हमारा प्रयास हिंदी विकास आइये हमारे साथ हिंदी साहित्य मंच पर ..

मंगलवार, 31 मार्च 2009

मैं तो यहीं हूँ.....तुम कहाँ हो....!!.......[एक कविता] भूतनाथ जी की कलम से

इक दर्द है दिल में किससे कहूँ.....कब तलक यूँ ही मैं मरता रहूँ !!सोच रहा हूँ कि अब मैं क्या करूँकुछ सोचता हुआ बस बैठा रहूँ !!कुछ बातें हैं जो चुभती रहती हैंरंगों के इस मौसम में क्या कहूँ !!हवा में इक खामोशी-सी कैसी हैइस शोर में मैं किसे क्या कहूँ !!मुझसे लिपटी हुई है सारी खुदाईतू चाहे "गाफिल" तो कुछ कहूँ !!००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००दूंढ़ रहा हूँ अपनी राधा,कहाँ हैं तू...मुझको बुला ले ना वहाँ,जहाँ है तू !!मैं किसकी तन्हाई में पागल हुआ हूँदेखता हूँ जिधर भी मैं,वहाँ है तू !!हाय रब्बा मुझको तू नज़र ना आएजर्रे-जर्रे में तो है,पर...

सोमवार, 30 मार्च 2009

एक कविता .........[निर्मला कपिला जी की प्रस्तुति]

कुछ आढे तिरछेशब्द लिखेचाहती थीकविता लिखनाउन तमाम पलों कीजिनमें मैनेउम्र को जीयाबचपन के वो नटखट पलउछलना कूदनाधूम मचानाआँख मिचौलीछूना छुआनाकुछ खो कर भीहंसते जानादादी नानी कीकहानियों सेदिल बहलानापरियों के संगआसमान मे उडते जानामिट्टी के संग मिट्टीहो जानाफिर बरखा कीरिमझिम मेकिलकारियां मार नहानातालाब मे तैर घडे परउस पार निकल जानाफिर हंसते खेलतेयौवन का आनाखेल खेल मेकिसी के दिल कीधडकन हो जानाछुप सखियों सेख्वाबों के महल बनानाफिर एक हवा के झोंके सेख्वाबों का उड जानाएक पीडा एक अनुराग काऐहसास रह जानाफिर दुनियां की रस्मों कोरिश्तों मे निभानाउन पन्नो मेममता...

रविवार, 29 मार्च 2009

एक कविता [निर्मला कपिला जी प्रस्तुति]

अतीत कहाँ खो गयावो अतीत कहाँ खो गयाजब मैं थीतुम्हारी धातीतुम्हारी भार्यातुम थे मेरे स्वामीमेरे पालनहारमैं थी समर्पिततुम को अर्पितअबला, कान्ताकामिनी,रमनीतुम थे मेरेबल,भर्ताकान्त कामदेवतुम मेरे पालनहामुझ पर् निस्सारमेरी आँखों मे देखा करतेमेरी पीडा समझा करतेतुम थके हारेबाहरी उलझनों के मारेमेरे आँचल की छाँव मेआ सिमटतेमेरा तन मनतेरी सेवा कआतुर हो उठतेफिर होतीरात की तन्हाईचंचल मन्मथअनुग्रह, अनुकम्पामित जातीसब तकरारेंएक लय हो जातीदोनो की धुनकी की तारेंआह्! वो लयवो सुरकहाँ खो गयामेरी पीढी का सुरबेसुर क्यों हो गयाआज नारी हो गयीअर्पित से दर्पितसमर्पित से...

शनिवार, 28 मार्च 2009

रजनी माहर की एक कविता- प्रस्तुति डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक

मेरी गुड़िया जब से, मेरे जीवन में आयी हो।सूने घर आँगन में मेरे, नया सवेरा लायी हो।पतझड़ में बन कर बहार, मेरे उपवन में आयी हो।गुजर चुके बचपन को मेरे, फिर से ले आायी हो।सुप्त हुई सब इच्छाओ को, तुमने पुनः जगाया।पानी को मम कहना, मुझको तुमने ही सिखलाया।तुमने किट्टू को तित्तू ,तुतली जबान से बतलाया। मम्मी को मी पापा को पा,कह अपना प्यार जताया।मेरी लाली-पाउडर तुम, अपने गालों पर मलती हो।मुझको कितना अच्छा लगता, जब ठुमके भर कर चलती हो।सजे-सजाये घर को तुम, पल भर मे बिखराती हो।फिर भी गुड़िया रानी तुम, मम्मी को हर्षाती हो।छोटी सी भी चोट तुम्हारी, मुझको बहुत रुलाती...

