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रविवार, 8 मई 2011

माँ तुम्हें प्रणाम !.....................रेखा श्रीवास्तव, श्यामल सुमन


हमको जन्म देने वाली माँ और फिर जीवनसाथी के साथ मिलनेवाली दूसरी माँ दोनों ही सम्मानीय हैं। दोनों का ही हमारेजीवन मेंमहत्वपूर्ण भूमिका होती है।
इस मदर्स डे पर 'अम्मा' नहीं है - पिछली बार मदर्स डे पर उनकेकहे बगैर ही ऑफिस जाने से पहले उनकी पसंदीदाडिश बना कर दीतो बोली आज क्या है? शतायु होने कि तरफ उनके बड़ते कदमों नेश्रवण शक्ति छीन ली थी।इशारेसे ही बात कर लेते थे। रोज तो उनकोजो नाश्ता बनाया वही दे दिया और चल दिए ऑफिस।
वे अपनी बहुओं के लिए सही अर्थों में माँ बनी। उनके बेटे काफी उम्रमें हुए तो आँखों के तारे थे और जब बहुएँ आयींतो वे बेटियाँ होगयीं। अगर हम उन्हें माँ कहें तो हमारी कृतघ्नता होगी। वे दोनोंबहुओं को बेटी ही मानती थीं।
मैं अपने जीवन की बात करती हूँ। जब मेरी बड़ी बेटी हुई तभी मेराबी एड में एडमिशन हो गया। मेरा घरऔरकॉलेज में बहुत दूरी थी - घंटे लग जाते थे। कुछ दिन तो गयी लेकिन यह संभव नहीं होपा रहा था। कालेज के
पास घर देखा लेकिन मिलना मुश्किल था।किसी तरह से एक कमरा और बरामदे का घर मिला जिसमें खिड़कीथी और रोशनदान लेकिन मरता क्या करता? मेरीअम्मा ने विश्वविद्यालय की सारी सुख सुविधा वाले घर कोछोड़करमेरे साथ जाना तय कर लिया क्योंकि बच्ची को कौन देखेगा?
कालेज से लंच में घर आती और जितनी देर में बच्ची का पेट भरतीवे कुछ कुछ बनाकर रखे होती और मेरेसामने रख देती कि तू भीजल्दी से कुछ खाले और फिर दोनों काम साथ साथ करके मैं कॉलेजके लिए भागती।बेटी को सुला कर ही कुछ खाती और कभी कभी तोअगर वह नहीं सोती तो मुझे शाम को ऐसे ही गोद में लिएहुएमिलती . मैं सिर्फ पढ़ाई और बच्ची को देख पाती
मैं सिर्फ
पढ़ाई और बच्ची को देख पाती थी घर की सारी व्यवस्थामेरे कॉलेज से वापस आने के बाद कर लेती थी।मुझे कुछ भी पतानहीं लगता था कि घर में क्या लाना है? क्या करना है? वह समय भीगुजर गया। मेरी छोटी बेटी माह की थी जब मैंने आई आई टी मेंनौकरी शुरू की। घंटे होते थे काम के और इस बीच में इतनी छोटीको bachchi कों कितना मुश्किल होता है एक माँ के लिए शायदआसान हो लेकिन इस उम्र में उनके लिए आसान था लेकिन कभीकुछ कहा नहीं। ऑफिस के लिए निकलती तो बेटी उन्हें थमा करऔर लौटती तो उनकी गोद से लेती।
मैं आज इस दिन जब वो नहीं है फिर भी दिए गए प्यार और मेरेप्रति किये गए त्याग से इस जन्म
में हम उरिण नहीं हो सकते हैं मेरे सम्पूर्ण श्रद्धा सुमन उन्हें अर्पित
है

माँ......श्यामल सुमन


मेरे गीतों में तू मेरे ख्वाबों में तू,
इक हकीकत भी हो और किताबों में तू।
तू ही तू है मेरी जिन्दगी।
क्या करूँ माँ तेरी बन्दगी।।

तू न होती तो फिर मेरी दुनिया कहाँ?
तेरे होने से मैंने ये देखा जहाँ।
कष्ट लाखों सहे तुमने मेरे लिए,
और सिखाया कला जी सकूँ मैं यहाँ।
प्यार की झिरकियाँ और कभी दिल्लगी।
क्या करूँ माँ तेरी बन्दगी।।

तेरी ममता मिली मैं जिया छाँव में।
वही ममता बिलखती अभी गाँव में।
काटकर के कलेजा वो माँ का गिरा,
आह निकली उधर, क्या लगी पाँव में?
तेरी गहराइयों में मिली सादगी।
क्या करूँ माँ तेरी बन्दगी।।

गोद तेरी मिले है ये चाहत मेरी।
दूर तुमसे हूँ शायद ये किस्मत मेरी।
है सुमन का नमन माँ हृदय से तुझे,
सदा सुमिरूँ तुझे हो ये आदत मेरी।
बढ़े अच्छाईयाँ दूर हो गन्दगी।
क्या करूँ माँ तेरी बन्दगी।।

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

बच्चे की मदर----- मिथिलेश

कई दिनों से घर जाने की तैयारी चल रही थी और अब तो होली बस दो ही दिन दूर था। हमेशा की तरह इस बार भी घर जाने को लेकर मन बहुत ही उत्साहित था । भले ही अब घर जाने के बीच का अंतराल कम हो गया हो लेकिन घर पर एक अलग तरह का ही सुख मिलता है। घर पर न तो काम का बोझ और न ही खाना बनाने की चिंता, बर्तन और कपड़े धोना जो मुझे सबसे ज्यादा दुष्कर लगता है उससे भी छुटकारा मिल जाता है। घर पर बार-बार खाने को लेकर मम्मी का आग्रह उनका प्यार अच्छा लगता है। नहीं तो जब बाहर होते हैं तो खाना खा लें समय पे बड़ी बात है अब ये बात और है कि ये सारे सुख कुछ दिन के ही होते हैं। जब से लखनऊ हूं महीनें दो महीनें में एक चक्कर घर का तो हो ही जाता है। इस बार होली होने के कारण घर जाने का उत्साह दो गुना था। सुबह 7 बजे की ट्रेन थी, साढ़े छः के आस पास स्टेशन पहुंचा। मैं स्टेशन पर अभी ठिक से खड़ा ही हुआ अगले क्षण जो भी देखा मेरी ऑखें खुली की खुली ही रह गईं। जिस ट्रेन से मुझे जाना था वह अभी आउटर पर ही थी, लेकिन ये क्या लोग तो आउटर से ही ट्रेन पर बैठना शुरू कर दिये। थोड़ी देर तक स्थिति समझने में लगा रहा, उसके बाद मैं भी ट्रेन की तरफ भागा। अन्दर जाने के बाद जो स्थिति सामने थी उससे हतप्रभ था । पहली बार इस ट्रेन में इतनी भीड़ थी जबकि गाड़ी अभी आउटर पर ही थी। खैर इतनी भीड़ होने के बावजूद खिड़की के पास वाली सीट ढूंढने में लगा था।

डब्बे में काफी देर तक टहलने के बाद जब ये कनर्फम हो गया कि आज तो खिड़की वाली सीट मिलने से , सीटों की मारा मारी देखकर अब तो सीट मिल जाए यही प्राथमिकता शेष थी। काफी मशक्कत करने के बाद अन्ततः सीट मिल ही गई। हॉं इस बार खिड़की वाली सीट नही मिली। मेरे सामने वाले बर्थ पर भी इतनी जगह थी कि एक लोग उसपर बैठ सकते थे। कुछ देर बाद गाड़ी आउटर से प्लेटफार्म पर आ खड़ी हुई। अब काफी राहत महसूस कर रहा था , बैग को रखकर अब थोड़ा आराम के मूड में था। मुझे क्या पता कि मेरा ध्यान कुछ ही देर में भंग होने वाला है। ट्रेन का हार्न हो चुका था , गाड़ी अब चलने को ही थी तभी भागमभाग की स्थिति में एक महिला का मेरे वाले डब्बे में प्रवेश होता है, लोगों की नजरें उस रास्ते की ओर थी जिस ओर से वे सरपट कदम चले आ रहे थे । मैं भी बाट जोहने लगा , मैंने भी सोचा कौन आ रहा देख ही लिया जाए । अभी गर्दन उचका ही रहा था कि वह सुंदर मैडम मेरे पास आ पहुंची और जरा हटने के लिए कहा मैं डर के मारे बगल हो गया और मैडम जी मेरे सामने वाली खाली सीट बैठ गईं । मैडम का चेहरा सौम्य था ,पहनावे से बडे़ घर की लग रही थीं , ब्लू जींस पर ब्लैक टी शर्ट फब रहा था। अभी मैं पहनावे से उनको पढ़ने की कोशिश कर ही रहा था कि बच्चे के राने की आवाज आई , ऊपर सर उठा के देखा तो उनके गोदी में छोटा बच्चा जो करिब पॉंच छे महीनें का लग रहा था । अब तक मैडम जी अपने सीट पर बैठ चुकी थीं, मेरे सामने वाले सीट पर। बच्चा अभी सो रहा था। गाड़ी अब अपने पुरे स्पीड से भाग रही थी। कुछ देर चलने के बाद स्पीड थोड़ी कम हुई , मेरा अनुमान सही निकला , अगले स्टेशन पर गाड़ी रुकने वाली थी।

बच्चे ने झटके से दूध का बोतल गिरा दिया और दोबारा से रोने लगा। ये सब देखकर बगल में बैठी आंटीने दोबारा अपनी खामोशी तोड़ी, बेटी अपना दूध पिला दो कहते-कहते न जाने क्यों खामोश हो गईं। मैं बहुत देर तक उस खामोशी और चेहरे पर आई सिकन का कारण ढूंढ़ता रहा।


