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बुधवार, 28 मार्च 2012

विनोबा का भूदान और आज का भारत----(कन्हैया त्रिपाठी)

गांधी के सच्चे लोगों में विनोबा भावे एक ऐसा नाम है जो वास्तव में गांधी जी के कार्यों को भली प्रकार उनकी मृत्यु के बाद आगे ले गए। विनोबा ने अपने समय के उन मूल्यों और आध्यात्मिक पहलुओं पर विचार किया जो किसी गांधीवादी और सच्चे समाज सेवक के लिए मिसाल है। उनके जीवन का सबसे उत्तम आन्दोलनों में पहले गांधी के रचनात्मक कार्य प्रमुख थे लेकिन वह जय जगत के वास्तविक स्वरूप को पाने के लिए भूदान आन्दोलन की ओर बढ़े।
उन्होंने 18 अप्रिल, 1958 को गांधी की मृत्यु के 10 वर्ष बाद इस आन्दोलन की शुरुआत तेलंगाना क्षेत्र के पोचमपल्ली गांव से की। भूदान का अर्थ है-भूमिहीनों के भूमि दरिद्रता को दूर करने की एक पहल। इसके अन्तर्गत वह जमींदारों के पास पड़ी पर्याप्त भूमि को वितरण के लिए सबके बीच आगे आए। इस तरह का एक आख्यान भारतीय वाड.मय में विद्यमान है। लेकिन उस दौरान भूमिदान का कार्य बामनावतार के अनभिज्ञता में किया गया था लेकिन इस युग में विनोबा ने जो भूमिदान के लिए लोगों को तैयार किया और तेलंगााना में इसकी शुरुआत की वह जानते बूझते लोगों के बीच हुआ।
उनके इस भूदान आन्दोलन को जनान्दोलन के रूप में हम सभी देखते हैं। जयप्रकाश नारायण ने इस आन्दोलन को शोषणविहीन समाज की स्थापना की संज्ञा दी थी। जेपी का कहना था कि यह आन्दोलन न केवल नवीन जीवन पद्धति और सिद्धांत का दर्शन है बल्कि यह सामाजिक क्रांति का भी द्योतक है। वास्तव में हमारे यहां जमींदारों और जागीरदारों के बीच चल रहे संघर्ष को इसके अलावा किसी अहिंसक पद्धति से निपटा नहीं जा सकता था। सबसे बड़ी बात यह है कि तेलंगाना में 51 दिनों में 12201 एकड़ जमीन दान में आयी, यह मामूली बात नहीं है। किसी भी आन्दोलन की यह निश्चितरूप से बड़ी सफलता थी। यह वह दौर था जब भारत को मात्र 10 वर्ष आजाद हुए हुआ था और जिनके पास जमींदारी थी वह खूब अघाए से थे। भारत की अधिकांश जनता के पास भूमि का कोई अधिकार नहीं था। जिनके पास कुछ भी नहीं जमीन थी वह बेचारगी का जीवन जी रहे थे। स्वयं विनोबा ने कहा है कि गांधी जी के जाने के बाद अहिंसा के प्रवेश के लिए मैं रास्ता ढूढता था। मेवात के मुसलमानों को बसाने का सवाल था उसी ख्याल से मैंने अपने हाथ में लिया। उसमें कुछ अनुभव मिला। उसी साहस से मैं तेलंगाना जाने का साहस किया था। वहां भूान यज्ञ के रूप में अहिंसा से मेरा साक्षात्कार हुआ।
तेलंगांना में जो भूमि मिली उसके पीछे वहां की पृष्ठीाूमि थी। उस पृष्ठीाूमि के अभाव में हिन्दुस्तान के शायद दूसरे हिस्से में वह कल्पना चले या न चले, इस बारे में शंका हो सकती थी। उस शंका से निरसन के लिए दूसरे क्षेत्रों में इसे आजमाना जरूरी था। प्लानिंग कमीशन के सामने विचार रखने के लिए पं. नेहरू ने मुझे आमंत्रण दिया। उस निमित्त मैं पैल यात्रा पर निकल पड़ा और लिली तक करीब दो महीने में मुझे 18000 एकड़ जमीन मिली। मैंने देखा कि अहिंसा में प्रवेश के लिए जनता उत्सुक है। विनोबा के यह शब्द निःसंदेह एक प्रयोगवादी सन्त के शब्द प्रतीत होते हैं जो कुछ निश्चित उद्देश्य को पूर्ण कर लेते हैं। वह अपने उस प्रयोग के बारे में खुद आश्चर्य से देखते हुए जैसे कहते हैं-नतीजा यह हुआ कि सेवापुरी के सर्वोदय सममेलन में सारे हिन्दुस्तान के लोग मिलकर अगले दो साल में 25 लाख एकड़ जमीन प्राप्त करने का संकल्प लिया। 25 लाख एकड़ से हिन्ुस्तान के भूमिहीनो का मसला हल हो जाता है, ऐसा नहीं है।उसके लिए तो कम से कम 5 करोड़ एकड़ जमीन चाहिए, ऐसा उनका मानना था।
भारत में आज भी सीमांत किसान हैं और उनका जीवन मजदूरी आदि पर चलता है। आज संसाधन अधिक है। अवसर अधिक है। गांव नही ंतो शहर ही उनके आजीविका का सहारा है लेकिन उस वक्त जब इतने दरवाजे नहीं थे, उस समय चुनौती थी। विनोबा जी ने उस चुनौती को स्वीकृत करते हुए आम जीवन के बारे में यह मुहिम छेड़ी थी जो बाद में बिहार, उत्तर प्रदेश और भारत के विभिन्न कोने में भूदान से ग्रामदान तक अपना विस्तार पा ली।
यह वही गांव हैं जो भारत को वास्तविक रूप में प्रस्तुत करते हैं। इतिहास की दृष्टि से भारत का गाँव और उसकी सामाजिक संरचना गाँव की जीवन्तता से थी। वैदिक साहित्य में ‘सभा’ व ‘समिति’ शब्द का ज़िक्र बार-बार मिलता है। पंचायतों में ‘नरिष्ठा’ जैसे सम्मानित पदों का ज़िक्र भी है। अथर्ववेद के एक श्लोक को मैं यहाँ उद्धृत करना चाहूँगा -
विदद् ते सभे नाम नरिष्ठा नाम वा असि।
ये ते के च सभासदस्ते में सवन्तु सवाचसः।।
अथर्ववेद 7/12/2

वैदिक काल के गाँवों के बारे में ऐसी मान्यता है कि प्रत्येक गाँव स्वायत्त राज्य की भाँति कार्य करता था जो प्रायः आज भी कबीली संस्कृति में विद्यमान है। ‘गणराज्यों’ और ‘संघों’ का वर्णन तो रामायण में भी है। छोटे गणराज्यों से बने ‘संघ’ और उसमें ‘पौर जनपद’ जैसे पदों का विवेचन वाल्मीकि ने अपने संस्कृत महाकाव्य में किया है।
महाभारत कालीन समय का अवलोकन करें तो भारतीय भू-भाग पर पंचायतें बिल्कुल चर्चा में थीं। वह इसलिए क्योंकि रामायण कालीन ‘पौर जनपद’ वैदिक काल में ग्रामणी ‘मुखिया’ के रूप में मिलते हैं तो महाभारत काल में वही राज्य में सीधा हस्तक्षेप करने वालों में सुमार किए जाते हैं। इस प्रकार भारतीय प्राच्य इतिहास हमारे गाँव व गंवई सभ्यता के महत्वपूर्ण दस्तवेज़ से पटे पड़े हैं।
मौर्यकालीन कौटिल्य का अर्थशास्त्र हो या बौद्धकाल में संघों की कार्यप्रणाली इसमें ग्रामीण जीवनचर्या अथवा अर्थव्यवस्था की जो भी चर्चा की गई है उसमें केवल राज्य नहीं थे बल्कि ग्रामीण जनजीवन भी थे। मैगस्थनीज ने खुद जिन दस्तावेज़ों में अपने संस्करण लिखे हैं उसमें ‘ग्राम शासन’ की पर्याप्त चर्चा की है। फाह्यान और ह्वेन सांग ने भारतीय ग्राम्य जीवन के स्वावलम्बन व शांतिवादी प्रकृति को रेखांकित किया है। इन पर्यटकों की दृष्टि में तत्कालीन न्याय पंचायतों में न्याय व्यवस्था का अद्भुत दृश्य भारत में प्राप्त होते हैं।
मुस्लिम शासन काल में गाँवों की अस्मिता और पहचान उसी रूप में है जो गाँव के ‘स्व’ को बनाए रखें। 1812 में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना के बाद गाँवों के रिसोर्सेज चिन्हित किए जाने लगें लेकिन उनकी स्वायतत्ता बर्करार रही किंतु रिसोर्सेज की पहचान ने गाँवों को बाद में बहुत हानि पहुंचाई। लघु व कुटीर उद्योगाँें से डरी अंग्रेजी हुकूमत ने गाँवों को तहस-नहस करने का फैसला किया। भारी मात्रा में करों का बोझ तथा ग्रामीण संसाधनों की लूटपाट से गाँव तबाह हुए।
1857 की क्रांति के बाद का भारतीय ग्रामीण जीवन अंग्रेजों का कोपभाजक बना क्योंकि उस समय के गाँव में क्रंाति की लहर इस प्रकार दौड़ी की अंग्रेज हतप्रभ रह गए। नव्य चेतना ने अंग्रेजी हुकूमत की सम्पूर्ण बगावत में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी इसमें गाँवों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। गाँव की संख्या भारत में सम्पूर्ण आबादी की 80 प्रतिशत से भी अधिक की आबादी थी। भारतीय लघु व कुटीर उद्योग तथा प्रतिरोध की संस्कृति का स्रोत गाँव था इसलिए गाँवों के प्रति क्रूरता अंग्रेजों का मुख्य पहलू बन गया। यह वह दौर था जब भारत अकाल ग्रस्त बार-बार हो रहा था। गजेटियर यह बताते हैं कि 1850 से 1900 तक भारत में लगभग 24 बार अकाल पड़े। अंग्रेज भारतीयों को राहत पहुँचाने की जगह कर-वसूली के लिए गाँव में ज्यादा पहुँचे। शाही रिपेार्ट (1909) से पूर्व लार्ड मेयों (1870), लार्ड रिपन प्रस्ताव (1882) तथा 1880 के अकाल आयोग की रिपोर्ट में भारतीय गाँवों की दूर्दशा दिल दहला देने वाली घटनाओं का स्मरण कराती हैं। यह इतिहास हमारे गांव के तमाम कहानियों से पटा पड़ा है।
आजादी के बाद हमारा दायित्व कुछ और था जो समता मूलक समाज का सृजन करे लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण ही दौर कहा जाएगा कि उस दौर में भारत की अधिकांश जमीन सवर्णों के पास थी। भारत के सवर्ण जातियों का इस पर आधिपत्य था। दलित, शोषित और वंचित इनसे वंचित थे। वे अपने मालिक या अपने जमींदार के कृपा पर अपना और अपने परिवार का गुजारा करते थे। यह किसी आजाद भारत के दस वर्षीय इतिहास के बाद के समय था जो कलंकपूर्ण ही समझा जाएगा। इस सिलसिले में विनोबा की भूदान आन्दोलन की ओर गयी दृष्टि निःसंदेह एक ऐसे जन आन्दोलन का पर्याय है।
गाँधी ने अपने अंतिम वसीयतनामे में कहा था, ”शहरों-कस्बों से भिन्न उनके सात लाख गाँवों की दृष्टि से हिंदुस्तान की सामाजिक, नैतिक और आर्थिक आज़ादी हासिल करना अभी बाकी है।“ विनोबा ने सोचा रस्किन के ‘अन टू दिस् लॉस्ट’ व गाँधी का सर्वोदयवाद गाँवों के समस्तजन के लिए अपरिहार्य है। उस अवधारणा का प्रासार्य पूरी गाँव की देसज सभ्यता में जब तक नहीं होता तब तक भारतीय ग्राम्य संरचना, उसका संस्कृतीकरण और मानवीकरण नहीं हो सकता और इस अभाव में स्थानिकता, विकास व पर्यावरण, सबको हानि पहुँचेगी। हमारी प्राचीन सभ्यता से अब तक के गाँव की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, नैतिक उन्नति जो कुछ हुई, वह उसके मूल सौन्दर्य की वहज से रही, इस कटु सत्य को स्वीकारते हुए हमें उन संस्कृतियों व सभ्यताओं से बचने की जरूरत है जो हमारे गाँव को जीवन्त नहीं देखना चाहते। हमें ऐसे मार्ग प्रशस्त करने हैं, जिससे गाँव का मौलिक व सार्थक सम्मान बढ़ सके, यही समय की अपेक्षा भी है। विनोबा के भूदान आन्दोलन के पीछे यह सपना था।

आज इक्कीसवीं सदी का एक दशक बीत चुका है। आज विनोबा हमारे बीच नहीं हैं। सरकारी स्तर पर भारत में गाँवों के लिए जो योजनाएं चलायी जा रही हैं उसका असर कई कारणों से गाँववासियों को नहीं मिल पा रहा है। इसका एक प्रमुख कारण भ्रष्टाचार तथा अपने उत्तरदायित्वों से नेतृत्वकर्ताओं का भटकाव भी है। उत्तरदायित्वों का भटकाव इस तरह कि अब विनोबा नहीं हैं तो उनके कार्य को आगे ले जाने का साहस जो टूटा है वह किसी भी जन-आन्दोलन की मृत्यु का सूचक है।
पिछले 100 वर्षों में भी हमारे गाँव हमारी अस्मिता को बनाए रखने में संबल का काम किए हैं, लेकिन गाँवों से हमारा मोह टूटता गया। ऐसी भ्रांति पैदा हुई कि गाँव हमारे काम के नहीं रह गए। शहरों की तरफ भागती आबादी को अब गाँव अच्छे नहीं लग रहे हैं। उन्हें शहर लुभा रहे हैं। हालांकि मल्टीनेशनल्स कंपनियों की निगाह में गाँव है शहरों की अपेक्षा, क्योंकि शहर में उन्होंने अपना जादू चला रखा है अब गाँव को बदलने की वकालत वे शुरू किए हैं। उस समय तो भूदान की बात की जाती थी अब जो व्यवस्था है वह ग्रामदान किसी मल्टीनेशनल्स को करना चाहती है जो गांव को बदलेगा। वहां बाजार ढूंढ़कर, वहां अपने उत्पाद बेचकर और अपनी धाक जमाकर उन्हें हर तरह से कंगाल करेगा।
बदलते दौर की इस लूट को हम किस प्रकार से देखें। सवर्ण आज जिस जमीन पर काबिज हैं वह अब आम लोगों की जमीन नहीं बनेगी। जो आदिवासी समाज की जमीन है। जो गांव के किसी छोटे किसान की जमीन है उसको अधिग्रहण करने के लिए सरकार के पास एक्ट बनाए गए हैं। पश्चिम बंगाल के नए भूमिग्रहण आन्दोलन को उस श्रेणी में रखकर हम देखें तो जो पश्चिम बंगाल में पूंजीवादियों के लिए भूमि अधिग्रहण करके दी जा रही थी उसके लिए प्रतिरोध हुआ। भूदान का मायने बदल गया। यह दान लेने की पात्रता किसमें है, यह तो सरकारें तय करेंगी। यह विनोबा के किसी भूदान आन्दोलन का अपमान है। और एक क्रूर नग्न नाच है।
विनोबा का तो सपना था गांधी द्वारा देखा गया राम राज्य का सपना। वह जय जगत का सपना था। जय जगत में जनता-जनार्दन आते हैं। उसमें न तो ये मल्टीनेशनल्स आते हैं और न ही पूंजीवादी लोग जो भूमि को गांव के लिए ही कुछ वक्त बाद अभिशाप बनाकर छोड़ देने वाले है। यह लोग न ट्रस्टीशिप के पोषक हैं और न ही किसी को अपने एक भी पाई का उपयोग चाहते हैं। लुटेरों के लिए दान शब्द का प्रयोग पाप है। उनके भूदान को मैथिलीशरण गुप्त ने निम्न प्रकार प्रकट किया है-


