हमारा प्रयास हिंदी विकास आइये हमारे साथ हिंदी साहित्य मंच पर ..

रविवार, 8 अगस्त 2010

उड़ गया फुर से परिंदा डाल से...(ग़ज़ल)...............राजेन्द्र स्वर्णकार

भर गए बाज़ार नक़ली माल सेलीचियों के खोल में हैं फ़ालसेलफ़्ज़ तो इंसानियत मा'लूम हैहै मगर परहेज़ इस्तेमाल से ना ग़ुलामी दिल से फ़िर भी जा सकी हो गए आज़ाद बेशक़ जाल सेभूल कर सिद्धांत समझौता कियाअब हरिश्चंदर ने नटवरलाल से खोखली चिपकी है चेहरों पर हंसीहैं मगर अंदर बहुत बेहाल सेज़िंदगी में ना दुआएं पा सकेअहले-दौलत भी हैं वो कंगाल सेसोचता था…ज़िंदगी क्या चीज़ हैउड़ गया फुर से परिंदा डाल सेइंक़लाब अंज़ाम दे आवाम क्याज़िंदगी उलझी है रोटी-दाल सेशाइरी करते अदब से दूर हैंचल रहे राजेन्द्र टेढ़ी चाल...