मेरे बगल में बैठे भाई साहब इसी स्टॉप पर उतरने के लिए तैयारी करने लगें, गाड़ी रुकती है भाई साहब उतर जाते हैं । तभी किसी ने मुझसे कहा बेटा जरा साईड हो जाओ ,देखा तो एक महिला साड़ी में जो मेरे दादी की उम्र की लग रहीं थी, एक छोटे बैग के साथ मेरे बगल वाली खाली सीट पर बैंठ गईं । कुछ देर के स्टोपेज के बाद ट्रेन दोबारा से चल पड़ी । सामने वाली मैडम के गोदी में उनका बच्चा सोते हुए बड़ा ही प्यारा लग रहा था। बगल में बैठी महिला ने मुझसे बेटा कहॉं तक जाओगे , मैंने कहा मैं तो वाराणसी तक जाऊंगा ,आप ? आंटी जी ने कहा कि मैं तो प्रतापगढ़ तक जाऊंगी , इस पर मैंने हूं कहते हुए गर्दन हिलाया ।
ट्रेन के कोलाहल के बीच सामनें वाले सीट पर अपनी मां के गोदी में आंचल ना सही किसी प्लास्टिक नुमा लीवास में दुनिया दारी से परे सो रहा मासूम सा बच्चा अचानक उठा और रोने से सबका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। कुछ देर तक मां के पुचकारने से वह चुप तो हुआ लेकिन बहुत देर तक शांत न रहा , रोना चलता रहा। ये सब देख बगल में बैठी आंटी से रहा न गया और उन्होंने बच्चे को दूध पिलाने का इशारा किया। कुछ देर तक सोचने के बाद मैडम ने दूध का पोटली बच्चे के मुंह में लगा दिया। बच्चे ने झटके से दूध का बोतल गिरा दिया और दोबारा से रोने लगा। ये सब देखकर बगल में बैठी आटी ने दोबारा अपनी खामोशी तोड़ी, बेटी अपना दूध पिला दो कहते-कहते न जाने क्यों खामोश हो गईं। मैं बहुत देर तक उस खामोशी और चेहरे पर आई सिकन का कारण ढूंढ़ता रहा।

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

एक गीत की वो आवाज़ .......................मुस्तकीम खान


एक गीत की वो आवाज़ जो जब किसी हिन्दुस्तानी के कानो मैं पड़ती है तोउसे बड़ा सुकून देती है

भारतीय संगीत की दुनिया मैं बड़े ही अद्व के साथ लिया जाने वालानाम पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी भारतीय संगीत-नभ के जगमगाते सदा लिए डूवचूका है अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वरसदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे.

सुर ताल को अपनी आवाज़ मैं बाँध केर गाने वाले पंडित जी अद्भुभूत तरीके सेगाते थे अलवेला सन यो रे ,,और ठुमक ठुमक पग कुमत कुञ्ज ,चपल चरणहरी आये सादे पहनावे, रहन-सहन और स्वभाव वाले भीमसेन जी को अपनेबारे में कहने में हमेशा संकोच रहा। यह मेरा सौभाग्य ही है पण्डित भीमसेनजोशी ने जहाँ एक ओर अपनी विशिष्ट शैली विकसित करके किराना घराने कोसमृद्ध किया, वहीँ दूसरी ओर अन्य घरानों की विशिष्टताओं को भी अपने गायनमें समाहित किया। उन्होंने राग कलाश्री और ललित भटियार जैसे नए रागों कीरचना भी की। उन्हें खयाल गायन के साथ-साथ ठुमरी, भजन और अभंगगायन में भी महारत हासिल थी। पंडित जी ने कई फिल्मो मैं अपनीअनमोल गायन प्रतिभा का योगदान दिया है - 'ठुमक ठुमक पग कुमत कुञ्जमग, चपल चरण हरि आये ....'I इस फिल्म के संगीतकार जयदेव थे. फिल्म केइस गीत को १९८५ में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के लिए वर्ष का सर्वश्रेष्ठ गीत(पुरुष स्वर) के रूप में पुरस्कृत किया गया थाI पंडित जी भले ही आज हमारेसाथ नहीं हैं लेकिन उनकी मधुर स्वर्णिम आवाज़ हमेशा उनको हमारी आँखों मैं सदा के लिए जिन्दा रखेगी आज पंडित भीमसेन जोशी हमारे बीच मौजूदनहीं। लेकिन उनकी मधुर इस संसार को उनकी हमेसा याद दिलाती रहेगी

बुधवार, 26 जनवरी 2011

जरा याद इन्हे भी कर लें-----------मिथिलेश

गणतंत्र दिवस के अवसर पर इनके परवानों को तो याद किया ही जा रहा है, लेकिन उन गुमनाम हीरोज़ को भी याद करने की जरूरत है, जिन्होंने अपने तरीके से आजादी की मशाल जलाई।
ऐसे अवसर पर बङे लोगो को याद तो करते हैं, लेकिन इनके बिच कुछ नाम ऐसे भी है जिनको बहुत कम ही लोग जानते है। वहीं देखा जाये तो हमारे आजादी मे इनका योगदान कम नही है। इनका नाम आज भी गुमनाम है, लेकीन इन्होने जो किया वह काबिले तारीफ है। ये वे लोग जिन्होने आजादी के लिए बिगूल फुकंने का काम किया और ये लोग अपने काम मे सफल भी हुये। तो आईये इस गणतंत्र दिवस के शुभ अवसर पे इनको याद करें और श्रद्धाजंली अर्पित करें।

ऊधम सिंह----------ऊधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 में पंजाब के संगरूर ज़िले के सुनाम गाँव में हुआ। ऊधमसिंह की माता और पिता का साया बचपन में ही उठ गया था। उनके जन्म के दो साल बाद 1901 में उनकी माँ का निधन हो गया और 1907 में उनके पिता भी चल बसे। ऊधमसिंह और उनके बड़े भाई मुक्तासिंह को अमृतसर के खालसा अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। 1917 में उनके भाई का भी निधन हो गया। इस प्रकार दुनिया के ज़ुल्मों सितम सहने के लिए ऊधमसिंह बिल्कुल अकेले रह गए। स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में सन 1919 का 13 अप्रैल का दिन आँसुओं में डूबा हुआ है, जब अंग्रेज़ों ने अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में सभा कर रहे निहत्थे भारतीयों पर अंधाधुंध गोलियाँ चलायीं और सैकड़ों बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतार दिया। मरने वालों में माँओं के सीने से चिपके दुधमुँहे बच्चे, जीवन की संध्या बेला में देश की आज़ादी का सपना देख रहे बूढ़े और देश के लिए सर्वस्व लुटाए को तैयार युवा सभी थे।
इस घटना ने ऊधमसिंह को हिलाकर रख दिया और उन्होंने अंग्रेज़ों से इसका बदला लेने की ठान ली। हिन्दू, मुस्लिम और सिख एकता की नींव रखने वाले 'ऊधम सिंह उर्फ राम मोहम्मद आजाद सिंह' ने इस घटना के लिए जनरल माइकल ओ डायर को ज़िम्मेदार माना जो उस समय पंजाब प्रांत का गवर्नर था। गवर्नर के आदेश पर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड, एडवर्ड हैरी डायर, जनरल डायर ने 90 सैनिकों को लेकर जलियांवाला बाग़ को चारों तरफ से घेर कर मशीनगन से गोलियाँ चलवाईं .........ऊधम सिंह ने मार्च 1940 में मिशेल ओ डायर को मारकर जलियांवाला बाग हत्याकांड का बदला लिया। इस बाग में 4,000 मासूम, अंग्रेजों की क्रूरता का शिकार हुए थे। ऊधम सिंह इससे इतने विचलित हुए कि उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया और एक देश से दूसरे देश भटकते रहे। अंत में वह लंदन में इस क्रूरता के लिए जिम्मेदार गवर्नर डायर तक पहुंच गए और जलियांवाला हत्याकांड का बदला लिया। ऊधम सिंह को राम मोहम्मद सिंह आजाद के नाम से भी पुकारते थे। जो हिंदू, मुस्लिम और सिख एकता का प्रतीक है।

जतिन दास --------- जतिन को 16 जून 1929 को लाहौर जेल लाया गया। जेल में स्वतंत्रता सेनानियों के साथ बहुत बुरा सुलूक किया जाता था। जतिन ने कैदियों के साथ मानवीय व्यवहार करने की मांग पर भूख हड़ताल शुरू कर दी। जेल के कर्मचारियों ने पहले तो इसे अनदेखा किया, लेकिन जब भूख हड़ताल के 10 दिन हो गए तो जेल प्रशासन ने बल प्रयोग करना शुरू किया। उन्होंने जतिन की नाक में पाइप लगाकर उन्हें फीड करने की कोशिश की। लेकिन जतिन ने उलटी कर सब बाहर निकाल दिया और अपने मिशन से पीछे नहीं हटे। दिनांक 15 जुलाई को जेल सुप्रिंटेन्डेंट ने आई.जी (कारावास) को एक रिपोर्ट भेजी कि 14 जुलाई को भगत सिंह व दत्त को विशेष भोजन प्रस्तुत किया गया था, क्यों कि आई.जी (कारावास) ने ऐसा आदेश टेलीफोन पर दिया था। पर भगत सिंह ने उन्हें बताया कि वे विशेष भोजन तब तक स्वीकार न करेंगे, जब तक विशेष डाइट का वह मानदंड सरकारी गज़ट में प्रकाशित न किया जाएगा कि यह मानदंड सभी कैदियों के लिए है।

