स्वप्न .यह धरती का है ..-गोल धरती ....जैसे पानी की एक बूंद ...उसके सपनों के महासागर से उछलकर ..मछली की तरह मै ....कहां जा पाता हू बाहर ......-लौट आता हू .....शहर से गाँव ...गाँव में अपने घर आंगन ....-फ़िर विचारो के जलाशय में ....डूबे हुवे मन को ...ढूडने के लिए बैठा रहता हूँ ....बिछा कर एक जाल......-स्वप्न यह धरती का है ....पर डूबा रहता हूँ मै ...कभी ...किसी के कश् में धुंवो सा छितरा कर अदृश्य हो जाता हूँ .....कभी..गरीब -फुटपाथ के किनारे सिक्को सा उछल जाता हूँ ....-और फ़िर चढ़ने -उतरने के दर्द को पग-dndiyo सा ...पहाडे की तरह रटता हूँ मै ....याकाँटों...