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गुरुवार, 28 जनवरी 2010

“कुहरा” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)

आस-पास है बहुत अंधेरा, देखो हुआ सवेरा! सूरज छुट्टी मना रहा है, कुहरा कुल्फी जमा रहा है, गरमी ने मुँह फेरा! देखो हुआ सवेरा! भूरा-भूरा नील गगन है, गीला धरती का आँगन है, कम्बल बना बसेरा! देखो हुआ सवेरा! मूँगफली के भाव...

क्योंकि यहाँ संस्कृति, मर्यादा एवं परम्पराओं का कोई डर नहीं है----(मिथिलेश दुबे)

समाज में वेश्या की मौजूदगी एक ऐसा चिरन्तन सवाल है जिससे हर समाज, हर युग में अपने-अपने ढंग से जूझता रहा है। वेश्या को कभी लोगों ने सभ्यता की जरूरत बताया, कभी कलंक बताया, कभी परिवार की किलेबंदी का बाई-प्रोडक्ट कहा और सभी सभ्य-सफेदपोश दुनिया का गटर जो ‘उनकी’ काम-कल्पनाओं और कुंठाओं के कीचड़ को दूर अँधेरे में ले जाकर डंप कर देता है। और, इधर वेश्याओं को एक सामान्य कर्मचारी का दर्जा दिलाए जाने की कवायद भी शुरू है। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ है कि समाज अपनी पूरी इच्छाशक्ति के साथ उन्मूलन के लिए कटिबद्ध हो खड़ा हो जाए; तमाम तरह के उत्पीड़न-दमन और शोषण का शिकार...