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सोमवार, 31 मई 2010

क्यूकी बाप भी कभी बेटा था ......संतोष कुमार "प्यासा"

एक जमाना था जब लड़के अपने घर के बड़े बुजुर्गों का कहना सम्मान करते थे उनका कहा मानते थे ! कोई अपने पिता से आंख मिलाकर बात भी नहीं करता था ! उस समय कोई अपने पिता के सामने कुर्सी या पलंग पर भी नहीं बैठता था ! तब प्यार जैसी बात को अपने बड़े बुजुर्गों से बंटाना "बिल्ली के गले में घंटी बाधने" जैसा था ! प्रेम-प्रसंग तो सदियों से चला आ रहा है ! लेकिन पहले के प्रेम में मर्यादा थी ! उस समय यदि किसी के पिता को पता चल जाता था की उसका बेटा या बेटी किसी से नैन लड़ाते( प्रेम करते) घूम रहे है तो समझों की उस लड़के या लड़की की शामत आ गई ! पिता गुस्से में लाल पीला हो जाता था ! तरह तरह की बातें उसके दिमाग में गूंजने लगती थी ! मन ही मन सोंचता था "समाज में मेरी कितनी इज्ज़त है, नालायक की वजह से अब सर उठा कर भी नहीं चल सकता, सीधे मुह जो लोग बात करते डरते थे अब वही मुह पर हजारों बातें सुनाएगे, मेरी इज्ज़त को मिट्टी में मिला दिया इसने" कही ऐसा करने वाली लड़की होती तो उसके हाँथ पैर तोड़ दिए जाते थे, घर से निकलना बंद कर दिया जाता था ! साथ ही लड़के या लड़की को खुद शर्म महसूस होती थी ! लड़कियों का तो गली मोहल्ले से निकलना मुश्किल हो जाता था ! लोफ़र पार्टी तरह तरह की फब्ती कसते थे ! कहते थे " देखो तो इशक लड़ाती फिरती है, जवानी संभाले नहीं संभलती...." कभी कभी तो बेचारी को घर की इज्ज़त और कायली के कारण आत्महत्या भी करनी पड़ जाती थी ! इसके विपरीत कुछ लड़के अपने प्यार को बुजुर्गों से बाटना बुरा नहीं समझते थे ! ऐसे विचार के युवकों को उस समय बद्त्मीच और संस्कारहीन समझा जाता था ! यहाँ तक की उस समय फ़िल्मी गाना गाना भी असभ्य समझा जाता था ! समय के साथ बाप और बेटों के विचारों में बदलाव आया ! अब बेटा अपने प्यार के बारे में अपने पिता से आसानी से कहता है और पिता सरलता से सुनता है ! समय ने बेटियों को भी इतना सक्षम बना दिया है की वे भी अब अपने मन की बात अपने पिता से बेहिचक कह सकती है ! वर्तमान समय में पिताओं की भूमिका "शादी के कार्ड छपवाने और मैरिज हाल बुक करने तक ही रह गई है !" अब बेटा सीधे एक लड़के को घर में लाता है और कहता है "डैड मै इससे प्यार करता हूँ !" यह सुनकर अब कोई पिता गुस्से से लाल पीला नहीं होता और न ही वह समाज के बारे में सोंचता है ! क्युकी उसे पता है की आज हर दूसरे घर में यही हो रहा है ! पिता मन ही मन सोंचता है "अच्छा हुआ कम से कम एक जिम्मेवारी तो ख़त्म हुई !अब माता पिताओं को "बहु और दामाद" ढूँढने में ज्यादा दिक्कत नहीं होती ! शायद ऐसा समय के बदलाव के कारण हुआ है ! समय ने पिता को एहसास दिला दिया है की "बाप भी कभी बेटा था" ! पिता भी सोंच लेता है की एक समय था जब हमने भी किसी से प्यार किया था, लेकिन वह समय स्थिति ऐसी नहीं थी की हम अपने प्यार के बारे में किसीको बता पाते ! आज के पिताओं ने अपने पिताओं की गलती को दोहराना बंद कर दिया है ! इस व्यवस्था में अच्छाई और बुराई दोनों है !
अच्छाई यह की, अब माता पिता बच्चों की भावनाओ को समझने लगे है, उनकी इच्छाओं और भावनाओं को दबाना बंद कर दिया है ! जिससे बेटा या बेटी "कुंठा उन्माद तनाव और आत्महत्या जैसी बुराई से बचे रहते है ! पहले प्यार के बारे में दोनों पक्षों के परिवारों को पता होने के बावजूद शादी होना संभव न था ! जिससे जवानी के जोश और प्यार के जूनून में बच्चे आत्महत्या कर लेते थे !

बुराई यह की, पिताओ के द्वारा प्राप्त इस मानसिक स्वतंत्रता का आज के युवा गलत फायदा उठा रहे है ! पहले के युवा घर की इज्ज़त और सामाजिक भय के कारण अपने जीवनसाथी का चुनाव बड़ी सावधानी से करते थे ! लेकिन आज के नवयुवाओं ने प्यार को खेल समझ लिया है ! बॉयफ्रेंड या गर्लफ्रेंड बनाना एक शौक समझ लिया है ! घर का दबाव न होने के करण आज के युवा गैर्जिम्मेवारी ढंग से अपने साथी कचुनव करते है !फलत: चार दिन बाद प्रेमप्रसंग टूट (ब्रेकउप) जाता है ! बेतिओं को भी घर का डर नहीं रह गया ! ऐसी दशा में कभी कभी ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है जो शादी के बाद होनी चाहिए ! बुजुर्गों ने बच्चो को मन की बात कहने की छूट क्या दे दी ! युवावर्ग तो बड़ो का सम्मान करना ही भूल गए ! घर की मन मर्यादा की कोई चिंता नहीं शायद इसी वजह से आज तलाक ज्यादा हो रहे है ! इस स्वतंत्रता का आज के युवा इस तरह लाभ उठा रहे है की "प्रेम और प्रेमियों का व्याकरण" ही बदल गया ! घर, समाज और मान अपमान का डर न होने के कारण कुछ युवा बलात्कार जैसे पाप कर डालते है ! जो इस स्वतंत्रता को शर्मसार कर डालता है ! बाप तो यह समझ गया की "वो भी कभी बेटा था" पर शायद बेटा यह भूल गया है की "वह भी कभी बाप बनेगा !

रविवार, 30 मई 2010

अस्पताल बीमार..................श्यामल सुमन

पैरों की तकलीफ से वो चलती बेहाल।
किसी ने पीछे से कहा क्या मतवाली चाल।।

बी०पी०एल० की बात कम आई०पी०एल० का शोर।
रोटी को पैसा नहीं रन से पैसा जोड़।।

दवा नहीं कोई मिले डाक्टर हुए फरार।
अब बीमार जाए कहाँ अस्पताल बीमार।।

भूल गया मैं भूल से बहुत बड़ी है भूल।
जो विवेक पढ़कर मिला वही दुखों का मूल।।

गला काटकर प्रेम से बन जाते हैं मित्र।
मूल्य गला है बर्फ सा यही जगत का चित्र।।

बातों बातों में बने तब बनती है बात।
फँसे कलह के चक्र में दिखलाये औकात।।

सोने की चाहत जिसे वह सोने से दूर।
मधुकर सुमन के पास तो होगा मिलन जरूर।।

शनिवार, 29 मई 2010

लीक पर चलना, कहाँ दुश्वार है..? (गजल)..........नीरज गोस्वामी


खौफ का जो कर रहा व्यापार है 
आदमी वो मानिये बीमार है 

चार दिन की ज़िन्दगी में क्यूँ बता 
तल्खियाँ हैं, दुश्मनी, तकरार है 

जिस्म से चल कर रुके, जो जिस्म पर 
उस सफ़र का नाम ही, अब प्यार है 

दुश्मनों से बच गए, तो क्या हुआ 
दोस्तों के हाथ में तलवार है 

लुत्फ़ है जब राह अपनी हो अलग 
लीक पर चलना, कहाँ दुश्वार है 

ज़िन्दगी भरपूर जीने के लिए 
ग़म, खुशी में फ़र्क ही बेकार है

बोल कर सच फि़र बना 'नीरज' बुरा
क्या करे आदत से वो लाचार है।

घर से बाहर {कविता} सन्तोष कुमार "प्यासा"

ठिठक जाता है मन

मुश्किल और मजबूरीवश

निकालने पड़ते है कदम

घर से बाहर

ढेहरी से एक पैर बाहर निकालते ही

एक संशय, एक शंदेह

बैठ जाता है मन में

की आ पाउँगा वापस, घर या नहीं

जिस बस से आफिस जाता हूँ

कहीं उसपर बम हुआ तो.........

या रस्ते में किसी दंगे फसाद में भी.......

फिर वापस घर के अन्दर

कर लेता हूँ कदम

बेटी पूंछती है

पापा क्या हुआ ?

पत्नी कहती है आफिस नहीं जाना क्या ?

मन में शंदेह दबाए कहता हूँ

एक गिलाश पानी........

फिर नजर भर देखता हूँ

बीवी बच्चों को

जैसे कोई मर्णोंमुख

देखता है अपने परिजनों को

पानी पीकर निकलता हूँ

घर से बाहर

सोंचता हूँ

अब जीवन भी मर मर कर.......

पता नहीं कब कहाँ किसी आतंकवादी की गोली

या बम प्रतीक्षारत है ,

मेरे लिए !

फिर सोंचता हूँ मंत्रियों के विषय में तो,

एक घृणा सी होती है उनसे !

खुद की रक्षा के लिए बंदूकधारी लगाए है !

बुलेट प्रूफ कपडे और कार......

और हमारे लिए, पुलिश

जो हमेशा आती है देर से

मरने के बाद !

अब समझ में आता है की,

क्यों कोई नेता नहीं फंसता दंगो में

क्यों किसी आतंकवादी की गोली

नहीं छू पाती इन्हें !

हमारे वोट का सदुपयोग

बखूबी कर रहे है हमारे नेता !

अब तो खुद की परछाई पर भी

नहीं होता विशवास !

घर से निकलने का मन नहीं करता

लेकिन मजबूरी में निकालने पड़ते है कदम

घर से बाहर !

