शाम की छाई हुई धुंधली चादर से ढ़क जाती हैं मेरी यादें ,बेचैन हो उठता है मन,मैं ढ़ूढ़ता हूँ तुमको ,उन जगहों पर ,जहां कभी तुम चुपके-चुपके मिलने आती थी ,बैठकर वहां मैंमहसूस करना चाहता हूँ तुमको ,हवाओं के झोंकों में ,महसूस करना चाहता हूँ तुम्हारी खुशबू को ,देखकर उस रास्ते कोसुनना चाहता हूँ तुम्हारे पायलों की झंकार को ,और देखना चाहता हूँ टुपट्टे की आड़ में शर्माता तुम्हारा वो लाल चेहरा ,देर तक बैठ मैं निराश होता हूँ ,परेशान होता हूँ कभी कभी , आखें तरस खाकर मुझपे,यादें बनकर आंसू उतरती है गालों पर ,मैं खामोशी से हाथ बढ़ाकर ,थाम लेता हूं उन्हें...