इस भूख हड़ताल में जतिन दास की स्थिति दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी। भगत सिंह साथियों से सलाह लेने के बहाने बोर्स्टल जेल जा कर सभी साथियों के स्वस्थ्य का समाचार पूछ लिया करते थे। उन्हें कभी नहीं लगता था कि वे अकेले हैं, बल्कि देश-भक्ति की एक ज्वाला थी, जो सब को सम्पूर्ण रूप से जोड़े रहती थी। इधर चिकित्सा अधिकारी ने रिपोर्ट दी कि दास की स्थिति बहुत चिंताजनक है। वे दवाई लेने तक से इनकार कर रहे हैं। एक डॉ. गोपीचंद ने दास से पूछा भी- आप दवाई तथा पानी क्यों नहीं ले रहे?
दास ने निर्भीक उत्तर दिया - मैं देश के लिए मरना चाहता हूँ... और कैदियों की स्थिति को सुधारने के लिए।

21 अगस्त को कांग्रेस के एक अन्य देशभक्त नेता बाबू पुरुषोत्तम दास टंडन ने दास को बहुत मनाया- दवाई ले लो। सिर्फ़ जीवित रहने के लिए। भले ही भूख हड़ताल न तोड़ो। मेरे कहने पर सिर्फ़ एक बार प्रयोग के तौर पर दवा ले लो, और पन्द्रह दिन तक देखो। अगर तुम्हारी मांगें नहीं मानी जाती, तो दवाई छोड़ देना।

दास ने कहा - मुझे इस सरकार में कोई आस्था नहीं है। मैं अपनी इच्छा-शक्ति से जी सकता हूँ। भगत सिंह ने दबाव डालना जारी रखा। इस पर दास ने केवल दो शर्तों पर दवाई लेना स्वीकार किया, कि दवाई डॉ. गोपीचंद ही देंगे। और कि भगत सिंह दोबारा ऐसा आग्रह नहीं करेंगे।
26 अगस्त को चिकित्सा अधिकारी ने रिपोर्ट दी कि दास की स्थिति अत्यन्त शोचनीय हो गई है। वे शरीर के निचले अंगों को हिला डुला नहीं सकते। बातचीत नहीं कर सकते, केवल फुसफुसा रहे हैं। और 4 सितम्बर को उनकी नब्ज़ को कमज़ोर व अनियमित बताया गया, उल्टियाँ हुई। 9 को नब्ज़ बेहद तेज़ हो गई। 12 को उल्टी हुई, नब्ज़ अनियमित... 13 सितम्बर, अपने अनशन के ठीक चौंसठवें दिन, दोपहर एक बज कर दस मिनट पर इस बहादुर सपूत ने भारत माँ की शरण में अपने प्राणों की आहुति दे कर इतिहास के एक पन्ने को अपने बलिदान से लिख डाला।
इस युवा देव-पुरूष के अन्तिम शब्द थे - मैं बंगाली नहीं हूँ। मैं भारतवासी हूँ। जी एस देओल ऊपर संदर्भित पुस्तक में जतिन दास की शहादत पर लिखते हैं -'ब्रिटिश के लिए ईसा मसीह भी शायद एक भूली-बिसरी कथा थे'। जिस प्रकार यीशु सत्य की राह पर सूली चढ़ गए, जतिन दास सत्य के लिए युद्ध करते करते शहीद हो गए।

विशाल भारत की तरह आयरलैंड जैसे छोटे-छोटे देश भी ब्रिटिश की पराधीनता का अभिशाप सह चुके थे। आयरलैंड के ही एक क्रांतिकारी युवा पुरूष टेरेंस मैकस्विनी ने भी जतिन दास की तरह ही शहादत दी थी। जतिन दास के जाने की ख़बर विश्व के अखबारों में छपी थी। इसे पढ़ कर मैकस्विनी की बहादुर पत्नी ने एक तार भेज कर लिखा - टेरेंस मैकस्विनी का परिवार इस दुःख तथा गर्व की घड़ी में सभी बहादुर भारतवासियों के साथ है। आज़ादी आएगी। जेल के बाहर कई कांग्रेसी नेताओं के नेतृत्व में असंख्य भीड़ जमा थी।

जतिन दास जिंदाबाद ... इन्किलाब जिंदाबाद के नारों से आसमान गूँज उठा। सुभाष चन्द्र बोस ने देश के इस सपूत को अपना सलाम भेजा। जतिन दास को पूरा देश नमन कर रहा था। अख़बार श्रद्धांजलियों से भरे थे। जतिन दास के भाई के.सी दास ने अपने भाई का पार्थिव शरीर प्राप्त किया जिसे लाहौर में एक भारी जुलूस के बीच कई जगहों से होते हुए रेलवे स्टेशन तक लाया गया। लाखों लोगों की आंखों में आंसू थे। आसमान फिर उन्हीं देश-भक्ति से ओत-प्रोत नारों से गूंजा था।

जतिन दास जिंदाबाद ... इन्किलाब जिंदाबाद

भीकाजी कामा--आजादी की लड़ाई में उन्‍हीं अग्रणियों में एक नाम आता है - मैडम भीकाजी कामा का। इनका नाम आज भी इतिहास के पन्‍नों पर स्‍वर्णाक्षरों से सुसज्जित है। 24 सितंबर 1861 को पारसी परिवार में भीकाजी का जन्‍म हुआ। उनका परिवार आधुनिक विचारों वाला था और इसका उन्‍हें काफी लाभ भी मिला। लेकिन उनका दाम्‍पत्‍य जीवन सुखमय नहीं रहा।

दृढ़ विचारों वाली भीकाजी ने अगस्‍त 1907 को जर्मनी में आयोजित सभा में देश का झंडा फहराया था, जिसे वीर सावरकर और उनके कुछ साथियों ने मिलकर तैयार किया था, य‍ह आज के तिरंगे से थोड़ा भिन्‍न था। भीकाजी ने स्‍वतंत्रता सेनानियों की आर्थिक मदद भी की और जब देश में प्‍लेग फैला तो अपनी जान की परवाह किए बगैर उनकी भरपूर सेवा की। स्‍वतंत्रता की लड़ाई में उन्‍होंने बढ़-चढ़कर हिस्‍सा लिया। वो बाद में लंदन चली गईं और उन्‍हें भारत आने की अनुमति नहीं मिली। लेकिन देश से दूर रहना उनके लिए संभव नहीं हो पाया और वो पुन: अपने वतन लौट आईं। सन् 1936 में उनका निधन हो गया, लेकिन य‍ह काफी दु:खद था कि वे आजादी के उस सुनहरे दिन को नहीं देख पाईं, जिसका सपना उन्‍होंने गढ़ा था
इन्होंने जर्मनी में रहकर आजादी की अलख जगाई। वहां भीकाजी ने इंटरनैशनल सोशलिस्ट कॉन्फ़रन्स में 22 अगस्त 1907 को भारतीय आजादी का झंडा फहराया। कॉन्फ़रन्स के दौरान झंडा फहराते हुए उन्होंने कहा कि यह झंडा भारत की आजादी का है।

रविवार, 23 जनवरी 2011

क्रांतिवीर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस -------मिथिलेश


यूँ तो नेताजी कब इस दुनिया को छोड़ गये यह आज भी रहस्य बना हुआ है लेकिन ऐसा मना जाता है कि18 अगस्त या 16 सितम्बर 1945 को आजादी के महानायक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की पुण्यतिथि है नेताजी 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में पैदा हुए । उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माँ का नाम प्रभावती देवी था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे। उन्होंने कटक की महापालिका में लंबे समय तक काम किया था और बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे। अंग्रेज सरकार ने उन्हें रायबहादुर के खिताब से नवाजा था। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल 14 संतानें थी, जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे। सुभाषचंद्र उनकी नौवीं संतान और पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरदचंद्र से था। शरदबाबू प्रभावती और जानकीनाथ के दूसरे बेटे थें। सुभाष उन्हें मेजदा कहते थें।

स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ाव

कोलकाता के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी देशबंधु चित्तरंजन दास के कार्य से प्रेरित होकर, सुभाष, दासबाबू के साथ काम करना चाहते थे। इंग्लैंड से उन्होंने दासबाबू को खत लिखकर, उनके साथ काम करने की इच्छा प्रकट की थी। वह रवींद्रनाथ ठाकुर की सलाह पर भारत वापस आए और सर्वप्रथम मुम्बई जा कर महात्मा गाँधी से मिले। मुम्बई में गाँधीजी मणिभवन में निवास करते थे। वहाँ, 20 जुलाई 1921 को महात्मा गाँधी और सुभाषचंद्र बोस के बीच पहली बार मुलाकात हुई। गाँधीजी ने भी उन्हें कोलकाता जाकर दासबाबू के साथ काम करने की सलाह दी। इसके बाद सुभाषबाबू कोलकाता आ गए और दासबाबू से मिले। दासबाबू उन्हें देखकर बहुत खुश हुए। उन दिनों गाँधीजी ने अंग्रेज सरकार के खिलाफ असहयोग आंदोलन चलाया था। दासबाबू इस आंदोलन का बंगाल में नेतृत्व कर रहे थे। उनके साथ सुभाषबाबू इस आंदोलन में सहभागी हो गए। 1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। विधानसभा के अंदर से अंग्रेज सरकार का विरोध करने के लिए, कोलकाता महापालिका का चुनाव स्वराज पार्टी ने लड़कर जीता। स्वयं दासबाबू कोलकाता के महापौर बन गए। उन्होंने सुभाषबाबू को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया। सुभाषबाबू ने अपने कार्यकाल में कोलकाता महापालिका का पूरा ढाँचा और काम करने का तरीका ही बदल डाला। कोलकाता के रास्तों के अंग्रेजी नाम बदलकर, उन्हें भारतीय नाम दिए गए। स्वतंत्रता संग्राम में प्राण न्यौछावर करनेवालों के परिवार के सदस्यों को महापालिका में नौकरी मिलने लगी।

