होतीं है, जिन्हे हमें सुधारना हैं।
नया वष्र हाॅथ में मंगल थाल लिये हमारी प्रतीक्षा कर रहा है, खुशिंयाॅ हाॅथों में पुश्प् लिए हमारे चारो ओर खडीं हैं, दिशाऐं शाॅती का राग गा रही हैं। हम अपनी गलतियों को सुधार कर नए वर्ष के संग शुभ कार्य करने एवं भाईचारे की भावना को जिवित रखने का संकल्प लेते हैं।
रविवार, 19 दिसंबर 2010
" 19 दिसम्बर की वह सुबह "--------(लेख)----मिथिलेश दुबे
अब जिंदगी से हमको मनाया न जायेगा। यारों है अब भी वक्त हमें देखभाल लो, फिर कुछ पता हमारा लगाया न जाएगा । बह्मचारी रामप्रसाद बिस्मिल के पूर्वज ग्वालियर के निवासी थे । इनके पिता श्री मुरली धर कौटुम्बिक कलह से तंग आकर ग्वालियर छोड़ दिया और शाहजहाँपुर आकर बस गये थे । परिवार बचपन से ही आर्थिक संकट से जूझ रहा था । बहुत प्रयास के उपरान्त ही परिवार का भरण पोषण हो पाता था । बड़े कठिनाई से परिवार आधे पेट भोजन कर पाता था । परिवार के सदस्य भूख के कारण पेट में घोटूं देकर सोने को विवश थे । उनकी दादी जी एक आदर्श महिला थी , उनके परिश्रम से परिवार में अच्छे दिंन आने लगे । आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ और पिता म्यूनिसपिल्टी में काम पर लग गए जिन्हे १५ रुपए मासिक वेतन मिलता था और शाहजहाँपुर में इस परिवार ने अपना एक छोटा सा मकान भी बना लिया । ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष ११ (निर्जला एकादशी) सम्वत १९५४ विक्रमी तद्ननुसार ११ जून वर्ष १८९७ में रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म हुआ । बाल्यकाल में बीमारी का लंबा दौर भी रहा । पूजारियों के संगत में आने से इन्होंने ब्रह्मचर्य का पालन किया । नियमित व्यायाम से देह सुगठित हो गई और चेहरे के रंग में निखार भी आने लगा । वे तख्त पर सोते और प्रायः चार बजे उठकर नियमित संध्या भजन और व्यायाम करते थे । केवल उबालकर साग, दाल, दलिया लेते । मिर्च खटाई को स्पर्श तक नहीं करते । नमक खाना छोड़ दिया था । उनके स्वास्थ्य को लोग आश्चर्य से देखने लगे थे । वे कट्टर आर्य समाजी थे, जबकि उनके पिता इसके विरोधी थे जिसके चलते इन्हे घर छोड़ना पड़ा । वे दृढ़ सत्यवता थे । उनकी माता उनके धार्मिक कार्यों में और शिक्षा मे बहुत मदद करती थी । उस युग के क्रान्तिकारी गैंदालाल दीक्षित के सम्पर्क में आकर भारत में चल रहे असहयोग आन्दोलन के दौरान रामप्रसाद बिस्मिल क्रान्ति का पर्याय बन गये थे । उन्होंने बहुत बड़ा क्रान्तिकारी दल (ऐच आर ए) हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेसन के नाम से तैयार किया और पूरी तरह से क्रान्ति की लपटों के बीच ठ गए । अमरीका को स्वाधीनता कैसे मिली नामक पुस्तक का उन्होनें प्रकाशन किया बाद मे ब्रिटिश सरकार नेजब्त कर लिया । बिस्मिल को दल चलाने लिए धन का अभाव हर समय खटकता था । धन के लिए उन्होंने सरकारी खजाना लूटने का विचार बनाया । बिस्मिल ने सहारनपुर से चलकर लखनऊ जाने वाली रेलगाड़ी नम्बर ८ डाऊन पैसेंन्जर में जा रहे सरकारी खजाने को लूटने की कार्ययोजना तैयार की । इसका नेतृत्व मौके पर स्वयं मौजूद रहकर रामप्रसाद बिस्मिल जी ने किया था । उनके साथ क्रान्तिकारीयों में पण्डित चन्द्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खां , राजेन्द्र लाहिड़ी, मन्मनाथ गुप्त , शचीन्द्रनाथ बख्शी, केशव चक्रवर्ती, मुरारी लाल, बनवारी लाल और मुकुन्दीलाल इत्यादि थे । काकोरी ट्रेन डकैती की घटना की सफलता ने जहां अंग्रजों की नींद उड़ा दी वहीं दूसरी ओर क्रान्तिकारियों का इस सफलता से उत्साह बढ़ा । इसके बाद इनकी धर पकड़ की जाने लगी । विस्मिल, ठा़ रोशन सिंह , राजेन्द्र लाहिड़ी, मन्मनाथ गुप्त, गोविन्द चरणकार, राजकुमार सिन्हा आदि गिरफ्तार किए गए । सी. आई. डी