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गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

"तिरानब्बे वर्ष की आयु में भी कुर्सी से चिपकने का जुनून उनमें था।" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

‘‘माया मरी न मन मरा, मर-मर गये शरीर। आशा, तृष्णा ना मरी, कह गये दास कबीर।।’’कान में सुनने की बढ़िया विलायती मशीन, बेनूर आँखों पर शानदार चश्मा। उम्र तिरानबे साल। सभी पर अपने दकियानूसी विचार थोपने की ललक। घर में बेटे-पोते, पड़-पोते, लेकिन कोई भी बुढ़ऊ के उपदेश सुनने को राजी नही।अब अपना समय कैसे गुजारें। किसी भी संस्था में जाये तो अध्यक्ष बनने का इरादा जाहिर करना उनकी हाबी।आज इसी पर एक चर्चा करता हूँ।आखिर मैं भी तो इन्हीं वरिष्ठ नागरिक महोदय के शहर का हूँ। फिर ब्लाग पर तो लिख रहा हूँ। किसी को पसन्द आये या न आये। क्या फर्क पड़ता है?मेरे छोटे से शहर में...