(प्रस्तुत कविता को वर्तमान स्थिति को देखता हुए, लिखा गया है ! इस कविता में एक आम आदमी के विचारों का चित्रण किया गया है ! )

शुक्रवार, 28 मई 2010

दोस्त.....................(कविता).................अनुराधा शेषाद्री

ऐ दोस्त तेरी दोस्ती का रिश्ता बहुत गहरा है
न जाने किस उम्मीद पर दिल ठहरा है
ऐ दोस्त यह रूह से रूह की गहराईयों का रिश्ता है
जो रिश्तों से परे मोहब्बत की डोर से बंधा है
ऐ दोस्त यह एक प्यारा सा मासूमियत का रिश्ता है
जिसमे रूठकर मनाने का एक सिलसिला है
ऐ दोस्त यह पाक इरादों का रिश्ता है
जिसमे दिल हर वक्त तेरी खुशियों की दुआ करता है
ऐ दोस्त यह एक गुमनाम सा रिश्ता है
जो लोगों की रुस्वायिओं से डरता है
ऐ दोस्त यह तेरा नहीं न ही मेरा रिश्ता है
यह तो उस खुदा का प्यारा सा रिश्ता है
ऐ दोस्त यह दूरियों और फासलों से परे का रिश्ता है
जिसमे हरदम तू ही तू मेरे पास हुआ करता है
ऐ दोस्त यह उन ख्वाहिशों और तमन्नाओं का रिश्ता है
जिसमे दिल हर वक्त तुझसे मिलने की दुआ करता है
ऐ दोस्त यह ख्यालों में खुदा को पाने का रिश्ता है
क्योंकि खुद खुदा तुझमे ही दिखता है

गुरुवार, 27 मई 2010

हस्ताक्षर .......(कविता).......संगीता स्वरुप

वातानुकूलित कक्ष में
बैठ कर
तुम करते हो फैसले
उन जिंदगियों के
जिनकी किस्मत में
बदबूदार बस्तियां हैं
कर देते हो
हस्ताक्षर
उन्हें ढहाने के
जिनकी ज़िन्दगी में
केवल झोपड़ - पट्टियाँ हैं.
क्यों कि
तुम्हारी नज़र में
शहर को सुन्दर बनाना
ज़रूरी है
पर ये
झुग्गी - झोपडियां
उनकी मजबूरी है.

मन और कक्ष तुम
सदैव बंद रखते हो
इसीलिए तुम
ऐसे फैसले कर देते हो
ज़रा अपने
मन और कमरे के
गवाक्षों को खोलो
और उनकी ज़िन्दगी के
गवाह बनो .

जिस दिन तुम
उनकी ज़िन्दगी
जान जाओगे
अपने फैसले पर
पछताओगे .
कलम तुम्हारा
रुक जायेगा
मन तुम्हारा
पीडा से
भर जायेगा
और खुद के किये
हस्ताक्षर पर
तुम्हारा ह्रदय
धिक्कार कर रह जाएगा ....

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बुधवार, 26 मई 2010

सत्संग********* {लघुकथा} *************सन्तोष कुमार "प्यासा"

कल ही एक मित्र मेरे पास आए और बोले "शहर में एक बड़े ही पहुंचे हुए पंडित जी आएं है ! वे बड़े ही ज्ञानवान समाजसेवी और नेक ह्रदय के व्यक्ति हैं ! १५ दिन से शहर में उनका सत्संग चल रहा है !"
तो मै क्या करूँ जी वैसे भी आपको ज्ञेय हैं की मुझे सत्संग वत्संग में ज्यादा दिलचस्पी नहीं है ! मैंने उनसे कहा ! फिर भी, चलिए जी घूम आइएगा, वैसे भी घर पर क्या करेंगे ! उन्होंने कहा ! उनके अनुरोध पर मैंने सोंचा "चलो भई घूम आते है !" हम दोनों सत्संग स्थल की और रवाना हुए ! कुछ ही देर में सत्संग स्थल पहुँच गए ! सत्संग स्थल में भव्य सजावट थी ! जगह जगह पर गेंदा गुलाब के फूल सजे थे ! हर तरफ फीड थी !
मैंने अपने मित्र से कहा "भई पंडित जी कहाँ है ! यहाँ तो भीड़ ही भीड़ है ! कब आएंगें आपके पंडित जी ! अजी सब्र करिए पंडित जी नियम के पक्के है, आ जाएँगे वो लो आ गए पंडित जी ! मित्र ने बताया !
पंडित जी का श्रीमुख देख कर मेरा माथा ठनका ! मैंने मित्र से कहा " शीघ्र ही यहाँ से चलिए" ! अजी क्या हुआ , उन्होंने पूंछा ! पहले यहाँ से शीघ्र प्रस्थान करें फिर बताता हूँ ! मैंने कहा ! सत्संग स्थली के बाहर आकर हम दोनों एक वृक्ष के पास खड़े हो गए ! "हुआ क्या आखिर आप वहां से क्यों चले आए" मित्र ने उत्सुकता से पूंछा ! आपके पंडित जी से मैं परसों मिल चूका हूँ रेलवे स्टेशन पर, उनकी समाज सेवा, महान विचार एवं उनके सत्संग का साक्षात् श्रवण एवं दर्शन किया है मैंने ! मैंने उनसे कहा ! "परसों, हँ परसों तो पंडित जी को एक यजमान के यहाँ जाना था ! क्या हुआ था परसों" मित्र ने पूंछा !
हुवा यूँ की मै परसों अपने मामा जी को छोड़ने स्टेशन गया था ! वहीँ पर एक वृद्ध अपाहिज फकीर भीख मांग रहे थे ! जब फकीर ने पंडित जी के पास जाकर कहा "अल्लाह के नाम पर कुछ दे दो, दो दिन से कुछ नही खाया " तो पंडित जी ने उसे दुत्कार्ते हुए भगा दिया ! और अपने यजमान से बोले "पता नही कहा कहा से चले आते है , उपर से अल्लाह अल्लाह चिल्लाते है , मुसलमानो की वजह से देश मे दंगा फ़साद होता है !" मैने उन्हे पूरी बात बताई ! मेरी बात सुनकर मेरे मित्रा कुछ न कह सके ! और मौन धारण किए घर की ओर प्रस्थान कर लिए !
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मंगलवार, 25 मई 2010

बच्चों की प्रतिभा दिखाने का सबसे अच्छा माध्यम है इटंर नेट.........(बाल साहित्य).....मोनिका गुप्ता

जी हाँ, आजकल नेट का क्रेज लोगो मे बहुत ज्यादा हो रहा है खासकर बच्चे तो इसे बहुत पसंद करने लगे है क्या कुछ नही है इस पिटारे मे. चंद सैकिंडो मे दुनिया सामने होती है. 

अब अगर आप यह सोचने लगे कि इसमे अच्छाईयाँ कम और बुराईया ज्यादा है क्योकि इसके आने के बाद से बच्चे बिगडने लगे हैं. गलत गलत साईट देखते हैं तो मै यह जानना चाहती हूँ कि इसका मतलब तो यह हुआ कि इंटर नेट के आने से पहले बच्चे बिगडते ही नही थे. गाय बने चुपचाप बैठे रहते थे. तब भी आपका जवाब ना मे ही होगा.तो आखिर आप चाहते क्या है ...... अगर हर बात मे नकारात्मक सोच रखेगे तो नतीजे भी वैसे ही आएगे. इंटर नेट का क्षेत्र बहुत विशाल है इसलिए मै ज्यादा बात ना करते हुए अपनी एक ही बात पर आती हूँ वो है बच्चो मे छिपी हुई प्रतिभा निखारने और उसे मंच देने का इससे अच्छा साधन हो ही नही सकता. आप सोच रहे होगे कि कैसे ... तो वो ऐसे कि हर बच्चे मे कोई ना कोई हुनर होता है पर कई बार या किसी भी वजह से वो सामने नही आ पाता. इसमे कोई शक नही कि टी.वी. भी इसका सबसे अच्छा साधन है पर आप तो जानते ही है कि मौका मिलता कितने बच्चो को है. इसमे हजारो लाखो बच्चे संगीत व अन्य कला मे ओडिशन देते है पर मुश्किल से 10 या 20 ही चुने जाते है तो क्या और बच्चे प्रतिभावान ही नही है. क्या उन्हे मायूस होकर चुप चाप बैठ जाना चाहिए अपनी किस्मत पर रोना चाहिए तो मेरा जवाब है नही .... जब हुनर है तो क्यो ना दुनिया को दिखा दे. यू ट्यूब पर उसकी विडियो बना कर ना सिर्फ डाली जा सकती है बलिक उसका लिंक भेज कर अपने देश के या विदेशी दोस्तो को भी दिखाई जा सकती है और बहुत लोग इसे कर भी रहे है. जिसमे हर प्रतिभावान बच्चे को मौका दिया जाता है इनकी कला को देख कर उसे यू ट्यूब पर अप लोड किया जाता है. हर तरह की प्रतिभा विडियो के माध्यम से देखी जा सकती है. इस से ना बच्चो का मनोबल बढता है बलिक वो और कुछ अच्छा करने की कोशिश मे जुट जाते हैं. अब अगर आपके मन मे यह आ रहा हो कि इन विडियो का कोई गलत इस्तेमाल भी कर सकता है तो फिर मैं कुछ कहना ही नही चाहती ना ही आपको इस दिशा मे प्रयास करने चाहिए. बस मै यही कहना चाहती हूँ कि समय बहुत तेजी से आगे निकल रहा है इसके साथ नही चलेगे तो बहुत पीछे रह जाएगें. 

पूरी दुनिया जानने के लिए इटंर नेट् नेट से अच्छा साधन हो ही नही सकता और अगर इसी मे आपकी अपनी पहचान भी बन जाए तो क्या कहना.अब तो बस आप स्कूली छुट्टियो का फायदा उथाते हुए अपने और अपने बच्चो मे छिपे हुनर को जानने मे जुट जाए.  

