अजीब शख्श है जो मेरे घर मे रहता है ,
नदी का तट है वो फिर भी नदी सा बहता है ,
तेज़ धूप में उसमें महक है फूलों की ,
अपना दर्द जो बस आंसुओं से कहता है ,
अपने चिटके हुए आइने में देखता दुनिया ,
एक ही उम्र मे सौ अक्स बन के रहता है ,
जहाँ हर एक के हैं बंद दरो दरवाजे ,
खुली सड़क पे मस्त मौज जैसा बहता है ,
जिनके ताज अजायबघरों मे रखे हैं ,
उन्ही बुजुर्गों के टूटे किलों सा ढहता है ,
उसका लिखा हुआ हर लफ्ज़ ग़ज़ल होता है ,
इस कदर वो अपने जोरो ज़बर सहता है //अजीब शक्श ...
6 comments:
सर्वप्रथम एक अच्छी कविता की वधाई
समझ सकता हूँ कि आप किसकी बात कर रहे है, उस अजीब शख्स को मेरा प्रणाम कहना !
डॉ. भूपेन्द्र साहब,
एक खूबसूरत गज़ल कही है, अशआर अच्छे और सीधे अपनी बात कह देते हैं।
जहाँ हर एक के हैं बंद दरो दरवाजे ,
खुली सड़क पे मस्त मौज जैसा बहता है
पसंद आया यह शे’र।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
बहुत ही सुन्दर कविता। भूपेन्द्र जी बहुत-बहुत बधाई...........
अपने चिटके हुए आईने में देखता दुनिया ,
एक ही उम्र मे सौ अक़्स बन के रहता है
वाह हुजूर क्या बात है !
तेज़ धूप में उसमें महक है फूलों की ,
अपना दर्द जो बस आंसुओं से कहता है ,..bahut achhi lagi aapki nazam..azeeb shakhs hai nraaz ho ke hansta hai.....
जहाँ हर एक के हैं बंद दरो दरवाजे ,
खुली सड़क पे मस्त मौज जैसा बहता है
अपने चिटके हुए आईने में देखता दुनिया ,
एक ही उम्र मे सौ अक़्स बन के रहता है
लाजवाब गज़ल है डाक्टर भुपेन्द्र जी को बधाई
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