पुरस्कृत रचना (तृतीय स्थान, हिन्दी साहित्य मंच द्वितीय कविता प्रतियोगिता)हे सारथी ! रोको अब इस रथ कोमना करो दौड़ने से ,विश्राम दो अश्व कोदेखो ! ऊपर घोर प्रलय घन घिर आयामित्र , सन्मित्र सभी भागे जा रहेप्रिय ! पदरज मेघाछन्न होता जा रहाअब तो मानो कहा,सुनो मेरे हृदय क्रंदन कोबंद करो अश्रु,मुक्ता गुंथी इस पलक परदे कोचित मंदिर का प्रहरी बन ,पुतलियाँ अब थक चुकींकहतीं, पहले सा अब ऋतुपति के घर, कुसुमोत्सवनहीं होता, न ही मादक मरंद की वृष्टि होतीदासी इन्द्रियाँ, लांघकर मन क्षितिज घर चलींहिलते हड्डियों का कंकाल, रक्त-मांस...