हम आजाद है ..........[एक कविता] - निर्मला कपिला जी की प्रस्तुति

हम आज़ाद हैंदुनिया के सब से बडे लोकतन्त्र मेआज हम आज़ाद हैंआज़ाद हैंभ्रष्टाचार के लियेचोरी डकैती, व्यभिचार के लियेपर नहीं आज़ादअपने अधिकार के लियेहम आज़ाद हैंदेश कीसरकार बनाने मेंप्रजातन्त्र के गुन गाने मेपर नहीं आज़ाददो वक्त की रोटी पाने मेहम आज़ाद हैंकानून की धज्जियां उडाने मेबेकसूर को सज़ा दिलाने मेपर नही आज़ादकानून की आँख सेपट्टी उठाने...

शुक्रवार, 27 मार्च 2009

हाय समाज...........हाय समाज............!![भूतनाथ जी ]

............न पुरूष और न ही स्त्री..............दरअसल ये तो समाज ही नहीं.........पशुओं के संसार में मजबूत के द्वारा कमजोर को खाए जाने की बात तो समझ आती है......मगर आदमी के विवेकशील होने की बात अगर सच है तो तो आदमी के संसार में ये बात हरगिज ना होती.......और अगरचे होती है.....तो इसे समाज की उपमा से विभूषित करना बिल्कुल नाजायज है....!! पहले तो ये जान लिया जाए कि समाज की परिकल्पना क्या है.....इसे आख़िर क्यूँ गडा गया.....इसके मायने क्या हैं....और इक समाज में आदमी होने के मायने भी क्या हैं....!! ..............समाज किसी आभाषित वस्तु का नाम नहीं है....अपितु...

गुरुवार, 26 मार्च 2009

‘‘आर्य समाज: नागार्जुन की दृष्टि में’’ डॉ0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’

राजकीय महाविद्यालय, खटीमा में हिन्दी के विभागाध्यक्ष वाचस्पति जी थे । बाबा नागार्जुन अक्सर उनके यहाँ प्रवास कर लिया करते थे । इस बार भी जून के अन्तिम सप्ताह में बाबा का प्रवास खटीमा में हुआ । दो जुलाई, 1989, महर्षि दयानन्द विद्या मन्दिर टनकपुर में बाबा नागार्जुन के सम्मान में कवि गोष्ठी का आयोजन था । उसमें बाबा ने कहा शास्त्री जी 5,6,7 जुलाई को मैं खटीमा मे आपके घर रहूँगा । प्रातःकाल 5 जुलाई को प्रातःकाल शर्मा जी का बड़ा पुत्र अनिमेष बाबा को मेरे...

बुधवार, 25 मार्च 2009

क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में, मैं गजल? (डॉ0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

अब हवाओं में फैला गरल ही गरल।क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।।गन्ध से अब, सुमन की-सुमन है डरा,भाई-चारे में, कितना जहर है भरा,वैद्य ऐसे कहाँ, जो पिलायें सुधा-अब तो हर मर्ज की है, दवा ही अजल।क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।।धर्म की कैद में, कर्म है अध-मरा,हो गयी है प्रदूषित, हमारी धरा,पंक में गन्दगी तो हमेशा रही-अब तो दूषित हुआ जा रहा, गंग-जल।क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।।आम, जामुन जले जा रहे, आग में,विष के पादप पनपने, लगे बाग मे,आज बारूद के, ढेर पर बैठ कर-ढूँढते हैं सभी, प्यार के चार पल।क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।।आओ! शंकर, दयानन्द विष-पान को,शिव...

वर्तमान शिक्षा पद्धति ओर संस्कारहीनता

चाहे कोई भी युग हो,प्रत्येक युग का भविष्य उसकी आगामी पीढ़ी पर ही निर्भर करता है। जिस युग की नई पीढ़ी जितनी अधिक शालीन, सुसंस्कृत, सुघड़ और शिक्षित होती है, उस युग के विकास की संभावनाएं भी उतनी ही अधिक रहती है। राष्ट्र, समाज और परिवार के साथ भी यही सिद्धांत घटित होता है। आज सर्वाधिक महत्वपूर्ण या करणीय कार्य है भावी पीढी को संस्कारित करना। अक्सर सुनने में आता है कि बाल्य मन एक सफेद कागज की भांती होता है। उस पर व्यक्ति जैसे चाहे, वैसे चित्र उकेर सकता...