भूमण्डलीकरण के इतिहासकार आज भले गाँधी को भी देहती-बुद्धूपने की सोच की संज्ञा दें और नवपूंजीवादी साम्राज्यवादी व बर्चस्ववादी बाजारू संस्कृति को सही ठहराएं, आधुनिक औद्योगीकरण तथा तकनीकी विकास को जायज बताएं, साथ ही शहरीकरण को मनुष्य को जीवन्त करने का माध्यम बताएं लेकिन इसमें साधन व साध्य की सही समझ का अभाव है। जिस साधन से साध्य हासिल करने की कोशिश है वह साधन काम का नहीं होगा क्योंकि साध्य जो है उस ओर हमारा ध्यान कम आकर्षित हो रहा है। इस प्रकार हमारी जो चंचलता व व्यग्रता है वह हमारे समष्टि के लिए ठीक नहीं है। वैकल्पिक तत्वों की खोज गाँवों की मुक्ति के नए आयामों का द्वार खोलेंगे किंतु वह अपने आप नहीं होगा बल्कि उसके लिए हमारा संकल्प प्रतिबद्धता, विश्वास और निष्ठा ठीक होनी चाहिए। भारतीय समाजवादी विचारकों यहाँ तक कि गाँधी की हम बात करें या सम्पूर्णानन्द की बात करें उन्हें गाँवों की देसज-सभ्यता व देहाती संस्कृति के अपने महत्व दिखे गाँधी ने अपनी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ में इस पर खुलकर लिखा भी है। वह वही बात करते हैं जो विनोबा ने उनकी उपस्थिति में आगे बढ़ाया लेकिन अब आज जो दौर आ गया है उसमें संघर्ष और संवाद ही खत्म होते जा रहे हैं।
उसकी एक वजह यह लगती है कि लोगों का आध्यत्मिक भटकाव अब कुछ ज्यादा ही हो गया है। लोग सबै भूमि गोपाल की जगह लूट और चोरी पर उतर आए हैं। जनान्दोलनों को कुचलकर उन साम्राज्वादी शक्तियों को पोसने का यह कुचक्र कब तक चलेगा यह कहा नहीं जा सकता। बिहार के अब भी ज्यादातर भूमि के मालिकी पर सवाल खड़े हो रहे हैं। यह सवाल और उसके उत्तर की खोजबीन अब एक सतत चलने वाली चुनौती बनती जा रही है। आजाद भारत का सपना और गांधी तथा उनके प्रथम शिष्य विनोबा का सपना यह कदापि नहीं था जो भूदान के जरिए या विकेन्द्रकृत ग्रामीण सभ्यता के लिए सपना था। ऐसे में प्रश्न है कि जो आम आदमी के निवाले से जुड़े प्रश्न हैं और आम जिन्दगी के प्रतिष्ठा व गरिमा से जुड़े प्रश्न हैं वह कैसे संपृक्त किए जा सकेंगे।
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गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

पत्रकारिता का बदलता स्वरुप....(शिव शंकर)

पत्रकारिता जो की लोकतंत्र का स्तम्भ है, जिसकी समाज के प्रति एक अहम भूमिका होती है, ये समाज में हो

रही बुराईयों को जनता के सामने लाता है तथा उन बुराईयों को खत्म करने के लिए लोगो को प्रेरित करता है। पत्रकारिता समाज और सरकार के प्रति एक ऐसी मुख्य कड़ी है, जो कि समाज के लोगो और सरकार को आपस में जोड़े रहती है। वह जनता के विचारों और भावनाओं को सरकार के सामने रखकर उन्हे प्रतिबिंबित करता है तथा लोगो में एक नई राष्टीय चेतना जगाता है।
पत्रकारिता के विकाश के सम्बन्ध में यदि कोई जानकारी प्राप्त करनी है तो हमें स्वतन्त्रता प्राप्ति के पहले की पत्रकारिता को समझना होगा । पत्रकारिता के विकाश के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि 19 वीं शताब्दी के पूर्वान्ह में भारतीय कला ,संस्कृति, साहित्य तथा उधोग धन्धों को ईस्ट इंडिया कम्पनी ने नष्टकर दिया था, जिसके कारण भारत में निर्धनता व दरिद्रता का साम्राज्य स्थापित हो गया।
इसे खत्म करने के लिए कुछ बुद्विजीवियो ने समाचार पत्र का प्रकाशन किया । वे समाचार पत्रो के माध्यम से देश के नवयुवको कें मन व मस्तिष्क में देश के प्रति एक नई क्रांति लाना चाहते थे, इस दिशा में सर्वप्रथम कानपुर के निवासी पंडित युगल किशोर शुक्ल ने प्रथम हिन्दी पत्र उदन्त मार्तण्ड नामक पत्र 30 मई , 1926 ई. में प्रकाशित किया था। ये हिन्दी समाचार पत्र के प्रथम संपादक थे यह पत्र भारतियो के हित में प्रकाशित किया गया था। ये हिन्दी समाचार पत्र के प्रथम संपादक के पूर्व कि जो पत्रकारिता थी वह मिशन थी , किन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की पत्रकारिता व्यावसायिक हो चुकी है।
हमारे देश में हजारो ऐसी पत्र-पत्रिकायें छप रही है जिसमें पूंजीपति अपने हितो को ध्यान में रखकर प्रकाशित कर रहे है। आधुनिक युग में जिस तरह से पत्रकारिता का विकाश हो रहा है, उसने एक ओर जहां उधोग को बढावा दिया है, वही दूसरी ओर राजनीति क्षेत्र में भी विकसित हो रहा है। जिसके फलस्वरूप राजनीतिज्ञ और राजनीतिक दल बड़ी तेजी से बढ रहे है, इन दोनों शक्तियों ने स्वतंत्र सत्ता बनाने के लिए पत्रकारिता के क्षेत्र में पूंजी और व्यवसाय का महत्व बढ़ता गया । एक समय ऐसा था जब केवल समाचार पत्रों में समाचारों का महत्व दिया जाता था। किन्तु आज के इस तकनीकी और वैज्ञानिक युग में समाचार पत्रो में विज्ञापन देकर और भी रंगीन बनाया जा रहा है।

इन रंगीन समाचार पत्रो ने उधोग धंधो को काफी विकसित किया है। आज हमारें देश में साहित्यिक पत्रिकाओं की कोई कमी नहीं थी, लेकिन उनके पाठकों व प्रशंसकों की हमेशा कमी थी। यही वजह थी की ये पत्रिकायें या तो बन्द हो गई या फिर हमेशा धन का अभाव झेलती रही । यह इस बात का प्रमाण है कि आज इस आधुनिक युग में जिस तरह से समाचार पत्रो का स्वरूप बदला है, उसने पत्रकारिता के क्षेत्र को भी परिवर्तित कर दिया है। समाचार चैनलों ने टी. आर. पी को लेकर जिस तरह से लड़ायी कर रहे है, उसे देखते हुए आचार संहिता बनानी चाहिए और इसे मीडीया को स्वयं बनाने की आवश्यकता है, क्योंकि आदर्श जनतंत्र में यह काम किसी सरकार के हाथों में नहीं दिया जा सकता है। उसे अपने हर खबरो को जनतंत्र के मूल्यों व समाजिक राष्टीय हितो की कसौटी पर कसना होगा , यही सेंसरशिप है, जिसकी पत्रकारिता को जरूरत है। पत्रकारिता वास्तव में जीवन में हो रही विभिन्न क्रियाकलापों व गतिविधियों की जानकारी देता है। वास्तव में पत्रकारिता वह है जो तथ्यों की तह तक जाकर उसका निर्भिकता से विश्लेशण करती है और अपने साथ सुसहमति रखने वाले व्यक्तियों और वर्गो को उनके विचार अभिव्यक्ति करने का अवसर देती है।

ज्ञात रहे कि पत्रकारिता के माध्यम से हम देश में क्रान्ति ला सकते है, देश में फैली कई बुराईयो को हमेशा के लिए खत्म कर सकते है। अत: पत्रकारिता का उपयोग हम जनहित और समाज के भलाई के लिए करें न कि किसी व्यक्ति विशेष के पक्ष में। पत्रकारिता की छवी साफ सुथरी रहे तभी समाज के कल्याण की उम्मीद कर सकते है।

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

मत बाँटो देश (लेख)-----मिथिलेश

नया युग वैज्ञानिक अध्यात्म का है । इसमें किसी तरह की कट्टरता मूढता अथवा पागलपन है। मूढताए अथवा अंधताये धर्म की हो या जाति की अथवा फिर भाषा या क्षेत्र की पूरी तरह से बेईमानी हो चुकी है । लेकिन हमारें यहां की राजनीति इतनी भ्रष्ट हो गई है कि उन्हे देश को बाँटने के सिवाय कोई और मुद्दा ही नहीं दिखता । कभी वे अलग राज्य के नाम पर राजनीति कर रहे हैं तो कभी जाति और धर्म के नाम पर । जिस दश में लोग बिना खाए सो जा रहे हो , कुपोषण का शिकार हो रहें हो , लड़किया घर से निकलने पर डर रही हो उस देश में ऐसे मुद्दों पर राजनीति करना मात्र मूर्खता ही कही जा सकती है । आज से पाँच-छह सौ साल पहले यूरोप जिस अंधविश्वास दंभ एंव धार्मिक बर्बरता के युग में जी रहा था, उस युग में आज अपने देश को घसीटने की पूरी कोशिश की जा रही है जो किसी भी तरह से उचित नही है। जो मूर्खतायें अब तक हमारे निजी जीवन का नाश कर रही थी वही अब देशव्यापी प्रागंण में फैलकर हमारी बची-खुची मानवीय संवेदना का ग्रास कर रही है । जिनकें कारण अभी तक हमारे व्यक्तित्व का पतन होता रहा है जो हमारी गुलामी का प्रमुख कारण रही, अब उन्ही के कारण हमारा देश एक बार फिर तबाही के राह पर है । धर्म के नाम पर , जाति के नाम पर,क्षेत्र के नाम, और भाषा के नाम पर जो झगड़े खड़े किए जा रहे है उनका हश्र सारा देश देख रहा है ।
कभी मंदिर और कभी मस्जिद तो कभी जातीयता को रिझाने की कशिश । दुःख तो तब और होता है जब इस तरह के मामलो में शिक्षित वर्ग भी शामिल दिखता है । ये सब किस तरह की कुटिलताएँ है और इनका संचायन वे लोग कर रहे है जो स्वयं को समाज का कर्णधार मानते हैं । इन धर्मो एवं जातियो के झगड़ो को हमारी कमजोरियों दूर करने का सही तरीका केवल यही है कि देश के कुछ साहसी एंव सत्यनिष्ठ व्यक्ति इन कट्टरताओं की कुटिलता के विरुद्ध एक महासंग्राम छेड़ दें। जब तक यह मूर्खता नष्ट न होगी, तब तक देश का कल्याण-पथ प्रशस्त ना होगा । समझौता कर लेनें, नौकरियों का बँटवारा कर लेने और अस्थायी सुलह नामों को लिखकर, हाथो में कालीख पोत लेने से ,तोड़फोड़ कर लेने से कभी राष्ट्रीयता व मानवीयता का उपवन नहीं महकेगा । हालत आज इतनी गई-गुजरी हो गई है कि व्यापक महांसंग्राम छेडे बिना काम चलता नहीं दिखता । धर्म , क्षेत्र एवं जाति का नाम लेकर घृणित व कुत्सित कुचक्र रचनें वालों की संख्या रक्तबीज तरह बढ रही है । ऐसे धूर्तो की कमी नहीं रही, पर मानवता कभी भी संपूर्णतया नहीं हुई और न आगे ही होगी, लेकिन बीच-बीच में ऐसा अंधयूग आ ही जाता है , जिसमें धर्म , जाति एवं क्षेत्र के नाम पर झूठे ढकोसले खड़े हो जाते हैं । कतिप्रय उलूक ऐसे में लोगो में भ्रातियाँ पैदा करने की चेष्टा करने लगते है । भारत का जीवन एवं संस्कृति वेमेल एवं विच्छन्न भेदभावों की पिटारी नहीं है । जो बात पहले कभी व्यक्तिगत जीवन में घटित होती थी, वही अब समाज की छाती चिरने लगें । भारत देश के इतिहास में इसकी कई गवाहिँया मेजुद हैं । हिंसा की भावना पहले कभी व्यक्तिगत पूजा-उपक्रमो तक सिमटी थी, बाद में वह समाज व्यापिनी बन गयी । गंगा, यमुना सरस्वती एवं देवनंद का विशाल भू-खण्ड एक हत्याग्रह में बदल गया । जिसे कुछ लोग कल तक अपनी व्यक्तिगत हैसियत से करते थे, अब उसे पूरा समाज करने लगा । उस समय एक व्यापक विचार क्रान्ति की जरुरत महसूस हुई । समाज की आत्मा में भारी विक्षोभ हुआ ।

इस क्रम में सबसे बडा हास्यापद सच तो यह है कि जो लोग अपने हितो के लिए धर्म , क्षेत्र की की दुहाई देते है उन्हे सांप्रदायिक कहा जाता है, परन्तु जो लोग जाति-धर्म क्षेत्र के नाम पर अपने स्वार्थ साधते हैं , वे स्वयं को बडा पुण्यकर्मि समझते हैं । जबकि वास्तविकता तो यह है कि ये दोंनो ही मूढ हैं , दोनो ही राष्ट्रविनाशक है । इनमें से किसी को कभी अच्छा नहीं कहा जा सकता । ध्यान रहे कि इस तरह की मुढतायें हमारे लिए हानिकारक ही साबित होंगी , अंग्रजो ने तो हमारे कम ही टुकडे किय, परन्तु अब हम अगर नहीं चेते तो खूद ही कई टूकडों में बँट जायेंगे, क्या भरोसा है कि जो चन्द स्वार्थि लोग आज अलग राज्य की माँग कर रहे हैं वे कल को अलग देश की माँग ना करे, इस लिए अब हमें राष्ट्रचेतना की जरुरत है, हो सकता है शुरु में हमें लोगो का कोपाभजन बनना पड़े , पर इससे डरने की जरुरत नही है । तो आईये मिलकर राष्ट्र नवसंरचना करने का प्रण लें ।

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

क्यूकी बाप भी कभी बेटा था ......संतोष कुमार "प्यासा"


एक जमाना था जब लड़के अपने घर के बड़े बुजुर्गों का कहना सम्मान करते थे उनका कहा मानते थे ! कोई अपने पिता से आंख मिलाकर बात भी नहीं करता था ! उस समय कोई अपने पिता के सामने कुर्सी या पलंग पर भी नहीं बैठता था ! तब प्यार जैसी बात को अपने बड़े बुजुर्गों से बंटाना "बिल्ली के गले में घंटी बाधने" जैसा था ! प्रेम-प्रसंग तो सदियों से चला आ रहा है ! लेकिन पहले के प्रेम में मर्यादा थी ! उस समय यदि किसी के पिता को पता चल जाता था की उसका बेटा या बेटी किसी से नैन लड़ाते( प्रेम करते) घूम रहे है तो समझों की उस लड़के या लड़की की शामत आ गई !
 पिता गुस्से में लाल पीला हो जाता था ! तरह तरह की बातें उसके दिमाग में गूंजने लगती थी ! मन ही मन सोंचता था "समाज में मेरी कितनी इज्ज़त है, नालायक की वजह से अब सर उठा कर भी नहीं चल सकता, सीधे मुह जो लोग बात करते डरते थे अब वही मुह पर हजारों बातें सुनाएगे, मेरी इज्ज़त को मिट्टी में मिला दिया इसने" कही ऐसा करने वाली लड़की होती तो उसके हाँथ पैर तोड़ दिए जाते थे, घर से निकलना बंद कर दिया जाता था ! साथ ही लड़के या लड़की को खुद शर्म महसूस होती थी ! लड़कियों का तो गली मोहल्ले से निकलना मुश्किल हो जाता था ! लोफ़र पार्टी तरह तरह की फब्ती कसते थे ! कहते थे " देखो तो इशक लड़ाती फिरती है, जवानी संभाले नहीं संभलती...." कभी कभी तो बेचारी को घर की इज्ज़त और कायली के कारण आत्महत्या भी करनी पड़ जाती थी ! इसके विपरीत कुछ लड़के अपने प्यार को बुजुर्गों से बाटना बुरा नहीं समझते थे ! ऐसे विचार के युवकों को उस समय बद्त्मीच और संस्कारहीन समझा जाता था ! यहाँ तक की उस समय फ़िल्मी गाना गाना भी असभ्य समझा जाता था ! समय के साथ बाप और बेटों के विचारों में बदलाव आया ! अब बेटा अपने प्यार के बारे में अपने पिता से आसानी से कहता है और पिता सरलता से सुनता है ! समय ने बेटियों को भी इतना सक्षम बना दिया है की वे भी अब अपने मन की बात अपने पिता से बेहिचक कह सकती है ! वर्तमान समय में पिताओं की भूमिका "शादी के कार्ड छपवाने और मैरिज हाल बुक करने तक ही रह गई है !" अब बेटा सीधे एक लड़के को घर में लाता है और कहता है "डैड मै इससे प्यार करता हूँ !" यह सुनकर अब कोई पिता गुस्से से लाल पीला नहीं होता और न ही वह समाज के बारे में सोंचता है ! क्युकी उसे पता है की आज हर दूसरे घर में यही हो रहा है ! पिता मन ही मन सोंचता है "अच्छा हुआ कम से कम एक जिम्मेवारी तो ख़त्म हुई !अब माता पिताओं को "बहु और दामाद" ढूँढने में ज्यादा दिक्कत नहीं होती ! शायद ऐसा समय के बदलाव के कारण हुआ है ! समय ने पिता को एहसास दिला दिया है की "बाप भी कभी बेटा था" ! पिता भी सोंच लेता है की एक समय था जब हमने भी किसी से प्यार किया था, लेकिन वह समय स्थिति ऐसी नहीं थी की हम अपने प्यार के बारे में किसीको बता पाते ! आज के पिताओं ने अपने पिताओं की गलती को दोहराना बंद कर दिया है ! इस व्यवस्था में अच्छाई और बुराई दोनों है !
अच्छाई यह की, अब माता पिता बच्चों की भावनाओ को समझने लगे है, उनकी इच्छाओं और भावनाओं को दबाना बंद कर दिया है ! जिससे बेटा या बेटी "कुंठा उन्माद तनाव और आत्महत्या जैसी बुराई से बचे रहते है ! पहले प्यार के बारे में दोनों पक्षों के परिवारों को पता होने के बावजूद शादी होना संभव न था ! जिससे जवानी के जोश और प्यार के जूनून में बच्चे आत्महत्या कर लेते थे !

