जो रचनाएँ थी प्रायोजित उसे मैं लिख नहीं पायास्वतः अन्तर से जो फूटा उसे बस प्रेम से गायाथी शब्दों की कभी किल्लत न भावों से वहाँ संगम,दिशाओं और फिजाओं से कई शब्दों को चुन लायाकिया कोशिश कि सीखूँ मैं कला खुद को समझने कीकठिन है यक्ष-प्रश्नों सा है बारी अब उलझने कीघटा अज्ञान की मानस पटल पर छा गयी है यूँ,बँधी आशा भुवन पर ज्ञान की बारिश बरसने कीबहुत मशहूर होने पर हुआ मगरूर मैं यारोनहीं पूरे हुए सपने हुआ मजबूर मैं यारोवो अपने बन गए जिनसे कभी रिश्ता नहीं लेकिन,यही चक्कर था अपनों से हुआ हूँ दूर मैं यारोअकेले रह नहीं सकते पड़ोसी की जरूरत हैअगर अच्छे मिलें...