की चार्जशीट के बाद स्पेशल जज लखनऊ की अदालत में काकोरी केस चला । भारी जनसमुदाय अभियोग वाले दिन आता था । विवश होकर लखनऊ के बहुत बड़े सिनेमा हाल 'रिंक थिएटर को सुनवाई के लिए चुना गया । विस्मिल अशफाक , ठा़ रोशन सिंह व राजेन्द्र लाहिड़ी को मृयुदंड तथा शेष को कालापानी की सजा दी गई । फाँसी की तारीख १९ दिसंबर १९२७ को तय की गई । फाँसी के फन्दे की ओर चलते हुए बड़े जोर से बिस्मिल जी ने वन्दे मातरम का उदघोष किया । राम प्रसाद बिस्मिल फाँसी पर झूलकर अपना तन मन भारत माता के चरणों में अर्पित कर गए । प्रातः ७ बजे उनकी लाश गोरखपुर जेल अधिकारियों ने परिवार वालो को दे दी । लगभग ११ बजे इस महान देशभक्त का अन्तिम संस्कार पूर्ण वैदिक रीति से किया गया । स्वदेश प्रेम से ओत प्रोत उनकी माता ने कहा " मैं अपने पुत्र की इस मृत्यु से प्रसन्न हूँ दुखी नहीं हूँ ।" उस दिन बिस्मिल की ये पंक्तियां वहाँ मौजूद हजारो युवकों-छात्रों के ह्रदय में गूंज रही थी---------- यदि देशहित मरना पड़े हजारो बार भी , तो भी मैं इस कष्ट को निजध्यान में लाऊं कभी । हे ईश ! भारतवर्ष मे शत बार मेरा जन्म हो कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो
इस महान वीर सपूत को शत्-शत् नमन ।
पुस्तक आभार-- युग के देवता
रविवार, 24 अक्टूबर 2010
भारतोन्नति में बाधक हैं अतीत के सुनहरे स्वप्न!******* सन्तोष कुमार "प्यासा"
रविवार, 29 अगस्त 2010
पुरुष वेश्याएं , आधुनिकता की नयी उपज--------मिथिलेश दुबे
मंगलवार, 24 अगस्त 2010
रक्षा बंधन

हिन्दू श्रावण मास (जुलाई-अगस्त) के पूर्णिमा के दिन मनाया जाने वाला यह त्यौहार भाई का बहन के प्रति प्यार का प्रतीक है। इस दिन बहन अपने भाइयों की कलाई में राखी बांधती है और उनकी दीर्घायु व प्रसन्नता के लिए प्रार्थना करती हैं ताकि विपत्ति के दौरान वे अपनी बहन की रक्षा कर सकें। बदले में भाई, अपनी बहनों की हर प्रकार के अहित से रक्षा करने का वचन उपहार के रूप में देते हैं। इन राखियों के बीच शुभ भावनाओं की पवित्र भावना होती है। यह त्यौहार मुख्यत: उत्तर भारत में मनाया जाता है।
रक्षा बंधन का इतिहास हिंदू पुराण कथाओं में है। हिंदू पुराण कथाओं के अनुसार, महाभारत में, (जो कि एक महान भारतीय महाकाव्य है) पांडवों की पत्नी द्रौपदी ने भगवान कृष्ण की कलाई से बहते खून (श्री कृष्ण ने भूल से खुद को जख्मी कर दिया था) को रोकने के लिए अपनी साड़ी का किनारा फाड़ कर बांधा था। इस प्रकार उन दोनो के बीच भाई और बहन का बंधन विकसित हुआ था, तथा श्री कृष्ण ने उसकी रक्षा करने का वचन दिया था।
यह जीवन की प्रगति और मैत्री की ओर ले जाने वाला एकता का एक बड़ा पवित्र कवित्त है। रक्षा का अर्थ है बचाव, और मध्यकालीन भारत में जहां कुछ स्थानों पर, महिलाएं असुरक्षित महसूस करती थी, वे पुरूषों को अपना भाई मानते हुए उनकी कलाई पर राखी बांधती थी। इस प्रकार राखी भाई और बहन के बीच प्यार के बंधन को मज़बूत बनाती है, तथा इस भावनात्मक बंधन को पुनर्जीवित करती है। इस दिन ब्राह्मण अपने पवित्र जनेऊ बदलते हैं और एक बार पुन: धर्मग्रन्थों के अध्ययन के प्रति स्वयं को समर्पित करते हैं।
हिन्दी साहित्य मंच परिवार की ओर से सभी भाई बहनों को रक्षा बंधन पर्व की बहुत-बहुत बधाई ।
गुरुवार, 12 अगस्त 2010
रक्तदान मे डेरा सच्चा सौदा बेमिसाल ......(लेख)..............मोनिका गुप्ता
ये कोई कल्पना नही हकीकत है और यह बात सामने आई सिरसा के डेरा सच्चा सौदा मे जहाँ कल यानि 8 अगस्त रविवार को संत महाराज गुरमीत राम रहीम जी के जन्म माह के पावन उपलक्ष मे विशाल रक्तदान शिविर का आयोजन किया गया. लगभग एक लाख से ज्यादा भक्तो ने ना सिर्फ इसमे हिस्सा लिया बलिक 43,732 यूनिट रक्त दान देकर एक नया इतिहास रच दिया.
