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शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

उपन्यास ''छपाक-छपाक'' ( समीक्षा)-------


सामाजिक और धार्मिक जीवन में ऊँचे स्थान पर मानी जाने वाली नर्मदा नदी के साथ ही वहाँ के आलम को इस उपन्यास में प्रयाप्त रूप से मान मिला है.हर थोड़ी देर में नदी के बहाव को देखता हुआ लेखक अपने पात्रों के बहाने असल जीवन दर्शन को कागज़ में छापता है.शाम-सवेरे और सूरज जैसी उपमाओं के ज़रिए भी बहुत गहरी बातें संवादों में रूक रूक कर समाहित की गई है.संवादों में बहुत से ऐसे शब्दों का समावेश मिलेगा जो उस इलाके के देशज लगते हैं.समय के साथ अपने में बदलाव करता नंदी उम्र के साथ जिम्मेदारियां ओढ़ता है.मगर आसपास की समस्याएँ उसे हमेशा सालती रहती है.गलत संगत से बिगड़ते स्कूली बच्चों पर केन्द्रित ये उपन्यास बस्ती जैसे हलको की सच बयानी करता है.कथ्य भी मध्य प्रदेश में बहती नर्मदा मैंया के किनारे वाले प्रवाह-सा रूप धरता है.पढ़ते हुए कभी मुझे ये उपन्यास पाठक को सपाट गति से समझ में आने वाली फिल्म के माफिक भी लगता है.

ये छपाक-छपाक वो आवाजें है जिसमें नंदी ने अपने पिता भोरम,अपनी माँ सोन बाई को खो दिया, ये ही वो छपाक की धम्म है जिसके चलते नंदी को स्कूल छोड़ना पड़ा ,ये ही वो आवाज़ है जहां अपने कुसंस्कारों की औलादें बीयरपार्टी सनी पिकनिक मनाती है,और बहते पानी में अपने मित्र खो देते लोगों की कहानी बनाती है.ऊँची जात के युवक जब बहते हुए मरने वाले होते हैं तो नीची जात के कुशल तैराक उन्हें बचा लेते हैं.मगर खून तब खोलता है जब उपन्यास में वो ऊँची जात के मरते मरते बचे बेटे वीरेंद्र की माँ तैरने में उस्ताद नंदी की जात पूछकर खीर खिलाने का बरतन डिसाइड करती है.दकियानूसी परिवारों में फंसी सादे घरों की बेटियों की पीड़ा झलकाता देवांगी का चरित्र भी बहुत कम समय उपस्थित रह कर भी प्रमुखता से उभरा है.उपन्यास के बहुत बड़े हिस्से को घेर बैठे दो नबर के धन्धेबाज़ भैया जी और उनके बेटे वीरेंद्र जैसे घाघ किस्म के लोग भी इस दुनिया में बहुतेरे भरे पड़े हैं.ये हमारा दुर्भाग्य है कि आज भी नंदी जैसे आदिवासी उनके बड़े दरवाजों वाले मकानों के भाव में डूब कर उनके पैर दबा रहे हैं.उपन्यास के अंत में खुद के अंत के साथ ही बाज़ आने वाला तंतर-मंतर का पोटला वो पड़िहार भी घाघ ही था.इस रचना में जहां पापी लोग भरे हैं वहीं ठीक दिल के पत्र भी हिस्सा रहे हैं.

होशंगाबाद के अशोक जमनानी जिन्हें उनकी कविताओं के साथ ही संस्कृतिकर्म के ज़रिए तो जाना जाता भी है,मगर साथ ही पिछले कुछ सालों में उनके तीन उपन्यास भी पाठकों के बीच बहुत लोकप्रिय हुए हैं.उनकी सबसे प्रखर कृति व्यास गादी में उन्होंने आज कल के बाबा-तुम्बाओं की आश्रम बनाओ प्रतियोगिता के सच को अपनी गूंथी हुई शैली में पूरी बेबाकी से लिखा था.मध्य प्रदेश साहित्य अकादेमी के दुष्यंत कुमार सम्मान से पिछले साल ही नवाजे गए जमनानी के अन्य उपन्यासों में बूढी डायरी और को अहम् भी खासे चर्चित रहे.इस बार भाषा के स्तर पर नया प्रयोग का असर देने वाला उपन्यास छपाक-छपाक पाठक के हाथों में आया जनवरी के अंत तक आया.पांच भागों में बंटा हुआ अशोक जमनानी का नया उपन्यास एक सौ साठ पेज है,जिसे एक बार फिर दिल्ली के तेज़ प्रकाशन ने छापा है. मैंने एक ही बैठक में साठ पेज पढ़ते हुए पार कर गया. एक भाग पढ़ा. इसी बीच पांच बार रोया. अशोक भाई को अपनी टिप्पणी देते हुए भी रो पढ़ा.बातों में पता लगा कि अशोक खुद भी लिखते वक्त इस कहानी में घंटों रोए हैं.समाज के जीवंत चित्रण को शब्दों में ढालता ये उपन्यास बहुत शुरुआत में तो इमोशनल किस्म का जान पड़ता है,मगर अंत तक जाते जाते बहुत हद तक पिछड़े परिवारों की मानसिकता की परतें पाठक के सामने खोलता है.इसके केन्द्रीय भाव में समाज के मुख्य हिस्से कहे जाने वाले मगर गुरूजीब्रांड लोगों के बैनर तले शिष्यों से ली जाने वाली बेगार प्रथा जमी हुई नज़र आई.


