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शुक्रवार, 4 जून 2010

गजल...............कवि दीपक शर्मा

लो राज़ की बात आज एक बताते हैंहम हँस-हँसकर अपने ग़म छुपाते हैं,तन्हा होते हैं तो रो लेते जी भर करसर-ए-महफ़िल आदतन मुस्कुराते हैं.कोई और होंगे रुतबे के आगे झुकने वालेहम सिर बस खुदा के दर पर झुकाते हैंमाँ आज फिर तेरे आँचल मे मुझे सोना हैआजा बड़ी हसरत से देख तुझे बुलाते हैं . इसे ज़िद समझो या हमारा शौक़ “औ “हुनरचिराग हम तेज़ हवायों मे ही जलाते हैतुमने महल”औ”मीनार,दौलत कमाई हो बेशक़पर गैर भी प्यार से मुझको गले लगाते हैंशराफत हमेशा नज़र झुका कर चलती हैंहम निगाह मिलाते हैं,नज़रे नहीं मिलाते हैंये मुझ पे ऊपर वाले की इनायत हैं “दीपक ”वो खुद मिट जाते जो...