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शुक्रवार, 21 मई 2010

गर चाहते हो ...........(कविता)...........संगीता स्वरुप

दिया तोजला लिया हैहमने ज्ञान कापर आँख मेंमोतियाबिंदलिए बैठे हैं .रोशनी की कोईमहत्ता नहींजब मन में अन्धकारकिये बैठे हैं .आचार है हमारे पासपरव्यवहार की कमी हैचाहते हैं पानाबहुत कुछपर हम मुट्ठीबंद किये बैठे हैं .चाहते हैंसिमट जायेहथेलियों मेंसारा जहाँजबकिहम खुद हीकर - कलमकिये बैठे हैं .चाहते हैं पानानेह कीसुखद अनुभूतिलेकिनहृदय - पटलबंद किये बैठे हैं ..गर चाहते हो किऐसा सब होतो --खोल दोसारे किवाड़आने दो एकशीतल मंद बयारमन - आँगनबुहार दोनयन खोलदिए मेंतेल डाल दोमोतियाबिंदहटा दोहृदय के पट खोलोप्रेम को बांटोबाहें फैलाओऔर जहाँ को समेट लो .....**********...

विचारो का सूरज {कविता} सन्तोष कुमार "प्यासा"

कुछ दिन पहले मैंने न लिखने का निर्णय लिया था ! जिसे निभा नहीं पाया और फिर से उठा ली कलम ! विचारो का सूरज विपत्तिओं की बदली में खो गया छुप गए शब्द सुनकर आशंकाओं की गडगडाहट भावनाओं की तीव्र वृष्टि बहा ले गई सारे सन्दर्भ डरा सहमा है मन सोंचता है अब बचा भी क्या है क्या लिखूं ? कैसे लिखूं ? किसके लिए लिखूं ? शायद खुद से हार चुका है मन एक अर्थहीन निर्णय लिया मन ने निर्णय, न लिखने का ! पर पता नहीं क्यूँ कुछ दिन भी कायम न रह सका निर्णय पर लोगों की बातें बिच्छु की भांति डंक मार रही हैं कुछ अनजाने विचार कौंधते है मन में...