बचपन ************* {कविता} ********* सन्तोष कुमार "प्यासा"

आनंद की लहरों में हिलोरें खाने वाला जीवन


मानव का प्राकृतिक से होता है पहला मिलन

ना गृहस्थी का भार ना जमाने का फिक्र ,

ना खाने कमाने का फिक्र

निश्चिन्तता के आँगन में विचरता है बचपन

प्राकृतिक की गोद में बैठता जब वह  सुकुमार 

पड़ी रहती कदमों में उसके  खुशियाँ अपार

होता है वह अपने बचपन का विक्रम

दूर रहतें है उससे ज़माने के सारे भ्रम

न देता वह ख़ुद को कभी झूठी दिलाशा

ना रहता कभी वह किसी चाहत और खुशी का "प्यासा"
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रविवार, 23 मई 2010

हकीकत .....ग़ज़ल ......कवि दीपक शर्मा

मैं भी चाहता हूँ की हुस्न पे ग़ज़लें लिखूँ

मैं भी चाहता हूँ की इश्क के नगमें गाऊं

अपने ख्वाबों में में उतारूँ एक हसीं पैकर

सुखन को अपने मरमरी लफ्जों से सजाऊँ ।

लेकिन भूख के मारे, ज़र्द बेबस चेहरों पे
निगाह टिकती है तो जोश काफूर हो जाता है
हर तरफ हकीकत में क्या तसव्वुर में 
फकत रोटी का है सवाल उभर कर आता है ।
ख़्याल आता है जेहन में उन दरवाजों का
शर्म से जिनमें छिपे हैं जवान बदन कितने 
जिनके तन को ढके हैं हाथ भर की कतरन
जिनके सीने में दफन हैं , अरमान कितने 
जिनकी डोली नहीं उठी इस खातिर क्योंकि
उनके माँ-बाप ने शराफत की कमाई है
चूल्हा एक बार ही जला हो घर में लेकिन 
मेहनत की खायी है , मेहनत की खिलाई है । 
नज़र में घुमती है शक्ल उन मासूमों की
ज़िन्दगी जिनकी अँधेरा , निगाह समंदर है ,
वीरान साँसे , पीप से भरी -धंसी आँखे
फाकों का पेट में चलता हुआ खंज़र है ।
माँ की छाती से चिपकने की उम्र है जिनकी
हाथ फैलाये वाही राहों पे नज़र आते हैं ।
शोभित जिन हाथों में होनी थी कलमें 
हाथ वही बोझ उठाते नज़र आते हैं ॥ 
राह में घूमते बेरोजगार नोजवानों को
देखता हूँ तो कलेजा मुह चीख उठता है
जिन्द्के दम से कल रोशन जहाँ होना था
उन्हीं के सामने काला धुआं सा उठता है ।
फ़िर कहो किस तरह हुस्न के नगमें गाऊं
फ़िर कहो किस तरह इश्क ग़ज़लें लिखूं
फ़िर कहो किस तरह अपने सुखन में
मरमरी लफ्जों के वास्ते जगह रखूं ॥
आज संसार में गम एक नहीं हजारों हैं
आदमी हर दुःख पे तो आंसू नहीं बहा सकता ।
लेकिन सच है की भूखे होंठ हँसेंगे सिर्फ़ रोटी से
मीठे अल्फाजों से कोई मन बहला नही सकता ।
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--प्रेम काव्य--प्रेम परक अनुपम काव्य संग्रह

(---पुस्तक --प्रेम काव्य , रचनाकार- डा श्याम गुप्त, प्रकाशक-- प्रतिष्ठा साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्था, आलम बाग़ , लखनऊ , समीक्षक --श्री विनोद चन्द्र पाण्डेय 'विनोद' IAS , पूर्व निदेशक, हिन्दी संस्थान ,लखनऊ, उ. प्र.)

  उत्तर रेलवे चिकित्सालय लखनऊ में वरिष्ठ चिकित्सा अधीक्षक पद से सेवा-निवृत्त डा श्याम गुप्त हिन्दी के लब्ध-प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं | विशेष रूप से काव्य-विधा में उनका महत्वपूर्ण योगदान रेखांकित करने योग्य है | उनकी अनेक काव्य कृतियों का प्रकाशन हो चुका है | इसी श्रृंखला में 'प्रेम काव्य' की प्रस्तुति स्वागत योग्य है |
  मानव जीवन में प्रेम का अत्यधिक महत्त्व है | प्रेम जहां मानवता को एक सूत्र में आबद्ध करता है वहीं जन जन को प्रेरणा प्रदान करता है | प्रेम के अनेक रूपों का मानव मन पर अलग-अलग प्रभाव परिलक्षित होता है | संयोग और वियोग -प्रेम के दो प्रमुख पक्ष हैं | प्रेम की अनेक स्थितियां भी मानव को प्रभावित करतीं हैं , जिससे सुख-दुःख, ईर्ष्या-वेदना,प्रतिस्पर्धा आदि भावों की अनुभूति मानव मन को होती है | प्रेम काव्य में कविवर डा श्याम गुप्त द्वारा रचित प्रेमाधारित गीतों और कविताओं का संग्रह किया गया है | इसमे प्रेम के विविध रूप दृष्टव्य हैं | रचना वस्तुतः गीति विधा महाकाव्य है |
  प्रेम काव्य के अंतर्गत स्वयं कवि ने 'प्रेम काव्य' के रचना विधान के सम्बन्ध में युक्तिसंगत उदगार इस प्रकार अभिव्यक्त किये हैं--"सृष्टि,जीवन, जगत,सत्य, अहिंसा, दर्शन , धर, अध्यात्म , आत्म तत्त्व, अमृतत्व, ईश्वर, ब्रह्म सब प्रेम के ही रूप हैं | आदि इच्छा, ईषत इच्छा, -परमात्मा का आदि प्रेम भाव ही है जो चराचर की उत्पत्ति का कारण-मूल है उसी प्रेम को नमन ही प्रेम की पराकाष्ठा है , पराकाष्ठा स्वयं प्रेम है | उसी प्रेम के प्रेम में नत होकर, रत होकर ही इस 'प्रेम काव्य' की रचना होसकी है जो ईश्वर के मानव के प्रति प्रेम के विना संभव नहीं है |" कवि के इस कथन की यथार्थता 'प्रेम काव्य' कृति स्वयं प्रमाणित करती है |  
  प्रेम काव्य, जिसे गीति -विधा महाकाव्य की संज्ञा दी गयी है , में एकादश सुमनान्जलियाँ हैं जिनके शीर्षकों को अलग अलग नामों में अभिहित किया गया है | इस महाकाव्य का नायक कोई मूर्त व्यक्तित्व नहीं है अपितु मनोभाव " प्रेम " ही नायकत्व की भूमिका का निर्वाह करता है |
  मंगलाचरण से महाकाव्य के शुभारम्भ के नियम का अनुपालन भी कवि द्वारा किया गया है| भाव पक्ष पुष्ट और सबल है | कावी-कृति भाव संपदा से समृद्ध व सुसंपन्न है | यथार्थ , दर्शन, एवं 
अध्यात्म की त्रिवेणी प्रवाहित होने से रचना स्वयमेव उदात्त और उत्कृष्ट होगई है | कविवर श्याम गुप्त ने प्रेम के समस्त पक्षों का गहन अध्ययन, अनुशीलन एवं अनुभव किया है; अतः अनुभूति की यथार्थता और अभिव्यक्ति की कुशलता यत्र तत्र सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है | असार संसार में रचनाकार ने प्रेम को ही सर्व सुख का सार स्वीकार किया है---
  " इस संसार असार में , श्याम प्रेम ही सार |
  प्रेम करे दोनों मिलें , ज्ञान और संसार || "  
कवि ने प्रेम को साकार मोक्ष माना है -----"प्रेम सभी से कीजिये ,सकल शास्त्र का सार |
  ब्रह्मानंद मिले उसे , श्याम' मोक्ष साकार || "
  प्रेम काव्य की भाषा परिष्कृत , प्रांजल, परिनिष्ठित एवं संस्कृत- निष्ठ है | पाठकों को भावानुकूल श्रेष्ठ भाषा अवश्य ही प्रभावित करेगी और प्रेरित करेगी | कवि की वर्णन कुशलता भी उल्लेखनीय है | प्रकृति और वातावरण का चित्रण मनोरम है | बसंत, ग्रीष्म, पावस, शरद, हेमंत और शिशिर ऋतुओं का वर्णन बड़े मनोयोग से किया गया है | प्रकृति और पुरुष का तादाम्य भी ऋतु- वर्णन की प्रमुख विशेषता है |
  ' प्रेम काव्य' का सृजन विविध छंदों में किया गया है | अलग अलग मात्राओं के अलग अलग छंदों का चयन , कवि के छंद-ज्ञान का परिचायक है | गुप्तजी छंदोबद्ध कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं |
अतः उनके छंद प्रवाह- पूर्ण एवं गति यति युक्त हैं |
  काव्य कृति में प्रेम के मूल तत्व के निरूपण के कारण श्रृंगार रस की प्रधानता है , किन्तु वात्सल्य,करुणा एवं शांत रस का आभास और परिपाक भी दृष्टव्य है |यत्र तत्र अलंकारों की छटा काव्य को कमनीयता प्रदान करती है | मुख्य रूप से अनुप्रास, उपमा,उत्प्रेक्षा,आदि अलंकारों का प्रयोग अवलोकनीय है|
  प्रेम के महत्त्व को प्रतिपादित करने में कवि को पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है | इसप्रकार उद्देश्य की दृष्टि से भी यह गीति विधा महाकाव्य " प्रेम काव्य " अपनी सार्थकता सिद्ध करता है |

शनिवार, 22 मई 2010

सीख................(गजल).................श्यामल सुमन

रो कर मैंने हँसना सीखा, गिरकर उठना सीख लिया।
आते-जाते हर मुश्किल से, डटकर लड़ना सीख लिया।। 

महल बनाने वाले बेघर, सभी खेतिहर भूखे हैं।
सपनों का संसार लिए फिर, जी कर मरना सीख लिया।। 

दहशतगर्दी का दामन क्यों, थाम लिया इन्सानों ने।
धन को ही परमेश्वर माना, अवसर चुनना सीख लिया।।

रिश्ते भी बाज़ार से बनते, मोल नहीं अपनापन का। 
हर उसूल अब है बेमानी, हँटकर सटना सीख लिया।। 

फुर्सत नहीं किसी को देखें, सुमन असल या कागज का।
जब से भेद समझ में आया, जमकर लिखना सीख लिया।।

शुक्रवार, 21 मई 2010

गर चाहते हो ...........(कविता)...........संगीता स्वरुप

दिया तो
जला लिया है
हमने ज्ञान का
पर आँख में
मोतियाबिंद
लिए बैठे हैं .
रोशनी की कोई
महत्ता नहीं
जब मन में अन्धकार
किये बैठे हैं .

आचार है हमारे पास
पर
व्यवहार की कमी है
चाहते हैं पाना
बहुत कुछ
पर हम मुट्ठी
बंद किये बैठे हैं .

चाहते हैं
सिमट जाये
हथेलियों में
सारा जहाँ
जबकि
हम खुद ही
कर - कलम
किये बैठे हैं .

चाहते हैं पाना
नेह की
सुखद अनुभूति
लेकिन
हृदय - पटल
बंद किये बैठे हैं ..

गर चाहते हो कि
ऐसा सब हो
तो --
खोल दो
सारे किवाड़
आने दो एक
शीतल मंद बयार
मन - आँगन
बुहार दो
नयन खोल
दिए में
तेल डाल दो
मोतियाबिंद
हटा दो
हृदय के पट खोलो
प्रेम को बांटो
बाहें फैलाओ
और जहाँ को समेट लो .....



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विचारो का सूरज {कविता} सन्तोष कुमार "प्यासा"

कुछ दिन पहले मैंने न लिखने का निर्णय लिया था !
जिसे निभा नहीं पाया और फिर से उठा ली कलम !

विचारो का सूरज

विपत्तिओं की बदली में खो गया

छुप गए शब्द

सुनकर आशंकाओं की गडगडाहट

भावनाओं की तीव्र वृष्टि

बहा ले गई सारे सन्दर्भ

डरा सहमा है मन

सोंचता है

अब बचा भी क्या है

क्या लिखूं ?

कैसे लिखूं ?

किसके लिए लिखूं ?

