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गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

एक किनारे की नदी....(कविता).....राजीव

अचानक .........छोड़ गई तुम मेरा साथ,बुझा गयी अपना जीवन दीप,बिना कुछ कहे,बिना कुछ सुनेकर गयी मेरे जीवन मेंकभी न ख़त्म होनेवालाअँधियारा .........जन्म-जन्मान्तर के लिए थामा थातुमने मेरा हाथ ,वेदी पर बैठ खाई थी कसमेंसंग जीने ,संग मरने की ।इतनी भी क्या जल्दी थी,ऐसी भी क्या थी बात ,जो मुझे छोड़ गयी -जीवन के दोराहे परयादों के अंतहीन सुरंग मेंआखिरी सांस तकभटकने के लिए ।क्या करूंगाऐसा नीरस और निरर्थक जीवनजिसमें तुम नहीं ,तुम्हारा साथ नहीं ।कैसे कटेगा दिन,कैसे कटेंगी रातेंतेरे बिना!हर पल-हर क्षणयाद आएगी तू,तेरे साथ कटा जीवन,तेरे साथ बटी बातें ,घर के भीतर,घर...

राजनीति मे न्यूनतम शिक्षा का मापदंड होना ज़रूरी है .....कवि दीपक शर्मा

बहुत पुरानी कहावत है कि "विद्या ददाति विनयम्" .आप सबको इस श्लोक की यह पंक्ति ज़रूर याद होगी .जीवन के प्रारंभ मे ही इस तरह की पंक्तियाँ विधालय मे हर छात्र को पढाई जाती हैं .यह सब इसलिए नहीं कि हम पदकर परीक्षा उतीर्ण कर लें और अगली कक्षा मे पहुँच जाएँ.अपितु ये हमारी बौद्धिक बुनियाद को सुद्रढ़ करने के लिए हैं और यह समझाने का प्रयास है कि जितना पढोगे और जैसा अच्छा पठन होगा जीवन उतना ही सरल ,उत्तम और परिपक्व होगा .जिसका लाभ इस समाज को मिलेगा और समाज इस कारण उन्नति करेगा. फिर समाज के साथ साथ देश भी तरक्की करेगा .मतलब देश के साथ साथ आम आदमी का गौरव भी...

झूठ-मूठ.....कविता.....- कुमार विश्वबंधु

जो कहा सब झूठ जो लिखा सब झूठ जो सोचा सब झूठ जो जिया झूठ-मूठ इस बाज़ार में उड़ रहे हैं रुपये गिर रहे हैं लोग...