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शनिवार, 1 अगस्त 2009

मज़हब .......(जीत स्वप्न )

जब भी , दरख्तों पर बैठे पंछियों की तरह मैंने चहचहाना चाहा ; जब भी, फूलों पर बैठे भंवरों की तरह मैंने गुनगुना चाहा ; जब भी, बागों में खिलते फूलों की तरह मैंने मुस्कुराना चाहा ; जब भी , इस शहर में रहने के लिए मैंने इक आशियाना चाहा ; जब भी, एक पागल प्रेमी की तरह मैंने उसे पाना चाहा ; हर बार, रहा खामोश हर बार,हुआ मजबूर हर बार, लौटा नाकाम हर बार, पुछा गया मुझसे मेरा मज़हब !! ...