बुराई यह की, पिताओ के द्वारा प्राप्त इस मानसिक स्वतंत्रता का आज के युवा गलत फायदा उठा रहे है ! पहले के युवा घर की इज्ज़त और सामाजिक भय के कारण अपने जीवनसाथी का चुनाव बड़ी सावधानी से करते थे ! लेकिन आज के नवयुवाओं ने प्यार को खेल समझ लिया है ! बॉयफ्रेंड या गर्लफ्रेंड बनाना एक शौक समझ लिया है ! घर का दबाव न होने के करण आज के युवा गैर्जिम्मेवारी ढंग से अपने साथी कचुनव करते है !फलत: चार दिन बाद प्रेमप्रसंग टूट (ब्रेकउप) जाता है ! बेतिओं को भी घर का डर नहीं रह गया ! ऐसी दशा में कभी कभी ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है जो शादी के बाद होनी चाहिए ! बुजुर्गों ने बच्चो को मन की बात कहने की छूट क्या दे दी ! युवावर्ग तो बड़ो का सम्मान करना ही भूल गए ! घर की मन मर्यादा की कोई चिंता नहीं शायद इसी वजह से आज तलाक ज्यादा हो रहे है ! इस स्वतंत्रता का आज के युवा इस तरह लाभ उठा रहे है की "प्रेम और प्रेमियों का व्याकरण" ही बदल गया ! घर, समाज और मान अपमान का डर न होने के कारण कुछ युवा बलात्कार जैसे पाप कर डालते है ! जो इस स्वतंत्रता को शर्मसार कर डालता है ! बाप तो यह समझ गया की "वो भी कभी बेटा था" पर शायद बेटा यह भूल गया है की "वह भी कभी बाप बनेगा !

शिक्षा अनिवार्यता का सच ... ..... ( शिव शंकर)

भारत में ६ से १४ साल तक के बच्चो के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार का कानून भले ही लागू हो चुका हो, लेकिन इस आयु वर्ग की लडकियों में से ५० प्रतिशत तो हर साल स्कुलो से ड्राप- आउट हो जाति है। जाहिर है,इस तरह से देश की आधि लडकियां कानून से बेदखल होती रहेगी। यह आकडा मोटे तैर पर दो सवाल पैदा करते है। पहला यह कि इस आयु वर्ग के १९२ मिलियन बच्चों में से आधी लडकिया स्कुलो से ड्राप-आउट क्यो हो जाती है ? दूसरा यह है कि इस आयु वर्ग के आधी लडकिया अगर स्कुलो से ड्राप- आउट हो जाती है तो एक बडे परिद्श्य में मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार कानून का क्या अर्थ रह जाता है ? इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन(१९९६) की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि दुनिया भर में ३३ मिलियन लडकिया काम पर जाती है,जबकि काम पर जाने वाले लडको की संख्या ४१ मिलियन है। लेकिन इन आकडो मे पूरे समय घरेलू काम काजो मे जूटी रहने वाली लडकियो कि संख्या नहीं जोडी गई थी ।

इसी तरह नेशनल कमीशन फाँर प्रोटेक्शन आँफ चिल्ड्रेन्स राइटस की एक रिपोर्ट में भी बताया गया है कि भारत मे ६ से १४ साल तक कि अधिकतर लडकियो को हर रोज औसतन ८ घंटे से भी अधिक समय केवल अपने घर के छोटे बच्चो को संभालने मे बिताना पडता है। सरकारी आकडो मे भी दर्शाया गया है कि ६ से १० साल तक कि २५ प्रतिशत और १० से १३ साल तक की ५० प्रतिशत (ठीक दूगनी) से भी अधिक लडकियो को हर साल स्कुलो से ड्राप- आउट हो जाना पडता है। एक सरकारी सर्वेक्षण (२००८) के दौरान ४२ प्रतिशत लडकियों ने बताया कि वह स्कुल इस लिए छोड देती है कि क्योंकि उनके माता-पिता उन्हे घर संभालने और छोटे भाई बहनों की देखभाल करने के लिए कहते है,आखिरी जनगणना के मुताबिक ,२२.९१ करोड महिलाएं निरक्षर है,एशिया में भारत की महिला साक्षरता दर सबसे कम है। एन्युअल स्टेटस आफ एजुकेशन रिपोर्ट (२००८) के मुताबिक ,शहरी और ग्रामीण इलाके की महिलाओं और पुरुषों के बीच साक्षरता दर क्रमशः ५१.१ प्रतिशत और ६८.४ प्रतिशत दर्ज हैं। क्राई के एक रिपोर्ट के अनुसार,५ से ९ साल तक की ५३ प्रतिशत भारतीय लडकिया पढना नहीं जानती, इनमे से अधिकतर रोटी के चक्कर मे घर या बाहर काम करती है। ग्रामीण इलाकों में १५ प्रतिशत लडकियों की शादी १३ साल की उम्र में ही कर दी जाति है। इनमें से तकरीबन ५२ प्रतिशत लडकियां १५ से १९ साल की उम्र मे गर्भवती हो जाती है। इन कम उम्र की लडकियों से ७३ प्रतिशत (सबसे अधिक) बच्चे पैदा होते है। फिलहाल इन बच्चो में ६७ प्रतिशत (आधे से अधिक) कुपोषण के शिकार है। लडकियों के लिए सरकार भले हि सशक्तिकरण के लिए शिक्षा जैसे नारे देना जितना आसान है,लक्ष्य तक पहुंचना उतना ही कठीन।

दूसरी तरफ कानून मे मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार कह देने भर से अधिकार नहीं मिल जाएगा, बलिक यह भी देखना होगा कि मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार के अनुकूल ।खास तौर से लडकियो के लिए ,भारत में शिक्षा की बुनियादी संरचना है भी या नहीं ।आज ६ से १४ साल तक के तकरीबन २० करोड भारतीय बच्चो की प्राथमिक शिक्षा के लिए पर्याप्य स्कूल ,कमरे , प्रशिक्षित शिक्षक और गुणवतायुक्त सुविधाएं नहीं है, देश की ४० प्रतिशत बस्तियों में तो स्कूल ही नहीं हैं और इसी से जुडा एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ४६ प्रतिशत सरकारी स्कूलो में लडकियों के लिए शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं है। मुख्य तौर पर सामाजिक धारणाओं,घरेलू कामकाजो और प्राथमिक शिक्षा में बुनियादि व्यवस्था के अभाव के चलते एक अजीब सी विडंबना हमारे सामने हैकि देश की आधी लडकियों के पास अधिकार तो हैं,मगर बगैर शिक्षा के । इसलिए इससे जुडे अधिकारो के दायरे में लडकियों की शिक्षा को केंद्रीय महत्व देने की जरुरत है, माना कि यह लडकिया अपने घर से लेकर छोटे बच्चों को संभालने तक के बहुत सारे कामों से भी काफी कुछ सीखती है। लेकिन अगर यह लडकियां केवल इन्ही कामों में रात- दिन उलझी रहती है ,भारी शारीरिक और मानसिक दबावों के बीच जीती हैं,पढाई के लिए थोडा सा समय नहीं निकाल पाती हैं और एक स्थिति के बाद स्कुल से ड्राप्आउट हो जाती है तो यह देश की आधी आबादी के भविष्य के साथ खिलवाड ही हुआ। आज समय की मांग है कि लडकियों के पिछडेपन को उनकी कमजोरी नहीं, बल्कि उनके खिलाफ मौजूद परिस्थतियो के रुप में देखा जाए। अगर लडकी है तो उसे ऐसे ही रहना चाहिए ,जैसे बातें उनके विकाश के रास्ते में बाधा बनती हैं। लडकियों की अलग पहचान बनाने के लिए जरुरी है कि उनकी पहचान न उभर पाने के पीछे छिपे कारणो की खोजबीन और भारतीय शिक्षा पद्दती ,शिक्षकों की कार्यप्रणाली एवं पाठ्यक्रमों की पुनर्समीक्षा की जाए ,लडकियों की शिक्षा से जुडी हुई इन तमाम बाधाओं को सोचे- समझे और तोडे बगैर शिक्षा के अधिकार का बुनियादी मकसद पूरा नहीं हो सकता है ।

रविवार, 23 जनवरी 2011

क्रांतिवीर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस -------मिथिलेश


यूँ तो नेताजी कब इस दुनिया को छोड़ गये यह आज भी रहस्य बना हुआ है लेकिन ऐसा मना जाता है कि18 अगस्त या 16 सितम्बर 1945 को आजादी के महानायक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की पुण्यतिथि है नेताजी 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में पैदा हुए । उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माँ का नाम प्रभावती देवी था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे। उन्होंने कटक की महापालिका में लंबे समय तक काम किया था और बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे। अंग्रेज सरकार ने उन्हें रायबहादुर के खिताब से नवाजा था। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल 14 संतानें थी, जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे। सुभाषचंद्र उनकी नौवीं संतान और पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरदचंद्र से था। शरदबाबू प्रभावती और जानकीनाथ के दूसरे बेटे थें। सुभाष उन्हें मेजदा कहते थें।

स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ाव

कोलकाता के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी देशबंधु चित्तरंजन दास के कार्य से प्रेरित होकर, सुभाष, दासबाबू के साथ काम करना चाहते थे। इंग्लैंड से उन्होंने दासबाबू को खत लिखकर, उनके साथ काम करने की इच्छा प्रकट की थी। वह रवींद्रनाथ ठाकुर की सलाह पर भारत वापस आए और सर्वप्रथम मुम्बई जा कर महात्मा गाँधी से मिले। मुम्बई में गाँधीजी मणिभवन में निवास करते थे। वहाँ, 20 जुलाई 1921 को महात्मा गाँधी और सुभाषचंद्र बोस के बीच पहली बार मुलाकात हुई। गाँधीजी ने भी उन्हें कोलकाता जाकर दासबाबू के साथ काम करने की सलाह दी। इसके बाद सुभाषबाबू कोलकाता आ गए और दासबाबू से मिले। दासबाबू उन्हें देखकर बहुत खुश हुए। उन दिनों गाँधीजी ने अंग्रेज सरकार के खिलाफ असहयोग आंदोलन चलाया था। दासबाबू इस आंदोलन का बंगाल में नेतृत्व कर रहे थे। उनके साथ सुभाषबाबू इस आंदोलन में सहभागी हो गए। 1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। विधानसभा के अंदर से अंग्रेज सरकार का विरोध करने के लिए, कोलकाता महापालिका का चुनाव स्वराज पार्टी ने लड़कर जीता। स्वयं दासबाबू कोलकाता के महापौर बन गए। उन्होंने सुभाषबाबू को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया। सुभाषबाबू ने अपने कार्यकाल में कोलकाता महापालिका का पूरा ढाँचा और काम करने का तरीका ही बदल डाला। कोलकाता के रास्तों के अंग्रेजी नाम बदलकर, उन्हें भारतीय नाम दिए गए। स्वतंत्रता संग्राम में प्राण न्यौछावर करनेवालों के परिवार के सदस्यों को महापालिका में नौकरी मिलने लगी।

बहुत जल्द ही, सुभाषबाबू देश के एक महत्वपूर्ण युवा नेता बन गए। पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ सुभाषबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत युवकों की इंडिपेंडन्स लिग शुरू की। 1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया, तब कांग्रेस ने उसे काले झंडे दिखाए। कोलकाता में सुभाषबाबू ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया। साइमन कमीशन को जवाब देने के लिए, कांग्रेस ने भारत का भावी संविधान बनाने का काम आठ सदस्यीय आयोग को सौंपा। पंडित मोतीलाल नेहरू इस आयोग के अध्यक्ष और सुभाषबाबू उसके एक सदस्य थे। इस आयोग ने नेहरू रिपोर्ट पेश की।

1928 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ। इस अधिवेशन में सुभाषबाबू ने खाकी गणवेश धारण करके पंडित मोतीलाल नेहरू को सैन्य तरीके से सलामी दी। गाँधीजी उन दिनों पूर्ण स्वराज्य की मांग से सहमत नहीं थे। इस अधिवेशन में उन्होंने अंग्रेज सरकार से डोमिनियन स्टेटस माँगने की ठान ली थी। लेकिन सुभाषबाबू और पंडित जवाहरलाल नेहरू को पूर्ण स्वराज की मांग से पीछे हटना मंजूर नहीं था। अंत में यह तय किया गया कि अंग्रेज सरकार को डोमिनियन स्टेटस देने के लिए, एक साल का वक्त दिया जाए। अगर एक साल में अंग्रेज सरकार ने यह माँग पूरी नहीं की, तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की मांग करेगी। अंग्रेज सरकार ने यह मांग पूरी नहीं की। इसलिए 1930 में जब कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में लाहौर में हुआ, तब ऐसा तय किया गया कि 26 जनवरी का दिन स्वतंत्रता दिन के रूप में मनाया जाएगा। 26 जनवरी 1931 के दिन कोलकाता में सुभाषबाबू एक विशाल मोर्चा का नेतृत्व कर रहे थे। तब पुलिस ने उनपर लाठी चलायी और उन्हे घायल कर दिया। जब सुभाषबाबू जेल में थे, तब गाँधीजी ने अंग्रेज सरकार से समझौता किया और सब कैदियों को रिहा किया गया। लेकिन अंग्रेज सरकार ने सरदार भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को रिहा करने से इन्कार कर दिया। भगत सिंह की फाँसी माफ कराने के लिए गाँधीजी ने सरकार से बात की। सुभाषबाबू चाहते थे कि इस विषय पर गाँधीजी अंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझौता तोड़ दें। लेकिन गाँधीजी अपनी ओर से दिया गया वचन तोड़ने को तैयार नहीं थे। अंततः भगत सिंह और उनके साथियों को फाँसी दे दी गयी। भगत सिंह को न बचा पाने के कारण सुभाषबाबू गाँधीजी और कांग्रेस के तौर-तरीकों से बहुत नाराज हो गए।

कारावास

अपने सार्वजनिक जीवन में सुभाषबाबू को कुल ग्यारह बार कारावास हुआ था। सबसे पहले उन्हें 1921 में छः महिने की जेल हुई। 1925 में गोपिनाथ साहा नामक एक क्रांतिकारी कोलकाता के पुलिस अधीक्षक चार्ल्स टेगार्ट को मारना चाहता था। उसने गलती से अर्नेस्ट डे नामक एक व्यापारी को मार डाला। इसके लिए उसे फाँसी की सजा दे दी गयी। गोपीनाथ को फाँसी होने के बाद सुभाषबाबू जोर से रोये। उन्होने गोपिनाथ का शव माँगकर उसका अंतिम संस्कार किया। इससे अंग्रेजों ने यह निष्कर्ष निकाला कि सुभाषबाबू ज्वलंत क्रांतिकारकों से न ही संबंध रखते हैं, बल्कि वे ही उन क्रांतिकारकों के नेता हैं। इसी बहाने अंग्रेज सरकार ने सुभाषबाबू को गिरफतार किया और बिना कोई मुकदमा चलाए, उन्हें अनिश्चित काल के लिए म्यांमार के मंडाले कारागृह में बंदी बनाया।

5 नवंबर 1925 को देशबंधू चित्तरंजन दास का कोलकाता में निधन हो गया। सुभाषबाबू ने उनकी मृत्यू की खबर मंडाले जेल में रेडियो पर सुनी। मंडाले कारागृह में रहते समय सुभाषबाबू की तबियत बहुत खराब हो गयी। उन्हें तपेदिक हो जाने के बावजूद अंग्रेज सरकार ने रिहा करने से इन्कार कर दिया। सरकार ने उन्हें रिहा करने के लिए यह शर्त रखी की वे इलाज के लिए यूरोप चलें जाए। लेकिन सरकार ने यह तो स्पष्ट नहीं किया था कि इलाज के बाद वे भारत कब लौट सकते हैं। इसलिए सुभाषबाबू ने यह शर्त स्वीकार नहीं की। आखिर में परिस्थिति इतनी कठिन हो गयी की शायद वे कारावास में ही मर जायेंगे। अंग्रेज सरकार यह खतरा भी नहीं उठाना चाहती थी, कि सुभाषबाबू की कारागृह में मृत्यु हो जाए। इसलिए सरकार ने उन्हे रिहा कर दिया। फिर सुभाषबाबू इलाज के लिए डलहौजी चले गए। 1930 में कारवास के दौरान ही सुभाषबाबू को कोलकाता का महापौर चुन लिया गया। इसलिए सरकार उन्हें रिहा करने पर मजबूर हो गयी।

