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रविवार, 16 मई 2010

स्पेस-.............. कहानी.................मानोशी जी

एक प्रवासी लेखकों की किताब के लिये, कहानी लिखने का हुक्म पूरा करने ये कहानी लिखी गई। प्रवास की सॆटिंग में लिखी कहानी-

स्पेस

"बड़े दुख से गुज़री हो तुम, है न? सच बड़ा कठिन समय रहा होगा"। उसे नहीं चाहिये थी सहानुभूति। साइको थेरैपी के लिये कई जगह जा चुकी थी वो। " क्या आप मेरी मदद कर सकती है? मुझ आगे बढ़ना है। मैं रोने नहीं आई हूँ यहाँ।" ये कह कर हर बार वापस आ गई थी वो। क्या कोई नहीं था जो उसकी मदद कर सकता था? उसके दर्द को समझ सकता था? आज डा. जोन्स के साथ थी अपाइंटमेंट, थेरैपी की। फिर एक बार कहानी बयान करनी होगी....

ज़ुकाम से सर भारी था। दफ़्तर नहीं जाना चाहती थी वो। मगर मार्च का महीना था। अकाऊंट क्लोसिंग आदि। सभी ओवरटाइम कर रहे थे। उसका छुट्टी लेना नामुमकिन था। मनोज भी कभी कभी बचकानी हरकतें करते हैं। सारी रात जाग कर ब्रिज खेलने को विवश किया था कल। रात तीन बजे सो कर फिर सुबह ६ बजे उठ जाना पड़ा था। दफ़्तर में जा कर देखा तो ४० ईमेल आये पड़े थे। अमित का भी ईमेल था, " याद है न? आज मिलना है, स्टार्बक्स में, चार बजे।" काम के बीच से निकल कर जाना मुश्किल था उसके लिये। अमित उसके बचपन का दोस्त था। इस शहर में एक वालमार्ट में अचानक ही मुलाक़ात हो गई थी उसकी। एक पल को तो दोनों हक्के बक्के रह गये थे, मगर फिर पुरानी खिलखिलाहट गूँज उठी थी। लगता ही नहीं था कि एक अंतराल के बाद मिले हैं दोनों। उसने झट से ईमेल का जवाब दिया, " आज नहीं हो पायेगा, काम है।"

शाम को घर पहुँच कर देखा तो अमित बैठा गप्पें लड़ा रहा था, मनोज के साथ। मनोज को जानती थी वह, किसी भी मर्द दोस्त का इस तरह घर आना उन्हें पसंद नहीं होगा। मगर दोनों बड़े मज़े से बातें कर रहे थे। हैरानी परेशानी में वह क्या कहे समझ नहीं आया था उसे। उसके जाने के बाद कहीं मनोज उसे कुछ कहें न। खाना खा कर ही टला था अमित। मनोज के सामने ही ’तुम’ कह कर संबोधित कर रहा था वह उसे। कैसे कहे, क्या समझाए वो किसी को।

लाल रंग का स्कार्फ़, लाल लंबे स्कर्ट के साथ सुंदर लग रहा था। उद्देश्य भी पूरा हो रहा था। मनोज एक बार रशिया गये थे। तब ले कर आये थे वो स्कार्फ़। साथ में मोतियों की एक माला भी थी। उस वक़्त गुजरात के एक गाँव में पोस्टिंग थी मनोज की। नई शादी थी, और उसका मन उड़ा ही करता था सारे दिन। एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में शादी के कुछ दिनों बाद ही रशिया जाना हुआ था मनोज का। वहाँ से आने के बाद, मनोज ने ही तो अपने हाथों से पहनाई थी वो माला। लाल, झकझक करती, आइने के सामने खड़े हो कर ख़ूब इतराई थी वह। आज स्कार्फ़ के साथ वो माला नहीं पहन पाई थी वो। सूना गला मगर स्कार्फ़ से ढका हुआ था। वो माला टूट गई थी। एक बूँद आंसू ढुलक पड़ा था अनजाने ही उसकी आँखों से। आफ़िस में फ़ोन पर अमित था," आज मिल रहे हैं वरना फिर आ धमकूँगा मैं।" " ऐसा मत करो अमित, प्लीज़।"

मारनिंग डेल पार्क। अक्सर ही शाम को मुलाक़ात होती थी उसकी अमित के साथ यहाँ। दोनों देर तक बातें करते रहे थे। "ज़रा धीरज, ज़रा सा...फिर सब ठीक होगा, यकीन मानो"। " मगर मैं खुश हूँ अमित, तुम मानते क्यों नहीं?" "हाँ जानता हूँ तुम खुश हो...ये भी कि कितना खुश।" आँखों में पानी लिये वो उठ पड़ी थी, और घर की ओर चल दी थी। 53A बस नम्बर, घर जाने का रास्ता, उसे सब से प्रिय था। रास्ते में एक सुनसान सड़क पड़ती थी, उसकी ज़िंदगी की तरह ही। चारों तरफ़ पेड़-पौधे, हरियाली, पर सड़क सुनसान। रोज़ उसे इस रास्ते से घर आना बहुत अच्छा लगता था। और सारे दिन की हँसी सहेज कर वह मनोज के हँसने का इंतज़ार करती थी। अब निर्भर करता था कि उस दिन मनोज किस मूड में है।

बस से उतर कर थोड़ी देर चलना पड़ता था उसे। आज घर का दरवाज़ा खुला हुआ था, जिसे देख कर हैरानी ही हुई थी उसे। ज़रा तेज़ क़दमों से चल कर वह जब अंदर पहुँची तो अचानक ही जैसे सारी दुनिया गोल मोल हो गई थी उसकी। मनोज सोफ़े पर लेटे थे और उनके मुँह से ख़ून...वह बौखला गई थी। ये कैसे हुआ। उसे पता नहीं था वह क्या करे। जल्दी से ९११ को फ़ोन कर के वह मनोज को जगाने लगी। ९११ से फिर फ़ोन आ गया। वह फ़ोन पर ही थी कि ऐम्बुलेन्स और फ़ायर ट्रक दरवाज़े पर खड़े थे। पुलिस भी धड़ल्ले से घुसी और थोड़ी ही देर में उसे पता चल गया कि मनोज अब इस दुनिया में नहीं है। शायद सीवियर स्ट्रोक की वजह से उसका देहांत हो गया था। वह नहीं जानती थी कि क्या करे। कैसे संभाले अपने आप को। कैसे ज़िंदगी संभाले। मनोज के बिना तो उसने ज़िंदगी की कल्पना भी नहीं की थी।

शाम ढलने लगी थी। उसमें हिम्मत नहीं थी कि वो कुछ भी सोचे। घर से अभी ही भीड़ गई थी, पुलिस आदि। मनोज को अस्पताल ले जाया गया था। उसे भी जाना था। उसने जाने से पहले अमित के सेलफ़ोन पर काल किया। काल आंसरिंग मशीन पर गई। उसने उसे अस्पताल का ठिकाना दिया और अम्बुलेंस में सवार हो गई, अस्पताल जाने के लिये। वो नहीं सोचना चाह्ती थी कुछ भी। मनोज के साथ गुज़रे ८ साल जैसे उसकी आँखों के सामने से गुज़रने लगे थे। लाल मोतियों की माला...अभी भी तो वो मोतियाँ बेडरूम के फ़र्श पर बिखरी पड़ी हैं। उसने धीरे से अपना स्कार्फ़ खोला। और गले पर के नीले निशान उभर आये थे अब। अमित के जाने के बाद कल रात को मनोज ने हाथ से खींच कर उस माला को तोड़ दिया था। और फिर एक एक मोती पिरो कर उसे उसके गले में बाँधने की कोशिश की थी, इतने प्यार से...मगर अचानक ही जैसे उस माला से उसका गला घुट रहा था... वो एक पल को डर ही गई थी। मोतियाँ फिर बिखर गई थी फ़र्श पर।

अस्पताल में अमित पहले से ही इंतज़ार कर रहा था उसका। सारी फ़ार्मैलिटी पूरी करते करते देर हो गई थी। अमित से कुछ कहने की ज़रूरत नहीं होती थी उसे। वो जैसे हर बात समझ जाता था उसकी। कितनी बार भी वो कहे कि वो ख़ुश है, अमित बार बार कहता कि सब ठीक हो जायेगा। सारी रात तो था अमित उसके साथ और सुबह चार बजे तक ही आना हो पाया था दोनों का घर। अभी तक रोने का तक समय नहीं मिल पाया था उसे। घर पहुँच कर उसने अमित से पूछा, " चाय लोगे?" फिर धड़ाम से बैठ गई थी वो सोफ़े पर और अचानक ही जैसे सैलाब सा फूट पड़ा था। आँसू रुके नहीं रुक रहे थे। कल की सुबह मनोज के बिना होगी। ये कैसी कश्मकश है। वो जिस ज़िंदगी से कई बार छुटकारा पाना चाहती थी, जिस आदमी को कई बार उसने मरने की बद-दुआ भी थी, वह आज सचमुच न रहने पर उसका सम्हलना मुश्किल हो रहा था। अजीब मन:स्थिति से गुज़र रही थी वह। और मनोज के बग़ैर एक पल भी तो नहीं रही थी वह।

शादी के बाद मनोज के साथ वो एक गाँव में रहने गई थी, गुजरात के। हमेशा ही एक छोटे से शहर में पली बड़ी, वो गाँव के माहौल को बहुत पसंद करती थी। जैसे मन की ही चाह पूरी हो गई थी उसकी। कुछ दिन बड़े अच्छे से गुज़रे थे। वहीं के एक छोटे से स्कूल में पढ़ाने भी लगी थी। मनोज भी जल्दी आ जाते थे दफ़्तर से। और फिर दोनों निकल पड़ते थे गाँव की सैर को, रोज़। मनोज को बच्चे पसंद थे। मगर कोई ३ साल बाद भी वो मां नहीं बन पाई थी। स्कूल से आ कर कभी-कभी वह रोने लगती थी। मनोज उसे दुलारते, सहलाते मगर ये भी न कहते कि बच्चे न हुये तो भी कोई बात नहीं। उस दिन को वो नहीं भूल सकती जब एक बार वो स्कूल से देरी से आई थी। मनोज ने आते ही एक चाँटा रसीद दिया था उसे। वह हक्की बक्की रह गई थी। उसने आश्चर्य और दर्द से पूछा था, " मनोज?" मनोज ने तभी उसके पैरों पर गिर कर माफ़ी मांगी थी। " तुम मुझसे दूर चली जाती हो तो मुझे बहुत बेचैनी होती है, मैं पागल हो जाता हूँ। " उसके बाद ऐसे कितने ही दिन आये थे जब मनोज ने उस पर हाथ उठाया था। और हर बार माफ़ी माँगी थी, प्यार किया था। वो मानना चाह्ती थी कि मनोज उससे बहुत प्यार करता है। वो उसके बिना रह नहीं पाता। और उसने मनोज का साथ एक दिन के लिये भी नहीं छोड़ा था। मां के देहांत के समय भी वो भारत नहीं जा पाई थी। मनोज उसके बिना रह नहीं सकेगा, उसे पता था। छ: साल बाद भी जब बच्चे नहीं हो पाये थे तो उसने सोचा था कि वो एक बच्चा गोद लेगी। और उसे याद है इस बात पर मनोज ने तीन दिन तक उस से बात नहीं की थी। अभी दो साल पहले ही तो दोनों अमेरिका आये थे। ...और वो फिर फूट फूट कर रोने लगी। अमित के कंधे का सहारा उसे बड़ा ही अपना सा लगा था उस वक़्त।

"सुनो, आज सात बजे तैयार रहना, शाम को निर्वाण में खाना खायेंगे।" अमित को वो ना नहीं कर पाती थी। मनोज को गये हुये छ-सात महीने से ऊपर हो गये थे और अमित उसका ख़्याल रखता था। "ठीक है अमित"।

शाम के ७:३० बज गये थे। घड़ी की सूइयाँ चल रही थीं। टिक टिक टिक...आठ बजे अमित के आने की आहट हुई। अमित के घर में आते ही, वो उबल पड़ी थी। ऐसी तेज़ आवाज़ में बात करना अमित को पसंद नहीं था। आज वो दोनों बाहर खाना खाने जा ही नहीं पाये थे। अमित अक्सर ही ऐसे दिनों में उसके पास रुक जाया करता था। आज भी वो रोती रही थी और अमित जागता रहा था। ऐसे कई शामें गुज़री थीं कई बार। ये अमित अपना वादा निभा भी तो सकता है, वक़्त का पाबंद क्यों नहीं....। दूसरे दिन उसने अमित को कहा था कि वो उसे आफ़िस तक छोड दे। आफ़िस में भी मन नहीं लगा था उसका। आज वो अमित से फिर माफ़ी मांग लेगी।

"आज टीवी पर मेरा फ़वरिट शो है, तुम आ कर पास बैठो, साथ देखते हैं।"
" हूँ"
"अच्छा तुम्हें क्या लगता है, आखिरी में कौन जीतेगा?"
" तुम क्या टीवी देखना बंद नहीं कर सकते?"
" जान, तुम पास तो हो"
"पर मुझे कहाँ वक़्त देते हो तुम अब. जब भी आते हो टीवी पर ही..."
"मैं अब तुमसे बहस नहीं कर सकता...चलता हूँ. कल आऊँगा"
वो भी मुँह बना कर बैठी रही थी और अमित उठ कर चला गया था। बात करते करते उसने कब अमित पर मुक्कों की बरसात कर दी थी, उसे खयाल ही नहीं था। वो इतना ग़ुस्सा क्यों हो जाती है, क्या हो जाता है उसे?" ऐसी अनगिनत शामें गुज़री थीं। ओह! क्या अमित उस से प्यार नहीं करता अब..?
अगर अमित उस से प्यार करना छोड़ दे तो? वो फिर फफक कर रो पड़ी थी।

दो दिन बाद अमित का फ़ोन आया था, " कल बाहरेन जा रहा हूँ, तीन साल के कन्ट्रैक्ट जाब पर, ख़याल रखना अपना। इस बीच मेरे बग़ैर जीना सीखो। खुशी अपने में होती है, कोई और खुशी नहीं दे सकता किसी को...फिर मिलेंगे"

वो हक्की बक्की रह गई थी। इतिहास ने दोहराया था अपने को शायद। फ़र्क़ बस इतना था कि अमित ने जो रास्ता चुना, वो मनोज के साथ कभी नहीं कर पाई थी।

डा. जोन्स के शब्द उसके कानों में गूँज रहे थे, "स्पेस हनी, स्पेस। ऐंड लर्न टु लेट गो... दैट इज़ द मंत्रा"

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

हड़ताल....(कहानी).....मनीष कुमार जोशी


‘क्या मैं अंदर आ सकता हॅू।’ तेजस ने नीले रंग की ड्रेस पहने हुए दरवाजा खोलकर कहा। 

यस । कम इन । ’ मैंनेजर ने कम्प्यूटर पर काम करते हुए तेजस की ओर देख बिना कहा। 

  तेजस मैनेजर का उत्तर सुनकर अंदर आ गया। नीली ड्रेस पहने और माथे पर थोड़े बहुत बाल बिलकुल आज की उम्र के नौजवान की तरह ही था तेजस । मैनेजर की टेबिल की नजदीक पहुंचते ही मैनेजर ने बैठने के लिए कह दिया। बिलकुल शांति का वातावरण था। फैक्ट्री में मशीनो की घड़ घड़ की आवाज यहां बिलकुल नहीं पहुंच रही थी जबकि यह कमरा फैक्ट्री के बिलकुल नजदीक था। कमरे में सभी अत्याधुनिक सुविधाऐं थी और इससे आभास हो रहा था कि कंपनी मैनेजर को उनके काम के अनुरूप पूरी सुख सुविधाऐ देती है। तेजस कुर्सी पर बैठकर मैनेजर के कुछ कहने का इंतजार कर रहा था। आखिर मैनेजर ने ही उसे बुलाया था हांलाकि तेजस को पता था कि मैनेजर ने क्यों बुलाया है ? उसे अच्छी तरह से पता था कि उसे सुपरवाईजर की हैसियत से नहीं बुलाया गया है। मैनेजर ने कुछ ही देर में अपनी कुर्सी कम्प्यूटर की ओर से तेजस की ओर धुमाई और अपने दोनो हाथ टेबिल पर आराम की मुद्रा रखते हुए तेजस की ओर आंखे करते हुए बोला- ‘ इस हड़ताल के नोटिस पर तुम्हारे साईन है।’

हाॅ! तो ? 

‘मुझे कोई आपत्ति नहीं है कि हड़ताल के नोटिस पर किसने साईन किये है। इसकी भी ज्यादा परवाह नहीं है कि हड़ताल से किसका नुकसान होगा। परन्तु मुझे तुम्हारी चिंता है।’ मैनेजर तेजस की ओर अंगुली करते हुए कहा। परन्तु तेजस ने वापिस अपने हाथ की हथेली खोलकर मैनेजर की ओर हिलाते हुए कहा - ‘ आप मेरी चिंता मत कीजिए। आप तो हमारी बात मालिको तक पहुंचाईये और कहिए कि ये मांगे नहीं मांगी गई तो पूरी कंपनी के मजदूर अगली 8 तारीख को हड़ताल पर चले जायेंगे। ’ 

तेजस की तेज और ऊंची आवाज के बावजूद मैनेजर ने कोई उग्रता नहीं दिखाई और पूछा -‘ तुम्हारी उम्र क्या है।’ 

‘ 24 साल’

‘ तुम जानते हो । यह कंपनी 48 साल से भी ज्यादा पूरानी है और आज तक इस कंपनी में कोई हड़ताल सफल नहीं हो पाई है।’

‘ मैनेजर साब! पहले क्या हुआ ? इससे मुझे कोई सरोकार नहीं है। मैं आगे की ओर देखता हूॅ। 

‘ मैं भी तुम्हे यही कहता हूॅ कि तुम आगे की ओर देखो। तुम्हे नौकरी लगे हुए 1 साल भी नहीं हुआ। इस कंपनी ने यदि रेड मार्क करके निकाल दिया तो तुम्हे कहीं नौकरी नहीं लगेगी। तुम्हारा भविष्य चैपट हो जायेगा। थोड़ा समझदारी से काम लो।’ 

  मैनेजर की बात सुनकर तेजस कुर्सी से उठकर खिड़की की ओर गया। अपने हाथ से कांच की खिड़की खोल दिया। खिड़की को खोलते ही मशीनो की घड़ घड़ की आवाज अंदर आने लगी। तेजस ने खिड़की से बाहर देखते हुए ही कहा - ‘ साहब! कांच के साउण्ड प्रुफ कमरो मंे बैठने वालो को ये आवाज डिस्टर्ब करती है परन्तु मेरे लिए यह आवाज जीवन का संगीत है। जब तक यह आवाज सुनाई देती है सैकड़ो मजदूरो का जीवन चलता है। उनके बच्चो को खाना मिलता है। मुझे नहीं लगता कि इन सैकड़ो परिवारो के भविष्य से ज्यादा जरूरी मेंरा भविष्य है। ’ 

‘ तेजस तुम समझना ही नहीं चाहते हो तो मैं क्या कर सकता हॅॅॅू। तुम्हे आगाह करना मेरा फर्ज था। आगे तुम ख्ुाद समझदार हो। यदि अच्छी सोच रखोगे तो आज सुपरवाईजर हो कल मैनेजर और फिर कंपनी में हिस्सेदार भी बन सकते हो। फैसला तुम्हे करना है ? मैनेजर ने अपने दोनो हाथ घुमाते हुए कहा।  

  मैनेजर की बात सुनकर तेजस ने घूमकर मैनेजर की ओर देखा, फिर कमरे से बाहर आ गया। बाहर आते ही मजदूरो ने उसे घेर लिया। किसी से कुछ कहे बिना तेजस आगे की ओर निकल गया। सभी मजदूर पीछे पीछे थे। तेजस सीधे फैक्ट्री में बने अपनी केबिन में जाकर बैठ गया। दीनूकाका भी उसके पीछे पीछे आ गये और उसके सामने आकर बैठ गये। तेजस टेबिल पर अपने हाथ की कुहनी टिकाकर हथेली को अपने चेहरे पर रखकर बैठा था। दीनू काका ने अपनी सफेदी होती दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा -‘ तेजस एक बार सोच लो।’

‘ सोच लिया काका। 8 तारीख को हड़ताल पर जायेंगे। एक एक मजदूर अपने साथ है।’

‘ वो तो ठीक है। मुझे तुम्हारी चिंता है। तुम्हारी नई नौकरी है। ऐसा करो हड़ताल के नोटिस में मेंरा नाम दे दो और मैं इस कंपनी का पूराना मजदूर हूूॅ। कंपनी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती। ’