भारतीय लोकतंत्र में साक्षरता के आंकड़े भले ही ऊँचे उठ गए हो मगर आज भी संवाद पढ़ते हुए ऐसा आभास होता है कि ऐसी कई परम्पराए मौजूद हैं जो पैरों की नीचे की ज़मीन ढहाती लगती है.रचना का मुख्य पात्र नंदी बहुत प्रभावपूर्ण ढंग से पाठक के मानसपटल पर अपनी तस्वीर बनाता है.शुरुआत से लेकर अंत तक भले आदमी के माफिक अपने दायित्व के इर्दगिर्द चलता है.न बहुत दूर,न ही बहुत सटा हुआ .



मानवीय मूल्यों की बात करें तो सभी बातों और विचारों के बीच सोन बाई,बघनखा और भोरम के मरने पर नंदी के मन का दु:ख समझने वाले पंचा काका और बचपने की मित्र महुआ जैसे लोग कम ही सही मगर आज भी हमारे इस परिदृश्य में बचे हैं.माँ नहीं होकर भी सुखो काकी ने नंदी पर अपना वात्सल्य ऊंडेल दिया.ये भाव अब भी देहात में सरस है.वीरेंद्र ने नंदी को पुलिस से बचाने के हित अपने पिता तक से दुश्मनी कर ली.नंदी को जेल से छुडाने में गिरवी रखे खेतों पर सेठजी की खराब नज़र भी अंत तक जाते जाते भली बन पड़ी. सच ही है कि मानव-मूल्यों की याद आदमी को धीरे ही आए मगर अन्तोगत्वा उन्ही की शरण से मुक्ति संभव लगती है.वैसे भी अच्छे दिल के लोग भगवान् जल्दी ही ऊपर बुला ले रहा है,वहीं बाकी की कसर तेजी से बदलते ज़माने की इस रफ़्तार में मानव मूल्यों की चटनी बनाकर पूरी कर दी है.यहाँ भी कई भले लोग जल्दी मर गए.


कुछ दह तक व्यवसाई अशोक स्पिक मैके नामक सांस्कृतिक आन्दोलन से भी जुड़े होने से अपने बहुत से गुणों के साथ उपन्यास में धुंधले से ही सही मगर दिखते हैं. उपन्यास में उनके कला और धर्म प्रेम की झलक बखूबी दिखती है.अशोक निचले तबके के लोगों के कठोर श्रम प्रधान जीवन से भलीभांती परिचित है.थोड़े-थोड़े दिनों में नर्मदा नदी के किनारे अकले में की गई उनकी लम्बी यात्राएं भी इस रचना से झांकती नज़र आई है.एक नदी के प्रति माँ का सा भाव उनकी अपनी मिट्टी के प्रति समर्पण भाव और स्वयं को उन्ही प्राकृतिक और विरासती पहचानों के हित घुला देने की उनकी प्रवृति को सलाम करता हूँ.उनकी पिछली रचनाओं की अपेक्षा ये उपन्यास आम पाठकों तक ज्य़ादा अच्छे से पहुँच बनाने में सफल हो पाएगी,ऐसा मेरा मानना है.