1932 में सुभाषबाबू को फिर से कारावास हुआ। इस बार उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखा गया। अल्मोड़ा जेल में उनकी तबियत फिर खराब हो गयी। चिकित्सकीय सलाह पर सुभाषबाबू इस बार इलाज के लिए यूरोप जाने को राजी हो गए।यूरोप प्रवास 1933 से 1936 तक सुभाषबाबू यूरोप में रहे। यूरोप में भी आंदोलन कार्य जारी रखा। वहाँ वे इटली के नेता मुसोलिनी से मिले, जिन्होंने उन्हें, भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सहायता करने का वचन दिया। आयरलैंड के नेता डी. वॅलेरा सुभाषबाबू के अच्छे दोस्त बन गए। जब सुभाषबाबू यूरोप में थे, तब पंडित जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू का ऑस्ट्रिया में निधन हो गया। सुभाषबाबू ने वहाँ जाकर पंडित जवाहरलाल नेहरू को सांत्वना दिया। बाद में सुभाषबाबू यूरोप में विठ्ठल भाई पटेल से मिले। विठ्ठल भाई पटेल के साथ सुभाषबाबू ने पटेल-बोस विश्लेषण प्रसिद्ध किया, जिसमें उन दोनों ने गाँधीजी के नेतृत्व की बहुत निंदा की। बाद में विठ्ठल भाई पटेल बीमार पड गए, तब सुभाषबाबू ने उनकी बहुत सेवा की। मगर विठ्ठल भाई पटेल का निधन हो गया। विठ्ठल भाई पटेल ने अपनी वसीयत में अपनी करोडों की संपत्ती सुभाषबाबू के नाम कर दी। मगर उनके निधन के पश्चात, उनके भाई सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस वसीयत को स्वीकार नहीं किया और उस पर अदालत में मुकदमा चलाया। मुकदमा जीतकर पटेल ने सारी संपत्ति गाँधीजी के हरिजन कार्य को भेंट कर दी। 1934 में अपने पिता की मृत्यु की खबर पाकर सुभाषबाबू कोलकाता लौटे। कोलकाता पहुँचते ही अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और कई दिनों तक जेल में रखने के बाद वापस यूरोप भेज दिया।

कांग्रेस का अध्यक्ष पद

सन 1938 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हरिपुरा में होने का तय हुआ था। इस अधिवेशन से पहले गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सुभाषबाबू को चुना। यह कांग्रेस का ५१वां अधिवेशन था। इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष सुभाषबाबू का स्वागत 51 बैलों ने खींचे हुए रथ में किया गया। इस अधिवेशन में सुभाषबाबू का अध्यक्षीय भाषण बहुत ही प्रभावी हुआ। किसी भी भारतीय राजकीय व्यक्ती ने शायद ही इतना प्रभावी भाषण कभी दिया हो। अपने अध्यक्ष पद के कार्यकाल में सुभाषबाबू ने योजना आयोग की स्थापना की। पंडित जवाहरलाल नेहरू इस के अध्यक्ष थे।

कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा

1938 में गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना तो था, मगर गाँधीजी को सुभाषबाबू की कार्यपद्धति पसंद नहीं आयी। इसी दौरान यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाषबाबू चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर, भारत का स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाए। हालांकि, गाँधीजी उनके इस विचार से सहमत नहीं थे। 1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया, तब सुभाषबाबू चाहते थे कि कोई ऐसी व्यक्ति अध्यक्ष बन जाए, जो इस मामले में किसी दबाव के सामने न झुके। ऐसा कोई दूसरा व्यक्ति सामने न आने पर सुभाषबाबू ने खुद कांग्रेस अध्यक्ष पर बने रहना चाहा। लेकिन गाँधीजी अब उन्हें अध्यक्ष पद से हटाना चाहते थे। गाँधीजी ने अध्यक्षपद के लिए पट्टाभी सीतारमैय्या को चुना। रविंद्रनाथ ठाकुर ने गाँधीजी को पत्र लिखकर सुभाषबाबू को ही अध्यक्ष बनाने का निवेदन किया। प्रफुल्लचंद्र राय और मेघनाद सहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाषबाबू को फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। लेकिन गाँधीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। कोई समझौता न हो पाने के कारण कई वर्षों बाद पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हुआ।

सब यही जानता थे कि महात्मा गाँधी ने पट्टाभी सितारमैय्या का साथ दिया है इसलिए वह चुनाव आसानी से जीत जाएंगे। लेकिन वास्तव में हुआ इसके ठीक विपरीत, सुभाषबाबू को चुनाव में 1580 मत मिले जबकि पट्टाभी सीतारमैय्या को 1377 मत मिले। गाँधीजी के विरोध के बावजूद सुभाषबाबू 203 मतों से यह चुनाव जीत गए। मगर, बात यहीं खत्म नहीं हुई। गाँधीजी ने पट्टाभी सीतारमैय्या की हार को अपनी हार बताकर अपने साथियों से कह दिया कि अगर वें सुभाषबाबू की कार्यपद्धति से सहमत नहीं हैं तो वें कांग्रेस से हट सकतें हैं। इसके बाद कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू तटस्थ रहे और अकेले शरदबाबू सुभाषबाबू के साथ बने रहे। 1939 का वार्षिक कांग्रेस अधिवेशन त्रिपुरी में हुआ। इस अधिवेशन के समय सुभाषबाबू तेज बुखार से इतने बीमार पड़ गए थे, कि उन्हें स्ट्रेचर पर लेटकर अधिवेशन में आना पडा। गाँधीजी इस अधिवेशन में उपस्थित नहीं रहे। गाँधीजी के साथियों ने सुभाषबाबू से बिल्कुल सहकार्य नहीं दिया। अधिवेशन के बाद सुभाषबाबू ने समझौते के लिए बहुत कोशिश की। लेकिन गाँधीजी और उनके साथियों ने उनकी एक न मानी। परिस्थिति ऐसी बन गयी कि सुभाषबाबू कुछ काम ही न कर पाए। आखिर में तंग आकर 29 अप्रैल 1939 को सुभाषबाबू ने कांग्रेस अध्यक्षपद से इस्तीफा दे दिया।

फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना

3 मई 1939 को सुभाषबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। कुछ दिन बाद सुभाषबाबू को कांग्रेस से निकाल दिया गया। बाद में फॉरवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतंत्र पार्टी बन गयी। द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले से ही फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र करने के लिए जनजागरण शुरू कर दिया। इसलिए अंग्रेज सरकार ने सुभाषबाबू सहित फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओ को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सुभाषबाबू जेल में निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे। सरकार को उन्हें रिहा करने पर मजबूर करने के लिए सुभाषबाबू ने जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। मजबूर होकर सरकार को उन्हें रिहा करना पड़ा। मगर अंग्रेज सरकार यह नहीं चाहती थी कि सुभाषबाबू युद्ध के दौरान मुक्त रहें। इसलिए सरकार ने उन्हें उनके ही घर में नजरबंद कर दिया।

नजरबंदी से पलायन

नजरबंदी से निकलने के लिए सुभाषबाबू ने एक योजना बनायी। 16 जनवरी 1941 को वे पुलिस को चकमा देने के लिये एक पठान मोहम्मद जियाउद्दीन का भेष धरकर घर से भाग निकले। शरदबाबू के बडे़ बेटे शिशिर ने उन्हें अपनी गाड़ी से कोलकाता से दूर गोमोह तक पहुँचाया। गोमोह रेलवे स्टेशन से फ्रंटियर मेल पकड़कर वे पेशावर पहुँचे। पेशावर में उन्हे फॉरवर्ड ब्लॉक के एक सहकारी मियां अकबर शाह मिले। मियां अकबर ने उनकी मुलाकात कीर्ती किसान पार्टी के भगतराम तलवार से कराई। भगतराम तलवार के साथ में सुभाषबाबू पेशावर से अफ्गानिस्तान की राजधानी काबुल की ओर निकल पडे़। इस सफर में भगतराम तलवार, रहमतखान नाम के पठान बने थे और सुभाषबाबू उनके गूंगे-बहरे चाचा बने थे।

काबुल में सुभाषबाबू दो महिनों तक उत्तमचंद मल्होत्रा नामक एक भारतीय व्यापारी के घर में रहे। वहाँ उन्होंने पहले रूसी दूतावास में प्रवेश पाना चाहा। इस में नाकामयाब रहने पर उन्होंने जर्मन और इटालियन दूतावासों में प्रवेश पाने की कोशिश की। इटालियन दूतावास में उनकी कोशिश सफल रही। जर्मन और इटालियन दूतावासों ने उनकी सहायता की। आखिर में ओर्लांदो मात्सुता नामक इटालियन व्यक्ति बनकर सुभाषबाबू काबुल से निकलकर रूस की राजधानी मॉस्को होते हुए जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुँच गए।

हिटलर से मुलाकात

उन्होंने जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिंद रेडिओ की स्थापना की। इसी दौरान सुभाषबाबू नेताजी नाम से जाने जाने लगे। जर्मन सरकार के एक मंत्री एडॅम फॉन ट्रॉट सुभाषबाबू के अच्छे दोस्त बन गए।
आखिर, 29 मई 1942 को सुभाषबाबू जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले। लेकिन हिटलर को भारत के विषय में विशेष रूचि नहीं थी। उन्होंने सुभाषबाबू को सहायता का कोई स्पष्ट वचन नहीं दिया।
कई साल पहले हिटलर ने माईन काम्फ नामक अपना आत्मचरित्र लिखा था। इस किताब में उन्होंने भारत और भारतीय लोगों की बुराई की थी। इस विषय पर सुभाषबाबू ने हिटलर से अपनी नाराजी व्यक्त की। हिटलर ने अपने किये पर माँफी माँगी और माईन काम्फ की अगली आवृत्ति से वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया।
अंत में, सुभाषबाबू को पता चला कि हिटलर और जर्मनी से उन्हें कुछ और नहीं मिलनेवाला हैं। इसलिए 8 मार्च 1943 को जर्मनी के कील बंदर में अपने साथी आबिद हसन सफरानी के साथ एक जर्मन पनडुब्बी में बैठकर पूर्व आशिया की तरफ निकल गए। यह जर्मन पनदुब्बी उन्हे हिंद महासागर में मादागास्कर के किनारे तक लेकर आई। वहाँ वे दोनो खूँखार समुद्र में से तैरकर जापानी पनडुब्बी तक पहुँच गए। यह जापानी पनदुब्बी उन्हे इंडोनेशिया के पादांग बंदर तक लेकर आई।

पूर्व एशिया में अभियान

पूर्व एशिया पहुँचकर सुभाषबाबू ने सर्वप्रथम वयोवृद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सँभाला। सिंगापुर के फरेर पार्क में रासबिहारी बोस ने भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सुभाषबाबू को सौंप दिया। जापान के प्रधानमंत्री जनरल हिदेकी तोजो ने नेताजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्हें सहकार्य करने का आश्वासन दिया। कई दिनों पश्चात नेताजी ने जापान की संसद डायट के सामने भाषण किया।
21 अक्तूबर 1943 को नेताजी ने सिंगापुर में अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद (स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार) की स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। नेताजी आजाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बन गए। आजाद हिन्द फौज में जापानी सेना ने अंग्रेजों की फौज से पकडे़ हुए भारतीय युद्धबंदियोंको भर्ती किया। आजाद हिन्द फौज में औरतों के लिए झाँसी की रानी रेजिमेंट भी बनायी गयी। पूर्व एशिया में नेताजी ने जगह-जगह भाषण करके वहाँ भारतीय लोगों से आजाद हिन्द फौज में भर्ती होने और उसे आर्थिक मदद करने का आह्वान किया। उन्होंने अपने आह्वान में संदेश दिया- तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूँगा।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आजाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिए नेताजी ने चलो दिल्ली का नारा दिया। दोनों फौजों ने अंग्रेजों से अंदमान और निकोबार द्वीप जीत लिए। नेताजी ने इन द्वीपों का नाम शहीद और स्वराज द्वीप रखा। दोनो फौजो ने मिलकर इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। लेकिन बाद में अंग्रेजों का पलड़ा भारी पड़ा और दोनो फौजो को पीछे हटना पड़ा।
जब आजाद हिन्द फौज पीछे हट रही थी, तब जापानी सेना ने नेताजी के भाग जाने की व्यवस्था की। परंतु नेताजी ने झाँसी की रानी रेजिमेंट की लड़कियों के साथ सैकडों मिल चलते जाना पसंद किया। इस प्रकार नेताजी ने सच्चे नेतृत्व का एक आदर्श ही बनाकर रखा। 6 जुलाई, 1944 को आजाद हिंद रेडियो पर अपने भाषण के माध्यम से गाँधीजी से बात करते हुए, नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद तथा आजाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्देश्य के बारे में बताया। इस भाषण के दौरान नेताजी ने गाँधीजी को राष्ट्रपिता का संबोधन कर अपनी जंग के लिए उनका आशिर्वाद माँगा। इस प्रकार नेताजी ने गाँधीजी को सर्वप्रथम राष्ट्रपिता बुलाया।

मृत्यु का अनुत्तरित रहस्य

द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद नेताजी को नया रास्ता ढूँढना जरूरी था। उन्होंने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था। 18 अगस्त 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मांचुरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के के बाद से ही उनका कुछ भी पता नहीं चला। 23 अगस्त 1945 को जापान की दोमेई समाचार संस्था ने बताया कि 18 अगस्त को नेताजी का हवाई जहाज ताइवान की भूमि पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और उस दुर्घटना में बुरी तरह से घायल होकर नेताजी ने अस्पताल में अंतिम साँस ली। दुर्घटनाग्रस्त हवाई जहाज में नेताजी के साथ उनके सहकारी कर्नल हबिबूर रहमान थे। उन्होने नेताजी को बचाने का निश्चय किया, लेकिन वे कामयाब नहीं हो सके। फिर नेताजी की अस्थियाँ जापान की राजधानी टोकियो में रेनकोजी नामक बौद्ध मंदिर में रखी गयी। स्वतंत्रता के पश्चात भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिए 1956 और 1977 में दो बार आयोग का गठन किया। दोनों बार यह नतीजा निकला कि नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गये थे। लेकिन जिस ताइवान की भूमि पर यह दुर्घटना होने की खबर थी, उस ताइवान देश की सरकार से, इन दोनो आयोगो ने बात ही नहीं की।

1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की, जिस में उन्होंने कहा कि नेताजी की मृत्यु, उस विमान दुर्घटना में होने का कोई सबूत नहीं हैं। लेकिन भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया। साभार विकिपीडिया

शनिवार, 22 जनवरी 2011

मेरी मौत खुशी का वायस होगी ----[मिथिलेश]


जिन्दगी जिन्दादिली को जान ए रोशन यहॉं
वरना कितने मरते हैं और पैदा होते जाते हैं।

क्रान्तिकारी रोशन सिंह का जन्म शाहजहॉंपुर जिले के नबादा ग्राम में हुआ था । यह गांव खुदागंज कस्बे से लगभग दस किलोमीटर की दूरी पर है। इनके पिता का नाम ठाकुर जंगी सिंह था। इस परिवार पर आर्य समाज का बहुत प्रभाव था। उन दिनों आर्य समाज द्वारा चलाए जा रहे देशहित के कार्यों से ठाकुर साहब का परिवार अछूता ना रहा। श्री जंगी सिंह के चार पुत्र ठाकुर रोशन सिंह, जाखन सिंह, सुखराम सिंह, पीताम्बर तथा दो लड़कियॉं थी । आपका जन्म 22 जनवरी को सन् 1892 को हुआ था। ठाकुर साहब काकोरी काण्ड के क्रान्तिकारियों में आयु में सबस बड़े तथा सबसे अधिक बलवान तथा अचूक निशानेबाज थे । असहयोग आन्दोलन में शाहजहॉंपुर तथा बरेली जिले के ग्रामिण क्षेत्र में उन्होने बड़े उत्साह कार्य किया। उन दिनों बरेली में एक गोली कांड हुआ था जिसमें उन्हें दो वर्ष की बड़ी सजा दी गई । वे उन सच्चे देशभक्तों में थे जिन्होने अपने खून की अन्तिम बूद भी भारत मॉं की भेंट चढ़ा दी । रामप्रसाद बिस्मिल , अशफाक उल्ला खॉं, राजेन्द्र लाहिड़ी की तरह वे भी बहुत साहसी और सच्चे देशभक्त थे। हिन्दी और उर्दू का अच्छा ज्ञान था । बरेली गोली काडं का सजा के बाद उनकी रामप्रसाद बिस्मिल से भेंट हुई जो उन दिनों बड़ी क्रान्तिकारी योजनाओं का खाका तैयार करने में लगे थे। रोशन सिंह के विचारों और व्यक्तित्व से प्रभावित होकर बिस्मिल ने उन्हें भी अपने दल में शामिल कर लिया । क्षत्रिय होनेके कारण उन्हें तलवार, बन्दूक चलाने, कुश्ती और घुड़सवारी का भी शौक था। अचूक निशानेबाज थे। उनके साथी उन्हें भीमसेन कहा करते थे। ठाकुर रोशन सिंह के दो पुत्र चंन्द्रदेव सिंह तथा बृजपाल सिंह हुए। असहयोग आन्दोलन में भी ठाकुर साहब ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। काकोरी काण्ड में कुल चार डकैतियों को शामिल किया गया जिनमें अन्य डकैतियों मे ठाकुर रोशन सिंह ने बिस्मिल जी का साथ दिया था। काकोरी ट्रेन डकैती काण्ड के करीब डेढ़ महिनें बाद धरपकड़ शुरु हुई और आपको भी अन्य सहयोगियों के साथ गिरफ्तार करके लखनऊ जेल भेजा गया। जेल में क्रान्तिकारियों के साथ अच्छा व्यवहार न होने कारण आपने जेल में अनशन किया । करीब दो सप्ताह तक अनशन पर रहने के बाद भी आपके स्वास्थ्य पर कोई विपरीत असर नहीं पडा़। अंग्रेज सरकार ने उनकी हवेली को ध्वस्त करवा दिया और सारी स़म्पत्ति कुर्क करा ली थी।

