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रविवार, 31 मई 2009

कैसा अपना बचपन था [ एक कविता ]

आईस पाइस का खेल खेलते ,मिट्टी के घर बनाते थे,फिर बिगाड़ देते थे ,मां से थोड़े समान मांगतेफिर एक चूल्हे पर उसे पकाते थे,बनता क्या कुछ याद नहीं,फिर भी अच्छा लगता था ,नदियों में किनारे पर जा जाकर,भीगते और सब को भीगाते थे,कंकड़ ,और शीपी को लेकर,उसकी एक माला बनाते थे,बंदरों की तरह उछलकर ,छोटे पेड़ो पर चढ़जाते थे,कभी बात बात पर गुस्सा होते ,रोते , चिढ़ते , मारते ,फिर भी एक साथ हो जाते थे,ऐसा अपना बचपन था.झूठी कहानी भूतों वाली से,अपने साथियों को डराते थे,स्कूल से झूठा बहाना बनाकर ,खेतों में हम छिप जाते थे,मम्मी के मार से बचने को ,न जाने क्या क्या जतन...

शनिवार, 30 मई 2009

अभी भी ...... (कविता) Prakash Govind

अभी भी मन को मोह लेते हैं फूल, पत्ते और मौसम अभी भी कोशिश करता हूँ उनसे संवाद करने की अभी भी मुग्ध कर देती है हैं खिली हुयी मानव छवियाँ और मैं गुनगुनी झील में उतराने लगता हूँ अभी भी आते हैं बाल्यवस्था के सपने और मैं नदी में नाव सा बहने लगता हूँ अभी भी भौंरे व चिडियों का संगीत बज उठता है धीरे से कानों में और मैं सितार सा झनझना जाता हूँ अभी भी उपन्यासों के के पात्रों, फिल्मी चरित्रों का दर्द उनका घायल एकाकीपन मुझे देर तक उदास कर जाता है अभी भी इसका उसका जाने किस किसका क्रूर और फूहड़ सुख मेरे अंतर्मन को क्रोध से उत्तेजित कर देता है अभी भी अक्सर...

शुक्रवार, 29 मई 2009

सुप्रीमो को सुप्रीम कोर्ट क संरक्षण

सुप्रीमो को सुप्रीम कोर्ट का संरक्षण -अजी सुनते हो.......! सुबह-सुबह चाय के कप से भी पहले श्रीमती जी की मधुर वाणी हमारे कानों में पडते ही हम समझ जाते हैं कि आज जरूर कोई नई रामायण में महाभारत होने होने वाली है। आप सोचते होगें कि अजीब प्राणी है । भला रामायण में महाभारत की क्या तुक है। दोनों का एक दूसरे के साथ भला क्या तालमेल....?लेकिन बन्धु ऐसा ही होता है शादी-शुदा जिन्दगी में सब कुछ संभव है।जब मेरे जैसे भले जीव के साथ हमारी श्रीमती जी का निर्वाह संभव हो सकता है तो समझ लीजिऐ कि रामायण में महाभारत भी हो सकती है। श्रीमती की वाणी से वैसे ही हमारे कान...

हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल - " भारतेन्दु हरिशचंद्र " [ आलेख ]

हिंदी साहित्य का आधुनिक काल तत्कालीन राजनैतिक गतिविधियों से प्रभावित हुआ। इसको हिंदी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ युग माना जा सकता है, जिसमें पद्य के साथ-साथ गद्य, समालोचना, कहानी, नाटक व पत्रकारिता का भी विकास हुआ। इस काल में राष्ट्रीय भावना का भी विकास हुआ। इसके लिए श्रृंगारी ब्रजभाषा की अपेक्षा खड़ी बोली उपयुक्त समझी गई। समय की प्रगति के साथ गद्य और पद्य दोनों रूपों में खड़ी बोली का पर्याप्त विकास हुआ। भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र तथा बाबू अयोध्या प्रसाद खत्रीने खड़ी बोली के दोनों रूपों को सुधारने में महान प्रयत्न किया।इस काल के आरंभ में राजा लक्ष्मण...

क्या कहूँ

क्या कहूँमेरे प्यार मे ना रही होगी कशिशजो वो करीब आ ना सकेहम रोते रहे तमाम उम्रवो इक अश्क बहा ना सकेपत्थर की इबादत तो बहुत कीपर उसे पिघला ना सकेजो उन्हें भी दे सकूँ जीने के लियेवो एहसास दिला ना सकेबहुत किये यत्न हमनेपर उनको करीब ला ना सकेपिला के जाम कर दो मदहोश मुझेउस बेदर्दी की याद सता ना ...