‘ बिलकुल नहीं काका। आप मुझे काम करने दीजिए। इस कंपनी में मजदूरो ने हमेंशा जंग हारी है परन्तु इस बार मजूदरो की जीत होगी। ’

‘ तेजस । तुम इन लफड़ो में मत पड़ो । तुम तो अपना कैरियर बनाओ। यह सब हमारे ऊपर छोड़ दो।  

इस बार तेजस अपनी कुर्सी से खड़ा हो गया। दीनूकाका के पीछे जाकर उनके कंधो पर हाथ रखकर बोला- ‘ दीनूकाका । अब सब चिंताऐ छोड़ दीजिए । मैं नौजवान हूॅ। कैसे भी कमा लूंगा । लेकिन आप जैसे उम्रदराज लोग कहां जायेंगे। इसलिए मुझे काम करने दीजिए और इस लड़ाई में सफलता के लिए मुझे आर्शीवाद दीजिए। ’ तेजस के ईरादो को देखकर दीनूकाका ने भी आगे कुछ कहना मुनासिब नहीं समझा।  

  पूरी फैक्ट्री में हलचल थी। दिनभर काम के बाद सभी मजदूरो का एक ही सवाल था 8 तारीख को क्या होगा ? सभी को तेजस जैसे नौजवान पर भरोसा था। सभी को लग रहा था उसमें कोई बात है। उसकी आवाज पर सभी शाम को कंपनी के मैदान में इकट्ठे हो जाते । उधर कंपनी के अधिकारियों के माथे पर चिंता की लकीरे साफ पढ़ी जा सकती थी।  

  कंपनी के मैदान मे आज सभी मजदूर इकटठा थे। कल से हड़ताल होनी थी। तेजस को सुनने के लिए छट्टी के बाद सभी मजदूर जमा हुए थे। तेजस उन्हे एक नायक की तरह लग रहा था। तेजस ज्यों ही मंच ओर पहुंचा। मैनेजर का चपरासी जयदीप दौड़ता हुआ आया और कहा- ‘ तेजस भैया। आपको बडे़ साब बुला रहे है।’

तेजस ने कहा - ‘ तुम चलो । मै आता हूॅ। ’ यह कहने के बाद तेजस ने सभी मजदूरो से मालिक से मिलने के लिए जाने की अनुमति मांगी और मजदूरो की हामी के बाद वह मालिक से मिलने के लिए गया। 

  कंपनी के स्वागत कक्ष के आगे ही कंपनी के मालिक की गाड़ी खड़ी थी। मालिक शांतिलाल जी स्वागत कक्ष में ही बैठे थे। तेजस ने पहंुचते ही मालिक को प्रणाम किया।  

‘ आओ तेजस। बैठो। आखिर तुमने हमें यहां बुला ही लिया । ’ शांतिलाल जी ने बैठने का ईशारा किया। शांतिलालजी के कहने पर तेजस उनके सामने की कुर्सी पर बैठ गया।  

  शांति लाल जी ने टेबिल पर रखी फाईल को खोला और फाईल के पन्ने की ओर नजर रखते हुए कहा -‘ अच्छा। तेजस तुम तो खूब पढ़े लिखे हो। सुपरवाईजर की नौकरी के लायक नहीं हो । तुम तो मैनेजर जैसे पद के लायक हो। मुझे बहुत बुरा लगा। इतना होनहार नौजवान मजदूरो के चक्कर में पड़ा तो। ’ 

शांतिलाल जी की बाते सुनकर तेजस थोड़ा परेशान होता नजर आया । उसे रहा नही गया और बोल पड़ा- ‘ सर। मैं वर्तमान में विश्वास करता हूूॅ। वर्तमान में मैं सुपरवाईजर हूूॅ और मजदूरो के साथ अन्याय मैं देख नहीं सकता। ’ 

‘ मजदूरो का न्याय और अन्याय देखने के लिए हम है। तुम तो अपने कैरियर को देखो। मजदूर और हड़ताल यह सब बात नौजवानो के लिए ठीक नहीं । तुम तो अपना कैरियर बनाओ और मैं तुम्हारी योग्यता की कद्र करता हॅॅू। 

‘ सर। धन्यवाद। आप मेरी योग्यता की कद्र करते है। परन्तु इस समय मैं अपने फर्ज से पीछे नहीं हट सकता। इस समय आप यह बताईये आप मजदूरो की मांगो पर कोई फैसला करते है या नहीं ? नहीं तो तो कल से सब मजदूर हड़ताल पर जा रहे है।’ 

तेजस की तल्ख आवाज को भांपते हुए शांतिलाल जी ने भी अपनी भाषा को थोड़़ा तल्ख करते हुए कहा - ‘ नौजवान। इस समय तुम्हे हमारी बाते समझ नहीं आयेगी। तुम पर नेतागिरी को भूत सवार है। लेकिन यह समझ लो मैं तुम्हारी योग्यता की कद्र करता हूॅ। तो तुम्हारा भविष्य बिगाड़ भी सकता हॅॅू। तुम कल तक समझ जाओ तो ठीक नही ंतो मैं खुद अपने हाथ से तुम्हारे कागजो में रेडमार्क लगा दूंगा और तुम दुनिया में कहीं भी नौकरी नहीं कर पाओगे। जहां तक मजदूरो की बात उनको तो मै देख लूंगा। कल शाम तक का समय तुम्हारे पास है। कल मैं फिर आऊंगा। अब तुम जा सकते हो।’ शांतिलालजी ने यह कहते हुए झटके के साथ फाईल बंद कर खड़े हो गये। तेजस भी खड़ा होकर मजदूरो की सभा की ओर चल दिया।  

  आज 8 तारीख थी। फैक्ट्री में हमेंशा की तरह काम हो रहा था। सभी मजदूर अपनी मशीनो पर काम कर रहे थे। तेजस भी मजदूरो के काम की पूरी देखरेख कर रहा था। यह जरूर था आज मजदूरो ने दोपहर की छुट्टी नहीं की। दिनभर फैक्ट्री में काम चलता रहा । रात होने के बाद भी फैक्ट्री में काम चल रहा था। रात के 8 बजे शांतिलाल जी की गाड़ी कंपनी के स्वागत कक्ष के सामने आकर रूकी। शांतिलाल जी के साथ उनका मैनेजर भी उनके साथ था। शांतिलाल जी ने मैनेजर से कहा ‘ तेजस की फाईल लाओ और मै जैसे बता रहा हूॅ। वैसे उसे नौकरी से हटाने का आदेश बनाओ। ’ यह कहते हुए शांतिलालजी वहां उनके लिए अलग से बने कक्ष की ओर जाने लगे। लेकिन मशीनो की घड़ घड़ की आवाज सुनकर उनके कदम रूक गये। उन्हाने मैनेजर को वापिस आवाज लगाई और कहा - ‘ जाओ देखकर आओ फैक्ट्री से इतनी रात को यह कैसी आवाज आ रही है। ’ मालिक आदेश पाते ही मैनेजर दौड़कर फैक्ट्री की ओर गया। इसी बीच शांतिलाल जी अपने कक्ष मे जाकर बैठ गये।  
 

  शांतिलालजी कुर्सी पर बैठकर वहां पड़ा अखबार टटोल ही रहे थे कि मैनेजर फैक्ट्री से लौटकर आ गया। शांतिलाल जी ने नजरे अखबार में गढ़ाये हुए ही कहा - ‘ क्या खबर लाये। इतनी रात को फैक्ट्री में कैसी आवाज है। कहीं मजदूर तोड़फोड़ तो नहीं कर रहे है। ’ 

‘ नहीं बाॅस। मजदूरो ने कहा है कि वे हड़ताल पर है और जब तक हमारी मांगे पूरी नहीं होगी। हम लगातार काम करते रहेगे। उन्होने काफी माल भी तैयार कर दिया है। वे सुबह से लगातार काम कर रहे है सर। ’ 

मैनेजर की बात सुनकर शांतिलाल जी ने आश्चर्य से पूछा- ‘ये कैसी हड़ताल है।’

‘ सर! मजूदरो को कहना है कि तेजस भैया ने ही बताया है । यह नये जमाने की हड़ताल है। जब तक मांगे पूरी नहीं होगी हम काम करते रहेगे। ’ 

  यह सुनकर शांतिलाल जी खिड़की की ओर गये। खिड़की खोलते ही मशीनो की घड़ घड़ की आवाज आ रही थी। खिड़की तरफ मुंह किये हुए मैनेजर से कहा - ‘ जाओ और सभी मजदूरो से कह दो कि काम बंद कर दो। उनकी सभी मांगे मान ली गई है। ’ 

  मशीनो की घड़ घड़ की आवाज अब शांतिलाल जी के कानो में मिश्री घोल रही थी। 

रविवार, 4 अप्रैल 2010

नई सुबह................ (कहानी)......... निर्मला कपिला

आज मन बहुत खिन्न था।सुबह भाग दौड करते हुये काम निपटाने मे 9 बज गये। तैयार हुयी पर्स उठाया, आफिस के लिये निकलने ही लगी थी कि माँ जी ने हुकम सुना दिया *बहु एक कप तुलसी वाली चाय देती जाना।*
मन खीज उठा , एक तो लेट हो रही हूँ किसी ने हाथ तो क्या बँटाना हुकम दिये जाना है ,फिर ये भी नही कि सब एक ही समय पर नाश्ता कर लें ,एक ही तरह का खा लें सब की पसंद अलग अलग । किसी को तुलसी वाली चाय तो किसी को इलाची वाली। मेरी तकलीफ कोई नही देखता।
आज समाज को पढी लिखी बहु की जरूरत है जो नौकरी पेशा भी हो,कमाऊ हो। घर और नौकरी दो पाटों के बीच पिसती बहु को क्या चाहिये इसका समाधान कोई नही सोचता।
जैसे तैसे चाय बना कर बस स्टाप के लिये भागी, मगर बस निकल चुकी थी।मेरी रुलाई फूटने को हो आयी।मन मे आया बास की डाँट खाने से अच्छा है आज छुट्टी ले लूँ। कई दिन से सोच रही थी आँटी से मिलने जाने का मगर विकास 10 दिन से टूर पर गये थे समय ही नहीं मिल पाया।दूसरा कई दिन से सोच कर परेशान थी नौकरी और घर दोनो के बीच बहुत कुछ छूट रहा था जिन्दगी से। दोनो जिम्मेदारियों मे जो मुश्किल आती वो तो अपनी जगह थी मुझे चिन्ता केवल बच्चों की पढाई की थी। मैं इतनी थक जाती कि रात को बच्चों का होम वर्क करवाने की भी हिम्मत न रहती। विकास की नौकरी ऐसी थी कि अक्सर टूर पर जाना पडता था।मुझे गुस्सा आता कि अगर नौकरी वाली बहु चाहिये तो घर मे नौकरानी रखो। मगर माँजी बाऊ जी नौकरानी के हाथ से बना भोजन नही करते थे।मैने नौकरी छोडने की बात की तो विकास नही माने। मुझे लगता कि अगर माँ जी या बाऊ जी से कहूँगी तो पता नही क्या सोचेंगे-- घर मे कहीं कलेश न हो जाये कि शायद मैं घर के काम से कतराने लगी हूँ । ससुराल मे उतनी आज़ादी भी नही होती जितनी कि मायके मे बात कहने की होती है।
बस स्टैंड पर खडे ध्यान आया कि चलो आज छुट्टी करती हूँ और आँटी के घर हो आती हूँ, अपनी समस्या के बारे मे भी उनसे बात हो जायेगी।वो एक सुलझी हुयी महिला हैं। जरूर कोई न कोई हल मिल जायेगा। मन कुछ आश्वस्त हुया।रिक्शा ले कर मैं उनके घर के लिये चल पडी।
कमला आँटी मेरे मायके शहर की हैं। 15-20 वर्ष से वो इसी शहर मे रह रही हैं। अपने पति की मौत के बाद उन्होंने एक बोर्डिंग स्कूल मे वार्डन की नौकरी कर ली।थी वहीं रह रही हैं। जैसे ही मैं पहुँचीवो मुझे देख कर ह्रान हो गयी--
*नीतू ,तुम? इस समय? क्या आज छुट्टी है?* उन्होंने एक दम कई प्रश्न दाग दिये।
* आँटी आज आफिस से लेट हो गयी थी तो सोचा बास की डाँट खाने से अच्छा है आपके हाथ की बनी चाय पी ली जाये और कुछ मीठी खटी बातें भी हो जायें।*
* वलो अच्छा हुया तुम आ गयी*इधर बच्चों की छुट्टियां चल रही हैं हास्टल भी खाली है। बैठो मैं चाय बना कर लाती हूँ फिर बातें करते हैं।*
मैने कमरे मे सरसरी नज़र दौडाई सुन्दर व्यवस्थित छोटा स घर थआँटी बहुत सुघड गृहणी हैं ।ये मैं पहले से जानती थी । रिश्तों को सहेजना और घर परिवार को कैसे चलाना है ये महारत उनको हासिल थी तभी तो उन के बेटे बहुयें उन्हें बहुत प्यार करते हैं । उन्हें अपने पास बुलाते हैं मगर आँटी कहती हैं कि जब तक हाथ पाँव चल रहे हैं तब तक वो काम करेंगी । इसी लिये बेटे की ट्रांस्फर के बाद उनके साथ नही गयी।
चाय की चुस्की लेते हुये आँटी ने बचों का .घर का हाल चाल पूछा।मैं कुछ उदास से हो गयी तो आँटी को पता चल गया कि मैं परेशान हूँ।
* नीतू ,क्या बात है कुछ परेशान लग रही हो?*
*आँटी मैं नौकरी और बच्चों की पढाई को ले कर परेशान हूँ।नौकरी के साथ घर सम्भालना , बच्चों की पढाई भी करवानी माँ और बाऊ जी का ध्यान, दवा दारू, और रिश्तेदारों की आपे़क्षायें इन सब के बीच पिस कर रह गयी हूँ आपको पता ही है विकास को अकसर टूर पर जाना पडता है अगर घर मे भी हों तो भी बच्चों की तरफ ध्यान नही जाता। माँ जी को कीर्तन सत्संग से फुरसत नही, बिमारी मे भी कोई हाथ बंटाने वाला नहीं। वैसे मुझे घर मे कोई कुछ कहता नही मगर मुझे किसी का कुछ सहारा भी तो चाहिये ।बताईये मै क्या करूँ?*
*बेटी ये समस्या केवल तुम्हारी ही नही है,हर कामकाजी महिला की है । असल मे हमारे परिवारों मे बहु के आने पर ये समझ लिया जाता है कि बस अब काम की जिम्मेदारी केवल बहु की है। सास ननदें कई बार तो बिलकुल काम करना छोड देती हैं बस यहीं से परिवारों मे कलह बढ जाती है।*
अब यहाँ दो बातें आती हैं एक तो ये -------

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*बेटी ये समस्या केवल तुम्हारी ही नही ,हर कामकाजी महिला की है। अब यहाँ दो बातें आती हैं-- एक तो येकि वो बीसवीं सदी की औरत की तरह वो पूरी तरह अपने परिवार के लिये समर्पित हो कर जीये मगर किसी की ज्यादतियों के खिलाफ मुंह न खोले । अपनी छोटी छोटी जरूरतों के लियेभी दूसरों पर निर्भर रहे अगर तो पति अच्छा आदमी है तब तो ठीक है नही तो आदमी दुआरा शोशित होती रहे ,प्रताडना सहती रहे। अपना आत्मसम्मान अपने सपने भूल जाये।
दूसरा पहलु है कि शोशित होने की बजाये आतम निर्भर बने और एक संतुलित समाज की संरचना करे। अभी ये काम इस लिये मुश्किल लग रहा है कि सदिओं से जिस तरह पुरुष के हाथ मे औरत की लगाम रही है वो इतनी आसानी से और जल्दी छूटने वाली नही हैुसके लिये समय लगेगा।इस आदिम समाज मे औरत की प्रतिभा और सम्मान को स्थापित करने के लिये आज की नारी को कुछ तो बलिदान करना ही पडेगा।देखा गया है कि जब भी कोई क्राँति आयी उसके लिये किसी न किसी ने संघर्ष किया और कठिनाईयाँ झेली हैं तभी आने वाली पीढियों ने उसका स्वाद चखा है।
सब से बडी खुशी की बात ये है कि पहले समय से अब तक बहुत बदलाव आया है कोई समय था जब औरत को घूँघट के बिना बाहर नही निकलने दिया जाता थ पढने नही दिया जाता था, एक आज है जब् औरत आदमी के कन्धे से कन्धा मिला कर चल रही है।ाउत कुछ तो इतना आगे बढ गयी हैं कि समाज की मर्यादाओं को भी भूल गयी हैं जो गलत है।
आज के बच्चे इस बदलाव को समझ भी रहे हैं। किसी स्क़मय मे आदमी ने कभी रसोई की दहलीज़ नही लाँघी थी, आज वो पत्नि के लिये बेड टी बनाने लगा है, दोनो नौकरी पेशा पति पत्नि मिल जुल कर घर चलाने लगे हैं।*
*पर आँटी , विकास के पास तो समय ही नही है अगर कभी हो भी तो कहते हैं मुझे आराम भी करने दिया करो। और सास ससुर जी को तो जैसे भूल ही गया है कि घर कैसे चलता है।*
* बेटी यहाँ भी एक बात तो ये है कि समाज की प्रथानुसार सास अपना एकाधिकार समझती है कि जब बहु आ गयी तो उसे काम की क्या जरूरत है दूसरी जो सब से बडी बात है वो आजकल के बच्चों की बडों से बढती दूरी। बच्चे अपने दुख सुख तकलीफें खुशियाँ केवल अपने तक ही रखते हैं । पार्टी सिनेमा के लिये समय है मगर ,कभी समय नही निकालते कि दो घडी बडों के पास बैठ कर उनसे दो प्यार भरी बातें कर लें या उनके दुख सुख सुन लें फिर बताओ आपस मे सामंजस्य कैसे स्थापित हो पायेगा। ये सब से अहम बात है जो परिवार मे सन्तुलन कायम करती है। क्या तुम ने कभी सास के गले मै वैसे बाहें डाली जैसे अपनी माँ के गले मे डालती थी?*
*आँटी मुझे फुरसत ही कहाँ मिलती है। क्या उन्हें खुद नही ये देखना चाहिये कि मुझे कितना काम करना पडता है?*
*नही बेटा उन्होंने अपने जमाने मे जितना काम किया है आज के बच्चे उतना नही कर सकते। क्या उन्होंने कभी तुम्हें काम के लिये टोका है? या किसी और बात के लिये?*
नही तो वो तो सब से मेरी प्रशंसा ही करती हैं कि बहु बहुत अच्छी है सारा काम करती है मुझे हाथ नही लगाने देती। पहले पहले तो मैं खुशी से फूल कर कुप्पा होती और भाग भाग कर काम करती मग अब बच्चों के होने के बाद मुश्किल हो गयी है।*
तो बेटा तुम्हारी समस्या तो कुछ भी नही है बस तुम्हे जरा सा प्रयास करने की जरूरत है अपनी सास को अपनी सहेली बना लो। उन्हें समझा कर एक नौकरानी रख लो या दोनो मिल कर घर चलाओ अपने पति को भी अपनी समस्या प्यार से बताओ। आधी मुश्किल तो किसी समस्या को अच्छे से न समझ पाने और गलत दृिष्टीकोन अपनाने से होती है। ये शुक्र करो कि तुम अपने परिवार के साथ हो अकेले रहने वाले लोग किस मुश्किल से बच्चे पाल रहे हैं ये तुम्हें अभी पता नही है।एक बार अच्छी तरह सोचो कि क्या तुम पहले रास्ते पर चल कर अपना वजूद कायम रख सकती हों ? या फिर एक नई सुबह के लिये संघर्ष करना चाहती हो।*
ये कह कर आंम्टी चाय के बरतन ले कर उठ गयी और मैं सोच मे पड गयी। आस पास देखा अपनी सहेलियों की बातों पर गौर किया तो लगा कि आँटी की बात मे दम है। अगर हम परिवार मे अपने रिश्तों को सहेज कर रखें तो जीवन की आधी मुश्किलें तो आसानी से हल हो सकती हैं । मगर हम अपने अहं या तृ्ष्णाओं के भ्रमजाल मे बहुत कुछ अनदे4खा कर देते हैं जिसे समय रहते न देखा जाये तो कई भ्रामक स्थितियाँ पैदा हो जाती हैं।
मुझे शायद अपनी समस्या का समाधान मिल गया था । एक तो ये कि मेरे उपर अगर संघर्ष का दायित्व है तो निभाऊँगी,कुछ पाने के लिये कुछ खोना तो पडेगा ही। और दूसरे ापने रिश्तों को आँटी की तरह एक नई दृष्टी से देखूँगी।अँटी ने ठीक कहा है मैं घर मे माँजी और बाऊ जी से अपनी तकलीफ भी कहूँगी और उनकी भी सुनुंगी। हो सकता है वो मेरी मनोस्थिती जानते ही न हों। मैने कब कभी उनकी तकलीफ जानने की कोशिश की है। अगर समय निकक़लना हो तो बडों के लिये निकाला जा सकता है। जब माँ बिमार होती थी तो मै उनके सिरहाने से उठती नही थी मगर यहाँ आ कर कभी समय ही नही निकाला कि मैं अपनी सास के साथ भी कुछ पल बिताऊँ। पहले पहले जब कभी वो रसोई मे आती तो मैं ही उन्हें हटा देती शायद एक अच्छी बहु साबित करने के लिये । इसके बाद शायद उन्हें भी आदत पड गयी हों और भी बहुत से ख्याल इस नई सोच के साथ मेरे मन मे आने लगे। मुझे लगने लगा था कि कहीं न कहीं मेरी भी गलती जरूर है। एक आशा की किरण लिये मैं उठ खडी हुयी।
*अच्छा आँटी अब मैं चलती हूँ आपसे बात करके मन का बोझ हल्का हो गया है। मै नये सिरे से इस समस्या पर सोचूँगी। नमस्ते आँटी।*
*ठीक है बेटा, सदा सुखी रहो। आती रहा करो *
घर पहुँची तो विकास घर आ चुके थे। माँ जी और बाऊ जी के साथ ही ड्राईँग रूम मे बैठे थे। मुझे जल्दी आये देख कर माँजी ने पूछा कि क्या बात है आज जल्दी घर आ गयी? मैं पहले त चुप रही मेरी आँखों मे आँसू आ गये । जब माँजी ने सिर पर हाथ रखा कि बताओ तो सही क्या हुया है? सभी घबरा भी गये थे। मैने उसी समय माँजी की गोदी मे सिर रख दिया--
*माँजी, बात कुछ नही है मैं बहुत थक गयी हूँ* नुझ से अब नौकरी और घर दोनो काम नही होते।*
अरे बेटी पहले चुप करो। तुम इतनी बहादुर बेटी हो मै तो सब से तुम्हारी तारीफ करते नही थकती। तुम ने कभी बताया क्यों नही कि तुम इतनी परेशान हो?*
* मैने विकास से कहा था कि नौकरी छोड देती हूँ मगर विकास नही माने।*
*वाह बेटी बात यहाँ तक हो गयी और तुम ने अपने माँ बाऊजी को इस काबिल ही नही समझा कि हम से बात करो। असल मे मैं अपने सास होने के गर्व मे तुम्हारी तकलीफ न देख सकी और तुम बहु होने के डर से मुझ से कुछ कह न सकी बस बात इतनी सी थी और् तुम कितनी देर इसी तकलीफ को सहती रही। फिर मैं डरती भी थी कि मेरा रसोई मे दखल तुम्हें कहीं ये एहसास न दिलाये कि मुझे तुम्हारी काबलियत पर भरोसा नही या मुझे तुम्हारा काम पसंद नही। चलो आज से रात का खाना मैं बनाया करूँगी।*
*नीतू तुम खुद ही तो कहा करती थी कि विकास तुम बच्चों को पढाते हुये डाँटते बहुत हो आगे से4 मैं पढाया करूँगी। तो मुझे क्या चाहिये था। मै निश्चिन्त हो गया।* विकास के स्वर मे रोष था
सही है कुछ समस्यायें हम खुद सहेज लेते हैं। हमे लगता है कि हम दूसरे से अच्छा काम कर सकते हैं। यही बात शायद यहाँ हुयी थी।
*देखो बेटा जब तक बच्चा रोये नही माँ भी कई बार दूध नही देती। वैसे अच्छा हुया अगर तुम यही बात सीधी तरह इनसे कहती तो शायद इन पर असर न होता। आज तुम्हारे आँसूओं से देखो तुम्हारी माँ भी पिघल गयी और विकास की क्या मजाल जो अब तुम्हें अनदेखा कर दे।* कह कर बाऊ जी हंस दिये
चलो बटा मेरा आशीर्वाद ले लो इसी बहाने हमे भी कई साल बाद पत्नि के हाथ का भोजन नसीब होगा जो हमे शिकायत रहती थी।*
-----* तो क्या इसी खुशी मे एक एक कप तुलसी वाली चाय हो जाए, बहु के हाथ की? * माँजी चहकी
शायद आज माँजी को पहली बार इतने खुश देखा था। मुझे लगा सम्स्या का समाधान हमारे आस पास ही कहीं होता है मगर कई बार नासमझी मे हम उसे देख नही पाते जिस से और कई समस्यायें पैदा कर लेते हैं।
मैं झट से चाये बनाने चली गयी। सुबह इसी तुलसी वाली चाय ने ही तो मुझे नई राह दिखाई थी।मैने कप उठाने के लिये हाथ बढाया तो विकास ने मेरा हाथ पकड लिया बडे प्यार से दबा कर बोले लाओ तुम चलो अगला काम मेरा है। और विकास कपौ मे चाय डाल रहे थे। मुझे लगा नई सुबह का आगाज़ हो चुका है।इस लिये नही कि विकास काम कर रहे हैं बल्कि इस लिये कि मेरी तकलीफ मे मेरा साथ निभाने का जिम्मा ले रहे हैं।