शायद खुद से हार चुका है मन

एक अर्थहीन निर्णय लिया

मन ने

निर्णय, न लिखने का !

पर पता नहीं क्यूँ

कुछ दिन भी कायम न रह सका निर्णय पर

लोगों की बातें बिच्छु की भांति डंक मार रही हैं

कुछ अनजाने विचार कौंधते है मन में

कुछ है जो टीसता है

लिखने से ज्यादा

न लिखना

कष्टदायी है

दुःखदायी है

यही सोंच कर फिर से उठा ली है कलम !

गुरुवार, 20 मई 2010

ढलती शाम..............(कविता).......... सुमन 'मीत'


अकसर देखा करती हूँ

शाम ढलते-2 

पंछियों का झुंड 

सिमट आता है 

एक नपे तुले क्षितिज में 

उड़ते हैं जो 

दिनभर 

खुले आसमां में 

अपनी अलबेली उड़ान 

पर.... 

शाम की इस बेला में 

साथी का सानिध्य

पंखों की चंचलता

उनकी स्वर लहरी 

प्रतीत होती 

एक पर्व सी

उनके चुहलपन से बनती 

कुछ आकृतियां 

और 

दिखने लगता

मनभावन चलचित्र 

फिर शनै: शनै: 

ढल जाता 

शाम का यौवन 

उभर आते हैं

खाली गगन में 

कुछ काले डोरे 

छिप जाते पंछी 

रात के आगोश में 

उनकी मद्धम सी ध्वनि 

कर्ण को स्पर्श करती 

निकल जाती है 

  दूर कहीं..................!!

बुन्देली लोकसंस्कृति और बुन्देली लोकभाषा का संरक्षण अपरिहार्य

बुन्देली लोकसंस्कृति और बुन्देली लोकभाषा का संरक्षण अपरिहार्य

किसी भी क्षेत्र के विकास में उस क्षेत्र संस्कृति की अहम् भूमिका रहती है। संस्कृति, भाषा, बोली आदि के साथ-साथ उस क्षेत्र की ऐतिहासिक विरासत, लोकसाहित्य, लोककथाओं, लोकगाथाओं, लोकविश्वासों, लोकरंजन के विविध पहलुओं को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। सांस्कृतिकता का, ऐतिहासिकता का लोप होने, उसके विनष्ट होने से उस क्षेत्र में विकास की गति और भविष्य का उज्ज्वल पक्ष कहीं दूर तिरोहित होने लगता है।


(चित्र गूगल छवियों से साभार)

बुन्देली संस्कृति के सामने, इस क्षेत्र की ऐतिहासिक विरासत, भाषा-बोली के सामने अपने अस्तित्व का संकट लगातार खड़ा हो रहा है। किसी समय में अपनी आन-बान-शान का प्रतीक रहा बुन्देलखण्ड वर्तमान में गरीबी, बदहाली, पिछड़ेपन के लिए जाना जा रहा है। विद्रूपता यह है कि इसके बाद भी बुन्देलखण्ड के नाम पर राजनीति करने वालों की कमी नहीं है। सांस्कृतिक विरासत से सम्पन्न, स्वाभिमान से ओत-प्रोत, शैक्षणिक क्षेत्र में सफलता के प्रतिमान स्थापित करने वाले इस क्षेत्र की विरासत को पूरी तरह से नष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है। विचार करना होगा कि इस क्षेत्र में पर्याप्त नदियाँ हैं; वैविध्यपूर्ण उपजाऊ मृदा है; प्रचुर मात्रा में खनिज सम्पदा है; वनाच्छादित हरे-भरे क्षेत्र हैं फिर भी इस क्षेत्र को विकास के लिए केन्द्र एवं राज्य सरकार का मुँह ताकना पड़ता है।

संसाधनों की पर्याप्तता के बाद भी क्षेत्र का विकास न होना यदि सरकारों की अरुचि को दर्शाता है तो साथ ही साथ यहां के जनमानस में भी जागरूकता की कमी को प्रदर्शित करता है। किसी भी क्षेत्र, समाज, राज्य, देश के विकास में किसी भी व्यक्ति का योगदान उसी तरह से महत्वपूर्ण होता है जैसे कि उस व्यक्ति का अपने परिवार के विकास में योगदान रहता है। परिवार के विकास के प्रति अरुचि होने से विकासयात्रा बाधित होती है, कुछ ऐसा ही बुन्देलखण्ड के साथ हो रहा है। यहां के निवासी उन्नत अवसरों की तलाश में यहाँ से पलायन कर रहे हैं। युवा पीढ़ी अपने आपको किसी भी रूप में इस क्षेत्र में स्थापित नहीं करना चाहती है। इस कारण से इधर के शैक्षणिक संसाधन, औद्योगिक क्षेत्र, खेत-खलिहान, गाँव आदि बदहाली की मार को सह रहे हैं।

बुन्देलखण्ड के कुछ जोशीले, उत्साही नौजवानों और अनुभवी बुजुर्गों के प्रयासों, प्रदर्शनों, संघर्षों, माँगों आदि के द्वारा बुन्देलखण्ड राज्य निर्माण हेतु कार्य किया जा रहा है। इस प्रयास के चलते और बुन्देलखण्ड के नाम पर राजनीति करने की मंशा से सरकार ‘पैकेज’ आदि के द्वारा आर्थिक सहायता का झिझकता भरा कदम उठाने लगती हैं। बुन्देलखण्ड की सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक विरासत को देखते हुए इस तरह के प्रयास खुशी नहीं वरन् क्षोभ पैदा करते हैं। यह सब कहीं न कहीं इस क्षेत्र के जनमानस का अपने क्षेत्र के प्रति स्नेह, अपनत्व, जागरूकता में कमी के कारण ही होता है।

जागरूकता में कमी अपनी सांस्कृतिक विरासत को लेकर बहुत अधिक है जो नितान्त चिन्ता का विषय होना चाहिए। युवा पीढ़ी को बुन्देलखण्ड की सांस्कृतिकता, ऐतिहासिकता से किसी प्रकार का कोई सरोकार नहीं दिखाई देता है। उसे क्षेत्र के लोकसाहित्य, लोककला, लोकगाथा, लोककथा, लोकविश्वास, लोकपर्व आदि के साथ ही साथ इस क्षेत्र की विशेषताओं के बारे में भी पता करने की आवश्यकता नहीं। किसी क्षेत्र का स्वर्णिम अतीत उसके उज्ज्वल भविष्य की आधारशिला बनता है किन्तु वर्तमान पीढ़ी को अतीत को जानने की न तो चाह है और न ही वह इसके भविष्य को उज्ज्वल बनाने को प्रयासरत् है। यहां की बोली-भाषा को अपनाना-बोलना उसे गँवारू और पिछड़ेपन का द्योतक लगता है। इस दोष के शिकार युवा हैं तो बुजुर्गवार भी कम दोषी नहीं हैं जो अपने गौरवमयी अतीत की सांस्कृतिक विरासत का हस्तांतरण नहीं कर रहे हैं।

हमें समझना होगा कि संस्कृति का, विरासत का हस्तांतरण किसी भी रूप में सत्ता का, वर्चस्व का हस्तांतरण नहीं होता है। इस प्रकार का हस्तांतरण क्षेत्र की सांस्कृतिकता का, सामाजिकता का विकास ही करता है। यह ध्यान हम सभी को रखना होगा कि संस्कृतिविहीन, भाषाविहीन मनुष्य पशु समान होता है और बुन्देलखण्ड को हम संस्कृतिविहीन, भाषाविहीन, बोलीविहीन करके उसकी गौरवगाथा को मिटाते जा रहे हैं। यदि इस दिशा में शीघ्र ही प्रयास न किये गये; वर्तमान पीढ़ी को बुन्देलखण्ड की सांस्कृतिक विरासत से, भाषाई-बोली की मधुरता से परिचित न करवाया गया तो बुन्देलखण्ड को एक शब्द के रूप में केवल शब्दकोश में देख पायेंगे। इसके अलावा हम बुन्देलखण्ड के लोक से सम्बन्धित विविध पक्षों को भी सदा-सदा को विलुप्त कर चुके होंगे। स्थिति बद से बदतर हो इसके पूर्व ही हम सभी को सँभलना होगा, इस दिशा में सकारात्मक प्रयास करना होगा।

बुधवार, 19 मई 2010

ये मौसम का जादू है ...(लेख).............मोनिका गुप्ता

जी हाँ, मौसम भी हमारे जीवन मे जाने अंजाने जादू करता है हमारे मन को खुश, उदास या कभी थिरकने और नाचने पर मजबूर कर देता है. आप मान लिजिए कि आप आफिस जा रहे हैं जबरदस्त गरमी है उस वजह से आपको ना सिर्फ गुस्सा आएगा बलिक सड्क पर बेवजह पसीना पोछ्ते आप किसी से भी लडाई कर बैठेगें. उसे धमकी भी दे डालेगे पर इसी स्थिती मे अगर मौसम साफ ना हो यानि आकाश मे बाद्ल हो. गरमी के मौसम मे ठंडी हवा चल रही हो तो यकीनन आपका सीटी बजाता गुनगुनाता मन उसे बिना कुछ् कहे मुस्कुरा कर आगे बढ जाएगा. 

बात सिर्फ यही खत्म नही होती .बरसात का ये मतलब भी नही निकालना चाहिए कि मन हमेशा खुश ही रहेगा. पता है हल्की हल्की बूंदा बांदी अच्छी लगती है पर जहाँ मूसलाधार हो जाए वहा मन पकौडे और चाय से हट कर चिंता मे हो जाता है कि कही तेज बारिश से सड्क या गली का पानी घर मे तो नही आ जाएगा या छ्त तो ट्पकने नही लगेगी.ऐसे मे आप झाडू लेकर दरवाजे पर बैठे होते है कि ना जाने कब पानी भीतर आ जाएऔर तब फिल्मी गाने हवा हो जाते हैं और टेंशन उसकी जगह ले लेती है क्योकि नेट और फोन भी अनिशिचत काल के लिए शांत हो जाते हैं और उनके शांत होने का मतलब हमारा सारी दुनिया से सम्प्रर्क टूट जाना. बसंत के मौसम मे फूल कितने अच्छे लगते हैं. उन पर कितनी कविता बन जाती है पर जब हमे कोई फूल ही ना भेजे तो गुस्से का कोई अंत ही नही होता.

अब रही बात सरदी की.कितना भला लगता है ऐसे मौसम मे बाहर धूप मे बैठना. पर गुस्सा तब आता है जब आप बाहर पलंग़ और कुरसी डाल कर बैठे हो और धूप बादलो मे छिप जाए और शाम तक दर्शन ही ना दे उस समय जबरदस्ती आपको घर के भीतर ही जाना पडता है और हीटर से ही मन को समझाना पडता है  

तो देखा ऐसे ना जाने कितने उदाहरण हैं. हम तो वही है पर मौसम अपना जादू चला कर हमे अपने आधीन कर ही लेता है.तो अगर घर पर आपको जली या कच्ची रोटी मिले तो आप समझ जाना कि यह कुछ और नही मौसम का जादू है. आप मेरी बात से सहमत है या नही जरुर बताना.

