हमारा प्रयास हिंदी विकास आइये हमारे साथ हिंदी साहित्य मंच पर ..

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

सिर्फ तुम {कविता} सन्तोष कुमार "प्यासा"

ये चाहत थी दिल की  या प्यार का पागलपन तनहाइयाँ थी, रुशवाइयां थीं  पर सुना न था दिल का अंजुमन जब तुम न थे, तब भी थे सिर्फ तुम, जब तुम थे तब भी थे,  सिर्फ तुम, अब तुम नहीं हो, लेकिन फिर भी हो  सिर्फ तुम ! मैंने तो हर एक खता का इकरार किया खुद से ज्यादा तुम पर ऐतबार किया पर फिर भी क्यूँ न हो सके तुम मेरे  क्यूँ मिली मुझे तुम्हारी बेरुखी,  और गम के अँधेरे, मेरी चाहत तो कुछ ज्यादा न थी, मैंने तो सिर्फ चाहा, तुम मेरा साथ दो मेरे हांथों में तुम, खुद अपना हाथ दो ! करो मुझे  शिकवे गिले और मैं न कुछ बोलूं बस बता दो क्या...

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

बच्चे की मदर----- मिथिलेश

कई दिनों से घर जाने की तैयारी चल रही थी और अब तो होली बस दो ही दिन दूर था। हमेशा की तरह इस बार भी घर जाने को लेकर मन बहुत ही उत्साहित था । भले ही अब घर जाने के बीच का अंतराल कम हो गया हो लेकिन घर पर एक अलग तरह का ही सुख मिलता है। घर पर न तो काम का बोझ और न ही खाना बनाने की चिंता, बर्तन और कपड़े धोना जो मुझे सबसे ज्यादा दुष्कर लगता है उससे भी छुटकारा मिल जाता है। घर पर बार-बार खाने को लेकर मम्मी का आग्रह उनका प्यार अच्छा लगता है। नहीं तो जब बाहर होते हैं तो खाना खा लें समय पे बड़ी बात है अब ये बात और है कि ये सारे सुख कुछ दिन के ही होते हैं। जब से...

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

निश्छल मन होते जहाँ-----(दोहा)--श्यामल सुमन---

सुमन प्रेम को जानकर बहुत दिनों से मौन।प्रियतम जहाँ करीब हो भला रहे चुप कौन।।प्रेम से बाहर कुछ नहीं जगत प्रेममय जान। सुमन मिलन के वक्त में स्वतः खिले मुस्कान।।जो बुनते सपने सदा प्रेम नियति है खास।जब सपना अपना बने सुमन सुखद एहसास।।नैसर्गिक जो प्रेम है करते सभी बखान।इहलौकिकता प्रेम का सुमन करे सम्मान।।सृजन सुमन की जान है प्रियतम खातिर खास।दोनो की चाहत मिले बढ़े हृदय विश्वास।।निश्छल मन होते जहाँ प्रायःसुन्दर रूप।सुमन हृदय की कामना कभी लगे न धूप।।आस मिलन की संग ले जब हो प्रियतम पास।सुमन की चाहत खास है कभी न टूटे आस।व्यक्त तुम्हारे रूप को सुमन किया...

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

ये जग मुसाफिर खाना-----(कविता)------मीना मौर्या

ये जग मुसाफिर खाना,थोड़े दिन का ठिकाना,दिन दश के व्यवहार में,सतकर्म कुछ कर जाना ।एक भवर जीवन जगत,मुश्किल होगा बच पाना,कटु वचन विष से कड़वा,अमृत ही वर्षा जाना।अमीर गरीब का कल्याण कर,काया-कलेश मोह भगाना,श्रद्धावान हृदय हो निरंतर,तुम ऐसा प्रेरणा दे जाना ।मन का भेद भाव मिटे,जंजीर टूटे माया का,त्याग,समर्पण, मंगल कामना,मानवता का नीव चला जाना।जीवन की कहानी अमर रहे,सौभाग्य बने धरती पर आना,कॉंटों का जाल दुनियॉं,सम्भव नही कुशल निकल जाना।तुम्हारा वक्त पुरा हुआ,प्रकृति कानून ही समझाना,ये जग मुसाफिर खाना,थोड़े दिन का ठिकाना...

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

बेपरवाह मुस्कान {कविता} सन्तोष कुमार "प्यासा"

 नहीं यह धर्म मनुष्य का, कीकठिनाइयों से मान ले हार  बैठ जाय होकर  निष्क्रिय  खो दे, शत-चैतन्य आसार  तेरे उर की उत्कंठा को  न रोक सकेंगे दुर्दिन  बन कर कारा तू नहीं अल्प्स्थाई हिमकण तू तो है चिर-उज्जवल अंगारा  मत भ्रमित विचलित हो  करके घोर तम का अनुमान सहज खुल जाते अगम द्वार  देखकर निष्फिक्र मुस्कान  चाहे क्रुद्ध हो जाये यह प्रकृति  मार्ग रोके पवन या कौंधती  दामिनी बरसाए ये आकाश रह अटल, ले ठान, दृढ लक्षित  है संकल्प तेरा करे तो करती रहे, दिशाएँ उपहास  विजयपथ की कठिनाइयाँ...

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

एक गीत की वो आवाज़ .......................मुस्तकीम खान

एक गीत की वो आवाज़ जो जब किसी हिन्दुस्तानी के कानो मैं पड़ती है तोउसे बड़ा सुकून देती है भारतीय संगीत की दुनिया मैं बड़े ही अद्व के साथ लिया जाने वालानाम पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी भारतीय संगीत-नभ के जगमगाते सदाक लिए डूवचूका है अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वरसदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. सुर ताल को अपनी आवाज़ मैं बाँध केर गाने वाले पंडित जी अद्भुभूत तरीके सेगाते थे अलवेला सन यो रे ,,और ठुमक ठुमक पग कुमत कुञ्ज...

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

मन मरुस्थल -----कविता ---सन्तोष कुमार "प्यासा"

मन में है एक विस्तृत मरुस्थल या मन ही है मरुस्थल रेत के कणों से ज्यादा विस्तृत विचार है रह-रह कर सुलगती है उम्मीदों की अनल विषैले रेतीले बिच्छुओं की भांति डंक मारते अरमाँ हर पल मै "प्यासा" हूँ मन भी "प्यासा" पागल है सब ढूढे मरुस्थल में जल मन में है एक विस्तृत मरुस्थल या मन ही है मरुस्थल वक्त के इक झोके ने मिटा दिया आशा-निराशा के कण चुन कर बनाया था जो महल मन मरुस्थल, मन में है मरुस्थल...

शनिवार, 2 अप्रैल 2011

"अक्सर"------(कविता)-----मोनिका गुप्ता

अक्सरमाँ को भी याद आती हैअपनी माँ की हर बातउसका वोनर्म हाथो से रोटी का निवाला खिलानाहोस्टल छोडने जाते हुए वो डबडबाई आखों से निहारनाउसका पल्लू पकड़कर आगे पीछे घूमनाउसके प्यार की आचँ से तपता बुखार उतर जानाकम अंक लाने पर उसका रुठना पर जल्दी ही मान जानाअक्सरमाँ को भी याद आती हैअपनी माँ की हर बातपर माँ तो माँ हैइसलिए बस चंद पल खुद ही सिसक लेती हैऔर फिर भुला देती है खुद कोपाकर अपने बच्चो को प्यार भरीछावँ मे,दुलार मे ,मनुहार मेंपर अक्सरमाँ को भी याद आती हैअपनी माँ की हर ...