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शुक्रवार, 14 मई 2010

मैं लाकर गुल बिछाता हूं.............(गजल)............नीरज गोस्वामी

तुझे दिल याद करता है तो नग्‍़मे गुनगुनाता हूँजुदाई के पलों की मुश्किलों को यूं घटाता हूंजिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद मेंहवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूंफसादों से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसलेहटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूंनहीं तहजीब ये सीखी कि कह दूं झूठ को भी सचगलत जो बात लगती है गलत ही मैं बताता हूंमुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिनमगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्‍कुराता हूंनहीं जब छांव मिलती है कहीं भी राह में मुझकोसफर में अहमियत मैं तब शजर की जान जाता हूंघटायें, धूप, बारिश, फूल, तितली, चांदनी 'नीरज'तुम्‍हारा...

एक कोशिश ......(कविता).............. संगीता स्वरुप

रात की स्याही जबचारों ओर फैलती हैगुनाहों के कीड़े ख़ुद -ब -ख़ुदबाहर निकल आते हैंचीर कर सन्नाटा रात के अंधेरे काएक के बाद एक येगुनाह करते चले जाते हैं।इनको न ज़िन्दगी से प्यार हैऔर न गुनाहों से है दुश्मनी ज़िन्दगी का क्या मकसद है ये भी नही पहचानते हैं।रास्ता एक पकड़ लिया है जैसे बस अपराध का उस पर बिना सोचे ही बढ़ते चले जाते हैं।कभी कोई उन्हें सही राह तो दिखाए ये तो अपनी ज़िन्दगी बरबाद किए जाते हैं।चाँद...