अलग-अलग त्रिवेनियाँ - एक कविता [ साहित्य मंचीय नये कवि भूतनाथ का परिचय ]

भूतनाथ....जी का वास्तविक नाम राजीव थेपडा । आपकी शिक्षा स्तानक( कला) स्तर तक हुई । आपने फिलहाल व्यापार और अनियमित लेखन (तथा आकाशवाणी में अनियमित नाटक आदि ) को चुना । आप १९८५ से २००० तक लेखन....गायन...अभिनय....निर्देशन....चित्रकारी आदि सभी विद्याओं में अनियमित रूप से सक्रिय....कभी इसमें....कभी उसमें....सैकडों नाटकों एवं कईस्वलिखित व् स्वनिर्देशित नाटकों का मंचन....तथा उनमें ढेरों पुरस्कार....गायन में ढेरों पुरस्कार....अभिनय में कईयों बार बेस्ट ऐक्टर का खिताब,विभिन्न राज्य स्तरीयप्रतियोगिताओं में.....मगर इन सबके बीच घरेलु मोर्चे पर इक अलग ही तरह की...

सोमवार, 23 मार्च 2009

मैं भी कुछ कहूँ.........!![एक कविता] भूतनाथ की

बस तुझे बसा रखा है आंख भर....अब कुछ नहीं बसता आँख पर !!मरने के बाद खुद को देखा किया मैं बचा हुआ था बस राख भर....!!झुक जाने में आदम को शर्म कैसी कौन बैठा रहता है तिरी नाक पर !! दिन को तो फुरसत नहीं मिलती शब रोया करती है रोज़ रात भर !!गौर से देखो तो अलग नहीं तुझसे खुदा इत्ता-सा है,बस तेरी आँख भर !!बसा तो लेता गाफिल तुझे भी भीतर दामन ही छोटा-सा था,बस चाक भर...

शनिवार, 21 मार्च 2009

कहीं आदमी पागल तो नहीं......!![राजीव जी की प्रस्तुति]

लड़का होता तो लड्डू बनवाते....लड़का होता रसगुल्ले खिलाते......... इस बात को इतनी जगह...इतनी तरह से पढ़ चूका कि देखते ही छटपटाहट होती है....मेरी भी दो लडकियां हैं...और क्या मजाल कि मैं उनकी बाबत लड़कों से ज़रा सा भी कमतर सोचूं....लोग ये क्यूँ नहीं समझ पाते....कि उनकी बीवी...उनकी बहन....उनकीचाची...नानी...दादी....ताई.....मामी...और यहाँ तक कि जिन-जिन भी लड़कियों या स्त्रियों को वे प्रशंसा की दृष्टि से देखते हैं...वो सारी की सारी लड़किया ही होती हैं....लोगों की बुद्धि में कम से कम इतना भर भी आ जाए कि आदमी के तमाम रिश्ते-नाते और उनके प्यार का तमाम भरा-पूरा...

गुरुवार, 19 मार्च 2009

किसान

सूखी हुई पत्तियों को,बिखेरती चिड़िया,चर्र-चर्र की आती आवाज,हवा के एक झोंके से,महुए की गंध चारों तरफ फैलती है ,करौदें के पेड़ पर ,बैठा बुलबुल चहकता हुआप्यार बिखरेता है ।खेतों की हरियाली,सूख चली है ,सूरज की गर्म किरणों के बीच,तपता किसान,हाथों में हसिया लिए,चेहरे पर मुस्कान की रेखा खींचता है,पसीने की बूँदों से तर-बतर उसका शरीर,उसे परेशान नहीं करता ,वह तो खुश है अपनी फसल को देख ,अपने जीवन को देख,पेड़ की छावं में छाया नहीं जीवन की ,फिर भी उसी की आड़ में बैठ ,मदमस्त है,प्रसन्न है...

सोमवार, 16 मार्च 2009

ईमानदारी का पुरूस्कार

एक बड़े व्यापारिक संस्थान की शाखा का कार्यालय पास ही के उपनगर में था जहां कार्यालय में एक कर्मचारी ओटो रिक्शा से आता था। उसे दैनिक भत्ते के सिवाय ओटो का भाड़ा भी दिया जाता था। भाड़ा चालीस रूपए के आस-पास बनता था। मगर कर्मचारियों ने परस्पर तय कर लिया था। जो भी आये-जाये वह खर्च का सौ रूपये का ही वाउचर बनाएगा। बाकी बचा रूपया अपनी जेब के हवाले कर देगा। इसमें वाउचर मंजूर करने वाले अधिकारी का भी प्रतिशत बंधा था। कर्मचारी और अधिकारी की सांठ-गांठ थी।ये समझो क उन लोगों की दसों उंगलियॉं घी में और सिर कढ़ाई में था.हर तीन माह बाद यह डयूटी बदलती रहती थी। थोडे...

