नहीं यह धर्म मनुष्य का, कीकठिनाइयों से मान ले हार
बैठ जाय होकर निष्क्रिय
खो दे, शत-चैतन्य आसार
तेरे उर की उत्कंठा को
न रोक सकेंगे दुर्दिन
बन कर कारा
तू नहीं अल्प्स्थाई हिमकण
तू तो है चिर-उज्जवल अंगारा
मत भ्रमित विचलित हो
करके घोर तम का अनुमान
सहज खुल जाते अगम द्वार
देखकर निष्फिक्र मुस्कान
चाहे क्रुद्ध हो जाये यह प्रकृति
मार्ग रोके पवन या कौंधती
दामिनी बरसाए ये आकाश
रह अटल, ले ठान, दृढ लक्षित
है संकल्प तेरा
करे तो करती रहे, दिशाएँ उपहास
विजयपथ की कठिनाइयाँ...