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शनिवार, 20 अगस्त 2011

समझ लेने दो.............राजीव कुमार

अब तो रह गया है मेरी यादों में ही बसकरमिटटी की दीवारों वाला मेरा खपरैल घर जिसके आँगन में सुबह-सबेरे धूप उतर आती थी, आहिस्ता-आहिस्ता, घर के कोने-कोने में पालतू बिल्ली की तरह दादी मां के पीछे-पीछे घूम आती थी, और शाम होते ही दुबक जाती थी घर के पिछवाड़े चुपके से. झांकने लगते थे आसमान से जुगनुओं की तरह टिमटिमाते तारे, करते थे आँख-मिचौली जलती लालटेनों से. आँगन में पड़ी ढीली सी खाट पर सोया करता था मैं दादी के साथ. पर,आज वहां खड़ा है एक आलीशान मकान, बच्चों की मर्जी का बनकर निशान. उसके भीतर है बाईक,कार, सुख-सुविधा का अम्बार है. नहीं है तो बस उस मिटटी...