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रविवार, 25 अप्रैल 2010

बहुत दिन हुए -- (कविता)..... कुमार विश्वबंधु

बहुत दिन हुएकोई चिट्ठी नहीं आईकोई मित्र नहीं आया दरवाजे पता पूछतेचिल्लाते नामबहुत दिन हुएदाखिल नहीं हुई कोई नन्ही सी चिड़ियातिनका-तिनका जोड़ा नहीं घरखिड़कियों से होकर किसी सुबहकिसी शामउतरा नहीं आकाशबहुत दिन हुए भूल गयाजाने क्या था उस लड़की का नाम !बहुत दिन हुएकरता रहा चाकरीगँवाता रहा उम्रकमाता रहा रुपएबहुत दिन हुए छोड़ दिया लड़नाबहुत दिन हुएभूल गया जी...

आठवीं रचना ( डा श्याम गुप्त )

कमलेश जी की यह आठवीं रचना थी | अब तक वे दो महाकाव्य, दो खंड काव्य व तीन काव्य संग्रह लिख चुके थे | जैसे तैसे स्वयं खर्च करके छपवा भी चुके थे | पर अब तक किसी लाभ से बंचित ही थे | आर्थिक लाभ की अधिक चाह भी नहीं रही| जहां भी जाते प्रकाशक, बुक सेलर ,वेंडर, पुस्तक भवन, स्कूल, कालिज, लाइब्रेरी एक ही उत्तर मिलता , आजकल कविता कौन पढ़ता है ; वैठे ठाले लोगों का शगल रह गया है, या फिर बुद्धि बादियों का बुद्धि-विलास | न कोई बेचने को तैयार है न खरीदने को | हां नाते रिश्तेदार , मित्रगण मुफ्त में लेने को अवश्य लालायित रहते हें , और फिर घर में इधर-उधर पड़ी रहतीं...