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गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

" मैं हिंदी "-----(कविता)-------वीनस**** जोया

हर बार यही मंजर दोहराया गया
मुझे मेरे ही घर में गिराया गया
पराये रौशनी आँखों में सजा ली
घर का कंदील कहीं छुपाया गया
मैं हिंदी मुडी तुडी किसी वेद की
सिलवट पे चिपकी पड़ी रह गयी
मेरे अपनों ने अंग्रेजी की पोषक से
अपने तन को सजा - सवार लिया
अपना आस्तित्व खरपतवार सा
प्रतीत हुआ मुझे जब अपनों की
महफिलों में मेरा रूप नकारा गया
मैं "हिंदी" सिर्फ कुछ कक्षाओं में
अब मात्र विषय बन के रह गयी
जुबां पे सजने की अदा और हुनर
खोखले दिखावों में छुपता गया
उर्दू - पंजाबी सरीखी बहनों से
अपना आस्तित्व बाँट लिया मैंने
और अब बाहर की सौतन से भी
धीरे धीरे मेरा सुहाग बंटता गया
शिकवा शिकायात करूँ तो क्या
अपनी जुबां से तो हटा चुके थे.
अब ज़ेहन से भी मुझे हटाया गया.......