
एक सपना जी रही हूँपारदर्शी काँच पर सेटूट-बिखरे झर रहे कण विहँसता सा खिल रहा हैआँख चुँधियाता हर इक क्षण कुछ दिनों का जानकर सुखमधु कलश सा पी रही हूँएक सपना जी रही हूँवह अपरिचित स्पर्श जिसनेछू लिया था मेरे मन को अनकही बातों ने फिर धीरेसे खोली थी गिरह जोऔर तब से जैसे हालाजाम भर कर पी रही हूँ एक सपना जी रही हूँइक सितारा माथ पर जोतुमने मेरे जड़ दिया थाऔर भँवरा बन के अधरोंसे मेरे रस पी लिया थाउस समय के मदभरे पलज्यों नशे में जी...