बुधवार, 31 मार्च 2010

'इत्तेफाक' एक प्रेम कहानी ........................अनिलकांत जी


ऐसा नहीं था कि जो हो रहा था मैं इन सब से बेखबर था....लेकिन शायद मैं अपने वजूद की तलाश में था....मैं खुद की तलाश में था....और इसी तलाश में कब उससे टकरा गया पता ही नहीं चला....ये भी एक अजीब इत्तेफाक है कि उसका और मेरा मिलना भी एक इत्तेफाक से हुआ.....ये इत्तेफाक भी बड़े अजीब होते हैं....कभी कभी जिंदगी के मायने ही बदल देते हैं 

किताबों में डूबे रहना मेरा शौक भी था और सच कहूं तो मेरी कमजोरी कह लें या एकमात्र सहारा....या तो किताबें मुझे तलाशती या मैं किताबों को....इसी तलाश में मेरा एक दिन उसी जगह जाना हुआ जहाँ मैं अक्सर जाया करता....उस किताब वाले के पास जहाँ एक सी शक्लों वाले लोग अक्सर दिखाई देते...हाँ शायद पढ़ते पढ़ते सबकी शक्लें एक सी ही लगती मुझे....या उन सब ने एक सी किताबे पढ़ पढ़ कर एक सी शक्लें कर ली थीं... 

उस रोज़ मैं बस वहाँ खड़ा उस किताब वाले को बड़ी तसल्ली से देख रहा था...सच कहूं तो उसकी शक्ल को पहचानने की पूरी कोशिश कर रहा था....कि इसकी शक्ल में भी आखिर कोई बात होगी....आखिर इसने इतनी किताबे बैची हैं...हो सकता है कुछ पढ़ी भी हों....वैसे तो कई बार वो बता चुका था कि वो अपने समय का 8 वीं पास है....वो बोला बाबूजी कौनसी किताब दूँ.... 

कुछ सोचकर गया नहीं सो कुछ बोलता....अंततः कई लोगों से सुन रखा था 'रसीदी टिकट' के बारे में....पर कभी मौका नहीं मिला उसे पढने का....या सच कहूँ कभी मन नहीं किया....और कभी किया भी तो वो किताब दुकान पर मौजूद ना होने की वजह से पढ़ी नहीं....मैंने उसे बोला कि 'रसीदी टिकट' मिलेगी क्या....वो हल्का सा मुस्कुराया और बोला हा साहब...सिर्फ आखिरी पीस ही बचा है....आपकी किस्मत अच्छी है....मैंने किताब हाथ में ली...और पर्स से पैसे निकाल उसे दिए....तभी एक आवाज़ आई जिसकी फरमाइश भी रसीदी टिकट थी....लड़की की आवाज़ थी....जो मेरे नजदीक ही खड़ी थी....अरे नहीं मैडम आखिरी ही थी जो अभी अभी इन साहब ने खरीद ली...वो लड़की मुझे देखती है.... 

पर मुझ से कुछ बोलती नहीं...कब तक आ जायेगी दोबारा....जी यही कोई हफ्ते दस दिन में आ जायेगी....इतना लेट....जल्दी नहीं आ सकती....मैडम हफ्ते दस दिन में ही मेरा किताबे लेने जाना हो पायेगा....मैं उनकी बातें सुन रहा था.....और मेरा आज भी उस किताब को ऐसा पढने का कोई ख़ास मन ना था....मैंने कहा आप ले लीजिये इसे....आप पढ़ लीजिये...वैसे भी मेरा अभी मन नहीं....मैं बाद में पढ़ लूँगा....वो थोडी खुश सी हुई....वो अपने पर्स से पैसे निकालने लगी...अरे क्या कर रही हैं आप...पैसे रहने दीजिए...जब आप पढ़ लें तो इन बाबा को किताब दे जाना मैं इन से ले लूँगा... 

पक्का आपको अभी नहीं पढ़नी....कहीं आप मेरी वजह से तो नहीं ऐसा कर रहे....मैं मुस्कुराया....मैंने कहा रख लीजिये...उसने किताब अपने हाथ में ले ली....मैं फुटपाथ पर पैदल चलने लगा....वो भी ना जाने क्यों पैदल ही चलने लगी...वो चाहती तो रिक्शा कर सकती थी....मैं तो ऐसा ही था...पैदल चलना मेरा शौक ही हुआ करता था.... 

वो साथ चलते हुए बोली थैंक यू.....मैं मुस्कुरा दिया....मैंने कहा पढ़ लीजिये अच्छी लगे तो बताना...मैं भी पढ़ लूँगा....वो भी हल्का सा मुस्कुरा दी....तो क्या आप इधर रोज़ आते हैं....हाँ आप कह सकती हैं....जब भी मन बेचैन सा होता है चला आता हूँ.....हाँ वो पहले भी मैंने एक बार आपको यहाँ देखा है....अच्छा.....वो बोली लगता है आप किताबों का बहुत शौक रखते हैं.....मैं बोला क्यों आप नहीं रखती...किसी और के लिए ले जा रही हैं.....वो हँस दी अरे नहीं नहीं ऐसा कुछ नहीं है ....मैं उतना नहीं पढ़ती शायद जितना आप पढ़ते हों.... 

अच्छा क्या करते हैं आप....ऐसा कुछ ख़ास नहीं पर फिर भी....एक बैंक में मुलाजिम हूँ....वो हँस दी...मुलाजिम....मैंने हँसते हुए पूँछा और आप....जी मैं कॉलेज में लेक्चरर हूँ....तभी शायद रास्ता ख़त्म सा हुआ....और मेन रोड आ गया....वो दोबारा शुक्रिया अदा करती हुई बोली....अच्छा ठीक है अब मैं चलती हूँ.....मैंने कहा ठीक है.... 

कुछ था जो होना था....शायद उस खुदा ने कुछ सोच रखा था....अभी तक मैं ये नहीं जान पाया था कि आखिर आज जो हुआ वो सिर्फ एक घटना थी या ऐसा इत्तेफ़ाक जो मेरा हाथ पकड़ कर कहीं ले जाना चाहता है....खैर जो भी था....मैं उस रोज़ समझ नहीं सका....करीब दो रोज़ बाद मेरा फिर उधर जाना हुआ....मैं पैदल ही चला जा रहा था उस फुटपाथ पर...उस से आज में फिर टकरा गया.....वो पीछे से रिक्शे पर आ रही थी....शायद उसकी मुझ पर नज़र पड़ी....उसने कहा अरे सुनिए....मैंने पीछे मुड़कर देखा....वो रिक्शे से उतरी....और मुस्कुराती हुई मेरे पास आई...बोली अरे ये तो बहुत अच्छा हुआ कि आप मुझे मिल गए....मैं आपकी ही किताब वापस करने जा रही थी.....मैंने कहा ख़त्म कर दी...वो बोली हाँ....मैं मुस्कुराया और बोला कि तुम तो हमारी भी उस्ताद निकली....वो हँस पड़ी....अरे मुझे किताब अच्छी लगी तो मैं खुद को रोक ना सकी.....मैंने कहा चलो अच्छी बात है 

उसने कहा कि चलो कहीं बैठें....कॉफी पीते हैं....मैंने कहा हाँ यहीं पास में एक रेस्टोरेंट है....वो अच्छी कॉफी बनाता है....हम दोनों पैदल ही फुटपाथ को नापते हुए चल दिए....शायद उसके साथ चलना मुझे अच्छा लग रहा था....कुछ ही देर में रेस्टोरेंट आ गया..... 
हम दोनों उस शहर के खासम खास रेस्टोरेंट में थे....खास इस वजह से कि वहाँ कॉफी अच्छी मिलती थी और शांति का एहसास होता....उस रोज़ बजने वाला मधुर संगीत एक अलग ही धुन छेड़ रहा था....वो मेरे सामने बैठी थी....'रसीदी टिकट' उसके पास ही थी....हमारे बीच एक खामोशी की दीवार खड़ी हो चली थी...उसे तोड़ते हुए मैंने पूँछा तो कैसी लगी आपको किताब....उसकी ओर से खामोशी टूटी...वो बोली...सच कहूँ तो मुझे बेहद प्यारी लगी ये किताब...एक एक शब्द से जैसे लगाव हो चला था....जैसे जैसे पढ़ती गयी वैसे वैसे में इसमें डूबती गयी....एक बार ख़त्म होने के बाद भी मन कर रहा था कि फिर एक बार पढूं....मैं मुस्कुराते हुए बोला तो पढ़ लेतीं आप.... 

ये इश्क भी अजीब होता है ना....इंसान को क्या का क्या बना देता है...उसने मेरी ओर देख कर बोला....जैसे शायद मेरी आँखों में झाँक कर पूंछ रही हो....कि आपको क्या लगता है....मैंने कॉफी का घूँट भरा जिसे दुकान पर काम करने वाला वो लड़का अभी अभी रख कर गया था....घूँट गले से उतर जाने के बाद मैं हल्का सा मुस्कुराया....पर कुछ बोला नहीं....वो कहने लगी....आप कम बोलते हैं शायद....नहीं तो...ऐसा तो कुछ नहीं है....मैंने इशारा करते हुए कहा...आप कॉफी पीजिये ठंडी हो रही है.... 

तो आप क्या पढ़ाती हैं....मेरा मतलब किस विषय की लेक्चरर हैं आप...कॉफी का दूसरा घूँट भरने के बाद मैंने उससे पूँछा....जी समाजशास्त्र....ह्म्म्म्म....बहुत खूब....अच्छा विषय है आपका....हाँ कह सकते हैं....वो बोली....और आपने क्या किया हुआ है....एम.एस.सी मैथ से...अरे वाह....वो बोली....फिर आप बैंक में क्या कर रहे हैं...शक्ल से तो आप पढने लिखने वाले लगते हैं....हमारी तरह लेक्चरर क्यों नहीं बन गए....मैं मुस्कुराया....जी वो हमारे बस का रोग नहीं है....अच्छा जी...तो बैंक की नौकरी में खुश हैं आप....खुश होने की वजह अभी तक मिली नहीं....मैं बोला ...जो करना चाहा उसका मौका नहीं मिला....और जो हुआ वो होता गया...बस आगे देखते हैं क्या होता है....आगे के लिए ऐसा कुछ सोचा नहीं 

हमारी बातें थी उनके विषय बदलते जाते और हम कॉफी के घूट भरते जाते...बातों ही बातों में मुझे उसका नाम स्वेता और उसे मेरा नाम आदित्य पता चला....कुछ था जो मुझे उस से जोड़ रहा था....वरना एक भी पल ऐसा नहीं आया कि मुझे लगा हो कि अब मुझे चलना चाहिए...उस रोज़ 5-6 कॉफी हम लोगो ने ख़त्म की...जिसमें पता चला कि उसके पिताजी एक प्रोफेसर हैं और वो अपने माँ बाप की इकलौती संतान है....वो यहाँ मेरी ही तरह इस शहर में अकेली है....किताबों से उसे मेरी तरह ही लगाव है....पर फर्क है कि मैं बस किसी खोज में लगा हूँ...और उसे पूरी तरह पता है कि उसे कब क्या करना है....हाँ शायद उसे ये भी पता था कि उसे लेक्चरर बनना था....उसके अन्दर कहीं भी छल, कपट, झूट और मक्कारी जैसी कोई चीज़ मुझे दिखाई नहीं दी...जिसे में अक्सर दूसरे लोगों में देखता था....शायद यही वजह थी कि मैं लोगों से दूर भागता था 

और उसकी बातों में मैं उससे वो किताब 'रसीदी टिकट' लेना ही भूल गया...बातों ही बातों में पता चला कि उसे फूलों से लगाव है, साहिर साहब के लिखे गीत पसंद हैं....उसे मंदिर जाने से ज्यादा अच्छा चर्च जाना लगता है...हिन्दू होते हुए भी उसकी ये बात मुझे थोडी अलग लगी...हालांकि मेरी और भगवान की बिलकुल नहीं बनती थी....और एक लम्बा अरसा बीत चुका था जब मैं आखिरी बार मंदिर गया था 

काफी लम्बा समय बीत जाने के बाद उसने कहा कि अब उसे चलना चाहिए...हालांकि वो मेरी बातों से समझ चुकी थी कि भगवान में मेरी ज़रा भी दिलचस्पी नहीं है...फिर भी ना जाने क्यों उसने मुझे रविवार के दिन चर्च चलने के लिए बोला....मैं क्या कहता....मैं उसकी ओर देखकर मुस्कुराया....साफ़ तौर पर ना बोलने वाला इंसान था मैं....लेकिन मैंने उससे ना चाहते हुए भी हाँ बोल दी....आखिर और करता भी क्या....उस शहर में ऐसा था भी कौन जिसके साथ मैं समय बिताने वाला था.... 

घर लौट कर मैं अपने बिस्तर पर करवट बदल रहा था...आज उससे की हुई बातें दिमाग में चल रही थीं....ऐसा क्यों हो रहा था....शायद मुझे भी नहीं पता था....ऐसा नहीं था कि पहले कभी किसी लड़की से मैंने बात नहीं कि थी....पर इसमें ऐसा कुछ खास था....जो मुझे अपनी ओर खींचे जा रहा था....शायद ऐसा कुछ जिससे मुझे राहत मिलती हो....खैर जैसे तैसे मैं सुबह होने से पहले सोया.... 

दो दिन बाद रविवार था....मुझे ठीक याद था कि मुझे जाना है...जबकि मैं उस दिन ना जाने की सोच कर आया था....मैं चर्च के कुछ ही दूरी पर खडा था....समय था कि बहुत बड़ा लम्बा फासला सा तय करने जैसा लग रहा था....अपनी ऐसी हालत में सिगरेट पीने की आदत पर में काबू ना कर सका...पास ही से एक सिगरेट खरीद मैंने सिगरेट सुलगा ली....और उसके आने का इंतज़ार करने लगा....वो एक बहुत ही प्यारे सूट में आई...शायद आज मैंने उसे जी भर कर देखा....वो बहुत ही प्यारी लग रही थी....दूर उसे आते देख मैंने अपनी सिगरेट फेंक दी....वो पास आई और मुस्कुराते हुए बोली...आप सिगरेट पीते हैं....

मैंने कहा हाँ...कभी कभी पीता हूँ....उसने कुछ नहीं बोला...जबकि मैं सोच रहा था कि शायद ये भी दूसरी लड़कियों की तरह ऐसा कुछ बोलेगी कि छोड़ दो या बुरी बात है...पर उसने ऐसा कुछ नहीं बोला....उसने अपने बैग से पानी की बोतल निकाली और मुझे दी....मैंने मुंह में पानी डालकर गला साफ़ किया....वो मुझे अपने साथ चर्च के अन्दर ले गयी....ये पहली बार था जब मैं किसी चर्च में आया था....एकदम शांति....गिने चुने लोग....वो एक जगह बैठ गयी....मैं भी उसके पड़ोस में बैठ गया.... 