क्या खूब सच बोलने का अंजाम हो रहा है --------- {कविता} -------- सन्तोष कुमार "प्यासा"

जो उचित नहीं है हर जगह वो काम हो रहा है


कल तक था जिसपर सबको भरोसा


आज वही बेवजह बदनाम हो रहा है


होना था जिस काम को परदे में


पता नहीं क्यों सरेआम हो रहा है


दुनिया में बढ़ रही है आबादी इस कदर


जमी को छोडिये, अजी आसमां नीलाम हो रहा है


बईमानी और घूसखोरी की चल पड़ी प्रथा ऐसी


जो जितना बदनाम है, उसका उतना नाम हो रहा है


कही मर रहे है भूख से लोग


तो किसी के यहाँ खा पीकर आराम हो रहा है


झूठ बोलना पाप है इतना तो सुना था


क्या खूब सच बोलने का अंजाम हो रहा है !

मंगलवार, 18 मई 2010

तुम्हारी खामोशियाँ .......(गजल)................अनामिका (सुनीता)


आज ये खामोशियाँ सिमटती क्यों नहीं
हाल-ऐ-दिल आपके लब सुनते क्यों नहीं..

कभी तो फैला दो अपनी बाहों का फलक
मेरी आँखों की दुआ तुम तक जाती क्यों नहीं..

दर्द-ऐ-दिल बार-बार पलकों को भिगो जाता है ...
आपका खामोश रहना मुझे भीतर तक तोड़ जाता है..

मुहोब्बत मेरी जिंदगी की मुझसे रूठने लगी है ..
अंधेरे मेरी जिंदगी की तरफ़ बढ़ने लगे है..

बे-इंतिहा मुहोब्बत का असर आज होता क्यों नहीं..
मेरी आत्मा में बसे हो तुम, ये तुम जानते क्यों नहीं..

दिन-रात मेरी दुआओ में तुम हो ये तुम मानते क्यों नहीं ..
कोई वजूद नही मेरा तुम बिन, ये तुम जानते क्यों नहीं॥

खामोश लब तुम्हारे आज बोलते क्यों नहीं
भेद जिया के मुझ संग खोलते क्यों नहीं..!! 

प्यार *************** {कविता} *************** सन्तोष कुमार "प्यासा"

प्यार {कविता} सन्तोष कुमार "प्यासा"




लोग कहते है की प्यार सिर्फ एक बार होता है !



लेकिन जब भी मै तुम्हे सपनो में पाता हूँ



या किसी कारणवश उदास हो जाता हूँ



जब भी मै तुम्हे सुनता हूँ



या तन्हाइयों में सपने बुनता हूँ



जब तुम्हे देखता हूँ



या खामोशियों में तुम्हे महसूस करता हूँ



मुझे हर बार तुमसे प्यार हो जाता है



गहरा और गहरा !

सोमवार, 17 मई 2010

जो वो आ जाए एक बार ***** {कविता} ***** सन्तोष कुमार "प्यासा"

जो वो आ जाए एक बार ***** {कविता} ***** सन्तोष कुमार "प्यासा"

इस कविता को मैंने "महादेवी वर्मा" की कविता "जो तुम आ जाते एक बार" से, प्रेरित होकर लिखा है

*******************************

घनीभूत पीड़ा में ह्रदय डूबा


अश्रुओं संग बह रहा विषाद


जल बिन मीन तडपे जैसे


तडपाए, प्रेम उन्माद


फिर सजीव हो जाए आसार


जो वो आ जाएं एक बार

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उसे पाने की बढ़ी लालसा ऐसी


पल पल होती चाहत प्रखर


ह्रदय के कोरे पृष्ठों में


लिख दो आकर, प्रिताक्षर


मेरे मन के उपवन में छा जाए बहार


जो वो आ जाएं एक बार

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अलि कलि पर जब मंडराए


नभ पर विचरें जब विहंग


खो जाऊं आलिंगन में उसकी


मन में उठे ऐसी तरंग


बज उठें ह्रदय के तार तार


जो वो आ जाएं एक बार

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मेरे मस्तिष्क के हर कोने में छाई


उसके स्मृति की सुवासित सुरभि


अब न रुके आवेग अनुरक्ति का


समय, काल, अंतराल बताए


प्रीत न दाबे दबी


एक बने जीवन का आधार


जो वो आ जाएं एक बार

रविवार, 16 मई 2010

स्पेस-.............. कहानी.................मानोशी जी

एक प्रवासी लेखकों की किताब के लिये, कहानी लिखने का हुक्म पूरा करने ये कहानी लिखी गई। प्रवास की सॆटिंग में लिखी कहानी-

स्पेस

"बड़े दुख से गुज़री हो तुम, है न? सच बड़ा कठिन समय रहा होगा"। उसे नहीं चाहिये थी सहानुभूति। साइको थेरैपी के लिये कई जगह जा चुकी थी वो। " क्या आप मेरी मदद कर सकती है? मुझ आगे बढ़ना है। मैं रोने नहीं आई हूँ यहाँ।" ये कह कर हर बार वापस आ गई थी वो। क्या कोई नहीं था जो उसकी मदद कर सकता था? उसके दर्द को समझ सकता था? आज डा. जोन्स के साथ थी अपाइंटमेंट, थेरैपी की। फिर एक बार कहानी बयान करनी होगी....

ज़ुकाम से सर भारी था। दफ़्तर नहीं जाना चाहती थी वो। मगर मार्च का महीना था। अकाऊंट क्लोसिंग आदि। सभी ओवरटाइम कर रहे थे। उसका छुट्टी लेना नामुमकिन था। मनोज भी कभी कभी बचकानी हरकतें करते हैं। सारी रात जाग कर ब्रिज खेलने को विवश किया था कल। रात तीन बजे सो कर फिर सुबह ६ बजे उठ जाना पड़ा था। दफ़्तर में जा कर देखा तो ४० ईमेल आये पड़े थे। अमित का भी ईमेल था, " याद है न? आज मिलना है, स्टार्बक्स में, चार बजे।" काम के बीच से निकल कर जाना मुश्किल था उसके लिये। अमित उसके बचपन का दोस्त था। इस शहर में एक वालमार्ट में अचानक ही मुलाक़ात हो गई थी उसकी। एक पल को तो दोनों हक्के बक्के रह गये थे, मगर फिर पुरानी खिलखिलाहट गूँज उठी थी। लगता ही नहीं था कि एक अंतराल के बाद मिले हैं दोनों। उसने झट से ईमेल का जवाब दिया, " आज नहीं हो पायेगा, काम है।"

शाम को घर पहुँच कर देखा तो अमित बैठा गप्पें लड़ा रहा था, मनोज के साथ। मनोज को जानती थी वह, किसी भी मर्द दोस्त का इस तरह घर आना उन्हें पसंद नहीं होगा। मगर दोनों बड़े मज़े से बातें कर रहे थे। हैरानी परेशानी में वह क्या कहे समझ नहीं आया था उसे। उसके जाने के बाद कहीं मनोज उसे कुछ कहें न। खाना खा कर ही टला था अमित। मनोज के सामने ही ’तुम’ कह कर संबोधित कर रहा था वह उसे। कैसे कहे, क्या समझाए वो किसी को।

लाल रंग का स्कार्फ़, लाल लंबे स्कर्ट के साथ सुंदर लग रहा था। उद्देश्य भी पूरा हो रहा था। मनोज एक बार रशिया गये थे। तब ले कर आये थे वो स्कार्फ़। साथ में मोतियों की एक माला भी थी। उस वक़्त गुजरात के एक गाँव में पोस्टिंग थी मनोज की। नई शादी थी, और उसका मन उड़ा ही करता था सारे दिन। एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में शादी के कुछ दिनों बाद ही रशिया जाना हुआ था मनोज का। वहाँ से आने के बाद, मनोज ने ही तो अपने हाथों से पहनाई थी वो माला। लाल, झकझक करती, आइने के सामने खड़े हो कर ख़ूब इतराई थी वह। आज स्कार्फ़ के साथ वो माला नहीं पहन पाई थी वो। सूना गला मगर स्कार्फ़ से ढका हुआ था। वो माला टूट गई थी। एक बूँद आंसू ढुलक पड़ा था अनजाने ही उसकी आँखों से। आफ़िस में फ़ोन पर अमित था," आज मिल रहे हैं वरना फिर आ धमकूँगा मैं।" " ऐसा मत करो अमित, प्लीज़।"

मारनिंग डेल पार्क। अक्सर ही शाम को मुलाक़ात होती थी उसकी अमित के साथ यहाँ। दोनों देर तक बातें करते रहे थे। "ज़रा धीरज, ज़रा सा...फिर सब ठीक होगा, यकीन मानो"। " मगर मैं खुश हूँ अमित, तुम मानते क्यों नहीं?" "हाँ जानता हूँ तुम खुश हो...ये भी कि कितना खुश।" आँखों में पानी लिये वो उठ पड़ी थी, और घर की ओर चल दी थी। 53A बस नम्बर, घर जाने का रास्ता, उसे सब से प्रिय था। रास्ते में एक सुनसान सड़क पड़ती थी, उसकी ज़िंदगी की तरह ही। चारों तरफ़ पेड़-पौधे, हरियाली, पर सड़क सुनसान। रोज़ उसे इस रास्ते से घर आना बहुत अच्छा लगता था। और सारे दिन की हँसी सहेज कर वह मनोज के हँसने का इंतज़ार करती थी। अब निर्भर करता था कि उस दिन मनोज किस मूड में है।

बस से उतर कर थोड़ी देर चलना पड़ता था उसे। आज घर का दरवाज़ा खुला हुआ था, जिसे देख कर हैरानी ही हुई थी उसे। ज़रा तेज़ क़दमों से चल कर वह जब अंदर पहुँची तो अचानक ही जैसे सारी दुनिया गोल मोल हो गई थी उसकी। मनोज सोफ़े पर लेटे थे और उनके मुँह से ख़ून...वह बौखला गई थी। ये कैसे हुआ। उसे पता नहीं था वह क्या करे। जल्दी से ९११ को फ़ोन कर के वह मनोज को जगाने लगी। ९११ से फिर फ़ोन आ गया। वह फ़ोन पर ही थी कि ऐम्बुलेन्स और फ़ायर ट्रक दरवाज़े पर खड़े थे। पुलिस भी धड़ल्ले से घुसी और थोड़ी ही देर में उसे पता चल गया कि मनोज अब इस दुनिया में नहीं है। शायद सीवियर स्ट्रोक की वजह से उसका देहांत हो गया था। वह नहीं जानती थी कि क्या करे। कैसे संभाले अपने आप को। कैसे ज़िंदगी संभाले। मनोज के बिना तो उसने ज़िंदगी की कल्पना भी नहीं की थी।