अदालती निर्णय के अनुसार अंग्रेज जज हेमिल्टन ने आपको फॉंसी की सजा दी। अदालती निर्णय सुनते ही ठाकुर जी नें ईश्वर का ध्यान किया और ओम का उच्चारण किया। काकोरी केस के सम्बन्ध में वकीलों और उनके साथियों का ख्याल था कि ठाकुर साहब को ज्यादा सजा नहीं मिलेगी उनके यह विचार जानकर ठाकुर साहब को बहुत ठेस लगती थी वे बुत दुखी हो जाते थे। जब जज ने उन्हें भी फॉंसी की सजा सुनाई तो उनके साथी आश्चर्यचकित और दुखी नेत्रों से ठाकुर साहब की ओर देखने लगे परन्तु ठांकुर साहब चेहरा ठाकुरी चमक से खिल उठा। उन्होंने मुस्कुराते हुए फॉंसी की सजा पाए हुए अपने अन्य साथियों का आलिंगन करते हुए कहा क्यों भाई हमें छाड़कर आप अकेले जाना चाहते थे । उनके सभी साथियों ने उनकी वीरता पर गदगद होकर उनके चरण स्पर्श किए । फॉंसी के लिए उन्हें इलाहाबाद जेल भेज दिया गया था।

ठाकुर साहब स्वतन्त्रता की लडाई को भी धर्म युद्व मानते थे। 13 सितम्बर 1927 को उन्होंने अपने एक मित्र को लिख था कि आप मेरे लिए हरगिज रंज न करे मेरी मौत खुशी का बायस होगी, हमारे शास्त्रों में लिखा है कि धर्म युद्व में मरने वालों की वही गति होती है जो तपस्या करने वाले ऋषि मुनियों की हाती है। फॉंसी के एक सप्ताह पूर्व उन्होंने एक मित्र को पत्र भेजा था इसी से साहस और ईश्वर में विश्वास का अनुपात लगाया जा सकता है। इस सप्ताह के अन्दर ही मेरी फॉंसी होगी । प्रभु से प्रार्थना है कि वह आपके मोहब्बत का बदला दे , आप मुझ ना चीज के लिए हरगिज दुखी न हों मेरी मौत खुशी का वायस होगी।
दुनिया में पैदा होकर इन्सान अपने को बदनाम न करे। इसलिए मेरी मौत किसी प्रकार भी अफसास के लायक नहीं है। दो साल से मैं परिवार से और बच्चो से अलग हू। इस बीच वे सब मुझे कुछ भूल गए होंगे। किसी हद तक भूल जाना भी अच्छा है। तन्हाई में ईश्वर भजन का मौका खूब मिला।इससे मेरा मोह कुछ छूट गया और काई वासना बाकी नहीं रही। मेरा पूरा विश्वास है कि दूनिया की कष्टमयी यात्रा समाप्त करके मैं अब आराम की जिंदगी व्यतीत करने के लिए जा रहा हू। फॉंसी से पहले रात ठाकुर साहब कुछ घण्टे सोए देर रात से ही ईश्वर भजन करते रहे। प्रातः निवृत्त होकर गीता का पाठ किया। प्रहरी के आते ही अपनी गीता हाथ में उठाई और फॉंसी की कोठरी को प्रसन्नता के साथ अन्तिम नमस्कार करके फॉंसी के तख्ते की ओर चल दिए। फॉंसी के तख्ते पर वन्दे मातरम् और ओम नाम को गुँजाते हुए भारत का ये नरनाहर अपने नश्वर शरीर को भारत की मिट्टी में मिल गया। आज ठाकुर साहब हमारे बीच नहीं है। परन्तु उनकी अमर आत्मा सजग प्रहरी की भॉंति देश के करोड़ो नवयुवको के दिल में भारत की समृद्वि और सुरक्षा की अलख युगों-युगों तक रहेगी। इलाहाबाद जेल के सामनें हजारों लोग भारत मॉं के इस सपूत की लाश को लेने के लिए खड़े थे। इलाहाबाद में ही भारत माता के इस बहादुर सपूत की अन्तिम संस्कार पूर्ण वैदिक रीति के साथ सम्पन्न हुआ ।

बुधवार, 12 जनवरी 2011

युगद्रष्टा "स्वामी विवेकानंद"---------- मिथिलेश

विश्व के अधिकांश देशों में कोई न कोई दिन युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत में स्वामी विवेकानन्द की जयन्ती अर्थात १२ जनवरी को प्रतिवर्ष राष्ट्रीय युवादिवस के रूप में मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्णयानुसार सन् 1985 ई को अन्तरराष्ट्रीय युवा वर्ष घोषित किया गया। इसके महत्त्व का विचार करते हुए भारतसरकार ने घोषणा की कि सन १९८५ से 12 जनवरी यानी स्वामी विवेकानन्द जयन्ती का दिन राष्ट्रीय युवा दिन के रूप में देशभर में सर्वत्र मनाया जाए।

इस सन्दर्भ में भारत सरकार का विचार था कि -ऐसा अनुभव हुआ कि स्वामी जी का दर्शन एवं स्वामी जी के जीवन तथा कार्य के पश्चात निहित उनका आदर्श--यहीभारतीय युवकों के लिए प्रेरणा का बहुत बड़ा स्रोत हो सकता है। इस दिन देश भर के विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में तरह-तरह के कार्यक्रम होते हैं; रैलियाँ निकालीजाती हैं; योगासन की स्पर्धा आयोजित की जाती है पूजा-पाठ होता है व्याख्यान होते हैं विवेकानन्द साहित्य की प्रदर्शनी लगती है। वास्तव में स्वामी विवेकानन्दआधुनिक मानव के आदर्श प्रतिनिधि हैं। विशेषकर भारतीय युवकों के लिए स्वामी विवेकानन्द से बढ़कर दूसरा कोई नेता नहीं हो सकता। उन्होंने हमें कुछ ऐसी वस्तुदी है जो हममें अपनी उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त परम्परा के प्रति एक प्रकार का अभिमान जगा देती है। स्वामी जी ने जो कुछ भी लिखा है वह हमारे लिए हितकर हैऔर होना ही चाहिए तथा वह आने वाले लम्बे समय तक हमें प्रभावित करता रहेगा। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में उन्होंने वर्तमान भारत को दृढ़ रूप से प्रभावित कियाहै। भारत की युवा पीढ़ी स्वामी विवेकानन्द से निःसृत होने वाले ज्ञान प्रेरणा एवं तेज के स्रोत से लाभ उठाएगी। विवेकानंदजी का जन्म १२ जनवरी सन्‌ १८६३ को हुआ।उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। उन्होंने अमेरिका स्थित शिकागो नगर में सन् १८९३ में आयोजित विश्व धर्म महासम्मेलन में सनातन धर्म का प्रतिनिधित्वकिया था। भारत का वेदान्त अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानंद की वक्तृता के कारण ही पँहुचा। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जोआज भी अपना काम कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे। रामकृष्ण जी बचपन से ही एक पहुँचे हुए सिद्ध पुरुष थे। स्वामीजी ने कहा था की जो व्यक्तिपवित्र रुप से जीवन निर्वाह करता है उसके लिए अच्छी एकग्रता हासिल करना सम्भव हैA उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वे अपनेपुत्र नरेंद्र को भी अंगरेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढंग पर ही चलाना चाहते थे। नरेंद्र की बुद्धि बचपन से बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबलथी। इस हेतु वे पहले ब्रह्म समाज में गए किंतु वहाँ उनके चित्त को संतोष नहीं हुआ।

सन्‌ १८८४ में श्री विश्वनाथ दत्त की मृत्यु हो गई। घर का भार नरेंद्र पर पड़ा। घर की दशा बहुत खराब थी। कुशल यही थी कि नरेंद्र का विवाह नहीं हुआ था। अत्यंत गरीबीमें भी नरेंद्र बड़े अतिथि-सेवी थे। स्वयं भूखे रहकर अतिथि को भोजन कराते, स्वयं बाहर वर्षा में रातभर भीगते-ठिठुरते पड़े रहते और अतिथि को अपने बिस्तर परसुला देते 25 वर्ष की अवस्था में नरेंद्र दत्त ने गेरुआ वस्त्र पहन लिए। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की।सन्‌ 1893 में शिकागो (अमेरिका) में विश्वधर्म परिषद् हो रही थी। स्वामी विवेकानंदजी उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप से पहुँचे। योरप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि सेदेखते थे। वहाँ लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानंद को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले। एक

अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ासमय मिला किंतु उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गए। फिर तो अमेरिका में उनका बहुत स्वागत हुआ। वहाँ इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय हो गया। तीनवर्ष तक वे अमेरिका रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे। उनकी वक्ततृत्व शैली तथा ज्ञान को देखते हुये वहाँ के मीडिया नेउन्हें साइक्लॉनिक हिन्दू का नाम दिया। अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा यह स्वामी विवेकानंदजी का दृढ़ विश्वास था। अमेरिका मेंउन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएँ स्थापित कीं। अनेक अमेरिकन विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। रामकृष्ण परमहंस की प्रशंसा सुनकर नरेंद्र उनकेपास पहले तो तर्क करने के विचार से ही गए थे किंतु परमहंसजी ने देखते ही पहचान लिया कि ये तो वही शिष्य है जिसका उन्हें कई दिनों से इंतजार है। परमहंसजी कीकृपा से इनको आत्म-साक्षात्कार हुआ फलस्वरूप नरेंद्र परमहंसजी के शिष्यों में प्रमुख हो गए। संन्यास लेने के बाद इनका नाम विवेकानंद हुआ। स्वामी विवेकानन्दअपना जीवन अपने गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत की परवाहकिए बिना, स्वयं के भोजन की परवाह किए बिना गुरु सेवा में सतत हाजिर रहे। गुरुदेव का शरीर अत्यंत रुग्ण हो गया था। स्वामी जी ने युवाओं से कहा तुम्‍हारे भविष्‍य को निश्चित करने का यही समय है। इस लिये मै कहता हूँ कि तभी इस भरी जवानी मे, नये जोश के जमाने मे ही काम करों। काम करने का यही समयहै इसलिये अभी अपने भाग्‍य का निर्णय कर लो और काम में जुट जाओं क्‍योकिं जो फूल बिल्‍कुल ताजा है, जो हाथों से मसला भी नही गया और जिसे सूँघा ही नहीं गया वही भगवान के चरणों मे चढ़ाया जाता है उसे ही भगवान ग्रहण करते हैं। इसलिये आओं ! एक महान ध्‍येय कों अपनाएँ और उसके लिये अपना जीवन समर्पित कर दें कैंसर के कारण गले में से थूंक रक्त कफ आदि निकलता था। इन सबकी सफाई वे खूब ध्यान से करते थे। एक बार किसी ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और लापरवाहीदिखाई तथा घृणा से नाक भौंहें सिकोड़ीं। यह देखकर विवेकानन्द को गुस्सा आ गया। उस गुरुभाई को पाठ पढ़ाते हुए और गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शातेहुए उनके बिस्तर के पास रक्त कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर फेकते थे। गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनकेदिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके। गुरुदेव को वे समझ सके, स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके। समग्र विश्व में भारत के अमूल्यआध्यात्मिक खजाने की महक फैला सके। उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में थी ऐसी गुरुभक्ति गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा। 4 जुलाई सन्‌ 1902 कोउन्होंने देह त्याग किया।

वे सदा अपने को गरीबों का सेवक कहते थे। भारत के गौरव को देश-देशांतरों में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया। बालकों, दृढ बनेरहो, मेरी सन्तानों में से कोई भी कायर न बने। तुम लोगों में जो सबसे अधिक साहसी है - सदा उसीका साथ करो। बिना विघ्न - बाधाओं के क्या कभी कोई महान कार्यहो सकता है? समय धैर्य तथा अदम्य इच्छा-शक्ति से ही कार्य हुआ करता है। मैं तुम लोगों को ऐसी बहुत सी बातें बतलाता जिससे तुम्हारे हृदय उछल पडते, किन्तु मैं ऐसा नहीं करूँगा। मैं तो लोहे के सदृश दृढ इच्छा-शक्ति सम्पन्न हृदय चाहता हूँ, जो कभी कम्पित न हो। दृढता के साथ लगे रहो, प्रभु तुम्हें आशीर्वाद दे। सदाशुभकामनाओं के साथ तुम्हारा विवेकानन्द........

रविवार, 24 अक्टूबर 2010

भारतोन्नति में बाधक हैं अतीत के सुनहरे स्वप्न!******* सन्तोष कुमार "प्यासा"



आजादी के सालों बाद भी भारत पूर्णरूपेण विकसित नही पाया यह चिन्तनीय विषय है। किसी भी राष्ट्र की उन्नती एवं विकाषषीलता के लिए जिन उपादानों की आवष्यकता पडती है, वह सभी हमारे देष में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं। 
तो फिर वह क्या कारण है जिससे हमारा देष अभी तक ठीक से अपने पैरों में खडा नही हो पाया ? क्या हमारे पास विवेक की कमीं है ? या फिर प्राक्रतिक संसाधनों की ? अथवा बल व पौरूष की ? गंभीरता से विचारने पर ज्ञात होता है कि हमारे पास वह सभी उपादान उपलब्ध हैं जो किसी राष्ट्र को विकसित करतीं हैं। तो फिर हम आजादी के 63 वर्षो पश्चात भी विकसति क्यूॅ नही हो पाये ? आखिर वह कौन सी कमी है, जो हमारे देष की उन्नती में बाधक है ? 
अरे 63 वर्ष तो एक दीर्घ समयावधि होती है। 63 वर्षो में तो एक मनुष्य की सम्पूर्ण जीवन लीला ही समाप्त हो जाती है। वह बाल्यावस्था से युवावस्था फिर ग्रहस्थ जीवन में प्रवेष करता हुआ बुडापे एवं अपने मृत्यु तक का सफर 63 वर्षो में तय कर लेता है। कुछ लोगांे की जीवन लीला तो 60 साल से पहले ही समाप्त हो जाती है। जब एक मनुष्य के जीवन का सफर 63 वर्षों खत्म हो सकता है, तो देष की उन्नती होना कोई बडी बात नही होती।

 भारतेन्दू जी ने भारतीयों को जापन से सीख लेने की सलाह दी थी। यदि हम भारतेन्दू जी की सलाह पर अमल करते और जापान से सीख लेते तो शायद अभी तक हम सफलता के कई पायदान चड चुके होते। अरे आजादी के बाद हमारे पास तो प्राक्रतिक और भौतिक दोनो प्रकार के संसाधन उपलब्ध थे, पर बेचारा जापान तो आजादी के बाद प्राक्रतिक और भौतिक दोनो प्रकार से अपाहिज था। लेकिन फिर भी अपने मेहनती स्वभाव और वर्तमान-पर चिंतन के गुण के कारण वह चंद समय मे ही सफलता के पायदान सरलता और सुगमता से चढता चला गया। विकाष में सहायक हर साधन के उपलब्ध होने के बाद भी भारत अभी तक विकसित नही हुआ यह बात खलती है। 
भारत की इस स्थिति का बारीकी से पडताल करने के बाद कुछ कारण सामने आये जो कि भारतोन्नती में बाधक हैं। हम भरतियों में सबसे बडी कमी है ‘खुद को अतीत के सुनहरे स्वप्नों में गम कर लेना’। यदि हम चाहे तो वर्तमान में उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करके खुद को विकसित कर सकतें हैं, लेकिन हमें अतीत की गाथा गाने से फुर्सत ही नही मिलती । हम बडे गर्व से कहा करतें है कि ‘भारत ने सम्पूर्ण विष्व को ज्ञान दिया है। भारत ने ‘‘शून्य’’ का ज्ञान कराकर दुनियाॅ को विज्ञान की कई महान उपलब्धियों का बोध कराया। भारत के विवेक के सन्मुख संसार नत्मस्तक हो चुका है। भारत के अध्यात्मिक ज्ञान को संसार ने महान माना है, इत्यादि कई प्रकार की बरबड्डी करते फिरतें हैं। हमें अपने वर्तमान की न कोई सुध है और न ही कोई चिन्ता। जितना समय हम अतीत की गाथा गाने मे नष्ट करते है यदि वही समय सामाजिक कार्यो में लगायें तों स्वयम् एवं देष की तरक्की एवं उन्नति में सहायक हो सकते हैं। भारत की उन्नति में बाधा उत्पन्न करने वाला दूसरा व अहम् तत्व है। दोषारोपण ! बात चाहे राजनितिक क्षेत्र की हो या सामाजिक अथवा व्योसयिक क्षेत्र की ! हर क्षेत्र में एक दूसरे के ऊपर दोष माड़कर खुद को कर्तब्य मुक्त कर लिया जाता है ! अज राजनितिक पार्टियों का कार्य विक्ष करना नहीं अपितु दोषारोपण करना है ! मुद्दा चाहे महंगाई का हो या राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रस्ताचार का, या नक्सली हमले का अथवा घ!टी की समस्याओं का ! इस तरह के सभी मुद्दों में राजनितिक पार्टियों की भूमिका छींटाकसी और दोषारोपण करने तक ही सिमित रहती है ! यही स्थिति सामाजिक व व्यावसायिक क्षेत्रों की भी है ! अतीत का गुणगान करना बुरा नहीं है ! पर अतीत के स्वप्नों में खो कर वर्तमान को भूल जाना बेवकूफी है ! अतीत के समय की राजनितिक एवं सामाजिक व्यवस्था दोषारोपण की बुराइयों से मुक्त थी ! अतीत के लोग (हमारे पूर्वज जिनकी हम गाथा गाते नहीं थकते ) दुसरे के ऊपर दोषारोपण करने को उचित नहीं समझते थे ! उनकी राय में "दूसरो की कमियां देखने से अच्छा है, अपनी कमियों को दूर किया जाये !" उनका मन्ना था की जितना समय हम दूसरों को दोष देने में गवाएंगे, उतने समय में हम प्रयत्न करके अपनी कमियों को दूर कर सकते है ! जिससे स्वयं एवं समाज की भलाई होगी ! वर्तमान की बड़ी समस्या यह है कि "हम अपने पूर्वजों के गुणों का बखान तो करते है, पर उसे अमल में नहीं लाते! यदि हम अतीत के महापुरुषों का गुणगान करने कि अपेक्षा उनके गुणों को निजी जिंदगी में अमल करें तो अपने साथ साथ समाज का भी भला कर सकते है !  