फिर मैं कभी सामने देखता...और कभी उसके चेहरे को...उसने अपनी आँखें बंद कर रखी थी....उस पल वो मुझे बहुत मासूम और नेक इंसान लगी....यूँ लगा कि बहुत ही प्यारी आत्मा है...शायद उसने कुछ माँगा भी हो....पता नहीं क्या....लेकिन माँगा ही होगा....ज्यादातर लोग माँगने ही तो जाते हैं....यही सोच रहा था मैं....उसने कुछ रुपये वहाँ दान में दिए....इससे ये तो पता चला कि कम से कम उसने अपनी प्रार्थना में पैसे तो नहीं माँगे होंगे...वो बोली पता है...ये पैसे गरीब बच्चों के काम में आते हैं...उनकी पढाई, खाना, कपड़े वगैरह....मुझे उसकी बातों ने प्रभावित किया 

अभी बस हम चर्च के बाहर पैदल चल ही रहे थे कि पास ही एक बच्चा सड़क पार कर रहा था कि एक गाडी अनियंत्रित होकर उसे टक्कर मारकर चली गयी....उधर अफरा तफरी मच गयी....मैंने बच्चे को गोद में उठाया....और रिक्शे में बैठ पास ही अस्पताल ले जाने लगा...स्वेता भी मेरे पीछे दूसरे रिक्शे पर आई...डॉक्टर को दिखाने पर....डॉक्टर ने उसकी पट्टी की और कुछ दवा लेने को बोल दिया.....उसकी दवा खरीद कर उस बच्चे को उसके घर पहुंचा दिया....उसके माँ बाप हमे बहुत रोकते रहे लेकिन देर ज्यादा हो जाने के कारण हमने फिर कभी आने का वादा किया 

उस बच्चे के घर से वापस लौटते समय वो काफी देर खामोश रही....फिर बोलने लगी कि इस दुनिया में ज्यादातर लोग ऐसे क्यों होते हैं....जब उस बच्चे को चोट लगी तो सब बस खड़े देख रहे थे.....समझ नहीं आता कि लोग ऐसे क्यों होते हैं....मैंने उसे रिलेक्स होने के लिए बोला....कहा कि ये सब तो चलता रहता है....वो बोली नहीं आखिर क्यों हम इतने स्वार्थी हो जाते हैं....समझ नहीं आता....मैं उसकी ओर देख कर मुस्कुराया और कहा चलो कोई नहीं अब वो ठीक है....चिंता मत करो....मैंने उसे घर वापस जाने के लिए बोला....रिक्शे पर उसे बैठा कर मैं पैदल चलने को हुआ....वो बोली आदित्य आप अपना मोबाइल नंबर दे दीजिये....मुझसे नंबर लेने के बाद वो चली गयी....मैं उसके ओझल हो जाने तक उसे देखता रहा....मेरे घर पर पहुँचने पर एक मैसेज आया..."मुझे फक्र है कि आप जैसा इंसान मेरा दोस्त है"...उसके नीचे नाम लिखा था स्वेता....मैंने उसे बदले में मैसेज किया कि चलो अब आराम कर लो कल शाम को हम लोग मिलते हैं.... 

हम दोनों की मुलाकातों का एक लम्बा दौर चल निकला....हम दोनों आपस में एक दूसरे से बहुत घुल मिल गए थे....हम दोनों घंटो एक दूसरे के साथ बैठे बातें करते रहते.....वो बातें करते करते थकती ना थी...और मुझे उसको सुनते रहना अच्छा लगता....शायद अब हम दोस्ती के रिश्ते से आगे बढ़ने लगे थे....वो जब तब मेरे लिए कुछ न कुछ बना के भी लाती....फिर एक दिन मैंने कहा कि चलो इस रविवार को पास में ही एक सुन्दर सी झील है वहां घूमने चलेंगे....उसने कहा ठीक है
 
हमारी मुलाकातों और ढेर सारी बातों का ही ये असर था कि स्वेता मुझे आदित्य से 'आदि' कहने लगी थी....जो उसके मुंह से सुनने में उतना ही अच्छा लगता...जितना कि मुझे स्वेता अच्छी लगती....मुझे पता ही ना चला कि मुझे कब उससे प्यार हो गया...शायद पता भी ना चलता...लेकिन कहते हैं ना कि कभी कभी किस्मत हम पर मेहरबान होती है....

जैसा कि मैंने उससे कहा था कि हम लोग आने वाले रविवार को झील के पास घूमने चलेंगे....रविवार के दिन स्वेता को साथ ले मैं उस झील के किनारे पहुँच गया....झील की सुन्दरता और वहां का आकर्षण और पंक्षियों के चहचहाने और इधर से उधर होने की गूँज हमारे कानों में पड़ती तो दिल खुश हो जाता....काफी लोग वहां घूमने के लिए आये थे....कुछ पल के लिए वो खामोश रही....अपनी अँगुलियों से मिट्टी में आडी- तिरछी लकीरें खीचती रही....मैंने पूंछा क्या हुआ स्वेता....आज बहुत चुप चुप हो....क्या हुआ.....ह्म्म्म...कुछ नहीं....नहीं कोई बात तो है....अरे नहीं कुछ भी तो नहीं....अच्छा...या बताना नहीं चाहती....नहीं न कोई बात नहीं है....अच्छा चलो ठीक है....अच्छा बोलो आइसक्रीम खानी है....वो देखो वहाँ आइसक्रीम वाला है....उसने हाँ में गर्दन हिलाई....मैं आइसक्रीम लेकर आया.... 

जब आइसक्रीम ख़त्म कर ली तो उसकी खामोशी को तोड़ने के लिए मैंने पूँछा....अच्छा बताओ कि 'रसीदी टिकट' फिर पढ़ी....हाँ दोबारा पढ़ी थी....तो कैसी लगी.....सच कहूँ तो उसमें....इंसान के जज्बात हैं...जिसे इंसान महसूस करता है....हर किसी के बस का नहीं कि उस हद तक इंसान शब्दों में अपने एहसास को बयां कर सके....फिर इतना बोलने के बाद उसने चुप्पी साध ली....मैं झील की तरफ देख रहा था....वो काफी देर तक सिर्फ और सिर्फ मेरी ओर देखती रही...फिर कुछ देर सोचते हुए उसने मुझसे सवाल किया...अच्छा आदि आपको कभी किसी से इश्क हुआ है....ह्म्म्म्म....क्या कहा....मैंने उसकी ओर देखते हुए पूँछा....कुछ देर मेरी ओर देखने के बाद बोली ...कुछ नहीं....और धीमे से बोली बुद्धू....नहीं तुम कुछ पूंछ रही थी....कुछ नहीं....अरे नहीं बोलो...आपको कभी इश्क हुआ है.....मैं मुस्कुराया....पता नहीं...वैसे डर लगता है....वो बोली किससे....मैंने कहा इश्क से.....क्यों डर क्यों लगता है....क्योंकि इश्क करके ज्यादातर लोग मिल नहीं पाते...प्रेम कहानियाँ ज्यादातर अधूरी रह जाती हैं....वो मुस्कुरायी...बस इस लिए डरते हो....ह्म्म्म्म्म शायद....वैसे आज तक मुझे पता नहीं चला कि मुझे कभी इश्क जैसा कुछ हुआ हो....तुम्हें हुआ है क्या...मैंने पूँछा...मेरी आँखों में देखकर फिर दूसरी ओर देखने लगी वो....उसने कुछ जवाब नहीं दिया 

फिर उसने पूँछा अच्छा वो वहाँ लोग कहाँ जा रहे हैं...बड़ी भीड़ है....मैंने कहा....इश्क के मारे हैं....क्या मतलब....अरे मतलब ये कि वहाँ पास में ही एक मंदिर है....और यहाँ के लोग कहते हैं कि अगर कोई सच्चे दिल से किसी को चाहता है और यहाँ आकर उसे मांगता है....तो उसकी मन्नत पूरी होती है....उसके चेहरे पर एक अजीब सी ख़ुशी चमक उठी...अच्छा वाकई....चलो हम भी घूमने चलते हैं वहाँ....मैंने कहा क्या करोगी जाकर....छोडो बैठो...सब फालतू की बातें हैं....अरे चलो ना मुझे मंदिर देखना है....मैंने कहा मैं तो नहीं जा रहा....वो बोली प्लीज प्लीज प्लीज....चलो ना....मैंने कहा ठीक है...चलते हैं...पर मैं सिर्फ तुम्हारी वजह से जा रहा हूँ.... 

वहाँ पहुँच वो मंदिर में पूरी श्रद्धा के साथ ध्यान मग्न हो गयी....पता नहीं मन ही मन क्या माँगा उसने....मैं तो बस खड़े खड़े उसे ही देखता रहा....वहाँ ना जाने कितने चाहने वाले आये थे...अपनी अपनी मन्नते लेकर....वहाँ पास ही बैठे कुछ भिक्षुओं को कुछ देने के लिए मुझसे बोली पर्स निकालो अपना...मैंने कहा क्यों...अरे निकालो ना....उसमें से उसने २०० रुपये निकाल कर और उनके फल खरीद कर सबमें बाँट दिए....मैंने कहा अब खुश...अब चलें...वो मुस्कुरायी...बोली नाराज़ हो क्या...मैं भी मुस्कुरा गया....फिर हम झील के किनारे पहुँचे....तो ना जाने कैसे मेरा पैर मुड गया...और मेरे पैर में मोच आ गयी.....उफ्फ दर्द के कारण बुरा हाल हो गया मेरा.....स्वेता ने मुझे संभाला...और मुझे रिक्शे में बिठा कर डॉक्टर के पास ले गयी...डॉक्टर ने कुछ दवा दी और फिर उसके बाद मैं स्वेता के कंधे का सहारा लेकर ही रिक्शे मैं उसके साथ बैठा...मुझे मेरे कमरे तक वो लेकर गयी.... 

कमरे की हालत देखकर वो दंग रह गयी....कपडे जो थे वो इधर के उधर....कमरे में सिगरेट के टुकड़े पड़े हुए थे....उसे ज़रा भी देर ना लगी ये जानने में कि मैं निहायत ही आलसी किस्म का इंसान हूँ...और जो अपना ख्याल नहीं रखता....मुझे बिस्तर पर लिटा वो बोली ये क्या हालत बना रखी है कमरे की...इसी तरह रहा जाता है क्या....क्या इसी तरह जिंदगी बिताओगे....मैं हँसा तो मेरा पैर हिल गया....और अचानक से दर्द हुआ....रहने दो हँसने की कोई जरूरत नहीं है.....और फिर उसने सारे कपडे एक एक करके मेरे देखते देखते धो डाले...मेरे मना करने पर भी वो ना मानी....कुछ ही देर में कमरे की हालत बदल गयी....वो कॉफी बनाकर मेरे लिए लायी...क्यों करते हो ये सब....जिंदगी से ज़रा भी लगाव नहीं....शादी क्यों नहीं कर लेते.....मैंने कहा क्या करूँगा शादी करके...ऐसा ही भला हूँ....और शादी करने के लिए भी लड़की की जरूरत होती है....कहाँ से लाऊं लड़की....क्यों कमी है क्या लड़कियों की...किसी को पसंद करते हो तो उससे कर लो....मैंने कहा....ये इश्क भी अजीब है....वो बोली या हो सकता है कोई तुम्हें पसंद करती हो....मैंने कहा इस सरफिरे को कौन पसंद करेगी....और मैंने फिर एक गलत सवाल पूंछ लिया....वैसे तुम कब शादी कर रही हो...बुलाओगी ना....बस शायद वही गलत हुआ....उसने कुछ ना बोला....उस रोज़ वो मेरे लिए खाना बना कर चली गयी....और अगले दो रोज़ तक भी स्वेता आती और ज्यादा बात ना करके खाना बनाकर और मुझे खिलाकर चली जाती...मेरी किसी बात का जवाब हाँ या ना में देती.... 

लेकिन उस रोज़ वो कुछ उदास थी....वो आई उसकी आँखों में कई सारे सवाल थे....मैं भी कुछ परेशान हो चला था....वो खाना बनाकर और मुझे वो किताब 'रसीदी टिकट' देकर कहने लगी मैं कुछ दिनों के लिए घर जा रही हूँ....पर क्या हुआ....कुछ नहीं...और इतना कह कर वो चली गयी....उसका जाना मुझे बहुत अजीब लगा....बिस्तर पर करवटें बदल मुझसे रहा ना गया...मैंने वो किताब पलटी...उसमें एक ख़त रख छोडा था उसने.... 

जिसे पढ़ा और पढता ही चला गया...उसके बाद मैं अपने आप को कोस रहा था...क्या किया उस बेचारी के साथ....उसने लिखा कि आदि क्या आपको किसी की मोहब्बत की पहचान नहीं....या एक लड़की क्या चाहती है...ये भी उस लड़की को ही बोलना पड़ेगा....घर वाले पूंछते रहते हैं कि शादी कर लो...कोई पसंद हो तो बता दो...क्या बता दूं .....मुझे वो पसंद है जो...इश्क को एक फालतू काम समझता है...जा रही हूँ....मुझे नहीं पता आगे क्या होगा..... 

मैं जानता था कि उसके शहर को जाने वाली ट्रेन अभी 1 घंटे बाद ही है....मैं जिंदगी भर अपने आप को कोसना नहीं चाहता था....मैं बाहर को जैसे का तैसा निकल लिया....रहा सहा दर्द तो मालूम ही नहीं पड़ा....शायद अब कोई दर्द मुझे ना रोक पाता....रिक्शे में बैठ मैं स्टेशन पहुँचा....वो दूर एक बैंच पर बैठी थी...गुमसुम...चुपचुप...खामोश सी....कुछ सोचती सी....मैं उसके पास पहुँचा....वो ख़त हाथ में पकड़ उसके चेहरे की तरफ देखा..उसने मुझे एक नज़र देख...अपना चेहरा दूसरी तरफ कर लिया....जब मैं दूसरी तरफ से उसे देखा तो फिर उसने अपना चेहरा दूसरी ओर कर लिया....स्वेता.....अच्छा बाबा सॉरी....माफ़ कर दो.....मैं कौन होती हूँ.....सॉरी...सॉरी ...सॉरी.... 

अच्छा कान पकड़ता हूँ...मैं घुटनों के बल उसके सामने ही बैठ गया....और कान पकड़ लिए...सॉरी ...सॉरी...माफ़ कर दो ना प्लीज....मुझे क्या पाता था कि....क्या कि....वो बोली....यही कि तुम भी मुझसे प्यार कर सकती हो.....वो फिर दूसरी तरफ देखने लगी ....अच्छा बाबा सॉरी...कोई सवाल नहीं...बाप रे इतना गुस्सा.....उसने मेरी आँखों में देखा....और देखती रही....मैं बोला वैसे तो मुझे भी ना जाने क्यों बहुत दिनों से ऐसा महसूस हो रहा था...लेकिन...मतलब...लेकिन....मुझे डर लगता था...और सच कहूं तो मुझे ठीक से पता ही नहीं था प्यार कैसे होता है...वो इस बात पर हँस पड़ी...बुद्धू...अच्छा बोलो माफ़ किया ना.....ओके ठीक है बाबा....आई लव यू.....मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ....बहुत ज्यादा...ह्म्म्म हाँ सबसे ज्यादा.....वो मुस्कुराने लगी...बुद्धू...पागल....और ये क्या उन्हीं कपडों में चले आये.....मैंने खुद को देखा...क्यों बुरा लग रहा हूँ क्या....उसने सर हिलाया....और कुछ बुद्धू सा कुछ बोला..... 

वो बोली अच्छा ठीक है आप कल मेरे घर आना...मैं पापा से आपको मिलाऊँगी....क्यों...किसलिए...आपको शादी नहीं करनी तो क्या...मेरे पापा को मेरी शादी करनी है....मैं मुस्कुरा गया....ओह....अच्छा ठीक है...उसने अपना पता लिखकर दिया.....ट्रेन ने आवाज़ दी....मैंने उसे ट्रेन में बिठाया....ट्रेन चलने को हुई....तभी वहाँ से एक फूल वाला गुजरा...मैंने एक गुलाब दौड़ते हुए स्वेता को पकडाया....और तेज़ आवाज़ में कहा आई लव यू.....उसने भी कहा आई लव यू ...... 

अगले रोज़ में एक अच्छे बच्चे की तरह उनके पिताजी के दरबार में हाज़िर हो गया....बैठने के कमरे में जहाँ एक ओर किताबें रखी हुई थीं....और दूजी ओर कुछ जीते हुए इनाम....कुछ चित्रकारी.....जिनसे पता चला कि स्वेता को इसका भी शौक है.....मैं खडा होकर किताबे देखने लगा....कुछ ही देर में स्वेता के पिताजी जिन्हें मैंने अंकल कहकर संबोधित किया का उस कमरे में प्रवेश हुआ..... 

आंटी जी मिठाई, नमकीन, बिस्कुट और कॉफी लेकर आई....अंकल जी, आंटी जी और मैं काफी देर तक खामोश से रहे...फिर आंटी जी ने कहा लो बेटा....कुछ लो....मैंने थोडा सा झिझकते हुए कॉफी उठाई....पास ही वो किताब रखी हुई थी जिसे मैं देख रहा था.....तो आप पढने का शौक रखते हैं या यूँ ही.....स्वेता के पिताजी बोले....जी पढ़ लेता हूँ ...अच्छा लगता है पढना.....फिर इस तरह से बात शुरू हुई और काफी लम्बे समय तक किताबों में ही उलझी रही....आंटी जी बोली चैन लेने दोगे बच्चे को या बस यही सब....बस हँसी का माहौल बन गया....मैं भी मुस्कुरा गया....और अंततः अंकल जी बोले कि बेटा बाकी सब तो स्वेता ने आपके बारे में बहुत कुछ बता दिया है....और हमे ख़ुशी है कि उसने तुम्हें पसंद किया है....आंटी जी बोली बेटा तुम हमें पसंद हो....हमारी एक ही बेटी है.....बस गुस्सा थोडा होती है लेकिन दिल की बहुत अच्छी है....मैं मुस्कुरा गया.....हाँ सो तो है...मैंने कहा....तभी अन्दर से स्वेता की आवाज़ आई क्या कहा.....मैंने कहा कुछ नहीं .....मैंने तो कुछ कहा ही नहीं....और सब हँसने लगे...स्वेता भी हँसने लगी..... 

दो महीने बाद हमारी शादी हो गयी.....पहली रात को जब मैं कमरे में दाखिल हुआ...तो मैंने उसका हाथ पकड़ कर कहा अच्छा ये फ्रेंच किस क्या होती है....नाम कुछ सुना सुना सा लगता है.....वो मुस्कुरा गयी....बोली क्यों सिर्फ सुना ही है....हाँ सिर्फ सुना है....अच्छा बच्चू....जानती हूँ कितने बुद्धू हो....जाओ जाओ.....मैंने कहा सच्ची मुच्ची नहीं जानता....सिखाओ न .....वो मुस्कुरा गयी.....बुद्धू ...ऐसा कुछ बोला शायद उसने ....