डेरा के प्रवक्ता पवन इंसा ने विस्तार से बताया कि अलग अलग राज्यो से 90 टीम रक्त लेने पहुँची और दो लाख स्कवेयर फीट मे बने सच खंड हाल मे 2500 पलंग लगाए गए. 7000 सेवादार, 50 चिकित्सक, 500 पैरामेडिकल स्टाफ के साथ साथ 200 काउंटर रजिस्ट्रेशन के लिए बनाए गए इतना ही नही जबरदस्त हूजूम देखते हुए सुरक्षा के कडे इंतजाम भी किए गए ताकि कोई अनहोनी होने पर निबटा जा सके.
सुबह ठीक सात बजे कैम्प का शुभारम्भ हुआ जोकि रात को दस बजे तक चला. लोगो मे रक्तदान के प्रति इतना जुनून इतना जुडाव किसी आश्चर्य से कम नही था.
वैसे ऐसा पहली बार नही हुआ. 7 दिसम्बर 2003 को शाह सतनाम जी धाम मे 15,432 यूनिट रक्त एकत्र किया गया था. 10 अक्टूबर 2004 को राजस्थान के गुरुसर मोडिया मे 17,921 यूनिट रक्त एकत्र किया गया. रक्तदान शिविर के लिए पहले से ही इनका नाम लिम्का बुक और गिनीज बुक आफ वर्ड रिकार्ड मे दर्ज है और कोई दो राय नही कि कल हुए इस विशाल रक्तदान कैम्प ने पिछ्ले सारे रिकार्ड तोड दिए है. इंडियन सोसाएटी आफ वर्ड ब्लड ट्रांसफ्यूजन एंड एम्यूनोहाईमोटोलाजी संस्था द्वारा भी प्रंशसा पत्र जारी किया गया है.
गौरतलब है कि डेरा सिर्फ रक्तदान मे ही नही बलिक समाज सेवा के अन्य क्षेत्रो मे और भी कई कीर्तिमान स्थापित कर चुका है जैसेकि पौधे लगाने मे इसने नया विश्व रिकार्ड रिकार्ड बनाया और तो और डेरा सच्चा सौदा की ग्रीन एस वेलफेयर के जांबाज अपने मे ही उदाहरण है किसी भी तरह की आपदा का मुँह तोड जवाब देने को तैयार रहते हैं. हाल ही मे आई बाढ मे इन लोगो का काम सराहनीय रहा.
इतना जोश, इतना उत्साह काबिले तारीफ है. अगर यही उत्साह आने वाले समय मे लोगो मे बरकरार रहा तो हमारा भारत देश हर क्षेत्र मे सबसे आगे होगा और दूसरे देश इसका अनुकरण करेगें.
सोमवार, 9 अगस्त 2010
कितने पास कितने दूर ...---(लेख) मोनिका गुप्ता
कल ही मेरे एक मित्र खुशी खुशी बता रहे थे कि उन्होनें वेब केम लिया है और अब वो भारत मे बैठे बैठे ही अपने विदेश मे रहने वालो से रिश्तेदारो को देख भी सकते है. सही है फायदे तो बहुत ही है इस बात से तो इंकार नही है क्योकि एक समय ऐसा था कि समय की कमी की वजह से हमारा अपने रिश्तेदारो से मिलना तो दूर बात तक करने का भी समय नही होता था पर धन्यवाद इस टेकनीक का ... आज इसकी वजह से सारे दोस्त , रिश्तेदार किसी ना किसी साईट पर मिल जाते है वहाँ ना उनकी नई पुरानी तस्वीरे देख सकते हैं बलिक उन्हे जन्मदिन या सालगिरह पर बधाई भी दे सकते हैं, बात कर सकते है . यानि अब किसी को उलहाना भी नही रहा कि आप आते नही या मिलते नही ... वगैरहा ... कुल मिला कर हम पास ही तो हो रहे है दूर तो नही..... पर यकीनन हम अपनो से दूर हो रहे हैं अपने ही परिवार से कट रहे हैं ... यही देखने मे आता है कि हम नेट पर सारा दिन बातो मे निकाल देंग़े पर अगर घर मे कोई महेमान आ जाए तो उठना और उससे बात करना मुसीबत से कम नही लगता ....घर के बडे इंतजार करते रहेंग़े कि चलो खाना तो साथ ही खाएगे .... पर जनाब... खाना भी वही बैठ कर खाया जाता है जहाँ कम्प्यूटर रखा होता है ..अब कोई करे तो क्या करे ...
ये बहुत अच्छी बात है कि हम नई टेकनोलोजी के साथ कदम मिला कर चल रहे हैं लेकिन अपनो से दूर भी जाना भी सही नही है ..नई दुनिया से जुडना .. नई बाते सीखना उतना ही जरुरी है जितना अपने परिवार को वक्त देना.. तो आप नई दुनिया से तो जुडे ही रहिए बहुत कुछ है सीखने को... पर अपनो का भी ध्यान आपने ही रखना है .. है ना...