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

आधुनिक मीरा {हिंदी दिवस पर विशेष} सन्तोष कुमार "प्यासा"

 महादेवी वर्मा  हिन्दी की सर्वाधिक प्रतिभावान कवयित्रियों में से हैं। वे हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक मानी जाती हैं। आधुनिक हिन्दी की सबसे सशक्त कवयित्रियों में से एक होने के कारण उन्हें आधुनिक मीरा के नाम से भी जाना जाता है। कवि निराला ने उन्हें “हिन्दी के विशाल मन्दिर की सरस्वती” भी कहा है। महादेवी ने स्वतंत्रता के पहले का भारत भी देखा और उसके बाद का भी। वे उन कवियों में से एक हैं जिन्होंने व्यापक समाज में काम करते हुए भारत के भीतर विद्यमान हाहाकार, रुदन को देखा, परखा और करुण होकर अन्धकार को दूर करने वाली दृष्टि देने की कोशिश की।न केवल उनका काव्य बल्कि उनके सामाजसुधार के कार्य और महिलाओं के प्रति चेतना भावना भी इस दृष्टि से प्रभावित रहे। उन्होंने मन की पीड़ा को इतने स्नेह और शृंगार से सजाया कि दीपशिखा में वह जन जन की पीड़ा के रूप में स्थापित हुई और उसने केवल पाठकों को ही नहीं समीक्षकों को भी गहराई तक प्रभावित किया।
उन्होंने खड़ी बोली हिन्दी की कविता में उस कोमल शब्दावली का विकास किया जो अभी तक केवल बृजभाषा में ही संभव मानी जाती थी। इसके लिए उन्होंने अपने समय के अनुकूल संस्कृत और बांग्ला के कोमल शब्दों को चुनकर हिन्दी का जामा पहनाया। संगीत की जानकार होने के कारण उनके गीतों का नाद-सौंदर्य और पैनी उक्तियों की व्यंजना शैली अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने अध्यापन से अपने कार्यजीवन की शुरूआत की और अंतिम समय तक वे प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या बनी रहीं। उनका बाल-विवाह हुआ परंतु उन्होंने अविवाहित की भांति जीवन-यापन किया। प्रतिभावान कवयित्री और गद्य लेखिका महादेवी वर्मा साहित्य और संगीत में निपुण होने के साथ साथ कुशल चित्रकार और सृजनात्मक अनुवादक भी थीं। उन्हें हिन्दी साहित्य के सभी महत्त्वपूर्ण पुरस्कार प्राप्त करने का गौरव प्राप्त है। भारत के साहित्य आकाश में महादेवी वर्मा का नाम ध्रुव तारे की भांति प्रकाशमान है। गत शताब्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय महिला साहित्यकार के रूप में वे जीवन भर पूजनीय बनी रहीं!

जन्म और परिवार

महादेवी का जन्म २६ मार्च, १९०७ को प्रातः ८ बजे फ़र्रुख़ाबाद उत्तर प्रदेश, भारत में हुआ। उनके परिवार में लगभग २०० वर्षों या सात पीढ़ियों के बाद पहली बार पुत्री का जन्म हुआ था। अतः बाबा बाबू बाँके विहारी जी हर्ष से झूम उठे और इन्हें घर की देवी — महादेवी मानते हुए पुत्री का नाम महादेवी रखा। उनके पिता श्री गोविंद प्रसाद वर्मा भागलपुर के एक कॉलेज में प्राध्यापक थे। उनकी माता का नाम हेमरानी देवी था। हेमरानी देवी बड़ी धर्म परायण, कर्मनिष्ठ, भावुक एवं शाकाहारी महिला थीं। विवाह के समय अपने साथ सिंहासनासीन भगवान की मूर्ति भी लायी थीं वे प्रतिदिन कई घंटे पूजा-पाठ तथा रामायण, गीता एवं विनय पत्रिका का पारायण करती थीं और संगीत में भी उनकी अत्यधिक रुचि थी। इसके बिल्कुल विपरीत उनके पिता गोविन्द प्रसाद वर्मा सुन्दर, विद्वान, संगीत प्रेमी, नास्तिक, शिकार करने एवं घूमने के शौकीन, मांसाहारी तथा हँसमुख व्यक्ति थे। महादेवी वर्मा के मानस बंधुओं में सुमित्रानंदन पंत एवं निराला का नाम लिया जा सकता है, जो उनसे जीवन पर्यन्त राखी बँधवाते रहे। निराला जी से उनकी अत्यधिक निकटता थी, उनकी पुष्ट कलाइयों में महादेवी जी लगभग चालीस वर्षों तक राखी बाँधती रहीं।
शिक्षा
महादेवी जी की शिक्षा इंदौर में मिशन स्कूल से प्रारम्भ हुई साथ ही संस्कृत, अंग्रेज़ी, संगीत तथा चित्रकला की शिक्षा अध्यापकों द्वारा घर पर ही दी जाती रही। बीच में विवाह जैसी बाधा पड़ जाने के कारण कुछ दिन शिक्षा स्थगित रही। विवाहोपरान्त महादेवी जी ने १९१९ में क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद में प्रवेश लिया और कॉलेज के छात्रावास में रहने लगीं। १९२१ में महादेवी जी ने आठवीं कक्षा में प्रान्त भर में प्रथम स्थान प्राप्त किया। यहीं पर उन्होंने अपने काव्य जीवन की शुरुआत की। वे सात वर्ष की अवस्था से ही कविता लिखने लगी थीं और १९२५ तक जब उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की, वे एक सफल कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपकी कविताओं का प्रकाशन होने लगा था। कालेज में सुभद्रा कुमारी चौहान के साथ उनकी घनिष्ठ मित्रता हो गई। सुभद्रा कुमारी चौहान महादेवी जी का हाथ पकड़ कर सखियों के बीच में ले जाती और कहतीं ― “सुनो, ये कविता भी लिखती हैं”। १९३२ में जब उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. पास किया तब तक उनके दो कविता संग्रह नीहार तथा रश्मि प्रकाशित हो चुके थे।
वैवाहिक जीवन
सन् १९१६ में उनके बाबा श्री बाँके विहारी ने इनका विवाह बरेली के पास नबाव गंज कस्बे के निवासी श्री स्वरूप नारायण वर्मा से कर दिया, जो उस समय दसवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। श्री वर्मा इण्टर करके लखनऊ मेडिकल कॉलेज में बोर्डिंग हाउस में रहने लगे। महादेवी जी उस समय क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद के छात्रावास में थीं। श्रीमती महादेवी वर्मा को विवाहित जीवन से विरक्ति थी। कारण कुछ भी रहा हो पर श्री स्वरूप नारायण वर्मा से कोई वैमनस्य नहीं था। सामान्य स्त्री-पुरुष के रूप में उनके सम्बंध मधुर ही रहे। दोनों में कभी-कभी पत्राचार भी होता था। यदा-कदा श्री वर्मा इलाहाबाद में उनसे मिलने भी आते थे। श्री वर्मा ने महादेवी जी के कहने पर भी दूसरा विवाह नहीं किया। महादेवी जी का जीवन तो एक संन्यासिनी का जीवन था ही। उन्होंने जीवन भर श्वेत वस्त्र पहना, तख्त पर सोईं और कभी शीशा नहीं देखा। १९६६ में पति की मृत्यु के बाद वे स्थाई रूप से इलाहाबाद में रहने लगीं।
कार्यक्षेत्र
महादेवी साहित्य संग्रहालय, रामगढ़महादेवी का कार्यक्षेत्र लेखन, संपादन और अध्यापन रहा। उन्होंने इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। यह कार्य अपने समय में महिला-शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम था। इसकी वे प्रधानाचार्य एवं कुलपति भी रहीं। १९३२ में उन्होंने महिलाओं की प्रमुख पत्रिका ‘चाँद’ का कार्यभार संभाला। १९३० में नीहार, १९३२ में रश्मि, १९३४ में नीरजा, तथा १९३६ में सांध्यगीत नामक उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए। १९३९ में इन चारों काव्य संग्रहों को उनकी कलाकृतियों के साथ वृहदाकार में यामा शीर्षक से प्रकाशित किया गया। उन्होंने गद्य, काव्य, शिक्षा और चित्रकला सभी क्षेत्रों में नए आयाम स्थापित किये। इसके अतिरिक्त उनकी 18 काव्य और गद्य कृतियां हैं जिनमें मेरा परिवार, स्मृति की रेखाएं, पथ के साथी, शृंखला की कड़ियाँ और अतीत के चलचित्र प्रमुख हैं। सन १९५५ में महादेवी जी ने इलाहाबाद में साहित्यकार संसद की स्थापना की और पं इलाचंद्र जोशी के सहयोग से साहित्यकार का संपादन संभाला। यह इस संस्था का मुखपत्र था। उन्होंने भारत में महिला कवि सम्मेलनों की नीव रखी।[१०] इस प्रकार का पहला अखिल भारतवर्षीय कवि सम्मेलन १५ अप्रैल १९३३ को सुभद्रा कुमारी चौहान की अध्यक्षता में प्रयाग महिला विद्यापीठ में संपन्न हुआ।[११] वे हिंदी साहित्य में रहस्याद की प्रवर्तिका भी मानी जाती हैं।[१२] महादेवी बौद्ध धर्म से बहुत प्रभावित थीं। महात्मा गांधी के प्रभाव से उन्होंने जनसेवा का व्रत लेकर झूसी में कार्य किया और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी हिस्सा लिया। १९३६ में नैनीताल से २५ किलोमीटर दूर रामगढ़ कसबे के उमागढ़ नामक गाँव में महादेवी वर्मा ने एक बँगला बनवाया था। जिसका नाम उन्होंने मीरा मंदिर रखा था। जितने दिन वे यहाँ रहीं इस छोटे से गाँव की शिक्षा और विकास के लिए काम करती रहीं। विशेष रूप से महिलाओं की शिक्षा और उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए उन्होंने बहुत काम किया। आजकल इस बंगले को महादेवी साहित्य संग्रहालय के नाम से जाना जाता है।[१३][१४] शृंखला की कड़ियाँ में स्त्रियों की मुक्ति और विकास के लिए उन्होंने जिस साहस व दृढ़ता से आवाज़ उठाई हैं और जिस प्रकार सामाजिक रूढ़ियों की निंदा की है उससे उन्हें महिला मुक्तिवादी भी कहा गया।[१५] महिलाओं व शिक्षा के विकास के कार्यों और जनसेवा के कारण उन्हें समाज-सुधारक भी कहा गया है।[१६] उनके संपूर्ण गद्य साहित्य में पीड़ा या वेदना के कहीं दर्शन नहीं होते बल्कि अदम्य रचनात्मक रोष समाज में बदलाव की अदम्य आकांक्षा और विकास के प्रति सहज लगाव परिलक्षित होता है।[१७]
उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद नगर में बिताया। ११ सितंबर, १९८७ को इलाहाबाद में रात ९ बजकर ३० मिनट पर उनका देहांत हो गया।

  (महादेवी — मार्गरेट थैचर से ज्ञानपीठ पुरस्कार लेते हुए)



            (महादेवी, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी आदि के साथ)


                         (महादेवी साहित्य संग्रहालय, रामगढ़)
विकिपीडिया  से साभार !

शनिवार, 21 अगस्त 2010

अरे हम बंदी किसके थे जो हमें कोई आजाद करेगा हमने तो उन्हें केवल व्यापर के लिए चंद समय और जगह दी थी.. Ankur Mishra "YUGAL"

आखिर आ ही गया हमारी स्वतंत्रता का ६४वा वर्ष !




चलिए हम जरा विचार करते है की हमने , हमारे भारत के लिए इन ६४ वर्षों में कितने महान कार्य और कितने सराहनीय कार्य किये है, जिनसे हमारा और हमारे मुल्क का विकाश हुआ है!



जी हा हम कह रहे है अब ६४ वर्ष जो अब बीत चुके है जो बहुत ज्यादा होते है, आजकल तो एक मनुष्य की उम्र भी नहीं होती इतनी ....



फिर भी हम उनसे पीछे क्यों है, क्या हमारे पास संसाधनों की कमी है ,क्या हमारे पास तकनीक की कमी है ,क्या हमारे पास दिमाग की कमी है ,क्या हमारे पास शक्ति की कमी है???नहीं हम किसी में भी काम नहीं है !हम एक अरब से ऊपर है जो महान शक्ति का प्रतीक है ,विश्व के सर्वोच्च कोटि के डॉक्टर ,इन्जीनिअर,प्रयोग्शाश्त्री यही से होते है जो महान दिमाग के उत्पत्ति के सूचक है ,विश्व के महान तकनिकी संस्थानों के नायक भारतीय है जो महान तकनीक का सूचक है जब हमारे पास इतना सब है तो हम उनसे पीछे क्यों है !



और छोडिये आज जिस कम्पूटर पर सारा विश्व चलता है उस कम्पूटर को चलने वाला"शून्य" हमारी ही देन है,इस विश्व को पढना -लिखना किसने सिखाया है -हमने ,तभी तो हम एक समय पर विश्व गुरु थे और आज नहीं है इसका कारण क्या है !!!!!!!



क्या आपको नहीं लगता की केवल हमारे विचारो के कारण ही हम विश्व से पीछे है एक समय पर हम विश्व गुरु थे और आज हम सैकड़ो में भी नहीं आते !



एक समय पर हमारे पास वो अस्त्र - शश्त्र थे की हम पूरी दुनिया को हिला सकते थे और आप अपनों से ही हिल रहे है ! इस दुनिया को हमने ही उस श्रृंखला में लाके खड़ा किया है की वो अपने अधिकारों को ले सके हाँ ये सत्य है की उसने हमें छल से घायल कर दिया था पर यह तो सोचनीय है की ६४ वर्ष में तो अच्छा से अच्छा घाव सही हो जाता है फिर हम तो केवल चोटिल थे अरे आप और छोड़िये अपने पडोसी "जापान" को देखिये वो तो मृत्यु के दरवाजे से निकला था पर आज पूर्ण रूपेण विकसित है हाँ वहा के लोगो में अभी तक घाव है पर उन्होंने अपने देश के घाव को सही कर दिया !



अरे हम उसी को आदर्श बना कर चल सकते है आखिर हमारा अच्चा दोस्त है वो! वहां भ्रष्टाचार नहीं होता ,वहा के नेता अपने देश का धन दुसरे देशो में जमा नहीं करते ,वहां के नागरिक दुसरे को पतन पर नहीं बल्कि खुद को उन्नति के मार्ग ले जाने का प्रयास करते है ,वहा वर्ष में हजारो चुनाव नहीं होते,अरे वहा हर उस मार्ग को चुनते है जिससे आज के आवश्यक तथ्य "समय और धन" की बचत हो सके और उसका उपयोग अन्य किसी कार्य में कर सके !आखिर ये संभव कैसे है --- केवल और केवल उनके विचारो के कारण उनके विचार उनके देश के साथ है वो देश को सोचकर कोई कदम उठाते है !क्या वो कुछ अलग करते है ,क्या वो खाना नहीं खाते ,क्या वो सोते नहीं है ,क्या वो लड़ते नहीं है ??????



जी नहीं ये सब उनके यहाँ भी होता है अरे ये तो दैनिक जीवन के क्रिया कलाप है सब कोई करता है !!!!!!!! हाँ पर ये तथ्य है की वो केवल इन्ही कारणों से सबसे आगे है क्योकि वो सभी कार्य एक अलग तरीके से करते है ;उनका कार्य को करने का हर तरीका अलग होता है !अद्वितीय होता है!!!!!!!!!!