गुरुवार, 25 मार्च 2010

सीख मिल गई - (लोककथा)

किसी गरीब आदमी का अपने गाँव के एक बड़े धनी आदमी से झगड़ा हो गया। उस अमीर आदमी ने गरीब को बहुत ही ज्यादा परेशान कर रखा था। गरीब आदमी को लोकतन्त्र पर बहुत विश्वास था। इसी विश्वास के आधार पर गरीब आदमी ने अदालत के सामने गुहार लगाई।

इसका परिणाम यह हुआ कि धनी आदमी के ऊपर मुकदमा चालू हो गया। गरीब और अमीर दोनों को समय-समय पर अदालत में हाजिर होना पड़ता था। चूँकि गरीब आदमी के पास इतना धन नहीं था कि वह कोर्ट कचहरी के चक्कर लगा सकता। उसको इसे बहुत ही निराशा हुई। उसे लगा कि धनी आदमी अपने धन के बल पर लगातार उसको परेशान करवा रहा है।

नियमतः फिर एक दिन अदालत में जाने का समय आया। इसी निराशा का भाव लेकर और मन में एक धारणा बनाकर कि समाज में हमेशा धनिकों का ही बोलबाला रहता है, वह गरीब आदमी कचहरी के लिए चल पड़ा। उसके मन में यह धारणा घर कर गई थी कि उसे मुकदमा हारना ही है। धनी आदमी ने अपने धन की ताकत से अदालत के लोगों को भी खरीद लिया होगा।

रास्ते में एक स्थान पर उस गरीब ने आराम करने का विचार किया। वह आराम करने के लिए खेत में सही जगह खोजने लगा। तभी उसने देखा कि उस खेत में तरबूज लगे हैं और उनकी बेल बहुत ही कमजोर है। आसपा सही जगह देखकर वह एक बरगद के पेड़ के नीचे आकर लेट गया। उसने देखा कि बरगद के पेड़ पर छोटे-छोटे गूलर लटके हैं।

तरबूज और गूलर देखकर उस गरीब के मन में तुरन्त ही एक भाव आया कि अन्याय इस समाज में ही नहीं होता आ रहा है। अन्याय तो स्वयं भगवान भी करता रहा है। मरियल सी कमजोर बेल, जो स्वयं बिना सहारे के खड़े नहीं हो सकती है, धरती पर पड़ी है उसमें इतना बड़ा फल लगा दिया और बरगद जो इतना विशाल है, सभी को छाया भी देता है, जिसके हजारों शाखायें हैं, उसे जरा-जरा से गूलर के फल दिये।

ऐसा भाव आते ही गरीब को लगा कि जब भगवान ही अन्याय कर सकता है तो हमारे साथ भी यदि धनी आदमी अन्याय कर रहा है, अदालत अन्याय कर रही है तो बुरा नहीं है।

अभी वह गरीब आदमी इतना सोच ही रहा था कि अचानक बरगद से उसका फल गूलर टूट कर उस गरीब आदमी के मुँह पर गिरा। आदमी एकाएक उठ बैठा और बोला कि नहीं भगवान ने सभी का एक नियम बनाया है। उसी नियम के कारण किसी को बड़ा फल और किसी को छोटा फल मिला है। यदि बरगद में गूलर जैसे छोटे फल की जगह पर तरबूज जैसा विशाल फल लगा होता तो वह उसके मुँह पर गिरने से आज मर ही गया होता।

प्रत्येक कार्य के नियमतः होने का कारण जानकर उस गरीब आदमी को संतुष्टि हुई। उसे समझ में आया कि अदालत का कार्य अपने अनुसार चल रहा है और जब सही समय आयेगा उसे न्याय मिल जायेगा।

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

इत्तेफाक' एक प्रेम कहानी ----------[अनिल कान्त]

ऐसा नहीं था कि जो हो रहा था मैं इन सब से बेखबर था....लेकिन शायद मैं अपने वजूद की तलाश में था....मैं खुद की तलाश में था....और इसी तलाश में कब उससे टकरा गया पता ही नहीं चला....ये भी एक अजीब इत्तेफाक है कि उसका और मेरा मिलना भी एक इत्तेफाक से हुआ.....ये इत्तेफाक भी बड़े अजीब होते हैं....कभी कभी जिंदगी के मायने ही बदल देते हैं

किताबों में डूबे रहना मेरा शौक भी था और सच कहूं तो मेरी कमजोरी कह लें या एकमात्र सहारा....या तो किताबें मुझे तलाशती या मैं किताबों को....इसी तलाश में मेरा एक दिन उसी जगह जाना हुआ जहाँ मैं अक्सर जाया करता....उस किताब वाले के पास जहाँ एक सी शक्लों वाले लोग अक्सर दिखाई देते...हाँ शायद पढ़ते पढ़ते सबकी शक्लें एक सी ही लगती मुझे....या उन सब ने एक सी किताबे पढ़ पढ़ कर एक सी शक्लें कर ली थीं...

उस रोज़ मैं बस वहाँ खड़ा उस किताब वाले को बड़ी तसल्ली से देख रहा था...सच कहूं तो उसकी शक्ल को पहचानने की पूरी कोशिश कर रहा था....कि इसकी शक्ल में भी आखिर कोई बात होगी....आखिर इसने इतनी किताबे बैची हैं...हो सकता है कुछ पढ़ी भी हों....वैसे तो कई बार वो बता चुका था कि वो अपने समय का 8 वीं पास है....वो बोला बाबूजी कौनसी किताब दूँ....

कुछ सोचकर गया नहीं सो कुछ बोलता....अंततः कई लोगों से सुन रखा था 'रसीदी टिकट' के बारे में....पर कभी मौका नहीं मिला उसे पढने का....या सच कहूँ कभी मन नहीं किया....और कभी किया भी तो वो किताब दुकान पर मौजूद ना होने की वजह से पढ़ी नहीं....मैंने उसे बोला कि 'रसीदी टिकट' मिलेगी क्या....वो हल्का सा मुस्कुराया और बोला हा साहब...सिर्फ आखिरी पीस ही बचा है....आपकी किस्मत अच्छी है....मैंने किताब हाथ में ली...और पर्स से पैसे निकाल उसे दिए....तभी एक आवाज़ आई जिसकी फरमाइश भी रसीदी टिकट थी....लड़की की आवाज़ थी....जो मेरे नजदीक ही खड़ी थी....अरे नहीं मैडम आखिरी ही थी जो अभी अभी इन साहब ने खरीद ली...वो लड़की मुझे देखती है....

पर मुझ से कुछ बोलती नहीं...कब तक आ जायेगी दोबारा....जी यही कोई हफ्ते दस दिन में आ जायेगी....इतना लेट....जल्दी नहीं आ सकती....मैडम हफ्ते दस दिन में ही मेरा किताबे लेने जाना हो पायेगा....मैं उनकी बातें सुन रहा था.....और मेरा आज भी उस किताब को ऐसा पढने का कोई ख़ास मन ना था....मैंने कहा आप ले लीजिये इसे....आप पढ़ लीजिये...वैसे भी मेरा अभी मन नहीं....मैं बाद में पढ़ लूँगा....वो थोडी खुश सी हुई....वो अपने पर्स से पैसे निकालने लगी...अरे क्या कर रही हैं आप...पैसे रहने दीजिए...जब आप पढ़ लें तो इन बाबा को किताब दे जाना मैं इन से ले लूँगा...

पक्का आपको अभी नहीं पढ़नी....कहीं आप मेरी वजह से तो नहीं ऐसा कर रहे....मैं मुस्कुराया....मैंने कहा रख लीजिये...उसने किताब अपने हाथ में ले ली....मैं फुटपाथ पर पैदल चलने लगा....वो भी ना जाने क्यों पैदल ही चलने लगी...वो चाहती तो रिक्शा कर सकती थी....मैं तो ऐसा ही था...पैदल चलना मेरा शौक ही हुआ करता था....

वो साथ चलते हुए बोली थैंक यू.....मैं मुस्कुरा दिया....मैंने कहा पढ़ लीजिये अच्छी लगे तो बताना...मैं भी पढ़ लूँगा....वो भी हल्का सा मुस्कुरा दी....तो क्या आप इधर रोज़ आते हैं....हाँ आप कह सकती हैं....जब भी मन बेचैन सा होता है चला आता हूँ.....हाँ वो पहले भी मैंने एक बार आपको यहाँ देखा है....अच्छा.....वो बोली लगता है आप किताबों का बहुत शौक रखते हैं.....मैं बोला क्यों आप नहीं रखती...किसी और के लिए ले जा रही हैं.....वो हँस दी अरे नहीं नहीं ऐसा कुछ नहीं है ....मैं उतना नहीं पढ़ती शायद जितना आप पढ़ते हों....

अच्छा क्या करते हैं आप....ऐसा कुछ ख़ास नहीं पर फिर भी....एक बैंक में मुलाजिम हूँ....वो हँस दी...मुलाजिम....मैंने हँसते हुए पूँछा और आप....जी मैं कॉलेज में लेक्चरर हूँ....तभी शायद रास्ता ख़त्म सा हुआ....और मेन रोड आ गया....वो दोबारा शुक्रिया अदा करती हुई बोली....अच्छा ठीक है अब मैं चलती हूँ.....मैंने कहा ठीक है....

कुछ था जो होना था....शायद उस खुदा ने कुछ सोच रखा था....अभी तक मैं ये नहीं जान पाया था कि आखिर आज जो हुआ वो सिर्फ एक घटना थी या ऐसा इत्तेफ़ाक जो मेरा हाथ पकड़ कर कहीं ले जाना चाहता है....खैर जो भी था....मैं उस रोज़ समझ नहीं सका....करीब दो रोज़ बाद मेरा फिर उधर जाना हुआ....मैं पैदल ही चला जा रहा था उस फुटपाथ पर...उस से आज में फिर टकरा गया.....वो पीछे से रिक्शे पर आ रही थी....शायद उसकी मुझ पर नज़र पड़ी....उसने कहा अरे सुनिए....मैंने पीछे मुड़कर देखा....वो रिक्शे से उतरी....और मुस्कुराती हुई मेरे पास आई...बोली अरे ये तो बहुत अच्छा हुआ कि आप मुझे मिल गए....मैं आपकी ही किताब वापस करने जा रही थी.....मैंने कहा ख़त्म कर दी...वो बोली हाँ....मैं मुस्कुराया और बोला कि तुम तो हमारी भी उस्ताद निकली....वो हँस पड़ी....अरे मुझे किताब अच्छी लगी तो मैं खुद को रोक ना सकी.....मैंने कहा चलो अच्छी बात है

उसने कहा कि चलो कहीं बैठें....कॉफी पीते हैं....मैंने कहा हाँ यहीं पास में एक रेस्टोरेंट है....वो अच्छी कॉफी बनाता है....हम दोनों पैदल ही फुटपाथ को नापते हुए चल दिए....शायद उसके साथ चलना मुझे अच्छा लग रहा था....कुछ ही देर में रेस्टोरेंट आ गया.....
हम दोनों उस शहर के खासम खास रेस्टोरेंट में थे....खास इस वजह से कि वहाँ कॉफी अच्छी मिलती थी और शांति का एहसास होता....उस रोज़ बजने वाला मधुर संगीत एक अलग ही धुन छेड़ रहा था....वो मेरे सामने बैठी थी....'रसीदी टिकट' उसके पास ही थी....हमारे बीच एक खामोशी की दीवार खड़ी हो चली थी...उसे तोड़ते हुए मैंने पूँछा तो कैसी लगी आपको किताब....उसकी ओर से खामोशी टूटी...वो बोली...सच कहूँ तो मुझे बेहद प्यारी लगी ये किताब...एक एक शब्द से जैसे लगाव हो चला था....जैसे जैसे पढ़ती गयी वैसे वैसे में इसमें डूबती गयी....एक बार ख़त्म होने के बाद भी मन कर रहा था कि फिर एक बार पढूं....मैं मुस्कुराते हुए बोला तो पढ़ लेतीं आप....

ये इश्क भी अजीब होता है ना....इंसान को क्या का क्या बना देता है...उसने मेरी ओर देख कर बोला....जैसे शायद मेरी आँखों में झाँक कर पूंछ रही हो....कि आपको क्या लगता है....मैंने कॉफी का घूँट भरा जिसे दुकान पर काम करने वाला वो लड़का अभी अभी रख कर गया था....घूँट गले से उतर जाने के बाद मैं हल्का सा मुस्कुराया....पर कुछ बोला नहीं....वो कहने लगी....आप कम बोलते हैं शायद....नहीं तो...ऐसा तो कुछ नहीं है....मैंने इशारा करते हुए कहा...आप कॉफी पीजिये ठंडी हो रही है....

तो आप क्या पढ़ाती हैं....मेरा मतलब किस विषय की लेक्चरर हैं आप...कॉफी का दूसरा घूँट भरने के बाद मैंने उससे पूँछा....जी समाजशास्त्र....ह्म्म्म्म....बहुत खूब....अच्छा विषय है आपका....हाँ कह सकते हैं....वो बोली....और आपने क्या किया हुआ है....एम.एस.सी मैथ से...अरे वाह....वो बोली....फिर आप बैंक में क्या कर रहे हैं...शक्ल से तो आप पढने लिखने वाले लगते हैं....हमारी तरह लेक्चरर क्यों नहीं बन गए....मैं मुस्कुराया....जी वो हमारे बस का रोग नहीं है....अच्छा जी...तो बैंक की नौकरी में खुश हैं आप....खुश होने की वजह अभी तक मिली नहीं....मैं बोला ...जो करना चाहा उसका मौका नहीं मिला....और जो हुआ वो होता गया...बस आगे देखते हैं क्या होता है....आगे के लिए ऐसा कुछ सोचा नहीं

हमारी बातें थी उनके विषय बदलते जाते और हम कॉफी के घूट भरते जाते...बातों ही बातों में मुझे उसका नाम स्वेता और उसे मेरा नाम आदित्य पता चला....कुछ था जो मुझे उस से जोड़ रहा था....वरना एक भी पल ऐसा नहीं आया कि मुझे लगा हो कि अब मुझे चलना चाहिए...उस रोज़ 5-6 कॉफी हम लोगो ने ख़त्म की...जिसमें पता चला कि उसके पिताजी एक प्रोफेसर हैं और वो अपने माँ बाप की इकलौती संतान है....वो यहाँ मेरी ही तरह इस शहर में अकेली है....किताबों से उसे मेरी तरह ही लगाव है....पर फर्क है कि मैं बस किसी खोज में लगा हूँ...और उसे पूरी तरह पता है कि उसे कब क्या करना है....हाँ शायद उसे ये भी पता था कि उसे लेक्चरर बनना था....उसके अन्दर कहीं भी छल, कपट, झूट और मक्कारी जैसी कोई चीज़ मुझे दिखाई नहीं दी...जिसे में अक्सर दूसरे लोगों में देखता था....शायद यही वजह थी कि मैं लोगों से दूर भागता था

और उसकी बातों में मैं उससे वो किताब 'रसीदी टिकट' लेना ही भूल गया...बातों ही बातों में पता चला कि उसे फूलों से लगाव है, साहिर साहब के लिखे गीत पसंद हैं....उसे मंदिर जाने से ज्यादा अच्छा चर्च जाना लगता है...हिन्दू होते हुए भी उसकी ये बात मुझे थोडी अलग लगी...हालांकि मेरी और भगवान की बिलकुल नहीं बनती थी....और एक लम्बा अरसा बीत चुका था जब मैं आखिरी बार मंदिर गया था

काफी लम्बा समय बीत जाने के बाद उसने कहा कि अब उसे चलना चाहिए...हालांकि वो मेरी बातों से समझ चुकी थी कि भगवान में मेरी ज़रा भी दिलचस्पी नहीं है...फिर भी ना जाने क्यों उसने मुझे रविवार के दिन चर्च चलने के लिए बोला....मैं क्या कहता....मैं उसकी ओर देखकर मुस्कुराया....साफ़ तौर पर ना बोलने वाला इंसान था मैं....लेकिन मैंने उससे ना चाहते हुए भी हाँ बोल दी....आखिर और करता भी क्या....उस शहर में ऐसा था भी कौन जिसके साथ मैं समय बिताने वाला था....

घर लौट कर मैं अपने बिस्तर पर करवट बदल रहा था...आज उससे की हुई बातें दिमाग में चल रही थीं....ऐसा क्यों हो रहा था....शायद मुझे भी नहीं पता था....ऐसा नहीं था कि पहले कभी किसी लड़की से मैंने बात नहीं कि थी....पर इसमें ऐसा कुछ खास था....जो मुझे अपनी ओर खींचे जा रहा था....शायद ऐसा कुछ जिससे मुझे राहत मिलती हो....खैर जैसे तैसे मैं सुबह होने से पहले सोया....

दो दिन बाद रविवार था....मुझे ठीक याद था कि मुझे जाना है...जबकि मैं उस दिन ना जाने की सोच कर आया था....मैं चर्च के कुछ ही दूरी पर खडा था....समय था कि बहुत बड़ा लम्बा फासला सा तय करने जैसा लग रहा था....अपनी ऐसी हालत में सिगरेट पीने की आदत पर में काबू ना कर सका...पास ही से एक सिगरेट खरीद मैंने सिगरेट सुलगा ली....और उसके आने का इंतज़ार करने लगा....वो एक बहुत ही प्यारे सूट में आई...शायद आज मैंने उसे जी भर कर देखा....वो बहुत ही प्यारी लग रही थी....दूर उसे आते देख मैंने अपनी सिगरेट फेंक दी....वो पास आई और मुस्कुराते हुए बोली...आप सिगरेट पीते हैं....

मैंने कहा हाँ...कभी कभी पीता हूँ....उसने कुछ नहीं बोला...जबकि मैं सोच रहा था कि शायद ये भी दूसरी लड़कियों की तरह ऐसा कुछ बोलेगी कि छोड़ दो या बुरी बात है...पर उसने ऐसा कुछ नहीं बोला....उसने अपने बैग से पानी की बोतल निकाली और मुझे दी....मैंने मुंह में पानी डालकर गला साफ़ किया....वो मुझे अपने साथ चर्च के अन्दर ले गयी....ये पहली बार था जब मैं किसी चर्च में आया था....एकदम शांति....गिने चुने लोग....वो एक जगह बैठ गयी....मैं भी उसके पड़ोस में बैठ गया....

फिर मैं कभी सामने देखता...और कभी उसके चेहरे को...उसने अपनी आँखें बंद कर रखी थी....उस पल वो मुझे बहुत मासूम और नेक इंसान लगी....यूँ लगा कि बहुत ही प्यारी आत्मा है...शायद उसने कुछ माँगा भी हो....पता नहीं क्या....लेकिन माँगा ही होगा....ज्यादातर लोग माँगने ही तो जाते हैं....यही सोच रहा था मैं....उसने कुछ रुपये वहाँ दान में दिए....इससे ये तो पता चला कि कम से कम उसने अपनी प्रार्थना में पैसे तो नहीं माँगे होंगे...वो बोली पता है...ये पैसे गरीब बच्चों के काम में आते हैं...उनकी पढाई, खाना, कपड़े वगैरह....मुझे उसकी बातों ने प्रभावित किया

अभी बस हम चर्च के बाहर पैदल चल ही रहे थे कि पास ही एक बच्चा सड़क पार कर रहा था कि एक गाडी अनियंत्रित होकर उसे टक्कर मारकर चली गयी....उधर अफरा तफरी मच गयी....मैंने बच्चे को गोद में उठाया....और रिक्शे में बैठ पास ही अस्पताल ले जाने लगा...स्वेता भी मेरे पीछे दूसरे रिक्शे पर आई...डॉक्टर को दिखाने पर....डॉक्टर ने उसकी पट्टी की और कुछ दवा लेने को बोल दिया.....उसकी दवा खरीद कर उस बच्चे को उसके घर पहुंचा दिया....उसके माँ बाप हमे बहुत रोकते रहे लेकिन देर ज्यादा हो जाने के कारण हमने फिर कभी आने का वादा किया

उस बच्चे के घर से वापस लौटते समय वो काफी देर खामोश रही....फिर बोलने लगी कि इस दुनिया में ज्यादातर लोग ऐसे क्यों होते हैं....जब उस बच्चे को चोट लगी तो सब बस खड़े देख रहे थे.....समझ नहीं आता कि लोग ऐसे क्यों होते हैं....मैंने उसे रिलेक्स होने के लिए बोला....कहा कि ये सब तो चलता रहता है....वो बोली नहीं आखिर क्यों हम इतने स्वार्थी हो जाते हैं....समझ नहीं आता....मैं उसकी ओर देख कर मुस्कुराया और कहा चलो कोई नहीं अब वो ठीक है....चिंता मत करो....मैंने उसे घर वापस जाने के लिए बोला....रिक्शे पर उसे बैठा कर मैं पैदल चलने को हुआ....वो बोली आदित्य आप अपना मोबाइल नंबर दे दीजिये....मुझसे नंबर लेने के बाद वो चली गयी....मैं उसके ओझल हो जाने तक उसे देखता रहा....मेरे घर पर पहुँचने पर एक मैसेज आया..."मुझे फक्र है कि आप जैसा इंसान मेरा दोस्त है"...उसके नीचे नाम लिखा था स्वेता....मैंने उसे बदले में मैसेज किया कि चलो अब आराम कर लो कल शाम को हम लोग मिलते हैं....

हम दोनों की मुलाकातों का एक लम्बा दौर चल निकला....हम दोनों आपस में एक दूसरे से बहुत घुल मिल गए थे....हम दोनों घंटो एक दूसरे के साथ बैठे बातें करते रहते.....वो बातें करते करते थकती ना थी...और मुझे उसको सुनते रहना अच्छा लगता....शायद अब हम दोस्ती के रिश्ते से आगे बढ़ने लगे थे....वो जब तब मेरे लिए कुछ न कुछ बना के भी लाती....फिर एक दिन मैंने कहा कि चलो इस रविवार को पास में ही एक सुन्दर सी झील है वहां घूमने चलेंगे....उसने कहा ठीक है
हमारी मुलाकातों और ढेर सारी बातों का ही ये असर था कि स्वेता मुझे आदित्य से 'आदि' कहने लगी थी....जो उसके मुंह से सुनने में उतना ही अच्छा लगता...जितना कि मुझे स्वेता अच्छी लगती....मुझे पता ही ना चला कि मुझे कब उससे प्यार हो गया...शायद पता भी ना चलता...लेकिन कहते हैं ना कि कभी कभी किस्मत हम पर मेहरबान होती है....