उपन्यास में आए पात्रों के नाम भी पूरे रूप में आदिवासी पहचान लिए हुए है.नदी,जंगल,बस्ती के इर्दगिर्द जंगली पेड़ों के नाम और वहां का अछूता जीवन आज भी शहरों की आधुनिकता के आगे थूंकता है.आज भी ऐसे गाँव हैं जहां अपने रोजी के रूप में लोग नदी में धर्म के नाम पर डाले सिक्के खंगालते हैं.आज भी अपने किसी काम के बाकी रहते लोग मर जाने पर मुक्ति के लिए भटकते रहते हैं.इसके उलट समाज की बहुत सी बीमारियाँ आज भी दबे कुचले गांवों में जड़ें पकड़ी हुई है.ये एक रूप है तो दूजा नंदी के प्यार में उसकी हर पीड़ा को समझने वाली महुआ नायिका के रूप में अपने थोड़े मगर सुगठित संवादों के साथ उभरी है.परेशानियों के हालात में नन्दी को गांवों में मिलने वाली सहज स्नेह दृष्टी के साथ कई सारे कड़ुए घुट भी पीने पड़े,जो यथासमय बदलते गांवों की कहानी कहते प्रतीत होते हैं.

समग्र रूप से छपाक-छपाक जैसा उपन्यास एक बार फिर पाठकों को सोचने के हित कई सारे मुद्दे छोड़े जा रहा है जो आज फिर से हमारी आर्थिक और वैचारिक गुलामी का द्योतक साबित हुआ है.ये रचना पढ़ने के बाद एक बार फिर लगा कि पुलिस तंत्र सहित सेठ-साहूकारों,वकीलों,डॉक्टरों,और गुरुजनों तक के सहयोग से भ्रटाचार की दीमक खुल्लेआम फ़ैली है.आज भी देहाती इलाकों में हॉस्पिटल जैसी चिड़ियाँ मिलना मुश्किल है और मज़बूरन आदमी जादू-टोने के भरोसे ही सांस लेते हैं.एक बार फिर सच तो यही लगने लगा है कि जुग्गियों और बस्तियों की ज़िंदगी में पास बहते नदी-नाले के पानी में थप-थप करने और कूदने पर छपाक-छपाक आवाजें आने मात्र ही उनके मनोरंजन के साधन बनकर उन्हें खुशियाँ देते हैं,और ये ही वो जगह है जहां वे अपना दु:ख साझा कर सकते हैं.वाकई ये उपन्यास वर्तमान को उकेरता है,तो बहुत दूर तक पढ़ा जाएगा.शुभकामनाओं के साथ

गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

डॉ0 वीणा श्रीवास्तव का स्मृति-उपवन है "कितने अपने"

मनुष्य कितना ही विकास क्यों न कर ले किन्तु वह स्वयं को स्मृतियों से मुक्त नहीं कर पाता है। पता नहीं यह मोहपाश है अथवा बीते पलों को न भुला पाने की विवशता कि व्यक्ति जाने-अनजाने ही स्मृतियों के विशाल उपवन में विचरण करने लगता है। सुखद पलों की सोंधी महक एसे भटकाती है तो दुःखद पलों के काँटों की चुभन एक टीस पैदा करती है। डॉ0 वीणा श्रीवास्तव की स्मृतियों का उपवन उन्हें भी कभी महकाता है तो कभी एक टीस सी देता दिखता है। इन स्मृतियों का वे आज जिस तरह स्वयं अनुभव करतीं हैं वही अनुभव ‘कितने अपने’ के द्वारा अपने पाठकों को भी करवातीं हैं।

