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शनिवार, 20 जून 2009

कोई अपना न निकला

समझा था सेहरा फूलों का जिसे,वो ताज काँटों भरा निकला।चला था जिस राह पर फूलों की,वो सफर काँटों भरा निकला।सहारा दिया समझ कर बेबस,थामा था जिन हाथों को हमने।घोंपने को पीठ में हमारी,उन्हीं हाथों में खंजर छिपा निकला।मिलेगा साथ हर मोड़ पर हमें,सोच कर चले थे अनजानी राहें।गिर पड़े एक ठोकर से जिसकी,वो गिराने वाला हमारा अपना निकला।मतलब की इस दुनिया में,शिकायत गैरों से नहीं है हमें।समझा था जिस-जिस को अपना,वो हर शख्स ही बेगाना निकला।चार दिन की इस जिन्दगानी में,साथ किसी का रहता नहीं है।पर ये दुखड़ा किससे कहें कि,हमसे मुँह फेर हमारा साया निकला।चलना है ताउम्र हमें...