जैसा कि मैंने उससे कहा था कि हम लोग आने वाले रविवार को झील के पास घूमने चलेंगे....रविवार के दिन स्वेता को साथ ले मैं उस झील के किनारे पहुँच गया....झील की सुन्दरता और वहां का आकर्षण और पंक्षियों के चहचहाने और इधर से उधर होने की गूँज हमारे कानों में पड़ती तो दिल खुश हो जाता....काफी लोग वहां घूमने के लिए आये थे....कुछ पल के लिए वो खामोश रही....अपनी अँगुलियों से मिट्टी में आडी- तिरछी लकीरें खीचती रही....मैंने पूंछा क्या हुआ स्वेता....आज बहुत चुप चुप हो....क्या हुआ.....ह्म्म्म...कुछ नहीं....नहीं कोई बात तो है....अरे नहीं कुछ भी तो नहीं....अच्छा...या बताना नहीं चाहती....नहीं न कोई बात नहीं है....अच्छा चलो ठीक है....अच्छा बोलो आइसक्रीम खानी है....वो देखो वहाँ आइसक्रीम वाला है....उसने हाँ में गर्दन हिलाई....मैं आइसक्रीम लेकर आया....

जब आइसक्रीम ख़त्म कर ली तो उसकी खामोशी को तोड़ने के लिए मैंने पूँछा....अच्छा बताओ कि 'रसीदी टिकट' फिर पढ़ी....हाँ दोबारा पढ़ी थी....तो कैसी लगी.....सच कहूँ तो उसमें....इंसान के जज्बात हैं...जिसे इंसान महसूस करता है....हर किसी के बस का नहीं कि उस हद तक इंसान शब्दों में अपने एहसास को बयां कर सके....फिर इतना बोलने के बाद उसने चुप्पी साध ली....मैं झील की तरफ देख रहा था....वो काफी देर तक सिर्फ और सिर्फ मेरी ओर देखती रही...फिर कुछ देर सोचते हुए उसने मुझसे सवाल किया...अच्छा आदि आपको कभी किसी से इश्क हुआ है....ह्म्म्म्म....क्या कहा....मैंने उसकी ओर देखते हुए पूँछा....कुछ देर मेरी ओर देखने के बाद बोली ...कुछ नहीं....और धीमे से बोली बुद्धू....नहीं तुम कुछ पूंछ रही थी....कुछ नहीं....अरे नहीं बोलो...आपको कभी इश्क हुआ है.....मैं मुस्कुराया....पता नहीं...वैसे डर लगता है....वो बोली किससे....मैंने कहा इश्क से.....क्यों डर क्यों लगता है....क्योंकि इश्क करके ज्यादातर लोग मिल नहीं पाते...प्रेम कहानियाँ ज्यादातर अधूरी रह जाती हैं....वो मुस्कुरायी...बस इस लिए डरते हो....ह्म्म्म्म्म शायद....वैसे आज तक मुझे पता नहीं चला कि मुझे कभी इश्क जैसा कुछ हुआ हो....तुम्हें हुआ है क्या...मैंने पूँछा...मेरी आँखों में देखकर फिर दूसरी ओर देखने लगी वो....उसने कुछ जवाब नहीं दिया

फिर उसने पूँछा अच्छा वो वहाँ लोग कहाँ जा रहे हैं...बड़ी भीड़ है....मैंने कहा....इश्क के मारे हैं....क्या मतलब....अरे मतलब ये कि वहाँ पास में ही एक मंदिर है....और यहाँ के लोग कहते हैं कि अगर कोई सच्चे दिल से किसी को चाहता है और यहाँ आकर उसे मांगता है....तो उसकी मन्नत पूरी होती है....उसके चेहरे पर एक अजीब सी ख़ुशी चमक उठी...अच्छा वाकई....चलो हम भी घूमने चलते हैं वहाँ....मैंने कहा क्या करोगी जाकर....छोडो बैठो...सब फालतू की बातें हैं....अरे चलो ना मुझे मंदिर देखना है....मैंने कहा मैं तो नहीं जा रहा....वो बोली प्लीज प्लीज प्लीज....चलो ना....मैंने कहा ठीक है...चलते हैं...पर मैं सिर्फ तुम्हारी वजह से जा रहा हूँ....

वहाँ पहुँच वो मंदिर में पूरी श्रद्धा के साथ ध्यान मग्न हो गयी....पता नहीं मन ही मन क्या माँगा उसने....मैं तो बस खड़े खड़े उसे ही देखता रहा....वहाँ ना जाने कितने चाहने वाले आये थे...अपनी अपनी मन्नते लेकर....वहाँ पास ही बैठे कुछ भिक्षुओं को कुछ देने के लिए मुझसे बोली पर्स निकालो अपना...मैंने कहा क्यों...अरे निकालो ना....उसमें से उसने २०० रुपये निकाल कर और उनके फल खरीद कर सबमें बाँट दिए....मैंने कहा अब खुश...अब चलें...वो मुस्कुरायी...बोली नाराज़ हो क्या...मैं भी मुस्कुरा गया....फिर हम झील के किनारे पहुँचे....तो ना जाने कैसे मेरा पैर मुड गया...और मेरे पैर में मोच आ गयी.....उफ्फ दर्द के कारण बुरा हाल हो गया मेरा.....स्वेता ने मुझे संभाला...और मुझे रिक्शे में बिठा कर डॉक्टर के पास ले गयी...डॉक्टर ने कुछ दवा दी और फिर उसके बाद मैं स्वेता के कंधे का सहारा लेकर ही रिक्शे मैं उसके साथ बैठा...मुझे मेरे कमरे तक वो लेकर गयी....

कमरे की हालत देखकर वो दंग रह गयी....कपडे जो थे वो इधर के उधर....कमरे में सिगरेट के टुकड़े पड़े हुए थे....उसे ज़रा भी देर ना लगी ये जानने में कि मैं निहायत ही आलसी किस्म का इंसान हूँ...और जो अपना ख्याल नहीं रखता....मुझे बिस्तर पर लिटा वो बोली ये क्या हालत बना रखी है कमरे की...इसी तरह रहा जाता है क्या....क्या इसी तरह जिंदगी बिताओगे....मैं हँसा तो मेरा पैर हिल गया....और अचानक से दर्द हुआ....रहने दो हँसने की कोई जरूरत नहीं है.....और फिर उसने सारे कपडे एक एक करके मेरे देखते देखते धो डाले...मेरे मना करने पर भी वो ना मानी....कुछ ही देर में कमरे की हालत बदल गयी....वो कॉफी बनाकर मेरे लिए लायी...क्यों करते हो ये सब....जिंदगी से ज़रा भी लगाव नहीं....शादी क्यों नहीं कर लेते.....मैंने कहा क्या करूँगा शादी करके...ऐसा ही भला हूँ....और शादी करने के लिए भी लड़की की जरूरत होती है....कहाँ से लाऊं लड़की....क्यों कमी है क्या लड़कियों की...किसी को पसंद करते हो तो उससे कर लो....मैंने कहा....ये इश्क भी अजीब है....वो बोली या हो सकता है कोई तुम्हें पसंद करती हो....मैंने कहा इस सरफिरे को कौन पसंद करेगी....और मैंने फिर एक गलत सवाल पूंछ लिया....वैसे तुम कब शादी कर रही हो...बुलाओगी ना....बस शायद वही गलत हुआ....उसने कुछ ना बोला....उस रोज़ वो मेरे लिए खाना बना कर चली गयी....और अगले दो रोज़ तक भी स्वेता आती और ज्यादा बात ना करके खाना बनाकर और मुझे खिलाकर चली जाती...मेरी किसी बात का जवाब हाँ या ना में देती....

लेकिन उस रोज़ वो कुछ उदास थी....वो आई उसकी आँखों में कई सारे सवाल थे....मैं भी कुछ परेशान हो चला था....वो खाना बनाकर और मुझे वो किताब 'रसीदी टिकट' देकर कहने लगी मैं कुछ दिनों के लिए घर जा रही हूँ....पर क्या हुआ....कुछ नहीं...और इतना कह कर वो चली गयी....उसका जाना मुझे बहुत अजीब लगा....बिस्तर पर करवटें बदल मुझसे रहा ना गया...मैंने वो किताब पलटी...उसमें एक ख़त रख छोडा था उसने....

जिसे पढ़ा और पढता ही चला गया...उसके बाद मैं अपने आप को कोस रहा था...क्या किया उस बेचारी के साथ....उसने लिखा कि आदि क्या आपको किसी की मोहब्बत की पहचान नहीं....या एक लड़की क्या चाहती है...ये भी उस लड़की को ही बोलना पड़ेगा....घर वाले पूंछते रहते हैं कि शादी कर लो...कोई पसंद हो तो बता दो...क्या बता दूं .....मुझे वो पसंद है जो...इश्क को एक फालतू काम समझता है...जा रही हूँ....मुझे नहीं पता आगे क्या होगा.....

मैं जानता था कि उसके शहर को जाने वाली ट्रेन अभी 1 घंटे बाद ही है....मैं जिंदगी भर अपने आप को कोसना नहीं चाहता था....मैं बाहर को जैसे का तैसा निकल लिया....रहा सहा दर्द तो मालूम ही नहीं पड़ा....शायद अब कोई दर्द मुझे ना रोक पाता....रिक्शे में बैठ मैं स्टेशन पहुँचा....वो दूर एक बैंच पर बैठी थी...गुमसुम...चुपचुप...खामोश सी....कुछ सोचती सी....मैं उसके पास पहुँचा....वो ख़त हाथ में पकड़ उसके चेहरे की तरफ देखा..उसने मुझे एक नज़र देख...अपना चेहरा दूसरी तरफ कर लिया....जब मैं दूसरी तरफ से उसे देखा तो फिर उसने अपना चेहरा दूसरी ओर कर लिया....स्वेता.....अच्छा बाबा सॉरी....माफ़ कर दो.....मैं कौन होती हूँ.....सॉरी...सॉरी ...सॉरी....

अच्छा कान पकड़ता हूँ...मैं घुटनों के बल उसके सामने ही बैठ गया....और कान पकड़ लिए...सॉरी ...सॉरी...माफ़ कर दो ना प्लीज....मुझे क्या पाता था कि....क्या कि....वो बोली....यही कि तुम भी मुझसे प्यार कर सकती हो.....वो फिर दूसरी तरफ देखने लगी ....अच्छा बाबा सॉरी...कोई सवाल नहीं...बाप रे इतना गुस्सा.....उसने मेरी आँखों में देखा....और देखती रही....मैं बोला वैसे तो मुझे भी ना जाने क्यों बहुत दिनों से ऐसा महसूस हो रहा था...लेकिन...मतलब...लेकिन....मुझे डर लगता था...और सच कहूं तो मुझे ठीक से पता ही नहीं था प्यार कैसे होता है...वो इस बात पर हँस पड़ी...बुद्धू...अच्छा बोलो माफ़ किया ना.....ओके ठीक है बाबा....आई लव यू.....मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ....बहुत ज्यादा...ह्म्म्म हाँ सबसे ज्यादा.....वो मुस्कुराने लगी...बुद्धू...पागल....और ये क्या उन्हीं कपडों में चले आये.....मैंने खुद को देखा...क्यों बुरा लग रहा हूँ क्या....उसने सर हिलाया....और कुछ बुद्धू सा कुछ बोला.....

वो बोली अच्छा ठीक है आप कल मेरे घर आना...मैं पापा से आपको मिलाऊँगी....क्यों...किसलिए...आपको शादी नहीं करनी तो क्या...मेरे पापा को मेरी शादी करनी है....मैं मुस्कुरा गया....ओह....अच्छा ठीक है...उसने अपना पता लिखकर दिया.....ट्रेन ने आवाज़ दी....मैंने उसे ट्रेन में बिठाया....ट्रेन चलने को हुई....तभी वहाँ से एक फूल वाला गुजरा...मैंने एक गुलाब दौड़ते हुए स्वेता को पकडाया....और तेज़ आवाज़ में कहा आई लव यू.....उसने भी कहा आई लव यू ......

अगले रोज़ में एक अच्छे बच्चे की तरह उनके पिताजी के दरबार में हाज़िर हो गया....बैठने के कमरे में जहाँ एक ओर किताबें रखी हुई थीं....और दूजी ओर कुछ जीते हुए इनाम....कुछ चित्रकारी.....जिनसे पता चला कि स्वेता को इसका भी शौक है.....मैं खडा होकर किताबे देखने लगा....कुछ ही देर में स्वेता के पिताजी जिन्हें मैंने अंकल कहकर संबोधित किया का उस कमरे में प्रवेश हुआ.....

आंटी जी मिठाई, नमकीन, बिस्कुट और कॉफी लेकर आई....अंकल जी, आंटी जी और मैं काफी देर तक खामोश से रहे...फिर आंटी जी ने कहा लो बेटा....कुछ लो....मैंने थोडा सा झिझकते हुए कॉफी उठाई....पास ही वो किताब रखी हुई थी जिसे मैं देख रहा था.....तो आप पढने का शौक रखते हैं या यूँ ही.....स्वेता के पिताजी बोले....जी पढ़ लेता हूँ ...अच्छा लगता है पढना.....फिर इस तरह से बात शुरू हुई और काफी लम्बे समय तक किताबों में ही उलझी रही....आंटी जी बोली चैन लेने दोगे बच्चे को या बस यही सब....बस हँसी का माहौल बन गया....मैं भी मुस्कुरा गया....और अंततः अंकल जी बोले कि बेटा बाकी सब तो स्वेता ने आपके बारे में बहुत कुछ बता दिया है....और हमे ख़ुशी है कि उसने तुम्हें पसंद किया है....आंटी जी बोली बेटा तुम हमें पसंद हो....हमारी एक ही बेटी है.....बस गुस्सा थोडा होती है लेकिन दिल की बहुत अच्छी है....मैं मुस्कुरा गया.....हाँ सो तो है...मैंने कहा....तभी अन्दर से स्वेता की आवाज़ आई क्या कहा.....मैंने कहा कुछ नहीं .....मैंने तो कुछ कहा ही नहीं....और सब हँसने लगे...स्वेता भी हँसने लगी.....

दो महीने बाद हमारी शादी हो गयी.....पहली रात को जब मैं कमरे में दाखिल हुआ...तो मैंने उसका हाथ पकड़ कर कहा अच्छा ये फ्रेंच किस क्या होती है....नाम कुछ सुना सुना सा लगता है.....वो मुस्कुरा गयी....बोली क्यों सिर्फ सुना ही है....हाँ सिर्फ सुना है....अच्छा बच्चू....जानती हूँ कितने बुद्धू हो....जाओ जाओ.....मैंने कहा सच्ची मुच्ची नहीं जानता....सिखाओ न .....वो मुस्कुरा गयी.....बुद्धू ...ऐसा कुछ बोला शायद उसने ....

शनिवार, 30 जनवरी 2010

एक प्रेम कहानी ऐसी भी [कहानी]---अनिल कान्त

रात लौट आई लेकर फिर से वही ख्वाब
कई बरस पहले सुला आया था जिसे देकर थपथपी


कमबख्त रात को भी अब हम से बैर हो चला है

अक्सर कहानी शुरू होती है प्रारंभ से...बिलकुल शुरुआत से...लेकिन इसमें ऐसा नहीं...बिलकुल भी नहीं...ये शुरू होती है अंत से...जी हाँ दी एंड से...कहानी का नहीं...उनके प्यार का...हाँ वहाँ से जहाँ से उनका प्यार ख़त्म होता है...उनकी आखिरी मुलाकात के साथ...जब प्रेरणा और अभिमन्यु आखिरी बार मिलते हैं...प्रेरणा की शादी के साथ..


और फिर 5 साल बाद.....


एक छोटा सा स्टेशन है...गाडी रूकती है...स्टेशन सुनसान है...अभिमन्यु ट्रेन से उतरता है...एक परिवार और उतरा है...उन्हें लेने कोई आया है...वो उन्हें लेकर चले जाते हैं...अभिमन्यु काले कोट वाले साहब से कुछ पूंछता है...उसके बाद वो आगे बढ़ जाता है...वहाँ बैंच दिखाई दे रही हैं...वो वहाँ बैठ जाता है...पीछे की बैंच पर कोई शौल ओढे बैठा है...हाड कपाने वाली ठण्ड में वो कुछ ज्यादा गर्म कपडे नहीं पहने हुए...अपनी फिक्र करना छोड़ दिया है उसने...वो सिगरेट जला लेता है...धुंआ उड़कर बादलों सा आस पास पसरने लगता है पीछे से खांसने की आवाज़ आने लगती है...एक्सक्यूज मी, प्लीज....अभिमन्यु आवाज़ सुनकर अचानक से मुड़ता है...क्योंकि ये आवाज़ तो जानी पहचानी थी...हाँ ये प्रेरणा की आवाज़ थी...उधर प्रेरणा भी अभिमन्यु को देखकर अजीब सी रह जाती है....कुछ पल के लिए सन्नाटे में भी एक ऐसा सन्नाटा पसर जाता है...ठीक वैसा ही सन्नाटा जैसा दोनों के बीच उस आखिरी मुलाक़ात पर पसरा था....जो आज तक खामोशी कायम किये हुए था....

प्रेरणा तुम...अभिमन्यु बोलता है...हाँ अभिमन्यु के लिए तो ये एक ख्वाब जैसा ही था उसे दोबारा देखना...और फिर दोनों बैंच की एक ही तरफ बैठ जाते हैं....कुछ सवाल प्रेरणा की आँखों में थे तो कुछ अभिमन्यु की में...पर दोनों खामोश...सिगरेट का धुंआ अभी भी उड़ रहा था...छोड़ी नहीं ये आदत...प्रेरणा के सवाल के साथ सन्नाटा ख़त्म होता है....ह्म्म्म...अभिमन्यु प्रेरणा की तरफ देखता है....फिर सिगरेट की तरफ...आदतें....आदतें....ये आदतें भी अजीब होती हैं....कुछ अपने आप छूट जाती हैं....और कुछ चाहने पर भी नहीं छूटती....फिर से पीना कब शुरू कर दी...प्रेरणा कहती है...पता नहीं कब शुरू हुई...ठीक से अब तो याद भी नहीं...खैर...तुम यहाँ...कैसे...वो यहाँ के नवोदय विद्यालय में नौकरी मिल गयी है...अच्छा कब से...1 साल हो गया...और आप...ह्म्म्म...सरकारी नौकरी जब जहाँ भेज दें चला जाता हूँ....वैसे यहाँ एक कंपनी है उसका सोफ्टवेयर बनाने का प्रोजेक्ट मिला हुआ है...उसी के सिलसिले में....ओह अच्छा...पहली बार आना हुआ है आपका....हाँ...यहाँ से जाने के लिए बस तो सुबह ही मिलेगी...हाँ वो काले कोट वाले भाई साहब बता रहे थे...

एक बहुत ही ठंडी हवा का झोंका अभिमन्यु के कानों से गुजरता है...अभिमन्यु कपकपाने लगता है...ये क्या दो कपडों में इतनी ठण्ड में चले आये...मालूम है कि इतनी ठण्ड है फिर भी....प्रेरणा अपना बैग खोलकर गरम शौल देखने लगती है....अरे नहीं मेरे पास है वो...माँ ने चलते वक़्त रख दिया था...प्रेरणा शौल निकालकर देती है...ओढ़ लीजिये इसे जल्दी से...अभिमन्यु के मुंह से माँ के बारे में सुनकर...माँ कैसी हैं...अभिमन्यु शौल ओढ़ते हुए...अच्छी हैं...चलते वक़्त तमाम हिदायतें दे रही थीं...

तभी प्रेरणा को याद आता है वो बीता हुआ पल...जब प्रेरणा अभिमन्यु से कहती है "क्या माँ बहुत प्यार करती हैं...हाँ बहुत...बहुत प्यार करती हैं...बहुत प्यारी हैं...वो तुम्हें मुझसे भी ज्यादा चाहेंगी देखना तुम...अच्छा...सच...हाँ वो अपनी बहू के बहुत ख्वाब बुनती हैं"...फिर एक ही पल में प्रेरणा अतीत से उस बैंच पर लौटती है...और मन ही मन सोचती है...उनकी बहू के बारे में....अभिमन्यु की बीवी के बारे में....पर सोचती है कि वो क्या हक़दार है ये पूँछने की....वो बस सोचकर रह जाती है....पूंछती नहीं...

ठाकुर साहब कैसे हैं ? अभिमन्यु सवाल की तरह पूँछता है प्रेरणा से...वो जानती है कि वो उसके पापा के बारे में पुँछ रहा है....हाँ यही तो कहता था...अभिमन्यु उन्हें...ठाकुर साहब....वो अच्छे हैं...पहले की ही तरह...प्रेरणा अभिमन्यु की तरफ देखती है पर कुछ कहती नहीं...अभिमन्यु सिगरेट जला लेता है...एक वो समय भी था जब प्रेरणा के एक बार कहने पर अभिमन्यु ने सिगरेट छोड़ दी थी....कभी नहीं पीता था फिर....धुएं के साथ एक वो सच भी धुंधला सा पड़ गया...