गुरुवार, 28 मई 2009

गीत

गीत***************ये बिजली का कड़कनाआँख मिलना,मिलके झुक जानाये नाज़ुक लब फड़कनाकह न पाना ,यूँ ही रुक जानाहया से सुर्ख कोमल गालकाली ज़ुल्फ क्या कहियेसमझते हैं निगाहों कीज़ुबां कोआप चुप रहिऐ ।ये तेरी नर्म नाज़ुकअंगुलियों का छू जरा जानाश्वांसें तेज हो जानापसीने से नहा जानाहर एक आहट पे तेराचौंक जानाहाय क्या कहियेसमझते हैं निगाहों कीज़ुबां कोआप चुप रहिये ।कदम तेरे यूँ उठनाछम से गिरना,गिर के रुक जानाकभी यूँ ही ठिठक जानाकभी यूँ ही गुजर जानाअजब सी कशमकश हैदिल की हालतहाय क्या कहियेसमझते हई निगाहों कीज़िबां कोआप चुप रहिये ।मिलन पर दूर जनासकपकाना कह नहीं पानाबिछुडने...

मेरी दीवानगी [ गज़ल ] - मुस्तकीम खान

नाम- मुस्तकीम खानशिक्षा-स्नातक( बी.काम) , परास्नातक ( मास्टर आफ आर्ट एण्ड मास कम्युनिकेशन ) , माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय , नोएडा कैंपस,जन्म- २९ मार्च १९८८ , आगरा , उत्तर प्रदेश ।रूचि- गज़ल, गीत लेखन ,गायन ।संपर्क- मुस्तफा क्वाटर्स , आगरा कैंट, आगरा ।मो- ०९९९०८४०३३९ .मेरी दीवानगीमुझको किसी से नफरत नहीं है ,इतना आवार हूँ कि फुर्सत नहीं है ।प्यार की कुर्बानी गिना रहे हो,,कहते क्यूँ नहीं कि हिम्मत नहीं है ।।हुस्न के बाजार मे दिल का ये...

खामोश रात में तुम्हारी यादें

खामोश रात में तुम्हारी यादें,हल्की सी आहट के साथदस्तक देती हैं,बंद आखों से देखता हूँ तुमको,इंतजार करते-करते परेशांनहीं होता अब,आदत हो गयी है तुमको देर से आने की,कितनी बार तो शिकायत की थी तुम से ही,परक्या तुमने कसी बात पर गौर किया ,नहीं न ,आखिर मैं क्यों तुमसे इतनी ,उम्मीद करता हूँ ,क्यों मैं विश्वास करता हूँ,तुम पर,जान पाता कुछ भी नहीं ,परतुमसे ही सारी उम्मीदें जुड़ी हैं,तन्हाई में,उदासी में ,जीवन के हर पल में,खामोश दस्तक के साथआती हैं तुम्हारी यादें,महसूस करता हूँ तुम्हारी खुशबू को,तुम्हारे एहसास को,तुम्हारे दिल की धड़कन का बढ़ना,औरतुम्हारे...

बुधवार, 27 मई 2009

नेहरु चाचा आओ ना (पुण्य-तिथि 27 मई पर)

नेहरु चाचा आओ नादुनिया को समझाओ नाबच्चे कितने प्यारे होतेकोई उन्हे सताये नानेहरु चाचा आओ नामधुमुस्कान दिखाओ नातुम गुलाब कि खुशबू होबचपन को महकाओ नानेहरु चाचा आओ नाउजियारा फैलाओ नादेशभक्त हों, पढें लिखेंऐसा पाठ पढाओ नानेहरु चाचा आओ ना...

क्या पाया - कविता ( निर्मला कपिला )

क्या पायाये कैसा शँख नादये कैसा निनादनारी मुक्ति का !उसे पाना हैअपना स्वाभिमानउसे मुक्त होना हैपुरुष की वर्जनाओ़ सेपर मुक्ति मिली क्यास्वाभिमान पाया क्याहाँ मुक्ति मिलीबँधनों सेमर्यादायों सेसारलय सेकर्तव्य सेसहनशीलता सेसहिष्णुता सेसृ्ष्टि सृ्जन केकर्तव्यबोध सेस्नेहिल भावनाँओं सेमगर पाया क्यास्वाभिमान या अभिमानगर्व या दर्पजीत या हारसम्मान या अपमानइस पर हो विचारक्यों किकुछ गुमराह बेटियाँभावोतिरेक मेअपने आवेश मेदुर्योधनो की भीड मेखुद नँगा नाचदिखा रही हैँमदिरोन्मुक्तजीवन कोधूयें मे उडा रही हैंपारिवारिक मर्यादाभुला रही हैंदेवालय से मदिरालय का सफरक्या...

