बादलों में चांद छिपता है, निकलता है , कभी अपना चेहरा दिखाता है , कभी ढ़क लेता है , उसकी रोशनी कम होती जाती है फिर अचानक वही रोशनी एक सिरे से दूसरे सिरे तक तेज होती जाती है । मैं इस लुका छिपी के खेल को देखता रहता हूँ देर तक, जाने क्यूँ बादलों से चांद का छिपना - छिपाना अच्छा लग रहा है , खामोश रात में आकाश की तरफ देखना , मन को भा रहा है , उस चांद में झांकते हुए न जाने क्यूँ तुम्हारा नूर नजर आ रहा है । ऐसे में तुम्हारी कमी का एहसास बार - बार हो रहा है । तुम्हारी यादें चांद ताजा कर रहा है, मैं तुमको भूलने की कोशिश करके भी...