अभिमन्यु इधर उधर देखता है...कुछ तलाशता सा...चाय वाला कहीं...प्रेरणा अपने बैग से थर्मस निकाल कर अभिमन्यु की तरफ चाय बढाती है...ये चाय...वो मैंने चाय की दुकान बंद होने से पहले ही थर्मस में भरवा ली थी...आज भी उस्ताद हो...थैंक यू कहते हुए अभिमन्यु चाय ले लेता है...और मन ही मन सोचता है कि प्रेरणा तो शुरू से ही उस्ताद थी...हर काम में...ख्याल रखने में हर बात का...

अभिमन्यु अपने बैग की जेब तलाशने लगता है...क्या हुआ...देख रहा हूँ शायद कुछ खाने को पड़ा हो....अरे मेरे पास है ना...प्रेरणा अपने बैग से नमकीन निकालती है...तब तक अभिमन्यु अपने बैग से कुछ निकालता है....अरे गुजिया...प्रेरणा कहती है....माँ ने बनायीं है....हाँ....लो जानता हूँ तुम्हें बहुत पसंद है....प्रेरणा गुजिया लेती है...खाती हुई कहती है...आपकी बीवी तो बड़ी किस्मत वाली होगी जो इतनी प्यारी माँ मिली उन्हें...नहीं किस्मत ने माँ का साथ नहीं दिया...क्या मतलब...प्रेरणा बोली....प्यार लुटाने के लिए बहू का होना भी बहुत जरूरी है....कहते हुए अभिमन्यु चाय का घूँट गले से नीचे उतारता है...अभी...प्रेरणा के मुंह से निकला...और वो अभिमन्यु के चेहरे की तरफ देख रही थी...ढेर सारे सवाल...और ढेर सारी पुरानी बातें साफ साफ प्रेरणा के चेहरे पर पढने को मिल जाती इस समय...

खैर मेरा छोडो....तुम बताओ...तुम इतना दूर कैसे नौकरी करने आ गयी...तुम्हारे पति कहाँ हैं आजकल...ऐसा सवाल जिससे बचने के लिए वो यहाँ सबसे दूर पड़ी थी...आखिरकार बरसों बाद पूंछा गया....और वो भी उस इंसान ने जिसके एक तरफ जिंदगी कुछ और थी...और उसके परे जिंदगी कुछ और...

प्रेरणा के चेहरे पर खामोशी छा गयी...वो कुछ नहीं बोली...सिगरेट का एक कश लेकर धुंआ छोड़ते हुए उसने कहा...तुमने जवाब नहीं दिया...प्रेरणा नमकीन का पैकेट बैग में रखने लगी...और थर्मस को भी उसने बैग में रखना चाहा...एक अजीब सी खामोशी लिए हुए...अभिमन्यु के लिए ये खामोशी एक लम्बा सवाल बन चुकी थी...अभिमन्यु ने बोला....बोलती क्यों नहीं क्या हुआ...प्रेरणा के खामोश चेहरे की आँखें भर आई...अभिमन्यु उसकी आँखों की नमी को अपने दिल की गहराइयों तक महसूस करता है....क्या...प्रेरणा के मुंह से बस इतना निकला वो अब नहीं हैं....सिगरेट सुलग कर अभिमन्यु का हाथ जला देती है...उसके हाथ से सिगरेट छूट जाता है....प्रेरणा की आँख से आंसू की बूँद टपक जाती है....मतलब क्या, कैसे....अभिमन्यु पूँछता है....एक रोड एक्सीडेंट और फिर सब ख़त्म....आज बरसों बाद अभिमन्यु की आँख भर आई...एक दर्द फिर से हरा हो गया....क्योंकि वो दुखी थी....कब...कब हुआ....शादी के एक साल बाद...प्रेरणा बोली....और आँसू थे जो रुक ही नहीं रहे थे....और तुम पिछले 4 साल से....बोलते हुए अभिमन्यु उसके रोते हुए चेहरे को देखता रह गया....दोनों के बीच एक लम्बी खामोशी छा गयी...

ये खामोशी भी बहुत अजीब होती है...कमबख्त खामोशी में ऐसा जान पड़ता है कि बस साँसों के चलने की ही आवाज़ आ रही हो...आज की खामोशी अभिमन्यु को उस मुलाकात की खमोशी पर पहुंचा देती है...तब भी उसके पास कहने को कुछ नहीं बचा था और आज भी वो क्या कहे उसे समझ नहीं आ रहा था...लेकिन वो प्रेरणा को इस तरह रोते हुए, दुखी नहीं देख सकता था...वो बात बदलने के उद्देश्य से बोलता है...यहाँ क्या पढ़ाती हो...'वही अंग्रेजी' प्रेरणा जवाब देती है...तो मोहतरमा बच्चों को अंग्रेज बना रही हैं...आप आज तक नहीं कहती हुई प्रेरणा चुप हो जाती है...नहीं सुधरे यही कहना चाहती हो ना...मैं कैसे सुधर सकता हूँ...प्रेरणा थोडी सी मुस्कुरा जाती है...अभिमन्यु भी यही चाहता था...

फिर कुछ देर के लिए सन्नाटा पसर जाता है...दोनों ही कुछ सोचने लगते हैं...शादी क्यों नहीं कर लेते...कब तक यूँ ही भटकते रहोगे...प्रेरणा, अभिमन्यु से कहती है...और फिर माँ को भी तो अपनी बहू पर लाड, प्यार लुटाना है ...उनसे उनका हक़ क्यों छीनते हो...अभिमन्यु प्रेरणा की आँखों में देखता है फिर सिगरेट की डिब्बी निकाल लेता है...सिगरेट जलाकर एक कश लेता है...धुंआ फैलाता है...फिर कहता है...जानती हो प्रेरणा बचपन में माँ ने एक कहानी सुनाई थी...एक पंक्षी की कहानी...माँ कहती थी कि एक ऐसा पंक्षी होता है जो बारिश कि उस पहली बूँद का इंतज़ार करता है जो बहुत दिनों बाद होती है(एक ख़ास बारिश)...और अगर वो उसे ना पी पाए तो फिर वो बाकी की बूंदों के बारे में सोचता ही नहीं...और उसके साथ ही अगला कश लेकर धुंआ उड़ा देता है...प्रेरणा अभिमन्यु के चेहरे को देखती रह जाती है....और फिर वैसे भी कोई लड़की मुझे पसंद ही नहीं करती...कोई शादी ही नहीं करना चाहती...कहता हुआ मुस्कुराता है...और उठकर टहलने लगता है...

वैसे भी किसी ने कहा है 'हर किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता'...वैसे चाँद मियाँ अपनी ड्यूटी पर हैं देखो अभी भी चमक रहे हैं...शायद आज चाँदनी रात है...हाँ शायद (प्रेरणा बोलती है)...तभी अभिमन्यु शौल हटाकर ठंडी चल रही हवा को शरीर से छूता है...हू-हू-हू-हू...अरे बहुत ठण्ड है...वैसे तुम्हें चाँदनी रात बहुत पसंद थी ना...तब जानती नहीं थी ठीक से कि अमावस्या भी होती है और शायद किसी किसी की जिंदगी पूरी अमावस्या की तरह ही होती है...प्रेरणा कहती है...इधर आ जाइये और शौल ओढ़ लीजिये ठण्ड लग जायेगी...

अभिमन्यु को ये बात अन्दर तक लगती है...कहीं ना कहीं दिल बुरी तरह चकनाचूर हुआ पड़ा है...जीने की तमन्ना ही जाती रहती है इंसान के पास से तब ऐसा ही होता है...शायद ऐसा ही कुछ...फिर अभिमन्यु घडी देखता है अभी करीब 1 घंटे में सुबह हो जायेगी...कितना दूर है तुम्हारा हॉस्टल...यही कोई 4-5 किलोमीटर दूर होगा...ह्म्म्म्म कहते हुए आकर बैंच पर बैठ जाता है

कितनी ही बातें थीं प्रेरणा के पास कहने के लिए मगर सिर्फ सोच ही रही थी वो...और अभिमन्यु अपनी सोच में डूबा हुआ था..आलम यह था कि दोनों बैंच पर बैठे थे और बिल्कुल खामोश...सोचते सोचते कब वक़्त बीत जाता है पता ही नहीं चलता...अचानक से अभिमन्यु ऐसे उठता है जैसे नींद से जागा हो...फिर घडी की तरफ देखता है...अरे सुबह हो गयी...प्रेरणा कहती है हाँ...चलो चलते हैं अब...

दोनों स्टेशन से बाहर निकल आते हैं...बाहर बस खड़ी थी और पास ही एक तांगा...अभिमन्यु तांगा देखकर बोलता है...अरे चलो तांगे में चलते हैं...प्रेरणा कहती है तांगे में क्यों...अरे चलो ना तांगे में अच्छा लगेगा...वो तांगे वाले के पास जाते हैं...वो बताता है कि पहले स्कूल पड़ेगा फिर वो कंपनी...अभिमन्यु कहता है ठीक है चलो बैठ जाते हैं इसमें...

छोटा सा और बहुत हरा भरा सा पहाड़ी क़स्बा था...तांगे में बैठकर सफ़र करने में अलग ही आनंद आ रहा था...अभिमन्यु तांगे वाले से मजाक के लहजे में कहता है...अरे भाई इसमें एफ.एम रेडियो है क्या...वो कहता है क्या साहब आप मजाक बहुत करते हैं...अच्छा तो तुम फिल्मों की तरह कोई गाना ही सुना दो...साहब गाना तो नहीं आता...अच्छा ये तो बहुत गलत बात है...उधर प्रेरणा थोडा मुस्कुराती सी है...अच्छा तो कितने बाल बच्चे हैं आपके...एक है...बस एक ही, हम तो सोच रहे थे 4-5 तो होंगे ही...अरे साहब ऐसी भूल तो हम कतई नहीं कर सकते...क्यों भला...अरे हमारे बापू जो थे उन्होंने 11 बच्चे पैदा किये थे...पूरी 10 लड़कियों के बाद हमे पैदा करने के वास्ते...और फिर सारी जिंदगी शादियाँ ही करते रह गए...प्रेरणा अपने मुंह पर हाथ रख लेती है और फिर दूसरी तरफ देखने लगती है...अभिमन्यु मन में ही कुछ बोलता सा है...'बहुत मेहनती थे जैसा कुछ'...

तांगे वाला पूंछता है आप लोगन के बच्चे नज़र नहीं आते...लगता है अभी नयी नयी शादी हुई है...प्रेरणा और अभिमन्यु एक दूसरे की आँखों में देखते हैं...फिर नज़रें हटा लेते हैं...कहीं और देखने लगते हैं...धीरे धीरे बातों ही बातों में सफ़र कट जाता है...प्रेरणा का हॉस्टल आ जाता है...प्रेरणा अपना बैग उठा कर उस पर से उतरती है...अभिमन्यु उसके चेहरे की तरफ़ देखता है...शायद कुछ बोलना चाहता है...पर खामोश है...उधर प्रेरणा भी कुछ कहना चाहती है...पर वो भी सोच कर रह जाती है...वो चल देती है...अभिमन्यु कहता है...कभी कोई जरूरत हो, कोई परेशानी हो मुझे याद करना...और अपना कार्ड उसे दे देता है...प्रेरणा कार्ड ले लेती है...फिर उसके बाद अभिमन्यु तांगे में बैठ अपने ऑफिस की तरफ चल देता है


"लेकर सर पे अपने आई रात पोटली
बैठ सिरहाने मेरे वो तमाम छोड़ गयी उलझनें

डरता हूँ कहीं दिन यूँ ही ना बीत जाए"

अभिमन्यु जानता था कि प्रेरणा कभी फ़ोन नहीं करेगी...कुछ दिन अभिमन्यु अपनी ऑफिस में व्यस्त रहा...और कंपनी के ही दिए हुए घर में रहने लगा...ऐसा नहीं था कि वो प्रेरणा को याद नहीं करता बल्कि वो ये सोचता कि कहीं उसकी वजह से वो और ज्यादा परेशां ना हो...

एक शाम मार्केट में एक रेस्टोरेंट में वो बैठा हुआ था...तभी वहाँ प्रेरणा का आना हुआ...प्रेरणा ने उसे देख लिया...वो उसके पास ही आकर बैठ गयी...क्या लोगी...कुछ खाना है या पीना है...नहीं कुछ नहीं...अरे...ठीक है एक कॉफी...अरे भाई जान दो कॉफी ले आना...अभिमन्यु आवाज़ देता है...तो यहाँ कैसे...कुछ नहीं वो कुछ सामान लेने आई थी...अच्छा...अभिमन्यु प्रेरणा की आँखों में झाँकता है...फिर कहता है काफी बदल गयी हो...क्यूँ क्या हुआ प्रेरणा बोली...चाल ढाल, कपडे पहनने का अंदाज...लगता है स्मिता पाटिल की कोई फिल्म देख रहा हूँ...प्रेरणा हल्का सा मुस्कुरा जाती है...

तभी कॉफी आ जाती है...अरे एक मिनट में आता हूँ...अभिमन्यु प्रेरणा को बाथरूम जाने का इशारा करता है...उसके जाने के बाद अचानक से प्रेरणा की नज़र अभिमन्यु की डायरी पर पड़ती है...वो जानती थी की अभिमन्यु लिखता भी है...वो यूँ ही उसकी डायरी उठाकर पन्ना खोल लेती है...उस पर एक कविता लिखी हुई थी....कविता क्या थी दर्द की खान थी...उससे रहा नहीं गया और उसने वो बंद कर दी...थोडी देर में ही अभिमन्यु आ जाता है...प्रेरणा कॉफी पीते हुए बार बार अभिमन्यु को देख रही थी और अभिमन्यु प्रेरणा को...तो अभी भी लिखते हो डायरी...अभिमन्यु थोडा सा मुस्कुरा जाता है...हाँ कभी कभी लिख लेता हूँ

प्रेरणा कहना चाहती थी की क्यों अपनी जिंदगी ख़राब कर रहे हो...पर वो कह नहीं पाती...कुछ भी कहने से पहले उसे हमेशा ख्याल आ जाता था कि वो ये हक़ तो कब का खो चुकी है...कॉफी ख़त्म हो जाती है...वो कहती है अच्छा अब चलती हूँ मुझे जल्दी जाना है...ह्म्म्म ठीक है चलो मैं भी चलता हूँ तुम्हें वहाँ छोड़ दूंगा...प्रेरणा नहीं चाहती थी कि अब और ज्यादा अभिमन्यु उससे मिले और दिल ही दिल में परेशां रहे...वो बहाना करती है नहीं उसे एक और काम है...वो चली जायेगी...अभिमन्यु ज्यादा जिद नहीं करता और उसे जाने देता है

वो कहते हैं ना कि कुछ रिश्ते एहसास से जुड़े होते हैं...जिनमें बंदिशें नहीं होती...पवित्रता और एक दूसरे से जुडाव ही एक दूसरे की तरफ खींच लेते हैं...वहाँ रिश्ता बनाना नहीं पड़ता...खुद ब खुद कायम हो जाता है...ऐसा ही रिश्ता था अभिमन्यु और प्रेरणा का रिश्ता...यूँ ही जब तब प्रेरणा और अभिमन्यु टकराने लगे...ना चाहते हुए भी मिल जाते...और बातें होती...वही एक दूसरे को देखना...महसूस करना और कुछ ना कहना...प्रेरणा के लिए तो अजीब दुविधा थी...उसने बहुत कुछ सहा था इन पिछले 5 सालों में...पहले अपना प्यारा खोया और फिर अपना सुहाग...और फिर पिछले अजीबो गरीब 4 साल...जो कैसे बीते वो तो बस प्रेरणा ही जानती थी

उस दिन अभिमन्यु प्रेरणा से मिला और उससे शाम को पास की ही पहाड़ी पर घुमाने के लिए कहा...प्रेरणा पहले तो मना करना चाहती थी लेकिन फिर उसके मन ने मना नहीं किया...शायद अब वो एक रिश्ते से जुड़ने लगी थी...उसने आने के लिए बोल दिया

शाम को दोनों उस पहाड़ी पर बैठे हैं...चारों और बादल घिर आते हैं...ठंडी ठंडी रूमानी हवा बह रही है...अभिमन्यु प्रेरणा से कहता है...याद है तुम्हें वो एक दिन जब हम यूँ ही इसी तरह पानी से भरे हुए बादलों के नीचे बैठे हुए थे...उस जगह जहां हम अक्सर मिलते थे...प्रेरणा अपने अतीत में चली जाती है जहाँ प्रेरणा अभिमन्यु के सीने पर सर रख कर बैठी हुई थी...और प्यारी प्यारी बातें करती थी...कितना सुखद और रूमानी था वो दौर...अचानक से प्रेरणा वापस लौट आती है...सच में...आज में...वो बस अभिमन्यु की तरफ देखती है...आप शादी क्यों नहीं कर लेते...कब तक यूँ ही घुटते रहोगे...कब तक माँ यूँ ही इंतजार करती रहेंगी...कब तक ये सब यूँ ही चलता रहेगा...कब तक अतीत में जीते रहोगे...मैं चाहती हूँ कि तुम खुश रहो...

अभिमन्यु हाथ की लकीरों को देखता है फिर हँसता सा है...ये सब किस्मत की बातें है...क्या तुम खुश रह सकीं...वो प्रेरणा की आँखों में देखता है...उसकी आँख भर आती है...इसीलिए शायद मेरी किस्मत में भी ये सब नहीं...बादल आज कुछ मेहरबान हो चले...ठीक उसी पल बारिश भी होने लगती है जब प्रेरणा की आँखों से आँसू बहने लगते हैं...प्रेरणा उठकर जाने लगती है...अभिमन्यु उसका हाथ पकड़ लेता है...मैं भी तुम्हें खुश देखना चाहता हूँ...यूँ घुट घुट कर मरते हुए नहीं...और पास खींच लेता है...इतना पास कि दोनों के बीच बस मामूली सा फासला है...मुझसे शादी करोगी...प्रेरणा उसकी आँखों में देखती रह जाती है...काफी देर तक देखती रहती है...फिर अचानक से...नहीं मैं शादी नहीं करना चाहती...और खुद को छुडा लेती है...मुझे पता था कि आप मुझसे मिलते रहोगे और एक दिन ऐसा कुछ होगा...और मुझ पर एहसान करने की सोचोगे...मैं जा रही हूँ...प्रेरणा चली जाती है...अभिमन्यु वहीँ बारिश में खड़ा खड़ा भीगता रहता है...उसकी आँखों से भी पानी बरस रहा था...

दिन बीत जाते हैं...लगभग 1 महीना हो जाता है प्रेरणा उसे नहीं मिली...अभिमन्यु थोडा चिंता में आ जाता है...एक रोज़ वो मार्केट गया हुआ था तभी वो तांगे वाला मिलता है...अरे साहब आप यहाँ...अभिमन्यु उसे पहचान जाता है....क्यों क्या हुआ...अरे वो मेमसाहब तो हॉस्पिटल में भर्ती हैं...अभी अभी उन्हें छोड़ कर आ रहा हूँ...अभिमन्यु अपने हाथ से सिगरेट फेंकता है....कहाँ, किस हॉस्पिटल में ?...वो कहता है चलो मैं आपको छोड़ देता हूँ...

हॉस्पिटल में पहुँच अभिमन्यु प्रेरणा के कमरे में पहुँचता है...वो बिस्तर पर थी...उसे इस हालत में देखकर उसकी आँखें गीली हो गयी...उसके पास एक टीचर थी...वो खामोशी से वहीँ पास ही बैठ जाता है...वो टीचर से पूँछता है क्या हुआ...अरे मैडम की तबियत काफी दिनों से ख़राब थी...शायद पीलिया है और ऊपर से नीद नहीं आती तो नीद की गोली खाती हैं...सब कुछ उल्टा पुल्टा हो गया...बस जैसे तैसे यहाँ लेकर आ रहे हैं...अभिमन्यु इतना दुखी कभी नहीं था...वो सोचता है प्रेरणा ने कभी बताया भी नहीं...

