ज़िन्दगी जीते-जीते आया एक अजनबी खयालक्या कभी ज़िन्दगी जी मैंने? कौंधा ये सवाल हरपल रहा बस सुनहले ख्वाबों में खोया रचा निज विचारो का संसार, कभी हंसा तो कभी रोया निष्फिक्र होकर, बन विक्रम, बचपन बिताया न जाने कब फिर मैं "किशोर कुल" में आया अभी भी ज़िन्दगी से दूर खोया रहा किताबों में कभी अन्वेषक तो कभी जनसेवक, रोज बनता मैं ख्वाबों में यूँ ही फिर एक दिन, दिल के किसी कोने में कोई फूल खिलाकोई अजनबी लगा आने ख्वाबों में, हुआ शुरू ये सिलसिला फिर क्या आरज़ू जगी दिल में , तड़प ने उससे मिलवाया फिर उदित हुआ नव भ्रम रवि,...