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शनिवार, 16 अप्रैल 2011

बेपरवाह मुस्कान {कविता} सन्तोष कुमार "प्यासा"


कठिनाइयों से मान ले हार 
बैठ जाय होकर  निष्क्रिय 
खो दे, शत-चैतन्य आसार 
तेरे उर की उत्कंठा को 
न रोक सकेंगे दुर्दिन 
बन कर कारा
तू नहीं अल्प्स्थाई हिमकण
तू तो है चिर-उज्जवल अंगारा 
मत भ्रमित विचलित हो 
करके घोर तम का अनुमान
सहज खुल जाते अगम द्वार 
देखकर निष्फिक्र मुस्कान 
चाहे क्रुद्ध हो जाये यह प्रकृति 
मार्ग रोके पवन या कौंधती 
दामिनी बरसाए ये आकाश
रह अटल, ले ठान, दृढ लक्षित 
है संकल्प तेरा
करे तो करती रहे, दिशाएँ उपहास 
विजयपथ की कठिनाइयाँ तो है,
विजयश्री के पुरस्कार
मत समझ इनको अवरोध
हट जाते मार्ग से अचल पर्वत भी
यदि हो निज का बोध
 रहे ज्ञात, है बदलना इतिहास तुझे 
छोड़ जाना है नाश पथ पर चिन्ह 
रचता स्वयम ही निज प्रारब्ध तू
है स्वयं का शाषक  तू , नहीं रखता यह 
अधिकार कोई भिन्न 
विशेष- निचे की पंक्ति "रहे ज्ञात...", "मनेवमनुष्याणाबंधनौ मोक्ष कारणम" श्लोक पर आधारित है !