जी हा ये सब हम भी कर सकते है और सारे तरीके हमारे पास भी है क्योकि हमारे पूर्वजो से ही इन्होने लिए है.....लेकिन आज समस्या यही है की अह हम खुद को भूल चुके है और इसी का परिणाम हमारा देश और हम भुगत रहे है ,और हमी कहते है हम आजाद नहीं है """अरे हम बंदी किसके थे जो हमें कोई आजाद करेगा हमने तो उन्हें केवल व्यापर के लिए चंद समय और जगह दी थी पर ये "सत्य" है की हमारे विचारो को कुलीन इसी समय ने किया है !!!!!! हाँ यदि हमने अभी से ही अपने विचारो पर विचार करना सुरु कर दिया तो विश्व की कोई ताकत हमसे आँगे नहीं हो सकती....

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

हिंदी के प्रति आपकी सोच सकारात्मक या नकारात्मक ? ...........(आलेख)...........भूतनाथ जी


  दोस्तों , बहुत ही गुस्से के साथ इस विषय पर मैं अपनी
भावनाएं आप सबके साथ बांटना चाहता हूँ ,वो यह कि हिंदी के साथ आज जो किया
जा रहा है ,जाने और अनजाने हम सब ,जो इसके सिपहसलार बने हुए हैं,इसके साथ
जो किये जा रहे हैं....वह अत्यंत दुखद है...मैं सीधे-सीधे आज आप सबसे यह
पूछता हूँ कि मैं आपकी माँ...आपके बाप....आपके भाई-बहन या किसी भी दोस्त-
रिश्तेदार या ऐसा कोई भी जिसे आप पहचानते हैं....उसका चेहरा अगर बदल दूं
तो क्या आप उसे पहचान लेंगे....???एक दिन के लिए भी यदि आपके किसी भी
पहचान वाले चेहरे को बदल दें तो वो तो कम ,अपितु आप उससे अभिक " "
परेशान "हो जायेंगे.....!!
  थोड़ी-बहुत बदलाहट की और बात होती है....समूचा ढांचा ही
" रद्दोबदल " कर देना कहीं से भी तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता.....सिर्फ एक
बार कल्पना करें ना आप....कि जब आप किसी भी वास्तु को एकदम से बिलकुल ही
नए फ्रेम में नयी तरह से अकस्मात देखते हैं,तो पहले-पहल आपके मन में उसके
प्रति क्या प्रतिक्रिया होती है...!!...तो थोडा-बहुत तो क्या बल्कि उससे
बहुत अधिक बदलाहट को हिंदी में स्वीकार ही कर लिया गया है बल्कि उसे
अधिकाधिक प्रयोग भी किया जाने लगा है...यानी कि उसे हिंदी में बिलकुल समा
ही लिया गया है....किन्तु अब जो स्थिति आन पड़ी है....जिसमें कि हिंदी को
बड़े बेशर्म ढंग से ना सिर्फ हिन्लिश में लिखा-बोला-प्रेषित किया जा रहा
है बल्कि रोमन लिपि में लिखा भी जा रहा है कुछ जगहों पर...और तर्क है कि
जो युवा बोलते-लिखते-चाहते हैं...!!
  ....तो एक बार मैं सीधा-सीधा यह पूछना या कहना चाहता हूँ कि
युवा तो और भी " बहुत कुछ " चाहते हैं....!!तो क्या आप अपनी
प्रसार-संख्या बढाने के " वो सब " भी "उन्हें" परोसेंगे....??तो फिर
दूसरा प्रश्न मेरा यह पैदा हो जाएगा....तो फिर उसमें आपके
बहन-बेटी-भाई-बीवी-बच्चे सभी तो होंगे.....तो क्या आप उन्हें भी...."वो
सब" उपलब्ध करवाएंगे ....तर्क तो यह कहता है दुनिया के सब कौवे काले
हैं....मैं काला हूँ....इसलिए मैं भी कौवा हूँ....!!....अबे ,आप इस तरह
का तर्क लागू करने वाले "तमाम" लोगों अपनी कुचेष्टा को आप किसी और पर
क्यूँ डाल देते हो....??
  मैं बहुत गुस्से में आप सबों से यह पूछना चाहता हूँ...कि
रातों-रात आपकी माँ को बदल दिया जाए तो आपको कैसा लगेगा....??यदि आप यह
कहना चाहते हैं कि बिलकुल अच्छा नहीं लगेगा....या फिर आप मुझे गाली देना
चाह रहे हों....या कि आप मुझे नफरत की दृष्टि से देखने लगें हो...इनमें
से जो भी बात आप पर लागू हो,उससे यह तो प्रकट ही है कि ऐसा होना आपको
नागवार लगेगा बल्कि मेरे द्वारा यह कहा जाना भी आपको उतना ही नागवार
गुजर रहा है....तो फिर आप ही बताईये ना कि आखिर किस प्रकार आप अपनी भाषा
को तिलांजलि देने में लगे हुए हैं ??
  आखिर हिंदी रानी ने ऐसा क्या पाप किया है कि जिसके कारण
आप इसकी हमेशा ऐसी-की-तैसी करने में जुटे हुए रहते है...???....हिंदी ने
आपका कौन-सा काम बिगाड़ा है या फिर उसने आपका ऐसा कौन-सा कार्य नहीं
बनाया है कि आपको उसे बोले या लिखे जाने पर लाज महसूस होती है....क्या
आपको अपनी बूढी माँ को देखकर शर्म आती है...??यदि हाँ ,तो बेशक छोड़
दीजिये माँ को भी और हिंदी को अभी की अभी....मगर यदि नहीं...तो हिंदी की
हिंदी मत ना कीजिये प्लीज़....भले ही इंग्लिश आपके लिए ज्ञान-विज्ञान
वाली भाषा है... मगर हिंदी का क्या कोई मूल्य नहीं आपके जीवन में...??
  क्या हिंदी में "...ज्ञान..."नहीं है...??क्या हिंदी
में आगे बढ़ने की ताब नहीं ??क्या हिंदी वाले विद्वान् नहीं
होते....??मेरी समझ से तो हिंदी का लोहा और संस्कृत का डंका तो अब आपकी
नज़र में सुयोग्य और जबरदस्त प्रतिभावान- संपन्न विदेशीगण भी मान रहे
हैं...आखिर यही हिंदी-भारत कभी विश्व का सिरमौर का रह चुका
है....विद्या-रूपी धन में भी....और भौतिक धन में भी...क्या उस समय
इंग्लिश थी भारत में....या कि इंगलिश ने भारत में आकर इसका भट्टा बिठाया
है...इसकी-सभ्यता का-संस्कृति का..परम्परा का और अंततः समूचे संस्कार
का...भी...!!
  आज यह भारत अगर दीन-हीन और श्री हीन होकर बैठा है तो उसका
कारण यह भी है कि अपनी भाषा...अपने श्रम का आत्मबल खो जाने के कारण यह
देश अपना स्वावलंबन भी खो चुका,....सवा अरब लोगों की आबादी में कुछेक
करोड़ लोगों की सफलता का ठीकरा पीटना और भारत के महाशक्ति होने का
मुगालता पालना...यह गलतफहमी पालकर इस देश के बहुत सारे लोग बहुत गंभीर
गलती कर रहे हैं...क्यूँ कि देश का अधिकांशतः भाग बेहद-बेहद-बेहद गरीब
है...अगर अंग्रेजी का वर्चस्व रोजगार के साधनों पर न हुआ होता...और
उत्पादन-व्यवस्था इतनी केन्द्रीयकृत ना बनायी गयी होती तो....जैसे
उत्पादन और विक्रय-व्यवस्था भारत की अपनी हुआ करती थी....शायद ही कोई
गरीब हुआ होता...शायद ही स्थिति इतनी वीभत्स हुई होती....मार्मिक हुई
होती...!!
  हिंदी के साथ वही हुआ , जो इस देश अर्थव्यवस्था के साथ
हुआ....आज देश अपनी तरक्की पर चाहे जितना इतरा ले...मगर यहाँ के
अमीर-से-अमीर व्यक्ति में भाषा का स्वाभिमान नहीं है....और एक गरीब
व्यक्ति का स्वाभिमान तो खैर हमने बना ही नहीं रहने दिया....और ना ही
मुझे यह आशा भी है कि हम उसे कभी पनपने भी देंगे.....!!ऐसे हालात में
कम-से-कम जो भाषा भाई-चारे-प्रेम-स्नेह की भाषा बन सकती है....उसे हमने
कहीं तो दोयम ही बना दिया है...कहीं झगडे का घर....तो कहीं जानबूझकर
नज़रंदाज़ किया हुआ है...वो भी इतना कि मुझे कहते हुए भी शर्म आती
है...कि इस देश का तमाम अमीर-वर्ग ,जो दिन-रात हिंदी की खाता है....ओढ़ता
है...पहनता है....और उसी से अपनी तिजोरी भी भरता है....मगर सार्वजनिक
जीवन में हिंदी को ऐसा लतियाता है....कि जैसे खा-पीकर-अघाकर किसी "रंडी"
को लतियाया जाता हो.....मतलब पेट भरते ही....हिंदी की.....!!!ऐसे बेशर्म
वर्ग को क्या कहें ,जो हिंदी का कमाकर अंग्रेजी में टपर-टपर करता
है.....जिसे जिसे देश का आम जन कहता है बिटिर-बिटिर....!!
  क्या आप कभी अपनी दूकान से कमाकर शाम को दूकान में आग
लगा देते हैं.....??क्या आप जवान होकर अपने बूढ़े माँ-बाप को धक्का देकर
घर से बाहर कर देते हैं....तो
हुजुर....माई.....बाप....सरकारे-आला....हाकिम....हिंदी ने भी आपका क्या
बिगाड़ा है,....वह तो आपकी मान की तरह आपके जन्म से लेकर आपकी मृत्यु तक
आपके हर कार्य को साधती ही है....और आप चाहे तो उसे और भी लतियायें,अपने
माँ-बाप की तरह... तब भी वह आखिर तक आपके काम आएगी ही...यही हिंदी का
अपनत्व है आपके प्रति या कि ममत्व ,चाहे जो कहिये ,अब आपकी मर्ज़ी है कि
उसके प्रति आप नमक-हलाल बनते हैं या "हरामखोर......"??

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

सामाजिक सरोकारों का संरक्षण आवश्यक है

सामाजिक सरोकारों का संरक्षण आवश्यक है
डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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समाज की व्यवस्था के सुचारू रूप से संचालन के लिए इंसान ने परम्पराओं, मूल्यों, सरोकारों की स्थापना की। समय के सापेक्ष चलती व्यवस्था ने अपने संचालन की दृष्टि से समय-समय पर इनमें बदलाव भी स्वीकार किये। पारिवारिक दृष्टि से, सामाजिक दृष्टि से, आर्थिक दृष्टि से पूर्वकाल से अद्यतन सामाजिक व्यवस्थाएँ बनती बिगड़तीं रहीं। जीवन के सुव्यवस्थित क्रम में मूल्यों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। मानव विकास का ऐतिहासिक दृश्यावलोकन करें तो ज्ञात होगा कि अकेले-अकेले रहते आ रहे मानव को किसी न किसी रूप में परिवार की, एक समूह की आवश्यकता महसूस हुई होगी। इसी आवश्यकता ने परिवार जैसी संस्था का विकास किया।

मानव की आवश्यकताएँ हमेशा से अनन्त रहीं हैं। इन आवश्यकताओं में कुछ आवश्यकताओं को मूलभूत आवश्यकताओं के रूप में देखा जा सकता है तो कुछ आवश्यकताएँ स्वयं मानव जनित हैं। मूलभूत आवश्यकताओं के रूप में इंसान ने जो कुछ पाया, जो कुछ खोजा उसी को व्यवस्थित रूप देने के लिए ही एक व्यापक व्यवस्था बनाई गई। इसी व्यवस्था को किसी ने परम्परा का नाम दिया तो किसी ने इसे सरोकारों का नाम दिया।

देखा जाये तो सरोकारों का उपयोग आजकल हम किसी न किसी काम में करके देखते हैं। कभी शिक्षा के सामाजिक सरोकारों की बात होती है तो कभी मीडिया के सामाजिक सरोकारों की चर्चा होती है। किसी के द्वारा राजनीति के सामाजिक सरोकारों को खोजा जाता है तो कभी इंसान के सामाजिक सरोकारों के लिए बहस शुरू की जाती है। सवाल यह उठता है कि सामाजिक सरोकार क्या समय के साथ परिवर्तित होते रहते हैं अथवा प्रत्येक कालखण्ड में सामाजिक सरोकार अपरिवर्तित रहते हैं?

सामाजिक सरोकारों में समय-समय पर इंसान की सुविधानुसार परिवर्तन होते रहे हैं। कभी व्यक्ति ने परिवार के हिसाब से सामाजिक सरोकारों का निर्माण किया तो कभी उसने अपने कार्य की प्रकृति के अनुसार सरोकारों को देखा। सामाजिक सरोकार के नाम पर इंसान ने सदा अपनी सुविधा को ही तलाशन का प्रयास किया है। पारिवारिक संदर्भों में यदि हम देखें तो पायेंगे कि इंसान ने जब परिवार की अवधारणा का विकास किया होगा तो उस समय उसने संयुक्त परिवार के चलन को वरीयता दी थी। कबीलाई संस्कृति कहीं न कहीं संयुक्त जीवनशैली का ही उदाहरण कही जा सकती है। इस संस्कृति के बाद ही परिवारों का एक साथ रहना सामाजिक सरोकारों में शुमार किया गया। समय बदला और समय के साथ-साथ इंसान की आवश्यकताओं ने भी अपना रूप बदल लिया। संयुक्त परिवार को प्राथमिक मानने वाला इंसान अपनी जरूरत के अनुसार एकल परिवारों में सिमट गया।

एकल परिवारों का चलन धीरे-धीरे नाभिकीय परिवारों के रूप में आज दिखाई दे रहा है। स्त्री हो या पुरुष अब वह अकेले ही रहने में विश्वास करने लगा है। परिवार को लेकर निर्धारित किये गये सरोकार आज बदलते और सहज स्वीकार्य दिखाई दे रहे हैं। परिवारों में एकल की धारणा के साथ-साथ पति-पत्नी के प्रति आपसी सम्बन्धों के ताने-बाने ने भी परिवर्तन किया है।

स्त्री-पुरुष के आपसी सम्बन्धों से इतर पति-पत्नी के आपसी सम्बन्धों में भी क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। अब पत्नी हो या पति उसे विवाहोपरान्त शारीरिक सम्बन्धों को बनाने और उनको स्वीकारने में किसी तरह की झिझक नहीं दिखाई दे रही है। विवाहोपरान्त शारीरिक सम्बन्धों की सहज स्वीकारोक्ति और उसके बाद तलाक के रूप में अंतिम परिणति को स्त्री और पुरुष दोनों ही सहज भाव से स्वीकार रहे हैं।

ऊपर दिया गया परिवार का उदाहरण तो एक बानगी भर है यह समझाने के लिए कि हम किस तरह से सरोकारों को मिटाते हुए अपनी एक गैर-आधार वाली व्यवस्था का निर्माण करते चले जा रहे हैं। यह आवश्यक नहीं कि हम सरोकारों के नाम पर सिर्फ और सिर्फ पुरानी मान्यताओं को ढोते रहें किन्तु यह तो और भी अनावश्यक समझ में आता है कि मात्र स्वार्थपूर्ति के लिए सरोकारों में तोड़मरोड़ करने लगना। समाज की व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए ही सामाजिक सरोकारों का निर्माण किया गया था। समाज के ढाँचे में व्यक्ति ने अपने आपको स्थापित करने के लिए इन सरोकारों को सहज रूप में स्वीकार भी किया था।

किसी भी क्षेत्र में देखें तो हमें सामाजिक सरोकारों का क्षरण भली-भाँति दिखाई देता है। इस क्षरण के पीछे मनूष्य की असीमित रूप से कुछ भी पा लेने की लालसा दिखाई देती है। राजनीति हो अथवा मीडिया, शिक्षा हो अथवा व्यवसाय, धर्म हो अथवा कोई अन्य कार्य सभी में सरोकारों का विघटन आसानी से दिखाई देने लगा है। इस विघटन को आसानी से अस्वीकारने का काम भी चल रहा है। किसी को भी मूल्यों के ध्वस्त होने के बार में समझाया जाये, सरोकारों के विघटन के बारे में बताया जाये तो वह इसे सहज रूप में नहीं ले पा रहा है। आधुनिकता, औद्योगीकरण, वैश्वीकरण आदि जैसे भारीभरकम नामों के बीच मूल बिन्दू को तिरोहित कर दिया जाता है।

हम स्वयं आकलन करें कि परिवार के, समाज के सरोकारों को तोड़कर हम किस प्रकार के समाज का निर्माण अथवा संचालन करना चाहते हैं? रिश्तों के नाम की, मर्यादा की आहुति देकर किसी के साथ भी शारीरिकता को स्वीकार करके हम किस प्रकार के खुले समाज को स्वीकार कर रहे हैं? शिक्षा के नाम पर नित नये प्रयोग हमें किस दिशा में ले जा रहे हैं? नैतिक शिक्षा को मजाक समझकर उसको हाशिये पर खड़ा करने वाले अनैतिक समाज के निर्माण से क्या चाहते हैं? मूल्य विहीन राजनीति के द्वारा हम कौन से सरोकारों का प्रदर्शन कर रहे हैं? दिन प्रति दिन लोकतन्त्र की होती समाप्ति और अघोषित रूप से निर्मित होते जा रही राजशाही के द्वारा राजनीति में किन सरोकारों की स्थापना का संकल्प ले रखा है?