भक्तिकाल के महाकवि मलिक मुहम्मद जायसी - आलेख [नीशू तिवारी]

मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी शाखा के कवि हैं । हिंदी साहित्य का भक्ति काल 1375 वि0 से 1700 वि0 तक माना जाता है। यह युग भक्तिकाल के नाम से प्रख्यात है। यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है।हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इस युग में प्राप्त होती हैं।भक्ति-युग की चार प्रमुख काव्य-धाराएं मिलती हैं : ज्ञानाश्रयी शाखा, प्रेमाश्रयी शाखा, कृष्णाश्रयी शाखा और रामाश्रयी शाखा, प्रथम दोनों धाराएं निर्गुण मत के अंतर्गत आती हैं, शेष दोनों सगुण मत के। जायसी उच्चकोटि के सरल और उदार सूफी कवि थे ।जायसी का जन्म...

मंगलवार, 26 मई 2009

इंसान में इंसानियत.....................

इंसान में इंसानियत सबसे ज़रूरी चीज़ है इंसान वो जिसमें कहीं ,इंसानियत का बीज मान प्रतिष्ठा पाकर अँधा होता जाता है इंसान उसे पता क्या अनजाने ही बना जा रहा वो हैवान मीठी बोली भूल गया हँसी ठिठोली भूल गया मित्र कौन कैसे नाते सब हमजोली भूल गया स्वार्थ साधना और खुशामद उसकी यही तमीज है इंसान में ......................................................... जिस सीढ़ी ने उसे चढाया उस सीढ़ी को छोड़ दिया जिन लोगों ने साथ निभाया उनसे मुंह को मोड़ लिया पहन मुखौटा कोयल का कौए का सुर साध लिया लोमड से चालाकी ली तोते का अंदाज़ लिया ख़ुद...

सोमवार, 25 मई 2009

गीत

हम भी अंतर मन के स्वर को लिख पातेशब्दों की परिधी में भाव समा जाते ॥तेरी आंहें और दर्द लिखते अपनेलिखते हम फिर आज अनकहे कुछ सपनेमरुस्थली सी प्यास भी लिखते होटों कीलिखते फिर भी बहती गंगा नोटों कीआंतों की ऐंठन से तुम न घबरातेहम भी अंतर मन के स्वर को लिख पाते॥तेरे योवन को भी हम चंदन लिखतेअपनी रग रग का भी हम क्रंदन लिखतेलिख देते हम कुसुम गुलाबी गालों कोफिर भी लिखते अपने मन के छालों को निचुड़े चेहरों पर खंजर आड़े आतेहम भी अंतर मन के स्वर को लिख पाते ॥पीड़ा के ...

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त " राष्ट्रप्रेम की भावना " को समर्पित करते रहे अपनी कलम से - [ आलेख ] नीशू तिवारी

द्विवेदी युग के प्रमुख कविओं में मैथिलीशरण गुप्त का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है । राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी को खड़ी बोली को नया आयाम देने वाले कवि के रूप में भी जाना जाता है । गु्प्त जी ने खड़ी बोली को उस समय अपनाया जब ब्रजभाषा का प्रभाव हिन्दी साहित्य में अपना प्रभाव फैला चुका था । श्री पं महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की प्रेरणा से खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया और अपनी कविता के द्वारा खड़ी बोली को एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास किया । हिन्दी कविता के लंबे इतिहास में कवि गुप्त जी ने अपनी एक शैली बनायी यह...

रविवार, 24 मई 2009

अखबार

अखबारमैं रोजाना पढ़ता हूँ अखबारइस आशा के साथकि-धुंधलके को चीरती सूर्य आभालेकर आई होगी कोई नया समाचार....।लेकिन पाता हूँरोजाना प्रत्येक कॉलम कोबलात्कार, हत्या,और दहेज कि आग से झुलसताया फिर धर्म की आड मेंखूनी होली से सुर्ख सम्पूर्ण पृष्ठसाथ में होता हैराजनेताओं का संवेदना संदेशआतंकवाद के प्रति शाब्दिक आक्रोशजो इस बात का अहसास दिलाता हैसरकार जिन्दा तो है हीसंवेदनशील भी है।तभी तो ढ़ू्ढते हैं वे हर सुबहनिंदा और शोक संदेशों मेंअपना नाम ।फिर भी न जाने क्योंअखबार में बदलती तारीखऔर नित नये विज्ञापनमुझे हमेशा आकर्षित करते हैंजिससे मैं देश की प्रगति कोसरकारी...

[कविता ] - भूतनाथ "रास्ता होता है....बस नज़र नहीं आता.........."

