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शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

"मौत का तांडव " - नरेद्र कुमार

छिपे-छिपाए चकमा देकर,


असला बारूद भरकर


आ गये फिल्मी नगरी के भीतर


देखा इंसानी चेहरों को


मासूम भी दिखें, उम्र दराज जिंदगियां भी थी


पर शायद दरिंदगी छुपी थी सीने में


उनके जहन में था व्य्हसियानापन


कुछ आगे पीछे सोचे बगैर


मचा दिया कोहराम, बजा दी तड़-तड़ की आवाजें


बिछादी लाशे धरती पर


क्या बच्चें, बूढे और जवान


क्या देशी व विदेशी, चुन-चुन कर निशान बनाया


लाल स्याही से, पट गया धरती का आंगन


कुछ हौसले दिखे, दिलेरी का मंजर दिखा


जो निहत्थे थे पर जुनून था


टकरा गए राई मानो पहाड़ से


खुद की परवाह किए बगैर


शिकस्त दिया खुद भी खाई


वीरता से जान गवाई, बचे खुचे दहशतगर्द


आग बढ गए, ताज को कब्जे में किया


फिर जो दिखा, दुनिया भी देखी


आतंक का चेहरा, कत्ले आम किया।


कुछ बच गए, रहमत था उनपर


जो मारे गये, किस्मत थी उनकी


फिर युद्ध चला, पराजित भी हए


पर जांबाजो की ढेर लगी


मोम्बत्तियां जली आंसू बहें, एकता का बिगुल बजा,



नेताओं पर गाज गिरी, निकम्मों को सजा मिली


सबूत ढूंढे गए, दोषी भी मिले


सजा देना मुकम्मल नहीं


लोहा गरम है, कहीं मार दे न हथौड़ा


पानी डालने के लिए, अब कुटनीति है चली


लेकिन जनता जाग चुकी है


सवाल पूंछने आगे बढी है


पर शायद जवाब, किसी के पास है ही नहीं


जिन्होंने देश को तोड़ा, जाति क्षेत्रा मजहब के नाम पर


आज खामोश है वे सब,


मौकापरस्ती और, तुष्टिकरण की बात पर


चुनाव आनी है, दो और दो से पांच बनानी है


खामोश रहना ही मुनासिब समझा


बह कह दिया, सुरक्षा द्घेरा, हटादो मेरा!


कुछ दिनों तक तनातनी का


यहीं चलेगा खेल, फिर बढ़ती आबादी की रेलमरेल


एक बुरा सपना समझकर, फिर सब भूल जायेंगे


याद आयेंगे तब, जब अगली बार फिर से


मौत का तांडव मचायेंगे।