बहुत जल्द ही, सुभाषबाबू देश के एक महत्वपूर्ण युवा नेता बन गए। पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ सुभाषबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत युवकों की इंडिपेंडन्स लिग शुरू की। 1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया, तब कांग्रेस ने उसे काले झंडे दिखाए। कोलकाता में सुभाषबाबू ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया। साइमन कमीशन को जवाब देने के लिए, कांग्रेस ने भारत का भावी संविधान बनाने का काम आठ सदस्यीय आयोग को सौंपा। पंडित मोतीलाल नेहरू इस आयोग के अध्यक्ष और सुभाषबाबू उसके एक सदस्य थे। इस आयोग ने नेहरू रिपोर्ट पेश की।

1928 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ। इस अधिवेशन में सुभाषबाबू ने खाकी गणवेश धारण करके पंडित मोतीलाल नेहरू को सैन्य तरीके से सलामी दी। गाँधीजी उन दिनों पूर्ण स्वराज्य की मांग से सहमत नहीं थे। इस अधिवेशन में उन्होंने अंग्रेज सरकार से डोमिनियन स्टेटस माँगने की ठान ली थी। लेकिन सुभाषबाबू और पंडित जवाहरलाल नेहरू को पूर्ण स्वराज की मांग से पीछे हटना मंजूर नहीं था। अंत में यह तय किया गया कि अंग्रेज सरकार को डोमिनियन स्टेटस देने के लिए, एक साल का वक्त दिया जाए। अगर एक साल में अंग्रेज सरकार ने यह माँग पूरी नहीं की, तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की मांग करेगी। अंग्रेज सरकार ने यह मांग पूरी नहीं की। इसलिए 1930 में जब कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में लाहौर में हुआ, तब ऐसा तय किया गया कि 26 जनवरी का दिन स्वतंत्रता दिन के रूप में मनाया जाएगा। 26 जनवरी 1931 के दिन कोलकाता में सुभाषबाबू एक विशाल मोर्चा का नेतृत्व कर रहे थे। तब पुलिस ने उनपर लाठी चलायी और उन्हे घायल कर दिया। जब सुभाषबाबू जेल में थे, तब गाँधीजी ने अंग्रेज सरकार से समझौता किया और सब कैदियों को रिहा किया गया। लेकिन अंग्रेज सरकार ने सरदार भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को रिहा करने से इन्कार कर दिया। भगत सिंह की फाँसी माफ कराने के लिए गाँधीजी ने सरकार से बात की। सुभाषबाबू चाहते थे कि इस विषय पर गाँधीजी अंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझौता तोड़ दें। लेकिन गाँधीजी अपनी ओर से दिया गया वचन तोड़ने को तैयार नहीं थे। अंततः भगत सिंह और उनके साथियों को फाँसी दे दी गयी। भगत सिंह को न बचा पाने के कारण सुभाषबाबू गाँधीजी और कांग्रेस के तौर-तरीकों से बहुत नाराज हो गए।

कारावास

अपने सार्वजनिक जीवन में सुभाषबाबू को कुल ग्यारह बार कारावास हुआ था। सबसे पहले उन्हें 1921 में छः महिने की जेल हुई। 1925 में गोपिनाथ साहा नामक एक क्रांतिकारी कोलकाता के पुलिस अधीक्षक चार्ल्स टेगार्ट को मारना चाहता था। उसने गलती से अर्नेस्ट डे नामक एक व्यापारी को मार डाला। इसके लिए उसे फाँसी की सजा दे दी गयी। गोपीनाथ को फाँसी होने के बाद सुभाषबाबू जोर से रोये। उन्होने गोपिनाथ का शव माँगकर उसका अंतिम संस्कार किया। इससे अंग्रेजों ने यह निष्कर्ष निकाला कि सुभाषबाबू ज्वलंत क्रांतिकारकों से न ही संबंध रखते हैं, बल्कि वे ही उन क्रांतिकारकों के नेता हैं। इसी बहाने अंग्रेज सरकार ने सुभाषबाबू को गिरफतार किया और बिना कोई मुकदमा चलाए, उन्हें अनिश्चित काल के लिए म्यांमार के मंडाले कारागृह में बंदी बनाया।

5 नवंबर 1925 को देशबंधू चित्तरंजन दास का कोलकाता में निधन हो गया। सुभाषबाबू ने उनकी मृत्यू की खबर मंडाले जेल में रेडियो पर सुनी। मंडाले कारागृह में रहते समय सुभाषबाबू की तबियत बहुत खराब हो गयी। उन्हें तपेदिक हो जाने के बावजूद अंग्रेज सरकार ने रिहा करने से इन्कार कर दिया। सरकार ने उन्हें रिहा करने के लिए यह शर्त रखी की वे इलाज के लिए यूरोप चलें जाए। लेकिन सरकार ने यह तो स्पष्ट नहीं किया था कि इलाज के बाद वे भारत कब लौट सकते हैं। इसलिए सुभाषबाबू ने यह शर्त स्वीकार नहीं की। आखिर में परिस्थिति इतनी कठिन हो गयी की शायद वे कारावास में ही मर जायेंगे। अंग्रेज सरकार यह खतरा भी नहीं उठाना चाहती थी, कि सुभाषबाबू की कारागृह में मृत्यु हो जाए। इसलिए सरकार ने उन्हे रिहा कर दिया। फिर सुभाषबाबू इलाज के लिए डलहौजी चले गए। 1930 में कारवास के दौरान ही सुभाषबाबू को कोलकाता का महापौर चुन लिया गया। इसलिए सरकार उन्हें रिहा करने पर मजबूर हो गयी।

1932 में सुभाषबाबू को फिर से कारावास हुआ। इस बार उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखा गया। अल्मोड़ा जेल में उनकी तबियत फिर खराब हो गयी। चिकित्सकीय सलाह पर सुभाषबाबू इस बार इलाज के लिए यूरोप जाने को राजी हो गए।यूरोप प्रवास 1933 से 1936 तक सुभाषबाबू यूरोप में रहे। यूरोप में भी आंदोलन कार्य जारी रखा। वहाँ वे इटली के नेता मुसोलिनी से मिले, जिन्होंने उन्हें, भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सहायता करने का वचन दिया। आयरलैंड के नेता डी. वॅलेरा सुभाषबाबू के अच्छे दोस्त बन गए। जब सुभाषबाबू यूरोप में थे, तब पंडित जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू का ऑस्ट्रिया में निधन हो गया। सुभाषबाबू ने वहाँ जाकर पंडित जवाहरलाल नेहरू को सांत्वना दिया। बाद में सुभाषबाबू यूरोप में विठ्ठल भाई पटेल से मिले। विठ्ठल भाई पटेल के साथ सुभाषबाबू ने पटेल-बोस विश्लेषण प्रसिद्ध किया, जिसमें उन दोनों ने गाँधीजी के नेतृत्व की बहुत निंदा की। बाद में विठ्ठल भाई पटेल बीमार पड गए, तब सुभाषबाबू ने उनकी बहुत सेवा की। मगर विठ्ठल भाई पटेल का निधन हो गया। विठ्ठल भाई पटेल ने अपनी वसीयत में अपनी करोडों की संपत्ती सुभाषबाबू के नाम कर दी। मगर उनके निधन के पश्चात, उनके भाई सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस वसीयत को स्वीकार नहीं किया और उस पर अदालत में मुकदमा चलाया। मुकदमा जीतकर पटेल ने सारी संपत्ति गाँधीजी के हरिजन कार्य को भेंट कर दी। 1934 में अपने पिता की मृत्यु की खबर पाकर सुभाषबाबू कोलकाता लौटे। कोलकाता पहुँचते ही अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और कई दिनों तक जेल में रखने के बाद वापस यूरोप भेज दिया।

कांग्रेस का अध्यक्ष पद

सन 1938 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हरिपुरा में होने का तय हुआ था। इस अधिवेशन से पहले गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सुभाषबाबू को चुना। यह कांग्रेस का ५१वां अधिवेशन था। इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष सुभाषबाबू का स्वागत 51 बैलों ने खींचे हुए रथ में किया गया। इस अधिवेशन में सुभाषबाबू का अध्यक्षीय भाषण बहुत ही प्रभावी हुआ। किसी भी भारतीय राजकीय व्यक्ती ने शायद ही इतना प्रभावी भाषण कभी दिया हो। अपने अध्यक्ष पद के कार्यकाल में सुभाषबाबू ने योजना आयोग की स्थापना की। पंडित जवाहरलाल नेहरू इस के अध्यक्ष थे।

कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा

1938 में गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना तो था, मगर गाँधीजी को सुभाषबाबू की कार्यपद्धति पसंद नहीं आयी। इसी दौरान यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाषबाबू चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर, भारत का स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाए। हालांकि, गाँधीजी उनके इस विचार से सहमत नहीं थे। 1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया, तब सुभाषबाबू चाहते थे कि कोई ऐसी व्यक्ति अध्यक्ष बन जाए, जो इस मामले में किसी दबाव के सामने न झुके। ऐसा कोई दूसरा व्यक्ति सामने न आने पर सुभाषबाबू ने खुद कांग्रेस अध्यक्ष पर बने रहना चाहा। लेकिन गाँधीजी अब उन्हें अध्यक्ष पद से हटाना चाहते थे। गाँधीजी ने अध्यक्षपद के लिए पट्टाभी सीतारमैय्या को चुना। रविंद्रनाथ ठाकुर ने गाँधीजी को पत्र लिखकर सुभाषबाबू को ही अध्यक्ष बनाने का निवेदन किया। प्रफुल्लचंद्र राय और मेघनाद सहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाषबाबू को फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। लेकिन गाँधीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। कोई समझौता न हो पाने के कारण कई वर्षों बाद पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हुआ।

सब यही जानता थे कि महात्मा गाँधी ने पट्टाभी सितारमैय्या का साथ दिया है इसलिए वह चुनाव आसानी से जीत जाएंगे। लेकिन वास्तव में हुआ इसके ठीक विपरीत, सुभाषबाबू को चुनाव में 1580 मत मिले जबकि पट्टाभी सीतारमैय्या को 1377 मत मिले। गाँधीजी के विरोध के बावजूद सुभाषबाबू 203 मतों से यह चुनाव जीत गए। मगर, बात यहीं खत्म नहीं हुई। गाँधीजी ने पट्टाभी सीतारमैय्या की हार को अपनी हार बताकर अपने साथियों से कह दिया कि अगर वें सुभाषबाबू की कार्यपद्धति से सहमत नहीं हैं तो वें कांग्रेस से हट सकतें हैं। इसके बाद कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू तटस्थ रहे और अकेले शरदबाबू सुभाषबाबू के साथ बने रहे। 1939 का वार्षिक कांग्रेस अधिवेशन त्रिपुरी में हुआ। इस अधिवेशन के समय सुभाषबाबू तेज बुखार से इतने बीमार पड़ गए थे, कि उन्हें स्ट्रेचर पर लेटकर अधिवेशन में आना पडा। गाँधीजी इस अधिवेशन में उपस्थित नहीं रहे। गाँधीजी के साथियों ने सुभाषबाबू से बिल्कुल सहकार्य नहीं दिया। अधिवेशन के बाद सुभाषबाबू ने समझौते के लिए बहुत कोशिश की। लेकिन गाँधीजी और उनके साथियों ने उनकी एक न मानी। परिस्थिति ऐसी बन गयी कि सुभाषबाबू कुछ काम ही न कर पाए। आखिर में तंग आकर 29 अप्रैल 1939 को सुभाषबाबू ने कांग्रेस अध्यक्षपद से इस्तीफा दे दिया।

फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना

3 मई 1939 को सुभाषबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। कुछ दिन बाद सुभाषबाबू को कांग्रेस से निकाल दिया गया। बाद में फॉरवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतंत्र पार्टी बन गयी। द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले से ही फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र करने के लिए जनजागरण शुरू कर दिया। इसलिए अंग्रेज सरकार ने सुभाषबाबू सहित फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओ को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सुभाषबाबू जेल में निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे। सरकार को उन्हें रिहा करने पर मजबूर करने के लिए सुभाषबाबू ने जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। मजबूर होकर सरकार को उन्हें रिहा करना पड़ा। मगर अंग्रेज सरकार यह नहीं चाहती थी कि सुभाषबाबू युद्ध के दौरान मुक्त रहें। इसलिए सरकार ने उन्हें उनके ही घर में नजरबंद कर दिया।

नजरबंदी से पलायन

नजरबंदी से निकलने के लिए सुभाषबाबू ने एक योजना बनायी। 16 जनवरी 1941 को वे पुलिस को चकमा देने के लिये एक पठान मोहम्मद जियाउद्दीन का भेष धरकर घर से भाग निकले। शरदबाबू के बडे़ बेटे शिशिर ने उन्हें अपनी गाड़ी से कोलकाता से दूर गोमोह तक पहुँचाया। गोमोह रेलवे स्टेशन से फ्रंटियर मेल पकड़कर वे पेशावर पहुँचे। पेशावर में उन्हे फॉरवर्ड ब्लॉक के एक सहकारी मियां अकबर शाह मिले। मियां अकबर ने उनकी मुलाकात कीर्ती किसान पार्टी के भगतराम तलवार से कराई। भगतराम तलवार के साथ में सुभाषबाबू पेशावर से अफ्गानिस्तान की राजधानी काबुल की ओर निकल पडे़। इस सफर में भगतराम तलवार, रहमतखान नाम के पठान बने थे और सुभाषबाबू उनके गूंगे-बहरे चाचा बने थे।

काबुल में सुभाषबाबू दो महिनों तक उत्तमचंद मल्होत्रा नामक एक भारतीय व्यापारी के घर में रहे। वहाँ उन्होंने पहले रूसी दूतावास में प्रवेश पाना चाहा। इस में नाकामयाब रहने पर उन्होंने जर्मन और इटालियन दूतावासों में प्रवेश पाने की कोशिश की। इटालियन दूतावास में उनकी कोशिश सफल रही। जर्मन और इटालियन दूतावासों ने उनकी सहायता की। आखिर में ओर्लांदो मात्सुता नामक इटालियन व्यक्ति बनकर सुभाषबाबू काबुल से निकलकर रूस की राजधानी मॉस्को होते हुए जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुँच गए।

हिटलर से मुलाकात

उन्होंने जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिंद रेडिओ की स्थापना की। इसी दौरान सुभाषबाबू नेताजी नाम से जाने जाने लगे। जर्मन सरकार के एक मंत्री एडॅम फॉन ट्रॉट सुभाषबाबू के अच्छे दोस्त बन गए।
आखिर, 29 मई 1942 को सुभाषबाबू जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले। लेकिन हिटलर को भारत के विषय में विशेष रूचि नहीं थी। उन्होंने सुभाषबाबू को सहायता का कोई स्पष्ट वचन नहीं दिया।
कई साल पहले हिटलर ने माईन काम्फ नामक अपना आत्मचरित्र लिखा था। इस किताब में उन्होंने भारत और भारतीय लोगों की बुराई की थी। इस विषय पर सुभाषबाबू ने हिटलर से अपनी नाराजी व्यक्त की। हिटलर ने अपने किये पर माँफी माँगी और माईन काम्फ की अगली आवृत्ति से वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया।
अंत में, सुभाषबाबू को पता चला कि हिटलर और जर्मनी से उन्हें कुछ और नहीं मिलनेवाला हैं। इसलिए 8 मार्च 1943 को जर्मनी के कील बंदर में अपने साथी आबिद हसन सफरानी के साथ एक जर्मन पनडुब्बी में बैठकर पूर्व आशिया की तरफ निकल गए। यह जर्मन पनदुब्बी उन्हे हिंद महासागर में मादागास्कर के किनारे तक लेकर आई। वहाँ वे दोनो खूँखार समुद्र में से तैरकर जापानी पनडुब्बी तक पहुँच गए। यह जापानी पनदुब्बी उन्हे इंडोनेशिया के पादांग बंदर तक लेकर आई।

पूर्व एशिया में अभियान

पूर्व एशिया पहुँचकर सुभाषबाबू ने सर्वप्रथम वयोवृद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सँभाला। सिंगापुर के फरेर पार्क में रासबिहारी बोस ने भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सुभाषबाबू को सौंप दिया। जापान के प्रधानमंत्री जनरल हिदेकी तोजो ने नेताजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्हें सहकार्य करने का आश्वासन दिया। कई दिनों पश्चात नेताजी ने जापान की संसद डायट के सामने भाषण किया।
21 अक्तूबर 1943 को नेताजी ने सिंगापुर में अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद (स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार) की स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। नेताजी आजाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बन गए। आजाद हिन्द फौज में जापानी सेना ने अंग्रेजों की फौज से पकडे़ हुए भारतीय युद्धबंदियोंको भर्ती किया। आजाद हिन्द फौज में औरतों के लिए झाँसी की रानी रेजिमेंट भी बनायी गयी। पूर्व एशिया में नेताजी ने जगह-जगह भाषण करके वहाँ भारतीय लोगों से आजाद हिन्द फौज में भर्ती होने और उसे आर्थिक मदद करने का आह्वान किया। उन्होंने अपने आह्वान में संदेश दिया- तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूँगा।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आजाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिए नेताजी ने चलो दिल्ली का नारा दिया। दोनों फौजों ने अंग्रेजों से अंदमान और निकोबार द्वीप जीत लिए। नेताजी ने इन द्वीपों का नाम शहीद और स्वराज द्वीप रखा। दोनो फौजो ने मिलकर इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। लेकिन बाद में अंग्रेजों का पलड़ा भारी पड़ा और दोनो फौजो को पीछे हटना पड़ा।
जब आजाद हिन्द फौज पीछे हट रही थी, तब जापानी सेना ने नेताजी के भाग जाने की व्यवस्था की। परंतु नेताजी ने झाँसी की रानी रेजिमेंट की लड़कियों के साथ सैकडों मिल चलते जाना पसंद किया। इस प्रकार नेताजी ने सच्चे नेतृत्व का एक आदर्श ही बनाकर रखा। 6 जुलाई, 1944 को आजाद हिंद रेडियो पर अपने भाषण के माध्यम से गाँधीजी से बात करते हुए, नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद तथा आजाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्देश्य के बारे में बताया। इस भाषण के दौरान नेताजी ने गाँधीजी को राष्ट्रपिता का संबोधन कर अपनी जंग के लिए उनका आशिर्वाद माँगा। इस प्रकार नेताजी ने गाँधीजी को सर्वप्रथम राष्ट्रपिता बुलाया।