शाम ढलने लगी थी। उसमें हिम्मत नहीं थी कि वो कुछ भी सोचे। घर से अभी ही भीड़ गई थी, पुलिस आदि। मनोज को अस्पताल ले जाया गया था। उसे भी जाना था। उसने जाने से पहले अमित के सेलफ़ोन पर काल किया। काल आंसरिंग मशीन पर गई। उसने उसे अस्पताल का ठिकाना दिया और अम्बुलेंस में सवार हो गई, अस्पताल जाने के लिये। वो नहीं सोचना चाह्ती थी कुछ भी। मनोज के साथ गुज़रे ८ साल जैसे उसकी आँखों के सामने से गुज़रने लगे थे। लाल मोतियों की माला...अभी भी तो वो मोतियाँ बेडरूम के फ़र्श पर बिखरी पड़ी हैं। उसने धीरे से अपना स्कार्फ़ खोला। और गले पर के नीले निशान उभर आये थे अब। अमित के जाने के बाद कल रात को मनोज ने हाथ से खींच कर उस माला को तोड़ दिया था। और फिर एक एक मोती पिरो कर उसे उसके गले में बाँधने की कोशिश की थी, इतने प्यार से...मगर अचानक ही जैसे उस माला से उसका गला घुट रहा था... वो एक पल को डर ही गई थी। मोतियाँ फिर बिखर गई थी फ़र्श पर।

अस्पताल में अमित पहले से ही इंतज़ार कर रहा था उसका। सारी फ़ार्मैलिटी पूरी करते करते देर हो गई थी। अमित से कुछ कहने की ज़रूरत नहीं होती थी उसे। वो जैसे हर बात समझ जाता था उसकी। कितनी बार भी वो कहे कि वो ख़ुश है, अमित बार बार कहता कि सब ठीक हो जायेगा। सारी रात तो था अमित उसके साथ और सुबह चार बजे तक ही आना हो पाया था दोनों का घर। अभी तक रोने का तक समय नहीं मिल पाया था उसे। घर पहुँच कर उसने अमित से पूछा, " चाय लोगे?" फिर धड़ाम से बैठ गई थी वो सोफ़े पर और अचानक ही जैसे सैलाब सा फूट पड़ा था। आँसू रुके नहीं रुक रहे थे। कल की सुबह मनोज के बिना होगी। ये कैसी कश्मकश है। वो जिस ज़िंदगी से कई बार छुटकारा पाना चाहती थी, जिस आदमी को कई बार उसने मरने की बद-दुआ भी थी, वह आज सचमुच न रहने पर उसका सम्हलना मुश्किल हो रहा था। अजीब मन:स्थिति से गुज़र रही थी वह। और मनोज के बग़ैर एक पल भी तो नहीं रही थी वह।

शादी के बाद मनोज के साथ वो एक गाँव में रहने गई थी, गुजरात के। हमेशा ही एक छोटे से शहर में पली बड़ी, वो गाँव के माहौल को बहुत पसंद करती थी। जैसे मन की ही चाह पूरी हो गई थी उसकी। कुछ दिन बड़े अच्छे से गुज़रे थे। वहीं के एक छोटे से स्कूल में पढ़ाने भी लगी थी। मनोज भी जल्दी आ जाते थे दफ़्तर से। और फिर दोनों निकल पड़ते थे गाँव की सैर को, रोज़। मनोज को बच्चे पसंद थे। मगर कोई ३ साल बाद भी वो मां नहीं बन पाई थी। स्कूल से आ कर कभी-कभी वह रोने लगती थी। मनोज उसे दुलारते, सहलाते मगर ये भी न कहते कि बच्चे न हुये तो भी कोई बात नहीं। उस दिन को वो नहीं भूल सकती जब एक बार वो स्कूल से देरी से आई थी। मनोज ने आते ही एक चाँटा रसीद दिया था उसे। वह हक्की बक्की रह गई थी। उसने आश्चर्य और दर्द से पूछा था, " मनोज?" मनोज ने तभी उसके पैरों पर गिर कर माफ़ी मांगी थी। " तुम मुझसे दूर चली जाती हो तो मुझे बहुत बेचैनी होती है, मैं पागल हो जाता हूँ। " उसके बाद ऐसे कितने ही दिन आये थे जब मनोज ने उस पर हाथ उठाया था। और हर बार माफ़ी माँगी थी, प्यार किया था। वो मानना चाह्ती थी कि मनोज उससे बहुत प्यार करता है। वो उसके बिना रह नहीं पाता। और उसने मनोज का साथ एक दिन के लिये भी नहीं छोड़ा था। मां के देहांत के समय भी वो भारत नहीं जा पाई थी। मनोज उसके बिना रह नहीं सकेगा, उसे पता था। छ: साल बाद भी जब बच्चे नहीं हो पाये थे तो उसने सोचा था कि वो एक बच्चा गोद लेगी। और उसे याद है इस बात पर मनोज ने तीन दिन तक उस से बात नहीं की थी। अभी दो साल पहले ही तो दोनों अमेरिका आये थे। ...और वो फिर फूट फूट कर रोने लगी। अमित के कंधे का सहारा उसे बड़ा ही अपना सा लगा था उस वक़्त।

"सुनो, आज सात बजे तैयार रहना, शाम को निर्वाण में खाना खायेंगे।" अमित को वो ना नहीं कर पाती थी। मनोज को गये हुये छ-सात महीने से ऊपर हो गये थे और अमित उसका ख़्याल रखता था। "ठीक है अमित"।

शाम के ७:३० बज गये थे। घड़ी की सूइयाँ चल रही थीं। टिक टिक टिक...आठ बजे अमित के आने की आहट हुई। अमित के घर में आते ही, वो उबल पड़ी थी। ऐसी तेज़ आवाज़ में बात करना अमित को पसंद नहीं था। आज वो दोनों बाहर खाना खाने जा ही नहीं पाये थे। अमित अक्सर ही ऐसे दिनों में उसके पास रुक जाया करता था। आज भी वो रोती रही थी और अमित जागता रहा था। ऐसे कई शामें गुज़री थीं कई बार। ये अमित अपना वादा निभा भी तो सकता है, वक़्त का पाबंद क्यों नहीं....। दूसरे दिन उसने अमित को कहा था कि वो उसे आफ़िस तक छोड दे। आफ़िस में भी मन नहीं लगा था उसका। आज वो अमित से फिर माफ़ी मांग लेगी।

"आज टीवी पर मेरा फ़वरिट शो है, तुम आ कर पास बैठो, साथ देखते हैं।"
" हूँ"
"अच्छा तुम्हें क्या लगता है, आखिरी में कौन जीतेगा?"
" तुम क्या टीवी देखना बंद नहीं कर सकते?"
" जान, तुम पास तो हो"
"पर मुझे कहाँ वक़्त देते हो तुम अब. जब भी आते हो टीवी पर ही..."
"मैं अब तुमसे बहस नहीं कर सकता...चलता हूँ. कल आऊँगा"
वो भी मुँह बना कर बैठी रही थी और अमित उठ कर चला गया था। बात करते करते उसने कब अमित पर मुक्कों की बरसात कर दी थी, उसे खयाल ही नहीं था। वो इतना ग़ुस्सा क्यों हो जाती है, क्या हो जाता है उसे?" ऐसी अनगिनत शामें गुज़री थीं। ओह! क्या अमित उस से प्यार नहीं करता अब..?
अगर अमित उस से प्यार करना छोड़ दे तो? वो फिर फफक कर रो पड़ी थी।

दो दिन बाद अमित का फ़ोन आया था, " कल बाहरेन जा रहा हूँ, तीन साल के कन्ट्रैक्ट जाब पर, ख़याल रखना अपना। इस बीच मेरे बग़ैर जीना सीखो। खुशी अपने में होती है, कोई और खुशी नहीं दे सकता किसी को...फिर मिलेंगे"

वो हक्की बक्की रह गई थी। इतिहास ने दोहराया था अपने को शायद। फ़र्क़ बस इतना था कि अमित ने जो रास्ता चुना, वो मनोज के साथ कभी नहीं कर पाई थी।

डा. जोन्स के शब्द उसके कानों में गूँज रहे थे, "स्पेस हनी, स्पेस। ऐंड लर्न टु लेट गो... दैट इज़ द मंत्रा"

टुकड़े टुकड़े ख्वाब ....(कविता)............संगीता स्वरुप

गर्भ -गृह से 

आँखों की खिड़की खोल 

पलकों की ओट से 

मेरे ख़्वाबों ने 

धीरे से बाहर झाँका 

कोहरे की गहन चादर से 

सब कुछ ढका हुआ था .



धीरे धीरे 

हकीक़त के ताप ने 

कम कर दी 

गहनता कोहरे की 

और 

ख़्वाबों ने डर के मारे 

बंद कर लीं अपनी आँखे .


क्यों कि -

उन्हें दिखाई दे गयीं थी 

एक नवजात कन्या शिशु 

जो कचरे के डिब्बे में 

निर्वस्त्र सर्दी से ठिठुर 

दम तोड़ चुकी थी .

*********************************

नव जीवन ********* {कविता} ********** सन्तोष कुमार "प्यासा"

ओर से छोर तक बादलों का विस्तार


ललित फलित मनभावन संसार


गूँज रहा दिग-दिगंत तक कोयल का मधुर स्वर


बह रही दसो दिशाओं में खुशियों की लहर


हो रहा आनंद का उदगम, ये अदभुत क्षण है अनुपम


आशाओं के गगन से सुधा रही बरस


तृप्त हुए सभी, चख कर ये सरस रस


टूट रहा जाति, पाति का झूठा भ्रम


उदित हुआ सूर्य लेकर नव जीवन

 
सौहार्द की बूंदों में, मिलकर भीगे हम

शनिवार, 15 मई 2010

और वह मर गया ......(कविता ) .....कुमार विश्वबंधु

उसने चाहा था घर
बना मकान
खप गयी जिंदगी

वह सुखी  होना चाहता था
इसलिए मारता रहा मच्छर
मक्खी, तिलचट्टे ...
फांसता रहा चूहे

स‌फर में 
जैसे डूबा रहे कोई स‌स्ते उपन्यास में कोई
कि यूं ही बेमतलब कट गयी उम्र
अनजान किसी  रेलवे स्टेशन पर
कोई कुल्हड़ में पिये फीकी चाय 
और भूल जाए
वह भूल गया जवानी के स‌पने
आदर्श, क्रांतिकारी योजनाएँ 
उस लड़की का चेहरा

विज्ञापन  के बाजार में
वह बिकता रहा
लगातार बेचता रहा ------
अपने हिस्से की धूप
अपने हिस्से की चाँदनी

और मर गया !