ये मात्र सवाल नहीं हैं, कुछ ज्वलन्त स्थितियाँ हैं जो नित हमें पतन की ओर ले जा रहीं हैं। एक छोटी सी बानगी ये है कि प्रत्येक कार्य में किसी न किसी रूप में नारी शरीर का उपयोग किया जाने लगा है। नारी तन के कपड़े कम से कमतर होते-होते समाप्ति की ओर चले जा रहे हैं। पुरुष की विकृत मानसिकता दिन प्रति दिन और विकृत होती जा रही है। कन्याओं का कोख में ही दम तोड़ते जाना अपनी अलग कहानी कह रहा है। बहुत कुछ है जो सरोकारों के नाम पर कुछ और ही परोस रहा है। चिन्तन का समय जा चुका है। एक कदम उठाना होगा जो समय सापेक्ष स्थिति का आकलन कर सामाजिक सरोकारों का सही-सही निर्धारण कर सके।

बुधवार, 9 जून 2010

शिक्षा और आधुनिक प्यार ********* सन्तोष कुमार "प्यासा"

आज कल प्यार का भूत युवाओ पर अच्छा खासा चढ़ा हुआ है ! गर्लफ्रेंड और बॉयफ्रेंड बनाने का फैशन सर चढ़ कर बोल रहा है ! जिसे देखो वही इसमें बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रहा है ! प्यार का खुमार इतना ज्यादा चढ़ चूका है की युवा पीढ़ी ने पढाई को साइड में रख दिया है !प्यार का वास्तविक ज्ञान न होने के कारण आज के अधिकतर युवा अपना भविष्य बर्बाद कर रहे है ! प्यार करना कोई बुरी बात नहीं है ! और न ही अपने से विपरीत लिंग से दोस्ती करना ! बस इरादा दोस्ती को नेक और दागदार बनता है ! किसी से प्यार हो जाने का मतलब ये नहीं होता की हम अपने कैरियर को भूल कर बस उसी में खो जाए ! आज के अधिकतर युवा पढाई को साइड में रखकर घंटो फोन में चिपके रहते है ! जो की सही नहीं है ! सही गलत और अच्छे बुरे का ज्ञान हमें शिक्षा से प्राप्त होता है ! शिष्टाचार से लेकर सुनहरे भविष्य के निर्माण तक की कला हमें शिक्षा से ही मिलती है ! प्यार की उत्पत्ति ज्ञान से हुई है ! एक विवेकवान मनुष्य ही प्यार की वास्तविकता को समझ और निभा सकता है ! हमें शिक्षा को अधिक महत्व देना चाहिए ताकि हम्मे विवेक का संचार हो और हम प्यार की वास्तविकता को समझ सके ! हमें ये कभी भी नहीं सोंचना चाहिए की हमारे दोस्तों के पास गर्लफ्रेंड या बॉयफ्रेंड है और हमारे पास नहीं ! इस प्रकार की सोंच को दिमाग में नहीं लाना चाहिए ! ऐसा सोंचने से हम स्यम में हीन भावना महसूस करने लगते है ! मन पढाई में भी नहीं लगता ! हमें एक बात सदैव यद् रखनी चाहिए की बॉयफ्रेंड या गर्लफ्रेंड जिंदगी की जरूरत नहीं ! और न ही फैशन या शौक ! प्यार होना मात्र एक संयोग और मनुष्य का प्राकृतिक लक्षण है ! विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षित होना मनुष्य का प्राकृतिक स्वभाव है ! अगर हम एक बात को गांठ बांध ले की गर्लफ्रेंड और बॉयफ्रेंड बनाने की कोई समय सीमा नहीं है !
लेकिन भविष्य निर्माण के लिए एक समय सीमा निर्धारित है ! यदि हम उससे चूक गए तो जिन्गदी भर पछताने के आलावा और कुछ नहीं बचेगा ! तो हम कुछ हद तक खुद पर काबू प् सकते है ! खूब मस्ती करो, खूब दोस्ती करो ! लेकिन शिक्षा और भविष्य कभी मत भूलो !

सोमवार, 31 मई 2010

क्यूकी बाप भी कभी बेटा था ......संतोष कुमार "प्यासा"

एक जमाना था जब लड़के अपने घर के बड़े बुजुर्गों का कहना सम्मान करते थे उनका कहा मानते थे ! कोई अपने पिता से आंख मिलाकर बात भी नहीं करता था ! उस समय कोई अपने पिता के सामने कुर्सी या पलंग पर भी नहीं बैठता था ! तब प्यार जैसी बात को अपने बड़े बुजुर्गों से बंटाना "बिल्ली के गले में घंटी बाधने" जैसा था ! प्रेम-प्रसंग तो सदियों से चला आ रहा है ! लेकिन पहले के प्रेम में मर्यादा थी ! उस समय यदि किसी के पिता को पता चल जाता था की उसका बेटा या बेटी किसी से नैन लड़ाते( प्रेम करते) घूम रहे है तो समझों की उस लड़के या लड़की की शामत आ गई ! पिता गुस्से में लाल पीला हो जाता था ! तरह तरह की बातें उसके दिमाग में गूंजने लगती थी ! मन ही मन सोंचता था "समाज में मेरी कितनी इज्ज़त है, नालायक की वजह से अब सर उठा कर भी नहीं चल सकता, सीधे मुह जो लोग बात करते डरते थे अब वही मुह पर हजारों बातें सुनाएगे, मेरी इज्ज़त को मिट्टी में मिला दिया इसने" कही ऐसा करने वाली लड़की होती तो उसके हाँथ पैर तोड़ दिए जाते थे, घर से निकलना बंद कर दिया जाता था ! साथ ही लड़के या लड़की को खुद शर्म महसूस होती थी ! लड़कियों का तो गली मोहल्ले से निकलना मुश्किल हो जाता था ! लोफ़र पार्टी तरह तरह की फब्ती कसते थे ! कहते थे " देखो तो इशक लड़ाती फिरती है, जवानी संभाले नहीं संभलती...." कभी कभी तो बेचारी को घर की इज्ज़त और कायली के कारण आत्महत्या भी करनी पड़ जाती थी ! इसके विपरीत कुछ लड़के अपने प्यार को बुजुर्गों से बाटना बुरा नहीं समझते थे ! ऐसे विचार के युवकों को उस समय बद्त्मीच और संस्कारहीन समझा जाता था ! यहाँ तक की उस समय फ़िल्मी गाना गाना भी असभ्य समझा जाता था ! समय के साथ बाप और बेटों के विचारों में बदलाव आया ! अब बेटा अपने प्यार के बारे में अपने पिता से आसानी से कहता है और पिता सरलता से सुनता है ! समय ने बेटियों को भी इतना सक्षम बना दिया है की वे भी अब अपने मन की बात अपने पिता से बेहिचक कह सकती है ! वर्तमान समय में पिताओं की भूमिका "शादी के कार्ड छपवाने और मैरिज हाल बुक करने तक ही रह गई है !" अब बेटा सीधे एक लड़के को घर में लाता है और कहता है "डैड मै इससे प्यार करता हूँ !" यह सुनकर अब कोई पिता गुस्से से लाल पीला नहीं होता और न ही वह समाज के बारे में सोंचता है ! क्युकी उसे पता है की आज हर दूसरे घर में यही हो रहा है ! पिता मन ही मन सोंचता है "अच्छा हुआ कम से कम एक जिम्मेवारी तो ख़त्म हुई !अब माता पिताओं को "बहु और दामाद" ढूँढने में ज्यादा दिक्कत नहीं होती ! शायद ऐसा समय के बदलाव के कारण हुआ है ! समय ने पिता को एहसास दिला दिया है की "बाप भी कभी बेटा था" ! पिता भी सोंच लेता है की एक समय था जब हमने भी किसी से प्यार किया था, लेकिन वह समय स्थिति ऐसी नहीं थी की हम अपने प्यार के बारे में किसीको बता पाते ! आज के पिताओं ने अपने पिताओं की गलती को दोहराना बंद कर दिया है ! इस व्यवस्था में अच्छाई और बुराई दोनों है !
अच्छाई यह की, अब माता पिता बच्चों की भावनाओ को समझने लगे है, उनकी इच्छाओं और भावनाओं को दबाना बंद कर दिया है ! जिससे बेटा या बेटी "कुंठा उन्माद तनाव और आत्महत्या जैसी बुराई से बचे रहते है ! पहले प्यार के बारे में दोनों पक्षों के परिवारों को पता होने के बावजूद शादी होना संभव न था ! जिससे जवानी के जोश और प्यार के जूनून में बच्चे आत्महत्या कर लेते थे !

बुराई यह की, पिताओ के द्वारा प्राप्त इस मानसिक स्वतंत्रता का आज के युवा गलत फायदा उठा रहे है ! पहले के युवा घर की इज्ज़त और सामाजिक भय के कारण अपने जीवनसाथी का चुनाव बड़ी सावधानी से करते थे ! लेकिन आज के नवयुवाओं ने प्यार को खेल समझ लिया है ! बॉयफ्रेंड या गर्लफ्रेंड बनाना एक शौक समझ लिया है ! घर का दबाव न होने के करण आज के युवा गैर्जिम्मेवारी ढंग से अपने साथी कचुनव करते है !फलत: चार दिन बाद प्रेमप्रसंग टूट (ब्रेकउप) जाता है ! बेतिओं को भी घर का डर नहीं रह गया ! ऐसी दशा में कभी कभी ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है जो शादी के बाद होनी चाहिए ! बुजुर्गों ने बच्चो को मन की बात कहने की छूट क्या दे दी ! युवावर्ग तो बड़ो का सम्मान करना ही भूल गए ! घर की मन मर्यादा की कोई चिंता नहीं शायद इसी वजह से आज तलाक ज्यादा हो रहे है ! इस स्वतंत्रता का आज के युवा इस तरह लाभ उठा रहे है की "प्रेम और प्रेमियों का व्याकरण" ही बदल गया ! घर, समाज और मान अपमान का डर न होने के कारण कुछ युवा बलात्कार जैसे पाप कर डालते है ! जो इस स्वतंत्रता को शर्मसार कर डालता है ! बाप तो यह समझ गया की "वो भी कभी बेटा था" पर शायद बेटा यह भूल गया है की "वह भी कभी बाप बनेगा !

गुरुवार, 20 मई 2010

बुन्देली लोकसंस्कृति और बुन्देली लोकभाषा का संरक्षण अपरिहार्य

बुन्देली लोकसंस्कृति और बुन्देली लोकभाषा का संरक्षण अपरिहार्य

किसी भी क्षेत्र के विकास में उस क्षेत्र संस्कृति की अहम् भूमिका रहती है। संस्कृति, भाषा, बोली आदि के साथ-साथ उस क्षेत्र की ऐतिहासिक विरासत, लोकसाहित्य, लोककथाओं, लोकगाथाओं, लोकविश्वासों, लोकरंजन के विविध पहलुओं को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। सांस्कृतिकता का, ऐतिहासिकता का लोप होने, उसके विनष्ट होने से उस क्षेत्र में विकास की गति और भविष्य का उज्ज्वल पक्ष कहीं दूर तिरोहित होने लगता है।


(चित्र गूगल छवियों से साभार)

बुन्देली संस्कृति के सामने, इस क्षेत्र की ऐतिहासिक विरासत, भाषा-बोली के सामने अपने अस्तित्व का संकट लगातार खड़ा हो रहा है। किसी समय में अपनी आन-बान-शान का प्रतीक रहा बुन्देलखण्ड वर्तमान में गरीबी, बदहाली, पिछड़ेपन के लिए जाना जा रहा है। विद्रूपता यह है कि इसके बाद भी बुन्देलखण्ड के नाम पर राजनीति करने वालों की कमी नहीं है। सांस्कृतिक विरासत से सम्पन्न, स्वाभिमान से ओत-प्रोत, शैक्षणिक क्षेत्र में सफलता के प्रतिमान स्थापित करने वाले इस क्षेत्र की विरासत को पूरी तरह से नष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है। विचार करना होगा कि इस क्षेत्र में पर्याप्त नदियाँ हैं; वैविध्यपूर्ण उपजाऊ मृदा है; प्रचुर मात्रा में खनिज सम्पदा है; वनाच्छादित हरे-भरे क्षेत्र हैं फिर भी इस क्षेत्र को विकास के लिए केन्द्र एवं राज्य सरकार का मुँह ताकना पड़ता है।

संसाधनों की पर्याप्तता के बाद भी क्षेत्र का विकास न होना यदि सरकारों की अरुचि को दर्शाता है तो साथ ही साथ यहां के जनमानस में भी जागरूकता की कमी को प्रदर्शित करता है। किसी भी क्षेत्र, समाज, राज्य, देश के विकास में किसी भी व्यक्ति का योगदान उसी तरह से महत्वपूर्ण होता है जैसे कि उस व्यक्ति का अपने परिवार के विकास में योगदान रहता है। परिवार के विकास के प्रति अरुचि होने से विकासयात्रा बाधित होती है, कुछ ऐसा ही बुन्देलखण्ड के साथ हो रहा है। यहां के निवासी उन्नत अवसरों की तलाश में यहाँ से पलायन कर रहे हैं। युवा पीढ़ी अपने आपको किसी भी रूप में इस क्षेत्र में स्थापित नहीं करना चाहती है। इस कारण से इधर के शैक्षणिक संसाधन, औद्योगिक क्षेत्र, खेत-खलिहान, गाँव आदि बदहाली की मार को सह रहे हैं।

बुन्देलखण्ड के कुछ जोशीले, उत्साही नौजवानों और अनुभवी बुजुर्गों के प्रयासों, प्रदर्शनों, संघर्षों, माँगों आदि के द्वारा बुन्देलखण्ड राज्य निर्माण हेतु कार्य किया जा रहा है। इस प्रयास के चलते और बुन्देलखण्ड के नाम पर राजनीति करने की मंशा से सरकार ‘पैकेज’ आदि के द्वारा आर्थिक सहायता का झिझकता भरा कदम उठाने लगती हैं। बुन्देलखण्ड की सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक विरासत को देखते हुए इस तरह के प्रयास खुशी नहीं वरन् क्षोभ पैदा करते हैं। यह सब कहीं न कहीं इस क्षेत्र के जनमानस का अपने क्षेत्र के प्रति स्नेह, अपनत्व, जागरूकता में कमी के कारण ही होता है।

जागरूकता में कमी अपनी सांस्कृतिक विरासत को लेकर बहुत अधिक है जो नितान्त चिन्ता का विषय होना चाहिए। युवा पीढ़ी को बुन्देलखण्ड की सांस्कृतिकता, ऐतिहासिकता से किसी प्रकार का कोई सरोकार नहीं दिखाई देता है। उसे क्षेत्र के लोकसाहित्य, लोककला, लोकगाथा, लोककथा, लोकविश्वास, लोकपर्व आदि के साथ ही साथ इस क्षेत्र की विशेषताओं के बारे में भी पता करने की आवश्यकता नहीं। किसी क्षेत्र का स्वर्णिम अतीत उसके उज्ज्वल भविष्य की आधारशिला बनता है किन्तु वर्तमान पीढ़ी को अतीत को जानने की न तो चाह है और न ही वह इसके भविष्य को उज्ज्वल बनाने को प्रयासरत् है। यहां की बोली-भाषा को अपनाना-बोलना उसे गँवारू और पिछड़ेपन का द्योतक लगता है। इस दोष के शिकार युवा हैं तो बुजुर्गवार भी कम दोषी नहीं हैं जो अपने गौरवमयी अतीत की सांस्कृतिक विरासत का हस्तांतरण नहीं कर रहे हैं।

हमें समझना होगा कि संस्कृति का, विरासत का हस्तांतरण किसी भी रूप में सत्ता का, वर्चस्व का हस्तांतरण नहीं होता है। इस प्रकार का हस्तांतरण क्षेत्र की सांस्कृतिकता का, सामाजिकता का विकास ही करता है। यह ध्यान हम सभी को रखना होगा कि संस्कृतिविहीन, भाषाविहीन मनुष्य पशु समान होता है और बुन्देलखण्ड को हम संस्कृतिविहीन, भाषाविहीन, बोलीविहीन करके उसकी गौरवगाथा को मिटाते जा रहे हैं। यदि इस दिशा में शीघ्र ही प्रयास न किये गये; वर्तमान पीढ़ी को बुन्देलखण्ड की सांस्कृतिक विरासत से, भाषाई-बोली की मधुरता से परिचित न करवाया गया तो बुन्देलखण्ड को एक शब्द के रूप में केवल शब्दकोश में देख पायेंगे। इसके अलावा हम बुन्देलखण्ड के लोक से सम्बन्धित विविध पक्षों को भी सदा-सदा को विलुप्त कर चुके होंगे। स्थिति बद से बदतर हो इसके पूर्व ही हम सभी को सँभलना होगा, इस दिशा में सकारात्मक प्रयास करना होगा।