मृत्यु का अनुत्तरित रहस्य

द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद नेताजी को नया रास्ता ढूँढना जरूरी था। उन्होंने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था। 18 अगस्त 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मांचुरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के के बाद से ही उनका कुछ भी पता नहीं चला। 23 अगस्त 1945 को जापान की दोमेई समाचार संस्था ने बताया कि 18 अगस्त को नेताजी का हवाई जहाज ताइवान की भूमि पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और उस दुर्घटना में बुरी तरह से घायल होकर नेताजी ने अस्पताल में अंतिम साँस ली। दुर्घटनाग्रस्त हवाई जहाज में नेताजी के साथ उनके सहकारी कर्नल हबिबूर रहमान थे। उन्होने नेताजी को बचाने का निश्चय किया, लेकिन वे कामयाब नहीं हो सके। फिर नेताजी की अस्थियाँ जापान की राजधानी टोकियो में रेनकोजी नामक बौद्ध मंदिर में रखी गयी। स्वतंत्रता के पश्चात भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिए 1956 और 1977 में दो बार आयोग का गठन किया। दोनों बार यह नतीजा निकला कि नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गये थे। लेकिन जिस ताइवान की भूमि पर यह दुर्घटना होने की खबर थी, उस ताइवान देश की सरकार से, इन दोनो आयोगो ने बात ही नहीं की।

1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की, जिस में उन्होंने कहा कि नेताजी की मृत्यु, उस विमान दुर्घटना में होने का कोई सबूत नहीं हैं। लेकिन भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया। साभार विकिपीडिया

शनिवार, 22 जनवरी 2011

मेरी मौत खुशी का वायस होगी ----[मिथिलेश]


जिन्दगी जिन्दादिली को जान ए रोशन यहॉं
वरना कितने मरते हैं और पैदा होते जाते हैं।

क्रान्तिकारी रोशन सिंह का जन्म शाहजहॉंपुर जिले के नबादा ग्राम में हुआ था । यह गांव खुदागंज कस्बे से लगभग दस किलोमीटर की दूरी पर है। इनके पिता का नाम ठाकुर जंगी सिंह था। इस परिवार पर आर्य समाज का बहुत प्रभाव था। उन दिनों आर्य समाज द्वारा चलाए जा रहे देशहित के कार्यों से ठाकुर साहब का परिवार अछूता ना रहा। श्री जंगी सिंह के चार पुत्र ठाकुर रोशन सिंह, जाखन सिंह, सुखराम सिंह, पीताम्बर तथा दो लड़कियॉं थी । आपका जन्म 22 जनवरी को सन् 1892 को हुआ था। ठाकुर साहब काकोरी काण्ड के क्रान्तिकारियों में आयु में सबस बड़े तथा सबसे अधिक बलवान तथा अचूक निशानेबाज थे । असहयोग आन्दोलन में शाहजहॉंपुर तथा बरेली जिले के ग्रामिण क्षेत्र में उन्होने बड़े उत्साह कार्य किया। उन दिनों बरेली में एक गोली कांड हुआ था जिसमें उन्हें दो वर्ष की बड़ी सजा दी गई । वे उन सच्चे देशभक्तों में थे जिन्होने अपने खून की अन्तिम बूद भी भारत मॉं की भेंट चढ़ा दी । रामप्रसाद बिस्मिल , अशफाक उल्ला खॉं, राजेन्द्र लाहिड़ी की तरह वे भी बहुत साहसी और सच्चे देशभक्त थे। हिन्दी और उर्दू का अच्छा ज्ञान था । बरेली गोली काडं का सजा के बाद उनकी रामप्रसाद बिस्मिल से भेंट हुई जो उन दिनों बड़ी क्रान्तिकारी योजनाओं का खाका तैयार करने में लगे थे। रोशन सिंह के विचारों और व्यक्तित्व से प्रभावित होकर बिस्मिल ने उन्हें भी अपने दल में शामिल कर लिया । क्षत्रिय होनेके कारण उन्हें तलवार, बन्दूक चलाने, कुश्ती और घुड़सवारी का भी शौक था। अचूक निशानेबाज थे। उनके साथी उन्हें भीमसेन कहा करते थे। ठाकुर रोशन सिंह के दो पुत्र चंन्द्रदेव सिंह तथा बृजपाल सिंह हुए। असहयोग आन्दोलन में भी ठाकुर साहब ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। काकोरी काण्ड में कुल चार डकैतियों को शामिल किया गया जिनमें अन्य डकैतियों मे ठाकुर रोशन सिंह ने बिस्मिल जी का साथ दिया था। काकोरी ट्रेन डकैती काण्ड के करीब डेढ़ महिनें बाद धरपकड़ शुरु हुई और आपको भी अन्य सहयोगियों के साथ गिरफ्तार करके लखनऊ जेल भेजा गया। जेल में क्रान्तिकारियों के साथ अच्छा व्यवहार न होने कारण आपने जेल में अनशन किया । करीब दो सप्ताह तक अनशन पर रहने के बाद भी आपके स्वास्थ्य पर कोई विपरीत असर नहीं पडा़। अंग्रेज सरकार ने उनकी हवेली को ध्वस्त करवा दिया और सारी स़म्पत्ति कुर्क करा ली थी।

अदालती निर्णय के अनुसार अंग्रेज जज हेमिल्टन ने आपको फॉंसी की सजा दी। अदालती निर्णय सुनते ही ठाकुर जी नें ईश्वर का ध्यान किया और ओम का उच्चारण किया। काकोरी केस के सम्बन्ध में वकीलों और उनके साथियों का ख्याल था कि ठाकुर साहब को ज्यादा सजा नहीं मिलेगी उनके यह विचार जानकर ठाकुर साहब को बहुत ठेस लगती थी वे बुत दुखी हो जाते थे। जब जज ने उन्हें भी फॉंसी की सजा सुनाई तो उनके साथी आश्चर्यचकित और दुखी नेत्रों से ठाकुर साहब की ओर देखने लगे परन्तु ठांकुर साहब चेहरा ठाकुरी चमक से खिल उठा। उन्होंने मुस्कुराते हुए फॉंसी की सजा पाए हुए अपने अन्य साथियों का आलिंगन करते हुए कहा क्यों भाई हमें छाड़कर आप अकेले जाना चाहते थे । उनके सभी साथियों ने उनकी वीरता पर गदगद होकर उनके चरण स्पर्श किए । फॉंसी के लिए उन्हें इलाहाबाद जेल भेज दिया गया था।

ठाकुर साहब स्वतन्त्रता की लडाई को भी धर्म युद्व मानते थे। 13 सितम्बर 1927 को उन्होंने अपने एक मित्र को लिख था कि आप मेरे लिए हरगिज रंज न करे मेरी मौत खुशी का बायस होगी, हमारे शास्त्रों में लिखा है कि धर्म युद्व में मरने वालों की वही गति होती है जो तपस्या करने वाले ऋषि मुनियों की हाती है। फॉंसी के एक सप्ताह पूर्व उन्होंने एक मित्र को पत्र भेजा था इसी से साहस और ईश्वर में विश्वास का अनुपात लगाया जा सकता है। इस सप्ताह के अन्दर ही मेरी फॉंसी होगी । प्रभु से प्रार्थना है कि वह आपके मोहब्बत का बदला दे , आप मुझ ना चीज के लिए हरगिज दुखी न हों मेरी मौत खुशी का वायस होगी।
दुनिया में पैदा होकर इन्सान अपने को बदनाम न करे। इसलिए मेरी मौत किसी प्रकार भी अफसास के लायक नहीं है। दो साल से मैं परिवार से और बच्चो से अलग हू। इस बीच वे सब मुझे कुछ भूल गए होंगे। किसी हद तक भूल जाना भी अच्छा है। तन्हाई में ईश्वर भजन का मौका खूब मिला।इससे मेरा मोह कुछ छूट गया और काई वासना बाकी नहीं रही। मेरा पूरा विश्वास है कि दूनिया की कष्टमयी यात्रा समाप्त करके मैं अब आराम की जिंदगी व्यतीत करने के लिए जा रहा हू। फॉंसी से पहले रात ठाकुर साहब कुछ घण्टे सोए देर रात से ही ईश्वर भजन करते रहे। प्रातः निवृत्त होकर गीता का पाठ किया। प्रहरी के आते ही अपनी गीता हाथ में उठाई और फॉंसी की कोठरी को प्रसन्नता के साथ अन्तिम नमस्कार करके फॉंसी के तख्ते की ओर चल दिए। फॉंसी के तख्ते पर वन्दे मातरम् और ओम नाम को गुँजाते हुए भारत का ये नरनाहर अपने नश्वर शरीर को भारत की मिट्टी में मिल गया। आज ठाकुर साहब हमारे बीच नहीं है। परन्तु उनकी अमर आत्मा सजग प्रहरी की भॉंति देश के करोड़ो नवयुवको के दिल में भारत की समृद्वि और सुरक्षा की अलख युगों-युगों तक रहेगी। इलाहाबाद जेल के सामनें हजारों लोग भारत मॉं के इस सपूत की लाश को लेने के लिए खड़े थे। इलाहाबाद में ही भारत माता के इस बहादुर सपूत की अन्तिम संस्कार पूर्ण वैदिक रीति के साथ सम्पन्न हुआ ।

गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

डॉ0 वीणा श्रीवास्तव का स्मृति-उपवन है "कितने अपने"

