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मंगलवार, 7 सितंबर 2010

होता है सबेरा आज भी {कविता} सन्तोष कुमार "प्यासा"

होता है सबेरा आज भी पर, क्यूँ न चहकते विहंग हैं क्यूँ न सुनाई देती, बैलों की घंटियाँ क्यूँ न किसानो में वो उमंग है क्यूँ आशाएं खो रही रवि के प्रकाश में शरद-शोभा क्यूँ नहीं छाती अब आकाश में सौहार्द की सुवासित, सुरभि जाने कहाँ खो गई क्यूँ न खिलते पुष्प अब कोमल कास में क्यूँ न फुदकते खरगोस अब क्यूँ न दीखते पिक या शिखी क्यूँ सुना पड़ा है गावं का कूप एक अरसे से कोई पनहारन भी न दिखी क्यूँ सजते उज्ज्वल स्वप्न अब क्यूँ मिट गई नव-ह्रदय से हर्ष तरंग होता है सबेरा आज भी पर, क्यूँ न चहकते विहंग हैं.....