कभी-कभी ऐसा भी होता हैहमारे सामने रास्ता ही नहीं होता.....!!और किसी उधेड़ बून में पड़ जाते हम....खीजते हैं,परेशान होते हैं...चारों तरफ़ अपनी अक्ल दौडाते हैंमगर रास्ता है कि नहीं ही मिलता....अपने अनुभव के घोडे को हम....चारों दिशाओं में दौडाते हैं......कितनी ही तेज़ रफ़्तार से ये घोडेहम तक लौट-लौट आते हैं वापसबिना कोई मंजिल पाये हुए.....!!रास्ता है कि नहीं मिलता......!!हमारी सोच ही कहीं गूम हो जाती है......रास्तों के बेनाम चौराहों में.....ऐसे चौराहों पर अक्सर रास्ते भीअनगिनत हो जाया करते हैं..........और जिंदगी एक अंतहीन इम्तेहान.....!!!अगर इसे एक...

शनिवार, 23 मई 2009

laghu kathaa

एहसास बस मे भीड थी1 उसकी नज़र सामनीक सीट पर पडी जिसके कोने मे एक सात आठ साल का बच्चा सिकुड कर बैठा था1 साथ ही एक बैग पडा था'बेटे आपके साथ कितने लोग बैठे हैं/'शिवा ने ब्च्चे से पूछा जवाब देने के बजाये बच्चा उठ कर खडा हो डरा सा.... कुछ बोला नहीं 1 वो समझ गया कि लडके के साथ कोई हैउसने एक क्षण सोचा फिर अपनी माँ को किसी और सीट पर बिठा दिया और खाली सीट ना देख कर खुद खडा हो गया1तभी ड्राईवर ने बस स्टार्ट की तो बच्चा रोने लगा1 कन्डक्टर ने सीटी बजाई ,एक महिला भग कर बस मे चढी उस सीट से बैग उठाया और बच्चे को गोद मे ले कर चुप...

विजय की दो रचनाएं - " तस्वीर " और " बीती बातें "

तस्वीर मैंने चाहा कि तेरी तस्वीर बना लूँ इस दुनिया के लिए, क्योंकि मुझमें तो है तू ,हमेशा के लिए.... पर तस्वीर बनाने का साजो समान नही था मेरे पास. फिर मैं ढुढ्ने निकला ; वह सारा समान , ज़िंदगी के बाज़ार में... बहुत ढूंढा , पर कहीं नही मिला; फिर किसी मोड़ पर किसी दरवेश ने कहा, आगे है कुछ मोड़ ,तुम्हारी उम्र के , उन्हें पार कर लो.... वहाँ एक अंधे फकीर कि मोहब्बत की दूकान है; वहाँ ,मुझे प्यार कर हर समान मिल जायेगा.. मैंने वो मोड़ पार किए ,सिर्फ़ तेरी यादों के सहारे !! वहाँ वो अँधा फकीर खड़ा था , मोहब्बत का समान...

शुक्रवार, 22 मई 2009

मुझे निभाना है प्रण- निर्मला जी

जीवन मे हमनेआपस मेबहुत कुछ बाँटाबहुत कुछ पायादुख सुखकर्तव्य अधिकारइतने लंबे सफर मेजब टूटे हैं सबभ्रमपाश हुये मोह भँगक्या बचाएक सन्नाटे के सिवामै जानती थीयही होगा सिलाऔर मैने सहेज रखे थेकुछ हसीन पलकुछ यादेंहम दोनो केकुछ क्षणो के साक्षी1मगर अब उन्हें भीतुम से नहीं बाँट सकतीक्यों कि मै हर दिनउन पलों कोअपनी कलम मेसहेजती रही हूँजब तुममेरे पास होते हुये भीमेरे पास नही होतेतो ये कलम मेरेप्रेम गीत लिखतीमुझे बहलातीमेरे ज़ख्मों को सहलातीतुम्हारे साथ होने काएहसास देतीअब कैसे छोडूँइसका साथ्अब् कैसे दूँ वो पल तुम्हेंमगर अब भी चलूँगीतुम्हारे साथ साथ्पहले की तरह्क्यों...

गुरुवार, 21 मई 2009

रिश्ते की ताजगी न रही............................तुममें वो सादगी न रही,

रिश्ते की ताजगी,न रही,तुममें वो सादगी,न रही,कहती हो प्यार,मुझसे है,परये बातें सच्ची न लगी,तुम कहती थी,तोमैं सुनता था,तुम रूठती थी,तोमै मनाता था,तुम चिढ़ती थी,तोमैं चिढ़ाता था,तुम जीतती थी,तोमैं हार जाता था,ये सब अच्छा लगता था,मुझेवक्त ने करवट ली,मैं भी हूँ,तुम भी हो,साथ ही साथ हैंं,परवो प्यार न रहा,वो बातें न रही,तुम कहती हो कि-मैं बदल गया,शायद हां- मैं ही बदल गया।क्योंकितुम्हारा जीतना,तुम्हारा हसना,तुम्हारा मुस्कुराना,अच्छा लगता है अब भी,चाहे मुझे हारना ही क्यों न पड़े...