कविता-----कविताई का सत्य.......डा श्याम गुप्त

जिनकी कविता में नहीं,कोई कथ्य व तथ्य |
ऐसी कविता में कहाँ , श्याम ढूंढिए सत्य ||

तुकबंदी करते रहें , बिना भाव ,उद्देश्य |
देश धर्म औ सत्य का,नहीं कोई परिप्रेक्ष्य ॥

काव्य कला सौन्दर्य रस, रटते रहें ललाम।
जन मन के रस भाव का ,नहीं कोई आयाम॥

गूढ शब्द पर्याय बहु, अलन्कार भरमार ।
ज्यों गदही पर झूल हो, रत्न जटित गलहार ॥

कविता वह है जो रहे, सुन्दर सरल सुबोध ।
जन मानस को कर सके, हर्षित प्रखर प्रबोध ।

अलन्कार रस छंन्द सब, उत्तम गहने जान ।
काया सच सुन्दर नहीं, कौन करेगा मान ॥

नारि दर्शना भव्य मन, शुभ्र सुलभ परिधान ।
भाल एक बिन्दी सहज़, सब गहनों की खान ॥

स्वर्ण अलन्क्रित तन जडे, माणिकऔ पुखराज ।  
भाव कर्म से हीन हो, नारि न सुन्दर साज ।।

भाव प्रवल, भाषा सरल, विषय प्रखर श्रुति तथ्य ।
जन जन के मन बस सके , कविताई का सत्य ॥

शुक्रवार, 14 मई 2010

मैं लाकर गुल बिछाता हूं.............(गजल)............नीरज गोस्वामी

तुझे दिल याद करता है तो नग्‍़मे गुनगुनाता हूँ
जुदाई के पलों की मुश्किलों को यूं घटाता हूं

जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
हवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं

फसादों से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
हटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं

नहीं तहजीब ये सीखी कि कह दूं झूठ को भी सच
गलत जो बात लगती है गलत ही मैं बताता हूं

मुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिन
मगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्‍कुराता हूं

नहीं जब छांव मिलती है कहीं भी राह में मुझको
सफर में अहमियत मैं तब शजर की जान जाता हूं

घटायें, धूप, बारिश, फूल, तितली, चांदनी 'नीरज'
तुम्‍हारा अक्‍स इनमें ही मैं अक्‍सर देख पाता हूँ

एक कोशिश ......(कविता).............. संगीता स्वरुप


रात की स्याही जब
चारों ओर फैलती है
गुनाहों के कीड़े ख़ुद -ब -ख़ुद
बाहर निकल आते हैं

चीर कर सन्नाटा 
रात के अंधेरे का
एक के बाद एक ये
गुनाह करते चले जाते हैं।

इनको न ज़िन्दगी से प्यार है
और न गुनाहों से है दुश्मनी 
ज़िन्दगी का क्या मकसद है 
ये भी नही पहचानते हैं।

रास्ता एक पकड़ लिया है 
जैसे बस अपराध का 
उस पर बिना सोचे ही 
बढ़ते चले जाते हैं।

कभी कोई उन्हें 
सही राह तो दिखाए 
ये तो अपनी ज़िन्दगी 
बरबाद किए जाते हैं।

चाँद की चाँदनी में 
ज्यों दीखता है बिल्कुल साफ़ 
चलो उनकी ज़िन्दगी में 
कुछ चाँदनी बिखेर आते हैं।

कोशिश हो सकती है 
शायद हमारी कामयाब 
स्याह रातों से उन्हें हम
उजेरे में ले आते हैं ।

एक बार रोशनी गर 
उनकी ज़िन्दगी में छा गई 
तो गुनाहों की किताब को 
बस दफ़न कर आते हैं 

******************

गुरुवार, 13 मई 2010

अच्छा लगा.........(ग़ज़ल )....श्यामल सुमन जी


हाल पूछा आपने तो पूछना अच्छा लगा
बह रही उल्टी हवा से जूझना अच्छा लगा

दुख ही दुख जीवन का सच है लोग कहते हैं यही
दुख में भी सुख की झलक को ढ़ूँढ़ना अच्छा लगा

हैं अधिक तन चूर थककर खुशबू से तर कुछ बदन
इत्र से बेहतर पसीना सूँघना अच्छा लगा

रिश्ते टूटेंगे बनेंगे जिन्दगी की राह में
साथ अपनों का मिला तो घूमना अच्छा लगा

कब हमारे चाँदनी के बीच बदली आ गयी
कुछ पलों तक चाँद का भी रूठना अच्छा लगा

घर की रौनक जो थी अबतक घर बसाने को चली
जाते जाते उसके सर को चूमना अच्छा लगा

दे गया संकेत पतझड़ आगमन ऋतुराज का
तब भ्रमर के संग सुमन को झूमना अच्छा लगा



लेखक परिचय :-

नाम : श्यामल किशोर झा

लेखकीय नाम : श्यामल सुमन

जन्म तिथि: 10.01.1960

जन्म स्थान : चैनपुर, जिला सहरसा, बिहार

शिक्षा : स्नातक, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र एवं अँग्रेज़ी

तकनीकी शिक्षा : विद्युत अभियंत्रण में डिप्लोमा

सम्प्रति : प्रशासनिक पदाधिकारी टाटा स्टील, जमशेदपुर

साहित्यिक कार्यक्षेत्र : छात्र जीवन से ही लिखने की ललक, स्थानीय समाचार पत्रों सहित देश के कई पत्रिकाओं में अनेक समसामयिक आलेख समेत कविताएँ, गीत, ग़ज़ल, हास्य-व्यंग्य आदि प्रकाशित
स्थानीय टी.वी. चैनल एवं रेडियो स्टेशन में गीत, ग़ज़ल का प्रसारण, कई कवि-सम्मेलनों में शिरकत और मंच संचालन।

अंतरजाल पत्रिका "अनुभूति, हिन्दी नेस्ट, साहित्य कुञ्ज, आदि में अनेक रचनाएँ प्रकाशित।
गीत ग़ज़ल संकलन प्रेस में प्रकाशनार्थ

रुचि के विषय : नैतिक मानवीय मूल्य एवं सम्वेदना

नारी........(कविता)............अक्षय-मन



1
बन आहुति श्रंगार करूं अपने हाथों अपनी अर्थी
हालातों की चिता है और अग्नि बन जाये मज़बूरी
आखरी समय है मेरा या है आखरी ये जुल्म तेरा
दोनों में से कुछ तो हो जीवित हूं पर हूं मरी-मरी



मान रखूं मैं उनका भी जिनसे हुई अपमानित मैं
जीत कर भी हारूं पल-पल तुमसे हुई पराजित मैं
किसकी थी किसकी हुई रिश्तों में आज बांटी गई
कौन है मेरा मैं किसकी टुकडो में हुई विभाजित मैं !!



मेरी व्यथा भी सुनलो आज खामोश खड़ी हूं कब से मैं
मन में सोचूं दिल में छुपा लूं खामोश खड़ी हूं कब से मैं
एक तरफ़ पत्थर की मूरत और एक तरफ़ है पत्थर दिल
कलयुग की अहिल्या बनी खामोश खड़ी हूं कब से मैं !!



अब नही झुकना है मुझे चाहें करो कितने भी सितम
अब मर-मर के ना जीना मुझको हुआ है मेरा पुनर्जन्म
अब नही मानुंगी मैं हार,नही हूं अब मैं तेरी अभाग्यता
अब कहोगे तुम ख़ुद मुझको अपराजिता अपराजिता !!

५.
संघर्ष से जो हो ना तंद्रा
जीत लहू की जो पीले मदिरा
विजय होने की हो जिसमे तम्यता
वो कहलायेगी अपराजिता,अपराजिता अक्षय-मन

"प्रेम", "प्रकृति" और "आत्मा"---- {एक चिंतन} ---- सन्तोष कुमार "प्यासा"

सृष्टि अपने नियम पूर्वक अविरल रूप से चल रही है ! सृष्टि अपने नियम पर अटल है, किन्तु वर्तमान समय में मनुष्य के द्वारा कई अव्यवस्थाए फैलाई जा रही है ! मनुष्य सृष्टि के नियमो के मार्ग में बाधा उत्पन्न कर रहा है ! मनुष्य अपनी अग्यांताओ के कारण उन चीज़ों को प्रधानता दे रहा है जिसको "प्रेम, प्रक्रति, और आत्मा" ने कभी बनाया ही नहीं था ! जाती धर्म, मजहब, देश, राज्य, क्षेत्र और भाषा के नाम पर मनुष्य एक दूसरो को मारने पर तुला है !वर्तमान समय में मनुष्य की बुद्धि इतनी ज्यादा भ्रमित हो गई है की वह दो प्रेमियों के प्रेम से ज्यादा अपने द्वारा बनाए गए झूठे आदर्शो और जाती धर्म को महत्व दे रहा है ! अपनी झूठी शान के लिए एक मनुष्य दुसरे मनुष्य का रक्त जल की भांति बहा रहा है ! मनुष्य के इन्ही क्रियाकलापों से चिंतित होकर एक दिन एक गुप्त स्थान पर एकत्रत्रित हुए "प्रेम, प्रक्रति और आत्मा" !

प्रकृति ने आत्मा से कहा - आपके द्वारा रचित सृष्टि में ये क्या हो रहा है ! जाती धर्म और मजहब के नाम एक दुसरे की हत्या करना मनुष्य के लिए अदनी सी बात रह गई है ! आपने तो अपने द्वारा रचित सृष्टि में जाती धर्म आदि को स्थान ही नहीं दिया था ! आपके द्वारा तो केवल -

    आत्मन आकाश: सम्भूत: आकाशाद्वायु


    वायोरग्नि: आग्नेराप: अद्भ्यां प्रथ्वी

अर्थात- आप से (आत्मा से) आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से प्रथ्वी की उत्त्पत्ति हुई ! तत्पश्चात प्रेम के संयोग से जीवन की उत्पत्ति हुई ! मेरे और मनुष्य की उत्पत्ति का कारण आप (आत्मा) और प्रेम है !फिर भी न जाने मनुष्य प्रेम को प्रधानता नहीं दे रहा ! बल्कि जाती धर्म और मजहब के नाम पर दो प्रेमियों का जीवन ही छीन लिया जाता है ! वैसे भी यदि निष्पक्ष होकर देखा जाए तो ज्ञात होता है की जाती धर्म का अपना कोई अस्तित्व ही नहीं है ! मनुष्य जिन्हें अपना भगवान मानते है या आदर्श मानते है, उन्होंने अपने काल में कभी भी जाती धर्म की तुच्छता को नहीं देखा ! राम ने सबरी के झूठे बेर खाए ! कृष्ण ने सुदामा के पैर धोए ! 

कृष्ण ने सुदामा के पैर धोए ! भीम ने राक्षसी से विवाह किया ! महादेव शंकर तो विशेषकर राक्षसों से प्रेम करते थे ! फिर आखिर मनुष्य किस धर्म की बात करता है या किस भगवान अथवा महापुरुष का अनुसरण करता है ! 

