अगर तुमने कभी , नदी को गाते नहीं
प्रलाप करते हुए देखा है
और वहाँ कुछ देर ठहर कर
उस पर गौर किया हैं
तो मैं चाहूंगी तुमसे कभी मिलूं!
अगर तुमने पहाडों के टूट - टूट कर
बिखरने का दृश्य देखा हैं
और उनके आंखों की नमी महसूस की है
तो मैं चाहूंगी तुम्हारे पास थोड़ी देर बैठूं !
अगर तुमने कभी पतझड़ की आवाज़ सुनी है
रूदन के दर्द को पहचाना है
तो मैं तुम्हे अपना हमदर्द मानते हुए
तुमसे कुछ कहना चाहूंगी!
लेकिन मुझे यही नहीं पता ,
तुम हो कहाँ?
मैं तुमसे कहाँ मिलूं ?
अजनबी चेहरों की भीड़ से निकलकर
कभी सामने आओ...
तो मैं तुम्हारा स्वागत करूंगी!
ज़िंदगी प्रतिपल सरकती जा रही है
और मुझे तुम्हारी प्रतीक्षा है
अँधेरा घिरते ही,
उम्मीद का दिया जला लेती हूँ
जाने कब, कहाँ पलकें बंद हो जाएं...
इससे पहले मैं चाहूंगी
तुमसे अवश्य मिलूं...
तुम्हें जी भर कर देख लूँ....
8 comments:
पुरुस्कार हेतु बधाई। कविता बहुत भावमय है।
बधाई आपको सांत्वना पुरस्कार हेतु । कविता में प्रकृति और मानव के बीच जिस तरह की कल्पना की है नायिका ने वह बहुत अच्छा लगा ।
बधाई आपको सांत्वना पुरस्कार हेतु । कविता में प्रकृति और मानव के बीच जिस तरह की कल्पना की है नायिका ने वह बहुत अच्छा लगा ।
बहुत बहुत बधाई बहुत ही मर्म स्पर्शी कविता है
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084
बहुत बहुत बधाई । वाकई बहुत ही सुन्दर रचना लगी आपकी ।
शुभकामनाएं आपको इस कविता के लिए ।
आपको बहुत बहुत बधाई ।
सुन्दर रचना , बधाई.
एक टिप्पणी भेजें