मनुष्य कितना ही विकास क्यों न कर ले किन्तु वह स्वयं को स्मृतियों से मुक्त नहीं कर पाता है। पता नहीं यह मोहपाश है अथवा बीते पलों को न भुला पाने की विवशता कि व्यक्ति जाने-अनजाने ही स्मृतियों के विशाल उपवन में विचरण करने लगता है। सुखद पलों की सोंधी महक एसे भटकाती है तो दुःखद पलों के काँटों की चुभन एक टीस पैदा करती है। डॉ0 वीणा श्रीवास्तव की स्मृतियों का उपवन उन्हें भी कभी महकाता है तो कभी एक टीस सी देता दिखता है। इन स्मृतियों का वे आज जिस तरह स्वयं अनुभव करतीं हैं वही अनुभव ‘कितने अपने’ के द्वारा अपने पाठकों को भी करवातीं हैं।

‘अब वो मिठास कहाँ’ से शुरू उनकी स्मृति-यात्रा पैंतीस सोपानों से गुजरते हुए अन्त में वर्तमान में खड़ा करती है। इस पूरी स्मृति-यात्रा में हर पल यही अनुभव होता रहा कि हाँ, ऐसा तो कुछ मेरे साथ भी हुआ है। ‘कितने अपने’ का आरम्भ ही समूची स्मृतियों का सूत्र-वाक्य लगता है कि ‘उस गुठली या फाँकों में जो मिठास थी वो अब किलो भर आम या पूरे खरबूजे में कहाँ? वो मिठास तो संतुष्टि की थी, आम या खरबूजे की नहीं।’
बचपन की स्मृतियों में ले जाती लेखिका तत्कालीन समाज का चित्र भी अनायास हमारे सामने खींच ले जाती हैं। ‘कमथान साहब’ ‘बटेश्वरी चाचा’ ‘बहर साहब’ के लबों से गुजरता ‘हुक्का’ बाबू जी के मुँह पर रुकता तो वह मात्र विषयों की चर्चा, किसी निर्णय, पारिवारिक मसलों का आधार नहीं बनता वरन् तत्कालीन सामुदायिकता का परिचायक भी बनता है। संयुक्त परिवारों की दृढ़ता के साथ-साथ सामाजिक सम्बन्धों को भी पुष्ट करता दिखता है। ऐसी सामुदायिक भावना के मध्य ही लेखिका ‘परमट वाली बहू’ ‘चुन्नीगंज वाली महाराजिन’ तथा ‘रामानुज चाचा’ के गुम हुए चेहरों को खोजती है, जो परिवार के सदस्य न होकर भी एक पारिवारिक सदस्य की भाँति आदर और सम्मान के पात्र रहे। ‘जहाँ देखो वहाँ मुखौटे ही मुखौटे हैं। चलो ढूँढती हूँ इन्हीं मुखौटों में शायद कुछ लोग ऐसे मिल जायें जिन्हें मैं कह सकूँ ये ‘कितने अपने’ हैं, की एक टीस के बीच लेखिका पुराने सम्बन्धों का आधार तलाशने का प्रयास भी करती हैं।
लेखिका डॉ0 वीणा श्रीवास्तव का संगीत के साथ-साथ साहित्य से भी जुड़ा होना उन्हें अत्यधिक सम्वेदनशील बनाता है। यही कारण है कि वर्तमान कालखण्ड से कहीं बहुत दूर किसी समय में जब वे स्वयं बचपन की शरारत, मासूमियत, निश्छलता को जी रही थीं, उन्हें उस समय की कुछ किरिचें आज भी चुभती हैं। इसी चुभन के बीच वे पारिवारिक संरचना की मिठास को खोजती हुई तुरन्त ही ‘पीपल की शादी’ ‘वह तोड़ती ईंट’ जैसी मनोवैज्ञानिक वेदना को भी प्रदर्शित करती हैं।
‘रंगपासी’ के माध्यम से आँगन में खड़ी दीवार की टीस, विभा का ‘प्रेमघट, रीता का रीता’ रह जाना, ‘मुनिया’ का पिंजड़े में बद्ध जीवन, शोभा के प्रति डॉक्टर की ‘अमानुष’ होने की वेदना को गहराई से प्रकट करना लेखिका के सम्वेदनशील होने का प्रमाण है। इसी सम्वेदनशीलता के कारण वे बचपन की ‘पतंग’ को न उड़ा पाने की विवशता को याद रख पाती हैं तो छोटी सी चवन्नी के सहारे बालसुलभ प्रतिद्वन्द्विता के रूप में अपनी सहेलियों को प्रत्युत्तर भी देती हैं तथा खुद को क्षणिक अमीर बने होने का भाव भी हृदय में सहेजे रह पाती हैं।
परिवार, रिश्ते, नाते, सम्बन्धियों, दोस्तों, सहेलियों के आत्मीय व्यवहार को अपनी सुखद स्मृतियों में सँजोये लेखिका प्रकृति प्रेम को भी आत्मीय रूप में अपने में समाहित किये हैं। तभी उन्हें खजुराहो की कलाकृतियों में, मंदिरों में एक प्रकार का दर्शन दिखता है तो हिमालय की चोटियों, पर्वत श्रेणियों, झीलों, जलप्रपातों में मानवीय गुणों को देख उनका मन मंत्रमुग्ध हो उठता है। सम्वेदनशील हृदय की मलिका होने के कारण यदि वे अपनी ‘बिटिया’ के प्रति संवेदित हैं तो नन्हे से खरगोश चीकू के प्रति भी असंवेदनशील नहीं होती हैं। इसी स्वच्छ और निर्मल चित्त होने के कारण उन्हें और उनके पूरे परिवार को नारियल में माँ दुर्गा के साक्षात दर्शन प्राप्त होते हैं।
‘कितने अपने’ की लेखिका डॉ0 वीणा श्रीवास्तव का लगाव संगीत से बचपन से ही रहा है। ‘गुरु कृपा’ से वे आज इसी क्षेत्र में अध्यापन कार्य से जुड़ी हैं। संगीत की लय, तालबद्धता, उतार-चढ़ाव उनके स्मृति-लेखन में भी दिखाई देता है। एक-एक संस्मरण जैसे उनके मन-मष्तिष्क से कागज पर सीधे उतर आया हो। बिना किसी कृत्रिमता के, बिना किसी साहित्यिकता के शब्दों में संगीत की लहरियाँ दिखती हैं, रेखाचित्र सी चित्रात्मकता है तो शब्दों का नैसर्गिक प्रवाह। गीतों की रवानी सी इस पूरे संकलन ‘कितने अपने’ में देखने को मिलती है। बचपन की बात करते-करते अपने परिवार को याद करना, परिवार को याद करते-करते प्रकृति की गोद में चले जाना, प्रकृति की मनमोहक छवि के बीच अपने किसी प्रिय की परेशानी याद करने लगना और इन सबके बीच फिर से बचपन की किसी घटना का स्मरण करने लगना दर्शाता है कि लेखिका ने किसी प्रयास रूप में स्मृतियों का उपवन तैयार नहीं किया है वरन् स्मृतियों का जो स्वरूप मन-मष्तिष्क में उभरता रहा वही ‘कितने अपने’ के रूप में सामने आया।
बिना प्रयास के स्वतः स्फूर्त रूप से उभरती स्मृतियों के मध्य कुछ कमी सी लगती है। ऐसा शायद उन्हें न लगे जो लेखिका से परिचित नहीं हैं पर जो डॉ0 वीणा जी के सम्पर्क में हैं वे आसानी से उस कमी को देख सकते हैं। यह मेरा सौभाग्य है कि लेखिका का वरद् हस्त मेरे ऊपर भी है। पिछले कई वर्षों का आत्मीय, पारिवारिक सम्पर्क होने से यह कमी मुझे भी दिखी। स्मृतियों के इस उपवन में उनके छोटे भाई संदीप की महक नहीं दिखती है, उनकी अन्य बहिनों की अंतरंगता परिलक्षित नहीं हुई है, उनके जीवनसाथी डॉ0 अरुण कुमार श्रीवास्तव के सहयोग और प्रेम की विश्वासधारा भी नहीं दिखी, जो महाविद्यालय एक लम्बे अरसे से लेखिका की विविध गौरवमयी उपलब्धियों का मूक दर्शक रहा है उसकी चमक इन स्मृतियों में प्रकाशित नहीं हो सकी। ये स्थितियाँ भी दर्शाती हैं कि लेखिका ने स्मृतियों को सँजोने का जो प्रयास किया है उसको शब्दरूप नहीं दिया है वरन् वे स्वतः, स्वच्छन्द रूप से निर्मित होकर ‘कितने अपने’ के रूप में सामने आईं हैं।
हाँ, इसके साथ यह भी हो सकता है कि जिन स्मृतियों की सुगंध की कमी दिखती है, लेखिका उन कुछ स्मृतियों को अपनी थाती के रूप में सहेज कर उस उपवन में नितान्त निजी रूप में स्वयं ही विचरण करना चाहती हों, उनका अकल्पनीय सुख वे स्वयं ही भोगना चाहती हों।
कुछ भी हो ‘कितने अपने’ के बाद भी अभी और बहुत से कितने अपने शेष हैं जिनसे मिलने को पाठकगण आतुर हैं। आशा है कि डॉ0 वीणा श्रीवास्तव अपने स्मृति-उपवन की सैर आगे भी हम सभी को करवाती रहेंगीं।
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कृति-कितने अपने (स्मृतियाँ)
रचनाकार-डॉ0 वीणा श्रीवास्तव
प्रकाशक-नमन प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ-101
मूल्य-रु0 150.00 मात्र
समीक्षक-डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

