
आह! दुनिया नहीं चाहती मैं, मैं बनकर रहूँवो जो चाहती है, कहती हैं, बन चुपचाप रहूँ होठ भींच, रह ख़ामोश, ख़ुद से अनजान रहूँरहकर लाचार यूँ ही, मैं ख़ुद से पशेमान रहूँ बनकर तमाशबीन मैं क्यों, ये असबाब सहूँ? कहता हूँ ख़ुद से, जो हूँ जैसा हूँ वही ज़ात रहूँ नहीं समझे हैं वो, कोशिशें उल्टी पड़ जाती हैं मैं मजबूर नहीं, टूटना ऐसे मेरा मुमकिन नहीं महसूस करता है हर लम्हा, दिल-ओ-दिमाग मेरा ख़त्म हो रहा है मुझमें, धीमे-धीमे हर एहसास मेरा दर्द से क्षत-विक्षत...