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रविवार, 14 जून 2009

डर आतंक का

आतंक के उत्पात से,हिंसा की हिंसात्मक राहों सेथक-हार कर निकला,शांति की खोज में,प्रेम, अहिंसा की चाह में।भटकता रहा दरबदर,पर ये न आये नजर,सोचा....कहीं इनकोकत्ल न कर दिया गया हो?पर मन...ये व्याकुल मनन माना ये अखण्ड सत्य।जो स्वयं सत्य हैवही असत्य है।थक-हार करएक निर्जन कोने में बैठ करमन को टटोला,तो....किसी सूने कोने मेंप्रेम, अहिंसा, शांति को पाया।गाँधी के तीन बंदरों की तरहएक साथ थे,घायल पड़े थे,कराह रहे थे।किसी तरहमेरे आने का सबब पूछा।मैंने उन्हेंअपना मन्तव्य बताया,हर तरह से,हर तरफ सेमची हिंसा कोशांत करने के लिएसाथ चलने को कहा,पर....भय से पीले पड़ेचेहरों...