ऊँचे दृष्टिकोण (डॉ.रुपचन्द्र शास्त्री मयंक)

भूल चुके हैं आज सब, ऊंचे दृष्टिकोण, दृष्टि तो अब खो गयी, शेष रह गया कोण। शेष रह गया कोण, स्वार्थ में सब हैं अन्धे, सब रखते यह चाह, मात्र ऊँचे हो धन्घे। कह मयंक उपवन में, सिर्फ बबूल उगे हैं, सभी पुरातन आदर्शो को, भूल चुके ह...

मूछ वाणी । (कुण्डलियाँ छन्द में कुछ पुरानी रचनाऐं) (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री मयंक)

(१)आभूषण हैं वदन का, रक्खो मूछ सँवार,बिना मूछ के मर्द का, जीवन है बेकार।जीवन है बेकार, शिखण्डी जैसा लगता,मूछदार राणा प्रताप, ही अच्छा दिखता,कह ‘मंयक’ मूछों वाले, ही थे खरदूषण ,सत्य वचन है मूछ, मर्द का है आभूषण। (२)पाकर मूछें धन्य हैं, वन के राजा शेर,खग-मृग सारे काँपते, भालू और बटेर।भालू और बटेर, केसरि नही कहलाते,भगतसिंह, आजाद मान, जन-जन में पाते।कह ‘मयंक’ मूछों से रौब जमाओ सब पर,रावण धन्य हुआ जग में, मूछों को पा कर। (३) मूछें बिकती देख कर, हर्षित हुआ ‘मयंक’,सोचा-मूछों के बिना, चेहरा लगता रंक।चेहरा लगता रंक, खरीदी तुरन्त हाट से,ऐंठ-मैठ कर चला, रौब...

रविवार, 15 मार्च 2009

मीडिया व्यूह: आगे बढ़ कदम

मीडिया व्यूह: आगे बढ़ ...

प्रेम फैलाओ

क्षेत्रवाद कि बातें छोड़ोप्रेम-वर्षा करते जाऒविष वमन में नहीं कुछअमर बेल तुम फैलाऒजाऒ समझाये उनकोबैर फैलाना नासमझीउपद्रव से नहीं बनतीप्रेम शांती की बस्तीदेख रहा जग हमकोआशा भरी नजरों सेमत मचाऒ उपद्रव शर्मों हया छोड़केरोको, बहुत हुआ ये जंगली खेल चल पड़ो संकल्पित हो बना ध्येय फैलाना प्रेम.प्रस्तुति- कवि विनोद बिस्सा...

शनिवार, 14 मार्च 2009

सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं। डॉ0 रूपचन्द्र शास्त्री मयंक

सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।अनुबन्ध आज सारे, बाजार हो गये हैं।। न वो प्यार चाहता है, न दुलार चाहता है,जीवित पिता से पुत्र, अब अधिकार चाहता है,सब टूटते बिखरते, परिवार हो गये हैं।सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।। घूँघट की आड़ में से, दुल्हन का झाँक जाना,भोजन परस के सबको, मनुहार से खिलाना,ये दृश्य देखने अब, दुश्वार हो गये हैं।सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।। वो सास से झगड़ती, ससुरे को डाँटती है,घर की बहू किसी का, सुख-दुख न बाटँती है,दशरथ, जनक से ज्यादा लाचार हो गये हैं।सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।। जीवन के हाँसिये पर, घुट-घुट...

हिन्दी साहित्य मंच - एक सामूहिक प्रयास हिन्दी उत्थान हेतु

हिन्दी साहित्य मंच द्वारा एक सामूहिक प्रयास हिन्दी उत्थान हेतु । साहित्य के नये, युवा रचनाकार ,कविओं और हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में उभरते हुए लोगों के लिए । यह मंच आपके सुझाव एवं आमंत्रण को स्वीकार करता हैं । इस प्रयास में आपकी भागीदारी अत्यंत आवश्यक और महत्तवपूर्ण है ।भाषा के विकास और गिरते स्तर को देखकर यह मंच स्थापित किया गया है ।हमारी आपकी सहभागिता से ही विकास के पथ को अग्रसर किया जा सकता है । साथ ही एक महत्तवपूर्ण प्रश्न यह भी आता है कि हम किस तरह से कार्य करें कि सफलता के नये रास्ते और नये आयाम तक पहुंचा जा सके । आप अपनी बात कहें और...