............न पुरूष और न ही स्त्री..............दरअसल ये तो समाज ही नहीं.........पशुओं के संसार में मजबूत के द्वारा कमजोर को खाए जाने की बात तो समझ आती है......मगर आदमी के विवेकशील होने की बात अगर सच है तो तो आदमी के संसार में ये बात हरगिज ना होती.......और अगरचे होती है.....तो इसे समाज की उपमा से विभूषित करना बिल्कुल नाजायज है....!! पहले तो ये जान लिया जाए कि समाज की परिकल्पना क्या है.....इसे आख़िर क्यूँ गडा गया.....इसके मायने क्या हैं....और इक समाज में आदमी होने के मायने भी क्या हैं....!! ..............समाज किसी आभाषित वस्तु का नाम नहीं है....अपितु...