वो कल सुबह जाएगी.........................नीशू तिवारी

बहुत दिन नहीं हुआ जॉब करते हुए .....पर अच्छा लगता है खुद को व्यस्त रखना........शाम की कालिमा अब सूरज की लालिमा को कम कर रही थी ......मैं चुप चाप तकिये में मुह धसाए बहार उड़ रही धुल में अपनी मन चाही आकृति बना कर ( कल्पनाओं में ) खुश हो रहा था .........कभी प्रिया का हंसता चेहरा नजर आता .........तो दुसरे पल बदलते हवा के झोंकों के साथ आँखें नयी तस्वीर उतार लेती .......... बिलकुल वैसी ही .....जैसे वो मिलने पर( शर्माती थी ) करती थी.............अचानक आज इन यादों ने मेरी साँसों की रफ्तार को तेज़ कर दिया .........करवट बदलते हुए आखिरी मुलाकात के करीब न जाने क्यूँ चला गया ...........
मैं पागल हूँ और आलसी भी वो हमेशा कहा करती थी ....जिसे मै हंस कर मान लेता था .....(सच कहूँ तो आलसी हूँ भी )........ .....दिल्ली में दो साल कैसे बीते ....पता ही न चला ..... हम साथ ही पत्रकारिता में दाखिल हुए थे ........और साथ ही पढाई पूरी की ..........पहली बार हम दोनों कालेज के साछात्कार से पहले मिले थे .......वह बहुत घबराई सी लग रही थी .......मैंने ही बात के सिलसिले को आगे बढाया था .........बातो से पता चला की वह भी अल्लाहाबाद से पढ़ कर आई है ...तब से ही अपनापन नजर आया था उसको देखकर ........साछात्कार का परिणाम आने अपर हम दोनों का चयन हुआ था .........ये मेरे लिए सब से बड़ी ख़ुशी की बात थी ...क्यूंकि मैंने जो तैयारी की थी उससे मैंने खुस न था ...........पर मेरा भी चयन हो ही गया था .........कुछ दिनों के बाद क्लास शुरू हो गयी ......नए नए दोस्त बने .....समय अच्छे से गुजरता ........पर जब तक प्रिय से कुछ देर न बात करता .......तो कुछ भी अच्छा न लगता .....सुबह से शाम तक मैं प्रिया के पास और प्रिया मेरे पास ही होती ......यानि आसपास ही क्लास में बैठते ....दोपहर का नाश्ता और शाम की चाय साथ पीने के बाद हम दोनों अपने अपने रूम के लिए निकलते ......रूम पर पहुच कर फिर फ़ोन से बहुत साडी बातें होती ............इसी बातों से न जाने कब प्यार हो गया पता ही न चला ..........वैसे प्रिया तो शायद ही कभी बोलती .........पर हाँ मैंने ही उसको प्रपोज किया था .......कोई उत्तर नहीं दिया था उसने ..........मैं तो डर गया था की शायद अब वह बात न करे......लेकिन नहीं उसका स्वभाव वैसे ही सीधा साधा रहा ..जैसा की वह रहती थी ..... मेरे लिए ख़ुशी की बात थी .......मैंने खुद से ही हाँ मान लिया था .....क्यूंकि वह चुप जो थी .......कभी लड़ते लाभी झगड़ते .......रूठते मानते .....अब उस दौर में हम दोनों आ गए थे की अब आगे की जिंदगी को चुनना था ........संघर्ष और सफलता के बीच प्यार को लेकर चलना था ..........प्रिया ने आखरी सेमेस्टर का एग्जाम देने के बाद यूँ ही कहा था ..........मिस्टर आलसी .......अब आपको सारा काम खुद से करना होगा ......हो सकता है रोज फ़ोन पर बात भी न हो पाए ......और हाँ मैं घर जा रही हूँ ......शायद पापा अब न आने दें .........वहीँ कोई जॉब देखूंगी ........ मैं चुपचाप उसकी बातें सुन रहा था .......वो मेरी तरफ नहीं देख रही थी पर बात मुझसे ही कह रही थी .......आज पहली बार दो साल में उसकी आँखों में आन्शूं देखा था ............फिर जल्दी से आंसू पोछते हुए कहा था ....मिस्टर उल्लू .....नहाते भी रहना ...वरना मुझे आना होगा .........मैंने सर हिलाकर सहमती दे दी थी ..........वो कल सुबह जाएगी ........अब कैसे रहूँगा ........कुछ समझ न आया था ......रात भर नींद न आयी ..और प्रिया को भी परेसान न करना चाहता था .........क्यूंकि अगले दिन उसकी ट्रेन थी .........सुबह मिलने की बात हुई थी .......मैं अपना वादा निभाते हुए रेलवे स्तेसन तक छोड़ने गया था ...........ट्रेन जाने तक उसको देखता ही रहा था ............हाँ कुछ महीने बाद उसका फ़ोन आया था ..........ठीक है वह ..........

बुधवार, 16 जून 2010

कैसा था वो पहला प्‍यार ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,नीशू तिवारी

बहुत दिन नहीं हुआ जॉब करते हुए .....पर अच्छा लगता है खुद को व्यस्त रखना........शाम की कालिमा अब सूरज की लालिमा को कम कर रही थी ......मैं चुप चाप तकिये में मुह धसाए बहार उड़ रही धुल में अपनी मन चाही आकृति बना कर ( कल्पनाओं में ) खुश हो रहा था .........कभी प्रिया का हंसता चेहरा नजर आता .........तो दूसरे पल बदलते हवा के झोंकों के साथ आँखें नयी तस्वीर उतार लेती .......... बिलकुल वैसी ही .....जैसे वो मिलने पर( शर्माती थी ) करती थी.............अचानक आज इन यादों ने मेरी साँसों की रफ्तार को तेज़ कर दिया .........करवट बदलते हुए आखिरी मुलाकात के करीब न जाने क्यूँ चला गया ...........
मैं पागल हूँ , और आलसी भी वो हमेशा कहा करती थी ....जिसे मै हंस कर मान लेता था .....(सच कहूँ तो आलसी हूँ भी )........ .....दिल्ली में दो साल कैसे बीते ? ....पता ही न चला ..... हम साथ ही पत्रकारिता में दाखिल हुए थे ........और साथ ही पढाई पूरी की ..........पहली बार हम दोनों कालेज के साक्षात्‍कार से पहले मिले थे .......वह बहुत घबराई सी लग रही थी .......मैंने ही बात के सिलसिले को आगे बढाया था .........बातो से पता चला की वह भी इलाहाबाद से पढ़ कर आई है ...तब से ही अपनापन नजर आया था उसको देखकर ........साक्षात्‍कार  का परिणाम आने पर हम दोनों का चयन हुआ था .........ये मेरे लिए सब से बड़ी ख़ुशी की बात थी ...क्यूंकि मैंने जो तैयारी की थी उससे मैं खुश  न था ...........पर मेरा भी चयन हो ही गया था .........कुछ दिनों के बाद क्लास शुरू हो गयी ......नए नए दोस्त बने .....समय अच्छे से गुजरता ........पर जब तक प्रिय से कुछ देर न बात करता .......तो कुछ भी अच्छा न लगता .....सुबह से शाम तक मैं प्रिया के पास और प्रिया मेरे पास ही होती ......यानि आसपास ही क्लास में बैठते ....दोपहर का नाश्ता और शाम की चाय साथ पीने के बाद हम दोनों अपने अपने रूम के लिए निकलते ......रूम पर पहुच कर फिर फ़ोन से बहुत सारी बातें होती ............इसी बातों से न जाने कब प्यार हो गया पता ही न चला ..........वैसे प्रिया तो शायद ही कभी बोलती .........पर हाँ मैंने ही उसको प्रपोज किया था .......कोई उत्तर नहीं दिया था उसने ..........मैं  डर गया था की शायद अब वह बात न करे......लेकिन नहीं उसका स्वभाव वैसे ही सीधा साधा रहा ..जैसे  वह रहती थी ..... मेरे लिए ख़ुशी की बात थी .......मैंने खुद से ही हाँ मान लिया था .....क्यूंकि वह चुप जो थी .......कभी लड़ते कभी झगड़ते .......रूठते मानते .....अब उस दौर में हम दोनों आ गए थे की अब आगे की जिंदगी को चुनना था ........संघर्ष और सफलता के बीच प्यार को लेकर चलना था ..........प्रिया ने आखरी सेमेस्टर का एग्जाम देने के बाद यूँ ही कहा था ..........मिस्टर आलसी .......अब आपको सारा काम खुद से करना होगा ......हो सकता है रोज फ़ोन पर बात भी न हो पाए ......और हाँ मैं घर जा रही हूँ ......शायद पापा अब न आने दें .........वहीँ कोई जॉब देखूंगी ........ मैं चुपचाप उसकी बातें सुन रहा था .......वो मेरी तरफ नहीं देख रही थी पर बात मुझसे ही कह रही थी .......आज पहली बार दो साल में उसकी आँखों में आसूं देखा था ............फिर जल्दी से आंसू पोछते हुए कहा था ....मिस्टर उल्लू .....नहाते भी रहना ...वरना मुझे आना होगा .........मैंने सर हिलाकर सहमती दे दी थी ..........वो कल सुबह जाएगी ........अब कैसे रहूँगा  ?........कुछ समझ न आया था ......रात भर नींद न आयी ..और प्रिया को भी परेशान न करना चाहता था .........क्यूंकि अगले दिन उसकी ट्रेन थी .........सुबह मिलने की बात हुई थी .......मैं अपना वादा निभाते हुए रेलवे स्‍टेशन तक छोड़ने गया था ...........ट्रेन जाने तक उसको देखता ही रहा था ............हाँ कुछ महीने बाद उसका फ़ोन आया था ..........ठीक है वह ..........