‘अब वो मिठास कहाँ’ से शुरू उनकी स्मृति-यात्रा पैंतीस सोपानों से गुजरते हुए अन्त में वर्तमान में खड़ा करती है। इस पूरी स्मृति-यात्रा में हर पल यही अनुभव होता रहा कि हाँ, ऐसा तो कुछ मेरे साथ भी हुआ है। ‘कितने अपने’ का आरम्भ ही समूची स्मृतियों का सूत्र-वाक्य लगता है कि ‘उस गुठली या फाँकों में जो मिठास थी वो अब किलो भर आम या पूरे खरबूजे में कहाँ? वो मिठास तो संतुष्टि की थी, आम या खरबूजे की नहीं।’
बचपन की स्मृतियों में ले जाती लेखिका तत्कालीन समाज का चित्र भी अनायास हमारे सामने खींच ले जाती हैं। ‘कमथान साहब’ ‘बटेश्वरी चाचा’ ‘बहर साहब’ के लबों से गुजरता ‘हुक्का’ बाबू जी के मुँह पर रुकता तो वह मात्र विषयों की चर्चा, किसी निर्णय, पारिवारिक मसलों का आधार नहीं बनता वरन् तत्कालीन सामुदायिकता का परिचायक भी बनता है। संयुक्त परिवारों की दृढ़ता के साथ-साथ सामाजिक सम्बन्धों को भी पुष्ट करता दिखता है। ऐसी सामुदायिक भावना के मध्य ही लेखिका ‘परमट वाली बहू’ ‘चुन्नीगंज वाली महाराजिन’ तथा ‘रामानुज चाचा’ के गुम हुए चेहरों को खोजती है, जो परिवार के सदस्य न होकर भी एक पारिवारिक सदस्य की भाँति आदर और सम्मान के पात्र रहे। ‘जहाँ देखो वहाँ मुखौटे ही मुखौटे हैं। चलो ढूँढती हूँ इन्हीं मुखौटों में शायद कुछ लोग ऐसे मिल जायें जिन्हें मैं कह सकूँ ये ‘कितने अपने’ हैं, की एक टीस के बीच लेखिका पुराने सम्बन्धों का आधार तलाशने का प्रयास भी करती हैं।
लेखिका डॉ0 वीणा श्रीवास्तव का संगीत के साथ-साथ साहित्य से भी जुड़ा होना उन्हें अत्यधिक सम्वेदनशील बनाता है। यही कारण है कि वर्तमान कालखण्ड से कहीं बहुत दूर किसी समय में जब वे स्वयं बचपन की शरारत, मासूमियत, निश्छलता को जी रही थीं, उन्हें उस समय की कुछ किरिचें आज भी चुभती हैं। इसी चुभन के बीच वे पारिवारिक संरचना की मिठास को खोजती हुई तुरन्त ही ‘पीपल की शादी’ ‘वह तोड़ती ईंट’ जैसी मनोवैज्ञानिक वेदना को भी प्रदर्शित करती हैं।
‘रंगपासी’ के माध्यम से आँगन में खड़ी दीवार की टीस, विभा का ‘प्रेमघट, रीता का रीता’ रह जाना, ‘मुनिया’ का पिंजड़े में बद्ध जीवन, शोभा के प्रति डॉक्टर की ‘अमानुष’ होने की वेदना को गहराई से प्रकट करना लेखिका के सम्वेदनशील होने का प्रमाण है। इसी सम्वेदनशीलता के कारण वे बचपन की ‘पतंग’ को न उड़ा पाने की विवशता को याद रख पाती हैं तो छोटी सी चवन्नी के सहारे बालसुलभ प्रतिद्वन्द्विता के रूप में अपनी सहेलियों को प्रत्युत्तर भी देती हैं तथा खुद को क्षणिक अमीर बने होने का भाव भी हृदय में सहेजे रह पाती हैं।
परिवार, रिश्ते, नाते, सम्बन्धियों, दोस्तों, सहेलियों के आत्मीय व्यवहार को अपनी सुखद स्मृतियों में सँजोये लेखिका प्रकृति प्रेम को भी आत्मीय रूप में अपने में समाहित किये हैं। तभी उन्हें खजुराहो की कलाकृतियों में, मंदिरों में एक प्रकार का दर्शन दिखता है तो हिमालय की चोटियों, पर्वत श्रेणियों, झीलों, जलप्रपातों में मानवीय गुणों को देख उनका मन मंत्रमुग्ध हो उठता है। सम्वेदनशील हृदय की मलिका होने के कारण यदि वे अपनी ‘बिटिया’ के प्रति संवेदित हैं तो नन्हे से खरगोश चीकू के प्रति भी असंवेदनशील नहीं होती हैं। इसी स्वच्छ और निर्मल चित्त होने के कारण उन्हें और उनके पूरे परिवार को नारियल में माँ दुर्गा के साक्षात दर्शन प्राप्त होते हैं।
‘कितने अपने’ की लेखिका डॉ0 वीणा श्रीवास्तव का लगाव संगीत से बचपन से ही रहा है। ‘गुरु कृपा’ से वे आज इसी क्षेत्र में अध्यापन कार्य से जुड़ी हैं। संगीत की लय, तालबद्धता, उतार-चढ़ाव उनके स्मृति-लेखन में भी दिखाई देता है। एक-एक संस्मरण जैसे उनके मन-मष्तिष्क से कागज पर सीधे उतर आया हो। बिना किसी कृत्रिमता के, बिना किसी साहित्यिकता के शब्दों में संगीत की लहरियाँ दिखती हैं, रेखाचित्र सी चित्रात्मकता है तो शब्दों का नैसर्गिक प्रवाह। गीतों की रवानी सी इस पूरे संकलन ‘कितने अपने’ में देखने को मिलती है। बचपन की बात करते-करते अपने परिवार को याद करना, परिवार को याद करते-करते प्रकृति की गोद में चले जाना, प्रकृति की मनमोहक छवि के बीच अपने किसी प्रिय की परेशानी याद करने लगना और इन सबके बीच फिर से बचपन की किसी घटना का स्मरण करने लगना दर्शाता है कि लेखिका ने किसी प्रयास रूप में स्मृतियों का उपवन तैयार नहीं किया है वरन् स्मृतियों का जो स्वरूप मन-मष्तिष्क में उभरता रहा वही ‘कितने अपने’ के रूप में सामने आया।
बिना प्रयास के स्वतः स्फूर्त रूप से उभरती स्मृतियों के मध्य कुछ कमी सी लगती है। ऐसा शायद उन्हें न लगे जो लेखिका से परिचित नहीं हैं पर जो डॉ0 वीणा जी के सम्पर्क में हैं वे आसानी से उस कमी को देख सकते हैं। यह मेरा सौभाग्य है कि लेखिका का वरद् हस्त मेरे ऊपर भी है। पिछले कई वर्षों का आत्मीय, पारिवारिक सम्पर्क होने से यह कमी मुझे भी दिखी। स्मृतियों के इस उपवन में उनके छोटे भाई संदीप की महक नहीं दिखती है, उनकी अन्य बहिनों की अंतरंगता परिलक्षित नहीं हुई है, उनके जीवनसाथी डॉ0 अरुण कुमार श्रीवास्तव के सहयोग और प्रेम की विश्वासधारा भी नहीं दिखी, जो महाविद्यालय एक लम्बे अरसे से लेखिका की विविध गौरवमयी उपलब्धियों का मूक दर्शक रहा है उसकी चमक इन स्मृतियों में प्रकाशित नहीं हो सकी। ये स्थितियाँ भी दर्शाती हैं कि लेखिका ने स्मृतियों को सँजोने का जो प्रयास किया है उसको शब्दरूप नहीं दिया है वरन् वे स्वतः, स्वच्छन्द रूप से निर्मित होकर ‘कितने अपने’ के रूप में सामने आईं हैं।
हाँ, इसके साथ यह भी हो सकता है कि जिन स्मृतियों की सुगंध की कमी दिखती है, लेखिका उन कुछ स्मृतियों को अपनी थाती के रूप में सहेज कर उस उपवन में नितान्त निजी रूप में स्वयं ही विचरण करना चाहती हों, उनका अकल्पनीय सुख वे स्वयं ही भोगना चाहती हों।
कुछ भी हो ‘कितने अपने’ के बाद भी अभी और बहुत से कितने अपने शेष हैं जिनसे मिलने को पाठकगण आतुर हैं। आशा है कि डॉ0 वीणा श्रीवास्तव अपने स्मृति-उपवन की सैर आगे भी हम सभी को करवाती रहेंगीं।
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कृति-कितने अपने (स्मृतियाँ)
रचनाकार-डॉ0 वीणा श्रीवास्तव
प्रकाशक-नमन प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ-101
मूल्य-रु0 150.00 मात्र
समीक्षक-डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