2-3 घंटे बाद वो मैडम से बोलता है आप जाइए...मैं यहाँ सब संभाल लूँगा....मैडम बताती हैं कि उन्होंने इनके पिताजी के पास फ़ोन कर दिया है वो कल तक आ जायेंगे...अभिमन्यु लगातार यूँ ही प्रेरणा के पास बैठा रहता है...अगले 2-3 घंटे में प्रेरणा को होश आता है...अभिमन्यु को सामने देखकर वो उसे देखती रह जाती है...अरे आप...बस कुछ बोलो मत तुम मुझसे....तुमने इस काबिल भी नहीं समझा कि मैं तुम्हारी इस हालत में तुम्हरे साथ रह सकूं...प्रेरणा खामोशी से सब सुनती रहती है...अभिमन्यु की आँखों से आँसू बह रहे थे और वो अपने दिल की सारी बातें कहे जा रहा था...वो मैंने सोचा...प्रेरणा कुछ कहना चाहती है...हाँ बस अब कुछ कहने की जरूरत नहीं...कहते हुए अभिमन्यु उसे रोक देता है

अभिमन्यु सारी रात जाग जाग कर उसकी देखभाल करता है...अगले रोज़ शाम तक ठाकुर साहब आ जाते हैं...वो अभिमन्यु को देखकर चौकं जाते हैं...पर आज उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं था...वो एक हारे हुए खिलाडी थे...उनके सारे पासे उल्टे जो पड़े थे...उन्होंने प्रेरणा को देखा उस से बात की...अब उस कमरे में तीन वो इंसान थे जो एक दूसरे की जिंदगी से जुड़े हुए थे....एक इंसान की वजह से तीनो की जिंदगी आज इस मुकाम पर थी...कई बार प्रेरणा के पिताजी अभिमन्यु को धन्यवाद कहना चाहते और अपने किये की माफ़ी माँगना चाहते...पर रुक जाते...7-8 दिन तक अभिमन्यु यूँ ही प्रेरणा की देखभाल करता रहा...इतनी देखभाल और उसकी फिक्र तो उसके पिताजी भी नहीं कर पाते...उसके पिताजी को बार बार यही ख्याल आता...हर रोज़ प्रेरणा अभिमन्यु को अपनी आँखों के सामने देखती...अपनी देखभाल करते देखती...आज उसके दिल में कोई ऐसी बात नहीं थी कि कुछ भी गलत सोच सके...आज उसे उस दिन पहाड़ी पर अपने किये हुए बर्ताव पर मलाल हो राह था...कि वो कितना गलत सोचती थी...अभिमन्यु से ज्यादा उसे कभी किसी ने चाह ही नहीं और ना कोई चाह सकता...आज उसकी समझ में आ गया था

अभिमन्यु दिन के समय कहीं बाहर कुछ दवाइयाँ लेने गया हुआ था...उसकी ऑफिस से चपरासी आता है जो उसकी माँ की चिट्ठी लाता है...माँ की लिखी हुई चिट्ठी थी...प्रेरणा से रहा नहीं गया...प्रेरणा चिट्ठी खोल कर पढने लगती है...चिट्ठी पढ़कर पता चलता है कि माँ उसे घर आने को बोल रही हैं और अभिमन्यु के किये हुए वादे को पूरा करने के लिए कह रही हैं....कि अबके बार अगर आपको कोई लड़की पसंद आती है तो वो उसे माँ के साथ देखने जाएगा...प्रेरणा चिट्ठी पढ़कर रख देती है और उसके मन में ख्याल आता है कि वो क्यों अभिमन्यु के रास्ते में आये...क्यों वो पहले से ही शादी कर चुकी लड़की से शादी करे...क्यों वो एक विधवा से शादी करे...इसी पशोपेश में वो तमाम बातें बुन लेती है...अभिमन्यु के लौटने पर वो बताती है कि माँ कि चिट्ठी आई है...पर यह नहीं बताती कि उसने पढ़ी है...1-2 रोज़ में प्रेरणा की हॉस्पिटल से छुट्टी हो जाती है...प्रेरणा के पिताजी भी जाने के लिए होते हैं

प्रेरणा के पिताजी प्रेरणा के हॉस्टल से जाने के बाद अभिमन्यु के पास जाते हैं और अभिमन्यु से अपने किये हुए की माफ़ी मांगते हैं...और बहुत शर्मिंदा होते हैं...वो जान चुके थे कि उन्होंने अपनी बेटी और अभिमन्यु का दिल दुखाया है...दोनों की जिंदगी तबाह की है...आज वो जान चुके थे कि ये जात, ये धर्म सब दुनिया की बनायीं हुई बातें हैं...रखा इनमें कुछ नहीं...कुछ भी नहीं...और अंत में वो अभिमन्यु से विदा लेते हुए जाने लगते हैं...अभिमन्यु उन्हें स्टेशन तक छोड़ कर आता है...

अगले 2 रोज़ बाद अभिमन्यु प्रेरणा की खबर लेने जाता है कि अब वो कैसी है...जब वो वहाँ पहुँचता है तो उसे पता चलता है कि वो तो वहाँ से चली गयी...अभिमन्यु सोच में पड़ जाता है कि वो बिना बताये कैसे चली गयी...साथ ही साथ बहुत गुस्सा भी आता है...कोई ठीक ठीक पता भी नहीं था किसी को कि कहाँ गयी है...कई रोज़ बीत जाते हैं हर रोज़ अभिमन्यु वहाँ जाये और कोई खबर ना मिले...जब करीब एक हफ्ता बीत जाता है और फिर भी कोई खबर नहीं मिलती तो वो निर्णय लेता है प्रेरणा के घर जाने का...

अभिमन्यु प्रेरणा के घर जाता है वहाँ उसका भाई और उसके पिताजी मिलते हैं...उसके पिताजी बड़े प्यार से उसे अन्दर बैठा हाल चाल पूंछते हैं...और जब अभिमन्यु उनसे प्रेरणा के बारे में पूँछता है तो वो खामोश हो जाते हैं...उसके जिद करने पर वो हकीकत बताते हैं कि किस तरह उसकी चिट्ठी प्रेरणा ने पढ़ी और अब वो तुम्हारे और तुम्हारी शादी के बीच नहीं आना चाहती...वो जानती है कि जब तक वो वहाँ रहती तुम कहीं शादी नहीं करोगे...इसी लिए वो अपनी किसी सहेली के यहाँ चली गयी है...किस सहेली के यहाँ ये उसने हमे नहीं बताया...बस कह गयी है कि मैं ठीक रहूंगी...अभिमन्यु की आँखों से आँसू बह आते हैं और वो अपने दिल का हाल बताता है कि वो हमेशा से प्रेरणा से ही प्यार करता था और तब भी उससे शादी करना चाहता था और आज भी उससे शादी करना चाहता है...प्रेरणा के पिताजी का दिल भर आता है...पागल लड़की पता नहीं क्या क्या सोचती रहती है...

वो अभिमन्यु को वादा करते हैं कि जैसे ही उसकी खबर आएगी वो उसे बता देंगे...अभिमन्यु उनसे कह कर जाता है कि वो वहीँ वापस जा रहा है वो वहीँ पर प्रेरणा का इंतजार करेगा...क्या पता प्रेरणा वहाँ आ जाये...और जो मैं ना मिला तो फिर...दिन बीत गए...हर रोज़ के साथ एक नयी उम्मीद बनती और फिर रात के साथ वो उम्मीद टूट जाती...दिन महीने में बदल गए...करीब 6 महीने बीत चुके थे....

कौन सोचता है कि ऊपर वाले ने क्या सोच रखा हो आपके लिए...अभिमन्यु तो कभी नहीं सोच सकता था...कभी भी नहीं...आज वो माँ से मिलकर लौटा था...वही स्टेशन था...वही बैंच...वो बैठ जाता है...बस वो था और वो खाली पड़ी बैंच...वो सिगरेट निकालता है, जलाता है और धुंआ उड़ाता है...चारों और फैला हुआ धुंआ...वो धुंआ अजीबो गरीब शक्लें बना रहा था...कभी रोने की तो कभी हंसने की...अभिमन्यु गर्दन झुका कर बैठ जाता है...एक अंतहीन सोच में डूबा हुआ...बिल्कुल खामोश...वक़्त कितना बीत गया उसे पता ही नहीं...तभी ट्रेन की आवाज़ होती है...कोई उतरा है उसमें से...पर अभिमन्यु वैसे ही गर्दन झुकाए बैठा हुआ है...हाथ में सिगरेट जल रही है...उसके पास कोई आता है...उस हाड कपाने वाली ठण्ड में जिसका अभिमन्यु को एहसास नहीं हो रहा था...एक शौल कोई उसके कन्धों पर डालता है....वो गर्दन उठाता है...वो कोई और नहीं प्रेरणा थी...वही चेहरा...वही खामोशी...पर आज उस पर सवाल नहीं थे...आज वो चेहरा बिल्कुल वैसा ही था जैसा वो पहले कभी देखा करता था...जब प्रेरणा सिर्फ उसकी हुआ करती थी...तुम...बस इतना निकला अभिमन्यु के मुंह से...मुझे माफ़ कर दो 'अभी' मैंने आपको हमेशा गलत समझा...और वो उस दिन जब...अभिमन्यु उठता है और प्रेरणा के गाल पर एक चांटा खींच कर मारता है...तुमने सोच भी कैसे लिया...प्रेरणा अभिमन्यु के सीने से लिपट जाती है...मुझे माफ़ कर दो...अब जिंदगी भर फिर कभी ऐसा नहीं सोचूंगी...अभिमन्यु कहता है पक्का...हाँ बिल्कुल पक्का...फिर दोनों एक दूजे से लिपट कर काफी देर तक रोते रहते हैं

अब वही बैंच है और दोनों बैठे हुए हैं...अभिमन्यु प्रेरणा के गले में हाथ डाल कर बैठा हुआ है...फिर वो सिगरेट निकालता है...जलाता है...धुंआ छोड़ता है...आज चाँद अपने शबाब पर है...आज चाँदनी रात है शायद...प्रेरणा बोलती है...अच्छा 'अभी' एक बात कहूँ...ह्म्म्म्म...आप सिगरेट पीते हुए बिल्कुल अच्छे नहीं लगते...सच्ची...हाँ सच्ची...पक्की-पक्की...हाँ बाबा पक्की-पक्की...और प्रेरणा, अभिमन्यु के हाथ से सिगरेट लेकर फेंक देती है...आज से सिगरेट बिल्कुल बंद...अरे...अरे...ये अच्छी दादागीरी है...अभिमन्यु बोलते हुए हँसता है...और प्रेरणा भी हँस देती है...अभिमन्यु प्रेरणा को एक बार फिर से गले लगा लेता है...

"कितने ही चाँद-सितारे देखे थे मैंने इन बीती लम्बी रातों में
हर रात काली और उदास ही नज़र आई मुझे

आज चाँद भी मेरा है और चाँदनी भी मेरी"

शनिवार, 23 जनवरी 2010

झूठा सच बनाम समाजशास्त्र---[कहानी ] ---"अनिल कान्त जी"

मास्टर जी कक्षा में ब्लैक बोर्ड के सामने हाथ में डंडा पकड़े हुए किसी चुनाव में दिए जाने वाले भाषण के समय मंत्री की तरह दहाड़ रहे हैं और ख़ुद को शेर से कम नहीं समझते हुए पूँछ रहे है कि बताओ "कि सतहत्तर, अठहत्तर और उनहत्तर में से कौन सी संख्या बड़ी है ।" सब बच्चों को ऐसे सांप सूंघ गया जैसे कि जिला अधिकारी की बैठक में भाग लेने वाले नीचे के अधिकारी और बाबुओं को सूंघ जाता है.

मास्टर जी फिर से दहाड़ते हैं कि "क्यों खाने के वक्त तो ये मुंह बड़ी जल्दी खुल जाता है ? सबेरे सबेरे आ जाते हो अपनी अपनी नाँद भर भर के और अब देखो तो किसी का मुँह नहीं खुल रहा है ।" कक्षा में उपस्थित ज्यादातर बच्चे उंघाह रहे हैं, कुछ जम्हाई ले रहे हैं, जैसे कि किसी मंत्री के लंबे दिए जाने वाले भाषण में किए हुए वादों के वक्त उनके सहयोगी साथीगण ये सोच जम्हाई लेते रहते हैं कि कर दो भाई जितने वादे करने हैं, कौन सा पूरा करना है ? जो मन में आए बस बक दो फटाफट.

मास्टर जी एक बच्चे को खड़ा कर लेते हैं, इशारा करते हुए बोलते हैं "हाँ भाई तुम" उसके अगल बगल वाले बच्चे ख़ुद की तरफ़ देखते हैं फिर मास्टर जी की तरफ़ और ये सोच डरते हैं कि कहीं हमें खड़ा तो नहीं कर रहे । हाँ तुमसे ही कहा रहा हूँ " क्या नाम है तुम्हारा श्याम ?" वो लड़का खड़ा हो जाता है और बोलता है "नहीं मास्साब, रामभरोसे" सुनकर मास्टर जी बोलते हैं "अब जब तुम्हारा नाम ही रामभरोसे है तो तुम्हें क्या ख़ाक पता होगा, पर उस दिन तो तुमने अपना नाम श्याम बताया था" लड़का खड़ा खड़ा कहता है "नहीं मास्साब, मेरा नाम रामभरोसे ही है ।" मास्टर जी उसे घूरते हुए कहते हैं "अच्छा अच्छा, ठीक है-ठीक है । क्या नाम है तुम्हारे पिताजी का ?" लड़का बोलता है "जी रामलाल" मास्टर जी बोलते हैं "तुम रामभरोसे और वो रामलाल, बड़ा प्यार है राम से, तुम्हारी अम्मा का क्या नाम है ?" लड़का बोलता है "जी रामदुलारी और बाबा का रामदीन, चाचा का रामसनेही, रामकिशोर, रामदयाल, राम पाल" मास्टर जी चिढ़ते हुए बोलते हैं "रुक क्यों गया और कोई रह गया तो उसका भी बता दे" तो वो शुरू हो जाता है "रामकटोरी हमारी दादी, रामबिटिया, रामवती हमारी बहने" तब तक मास्टर जी चिल्लाते हैं "अब चुप बैठेगा कि दूँ एक खींच के, पूरा का पूरा घर राम से जुड़ा हुआ लगता है, जरूर ये उस शास्त्री का किया धारा होगा उसी के खानदान ने तुम लोगों के ये नाम धरे होंगे"

मास्टर जी फिर से एक बच्चे की तरफ़ इशारा करते हुए कहते हैं "हाँ तुम बताओ, कौन सी संख्या बड़ी है ?" लड़का खड़ा खड़ा सिर खुजलाने लगता है, कभी ऊपर देखता है और फिर कभी नीचे। तब तक मास्टर जी कहते हैं "ऊपर क्या तुम्हारे दद्दा लिख कर छोड़ गए हैं कि कौन बड़ा है, आ जाते हैं बिना मुँह धोये पढने, रात का बचा हुआ जो भी होता है भर आते हो तेंटुये (गले) तक और यहाँ आकर सोते रहते हो दिन भर" कुछ देर में मास्टर जी के हाथों 4-6 बच्चे ठुक चुके होते हैं फिर मास्टर जी दहाड़ते हुए ऐसे बताते हैं कि ये सिर्फ़ उन्हें ही पता था कि "अठहत्तर बड़ी है गधों"

थोड़ी देर बाद मास्टर जी दूसरी कक्षा में पहुँच कहते हैं कि "दहेज़ प्रथा के ऊपर जो निबंध लिख कर लाने को कहा था वो सब अपनी अपनी कापियाँ दिखाओ" सब बच्चे अपनी अपनी कापियाँ जमा कर देते हैं । मास्टर जी यूँ ही कोई भी काँपी उठा कर देखने लग जाते हैं, थोड़ी देर पढ़ते हैं और फिर कहते हैं "किसकी है ये काँपी ?" नाम पढ़ते हैं और चिल्लाते हैं कि "खड़े हो जाओ", लड़का खड़ा हो जाता है । मास्टर जी कहते हैं "ये क्या लिख रहे हो तुम, कुछ भी अंट शंट, दहेज़ प्रथा बहुत जनम जनम पुरानी प्रथा है, मेरे बापू मुझे रोज़ उलाहना देते हैं कि तू जितना चाहे मौज उड़ा ले . तेरे ब्याह के बखत तेरे दहेज़ में सब वसूल लूँगा । रामदीन के लड़के को बहुत अच्छा दहेज़ मिला है । वो रोज़ अपनी फटफटिया पर बाजार जाता है । जिस किसी की शादी में जितना दहेज़ आता है उसके लगन में उतनी ही अधिक बन्दूक से गोलियां चलती हैं, पिछले साल ही रामधन के लड़के के लगन के बखत गोली चल जाने से छत पर खड़ा बिर्जुआ ढेर हो गया था । जब लगन के बखत दहेज़ न मिले तो फेरे के बखत नाटक करने से बचा हुआ दहेज़ मिल जाता है । पर रामकिशोर के लड़के की शादी के बखत पूरी बारात को बाँध के डाल लिया था, जैसे तैसे उन्होंने छोड़ा और शादी भी नहीं की । वो तो नाक कट रही थी इस कारण उसी गाँव की कोई दूसरी लड़की से चट मंगनी और पट ब्याह कर डाले। हम भी सोचत हैं कि जल्दी से हमारा भी लगन हो जाए तो हम भी फटफटिया घुमाए पूरे गाँव में । " मास्टर जी उस लड़के के मुँह पर काँपी फैंक कर मारते हैं और उसे पास बुलाकर 8-10 खींच खींच के रसीद करते हैं, थोड़ी देर में वो रोता, भुनभुनाता, चुपचाप होकर अपनी जगह बैठ जाता है ।

मास्टर जी दूसरी काँपी उठाते हैं, थोड़ी देर पढ़ते हैं और फिर नाम पुकार कर खड़ा करते हैं । उसकी शक्ल की तरफ़ देखते हैं और कहते हैं "तुम वही रामदीन दूधवाले के लड़के हो ।" वो मुँह फाड़ कर खुश होते हुए बोलता है "हाँ उन्हीं का हूँ ।" मास्टर जी कहते हैं "कि तुमने ये क्या बकवास लिखा है । दहेज़ प्रथा हमारी संस्कृति है । इस प्रथा की वजह से हमारा पूरे संसार में बहुत नाम है । दहेज़ लेकर रामलखन, रामपाल, रामसुंदर, रामनिवास सबके सब गुलछर्रे उड़ा रहे हैं । उन्हें दहेज़ में बहुत मोटी रकम मिली तो अब वो जी खोल के ताश पत्ता खेलते हैं, पिच्चर देखते हैं, फटफटिया घुमाते हैं और बीडी पीकर मस्त रहते हैं । बापू कहते हैं कि दहेज़ तो लेना पड़ता है, नहीं तो समाज में हमारी नाक न कट जायेगी, कि देखो तो रामसिंह के लड़के को फूटी कौड़ी नहीं मिली, पूरा नाम मिटटी में मिल जाएगा और फिर पूरी जिंदगी तुझे अपनी उस लुगाई को बैठालकर खिलाना भी तो पड़ेगा । तो दहेज़ तो लेना ही पड़ता है बेटा । बापू सोचते हैं कि मेरे लगन में फटफटिया तो मिलेगी ही मिलेगी और 4-6 भैंस भी मिल ही जायेंगी । मैं भी सोच रहा हूँ कि जल्द से जल्द लगन हो तो फटफटिया लेकर खूब मौज उड़ायें और उन भैंसों का दूध बेचने बाजार जाएँ।" मास्टर जी गुस्से में आकर उस लड़के के पास पहुँच कर उसकी डंडे से सुताई कर देते हैं।

मास्टर जी फिर उन्हें समझाते हैं कि दहेज़ लेना बहुत बुरी बात है और ये हमारे समाज पर एक कलंक है । यह हमारे समाज को अन्दर ही अन्दर खोखला कर रहा है । इसी दौरान गाँव के रामसुख चाचा आ जाते हैं और वो मास्टर जी को इशारा करके बाहर बुलाते हैं । मास्टर जी बाहर जाते हैं तो रामसुख चाचा कहते हैं "कि पल्ले गाँव के कृष्णचंद जी आए है अपनी लड़की का रिश्ता आपके लड़के के लिए लेकर ।" मास्टर जी कहते हैं कि "वो तो पहले भी आ चुके हैं, मैंने उन्हें पहले ही इशारों ही इशारों में बता दिया था कि उतने कम पैसे में मैं अपने लड़के का लगन नहीं करूँगा, आख़िर हमारी भी कोई इज्ज़त है ।" रामसुख चाचा कहते हैं "अरे मैं इस बार उन्हें सब समझा लाया हूँ, वो सब मान गए हैं और जितना तुम चाहते हो उतना दहेज़ दे देंगे, बाकी चिंता काहे करते हो, हम हैं ना । " मास्टर जी मुस्कुरा जाते हैं ।