बुधवार, 9 जून 2010

काव्य दूत,,,,,,,,,,,,,


  पुस्तक समीक्षा 
 पुस्तक--काव्यदूत ( काव्य सन्ग्रह), रचनाकार--डा श्याम गुप्त , समीक्षक--कवि राम देव लाल "विभोर" , प्रकाशक- सुषमा प्रकाशन, आशियाना, लखनऊ 

काव्यदूत कवि श्याम का,पढ़ा मिला आनंद |

कहीं 'सुगत' दिक्पाल है,कहीं मुक्त है छंद |

अनुभव का आला लिए,अति उत्तम तजवीज़ |
सुकवि श्याम के काव्य में,विविध रंग के बीज |

आस पास के दृश्य को, रचनाओं में ढाल |
श्याम'सलोनी उक्ति कह,सबको करें निहाल |

सरल, खडी- बोली मधुर, उत्तम भाव- विभाव |
गतिमय कविता श्याम की,दिल पर करे प्रभाव |

पुस्तक में दो खंड हैं , रचनाएँ हें साठ |
यति गति लय में सभी का,मनमोहक है पाठ |

पीर कहीं, माया कहीं , कहीं सुहाना गीत |
सूनी राहें चल रहे , श्याम सभी के मीत |

अंधियारी रजनी कहीं, दूर क्षितिज के पार |
चंचल धारा है कहीं , गम का कहीं निखार |

छोटी छोटी बात को, कलापूर्ण दे चित्र |
सुकवि 'श्याम अब होगये, काव्य कला के मित्र |

यादों की अल्बम लिए,सरल श्याम के भाव |
दिन दुगुना, निशि चौगुना,बढ़ा रहे अब चाव |

साधुवाद कवि श्याम को , देते आज 'विभोर |
ईश करे, दिन दिन बढे, उनकी रचना डोर