इस पर आत्मा ने कहा, जब मै मनुष्य के शरीर में रहती हु तब मुझ पर मन की वृत्तियाँ हावी हो जाती है ! जो मनुष्य से अनैतिक कार्य करवाती है ! जो मनुष्य अपने ज्ञान बल से वास्तविकता को जानकर, मन की वृत्तियों को तोड़कर अपनी वास्तविकता को पहचान लेता है , वह सभी जीवों से प्रेम करने लगता है ! किन्तु वर्तमान समय का मनुष्य अपनी बुराइयों में इतना ज्यादा लिप्त है की वह स्वयम इनसे मुक्त होना नहीं चाहता ! बल्कि उल्टा समाज में कुरीतिओं को जन्म देता है ! फिर रोता और हँसता है ! वर्तमान समय का मनुष्य सिर्फ भक्ति का दिखावा कर रहा है ! यदि वह सच्चा भक्त होता, तो राम की तरह सबरी के झूठे बेर खता ! अर्थात जाती धर्म और मजहब न देखता ! या फिर उसने कभी कृष्ण या किन्तु अथवा पांड्वो को अपना आदर्श माना होता तो कृष्ण की तरह सुदामा के पैर धोता ! अर्थात अपने मित्र के सुख दुःख में उसका साथ देता ! यदि किसी माँ ने कुंती को अपना आदर्श माना होता तो कुंती की तरह अपनी संतान को राक्षसी से विवाह करने का आदेश देती ! अर्थात जाती पाती को कोई मायने नहीं देती ! यदि किसी पिता ने दशरथ को अपना आदर्श माना होता तो अपने पुत्र की शादी उसी लड़की से कराता जिससे की वह प्रेम करता है ! वर्तमान पिता ने तो हिरन्यकश्यप को  अपना आदर्श माना है, जो अपनी झूठी शान के लिए अपनी संतान की भी हत्या करने से नहीं चूकता !
इस पर प्रकृति बोली - तो अब क्या होगा ? क्या अब सृष्टि व्यवस्थित नहीं होगी ? 


आत्मा ने कहा- जब मनुष्य अपने कर्तब्यों को भूलकर कुकृत्यों में लिप्त हो जाता है ! तब ऐसी दशा में प्रकृति का कर्तब्य बनता है की वह मनुष्य को उचित राह पर लाए ! अर्थात ऐसी स्थिति में प्रक्रति को अपना रौद्र रूप दिखाना चाहिए तथा मनुष्य एवं उसके द्वारा फैलाए गए कुकृत्यों का समूल नाश कर दे !


यह सुनकर प्रेम चुप न रहा, वह बोला मनुष्य हमारी उत्तपत्ति है ! इस प्रकार मनुष्य हमारी संतान है ! हम अपनी संतानों को कैसे समाप्त कर सकते है !
आत्मा ने कहा, तुम्हारा कहना भी उचित है ! हमने मिलकर सृष्टि और मनुष्य का निर्माण किया है ! इसका समूल नाश करना उचित नहीं है ! इसके लिए सिर्फ एक ही मार्ग है ! जब तक इस सृष्टि में तुम (प्रेम) हो तब तक इस सृष्टि का नाश नहीं होगा ! किन्तु जिस दिन इस सृष्टि से तुम्हारा अस्तित्व मिट जाएगा, या मनुष्य तुम्हे भूल जाएगा ! उसी क्षण इस सृष्टि का समूल नाश हो जाएगा !

बुधवार, 12 मई 2010

कुछ क्षणिकाएं..........मनोशी जी


दो अश्रु

एक अश्रु मेरा
एक तुम्हारा
ठहर कर कोरों पर
कर रहे प्रतीक्षा
बहने की
एक साथ

रात

पिघलती जाती है
क़तरा क़तरा
सोना बन कर निखरने को,
कसमसाती है
ज़र्रा ज़र्रा
फूल बन कर खिलने को,
हर रोज़
रात

दो बातें

दो बातें,
एक चुप
एक मौन
कर रहे इंतज़ार
एक कहानी बनने की

अजनबी

चलो फिर बन जायें अजनबी
एक नये अनजाने रिश्ते में
बँध जायें फिर,
नया जन्म लेने को

सप्तऋषि

जुड़ते हैं रोज़
कई कई सितारे
बनाने एक सप्तऋषि
हर रात
हमारे बिछड़ने के बाद

नज़्म ....कवि दीपक शर्मा


बात घर की मिटाने की करते हैं
तो हजारों ख़यालात जेहन में आते हैं

बेहिसाब तरकीबें रह - रहकर आती हैं
अनगिनत तरीके बार - बार सिर उठाते हैं ।


घर जिस चिराग से जलना हो तो
लौ उसकी हवाओं मैं भी लपलपाती है

ना तो तेल ही दीपक का कम होता है
ना ही तेज़ी से छोटी होती बाती है ।


अगर बात जब एक घर बसाने की हो तो
बमुश्किल एक - आध ख्याल उभर के आता है

तमाम रात सोचकर बहुत मशक्कत के बाद
एक कच्चा सा तरीका कोई निकल के आता है ।


वो चिराग जिससे रोशन घरोंदा होना है
शुष्क हवाओं में भी लगे की लौ अब बुझा

बाती भी तेज़ बले , तेल भी खूब पिए दीया
रौशनी भी मद्धम -मद्धम और कम रौनक शुआ ।


आज फ़िर से वही सवाल सदियों पुराना है
हालत क्यों बदल जाते है मकसद बदलते ही

फितरतें क्यों बदल जाती है चिरागों की अक्सर
घर की देहरी पर और घर के भीतर जलते ही ।

बुढिया -------- {लघुकथा} ----------- सन्तोष कुमार "प्यासा"

कल शाम को पढने के बाद सोंचा कुछ सब्जी ले आई जाए ! यही उद्देश्य लेकर सब्जी मंडी पहुँच गए ! मंडी में बहुत भीड़ थी ! दुकानदार चिल्ला-चिल्ला कर भाव बता रहे थे ! सब अपनी अपनी सुध में थे ! तभी मेरी नजर एक ऐसे स्थान पर पड़ी जहां पर सड़ी सब्जिओं का ढेर पड़ा था ! जिसके पास करीब ५५-६० वर्ष की एक वृद्धा बैठी थी ! उसके उसके पूरे बाल चाँदी के रंग के थे ! चेहरे पर अजीब सी शिकन और चिंता की लकीरे साफ़ झलक रही थी ! तन पर हरे रंग की जीर्ण मलिन साड़ी और एक कपडे का थैला उसके पास था ! सब्जी के ढेर से वह लोगों की नजरें बचाकर पालक के पत्तों को अपने थैले में रख रही थी ! पहले वह सरसरी निगाह से लोगों को देखती फिर पालक के सही पत्तों का चुनाव कर अपने थैले में रख लेती ! इस दृश्य को देख कर मैंने उन तमाम लोगों और अपने आप को धिक्कारा ! मेरे मन ने मुझसे कहा "तू इस दीन, दुखिया, असहाय वृद्धा की मज़बूरी को तमाशे की तरह देख रहा है ! मै अपने मन की बातों को सुन ही रहा था, तभी दो व्यक्ति आए उनमे से एक ने बिना कुछ बोले पूंछे उस वृद्धा का थैला उठा कर दूर फेंक दिया ! दुसरे व्यक्ति ने चिल्ला कर कहा " क्यू री बुढिया एक बार की बात तेरे दिमाग में नहीं घुसती क्या ? कल ही तुझसे कहा था न इस ढेर से दूर रहना, ये सब्जी जानवरों के चाराबाज़ार में बेचने के लिए है तेरे लिए नहीं !" बेचारी वृद्धा मजबूरीवस् निरुत्तर थी ! उसकी आँखों से मजबूरी की धारा बह निकली ! वह उठी और अपना थैला लेकर चली गई !

मंगलवार, 11 मई 2010

कोई हो ऐसा.....(कविता)......वंदना

कभी कभी हम चाहते हैं कि
कोई हो ऐसा जो
हमारे रूह की
अंतरतम गहराइयों में छिपी
हमारे मन की हर
गहराई को जाने
कभी कभी हम चाहते हैं कि
कोई हो ऐसा जो
सिर्फ़ हमें चाहे
हमारे अन्दर छिपे
उस अंतर्मन को चाहे
जहाँ किसी की पैठ न हो
कभी कभी हम चाहते हैं कि
कोई हो ऐसा जो
हमें जाने हमें पहचाने
हमारे हर दर्द को
हम तक पहुँचने से पहले
उसके हर अहसास से
गुजर जाए
कभी कभी हम चाहते हैं कि
कोई हो ऐसा जो
बिना कहे हमारी हर बात जाने
हर बात समझे
जहाँ शब्द भी खामोश हो जायें
सिर्फ़ वो सुने और समझे
इस मन के गहरे सागर में
उठती हर हिलोर को
हर तूफ़ान को
और बिना बोले
बिना कुछ कहे वो
हमें हम से चुरा ले
हमें हम से ज्यादा जान ले
हमें हम से ज्यादा चाहे
कभी कभी हम चाहते हैं
कोई हो ऐसा.......कोई हो ऐसा
-------------------------------

यह ह्रदय नहीं, एक निरा- मांस का पिंड है...(कविता)....आशुतोष ओझा जी


यह ह्रदय नहीं, एक
निरा- मांस का पिंड है
बड़ी निष्ठुर होकर
उसने मुझसे कहा होगा ,

गए बीत बरस
दो- चार मगर
तुम नहीं आये
तकती रही डगर
आखिर, कहाँ गए थे
किस शहर
भूली नहीं छोड़ दी , बिसरा दी
कब तक मरती
बिरह में तड़प-तड़प कर .
यह ह्रदय नहीं , एक
निरा-मांस का पिंड है


जेठ रहा या कातिक
क्या सावन, क्या भादों
साँस थे , एहसास थे , लेकिन
साथ नहीं थे , मरी नहीं
मार दी गयी , दिवस था
साप्ताहिक या कलमुंध पाक्छिक.

यह ह्रदय नहीं , एक
निरा-मांस का पिंड है........

मन सावन -------------- {कविता} ---------------------- सन्तोष कुमार "प्यासा"

मन सावन



मन सावन मन उमड़ते, अभिलाषाओ के बादल


गिरती जीवन धरा पर, विचारो की बूंदें हर पल


आशाओं की दामिनी कौंधती मन में


सुख दुःख की बदली, करती कोलाहल


परिश्तिथियों की बौछारों से गीले होते जीवन प्रष्ठ


मन के मोर, पपीहे, दादुर , मन सावन में भीगने को बेकल


विचारों की बूंदों से ह्रदय के गढढे उफनाए


आशा-निराशा की सरिता बह चली, तीव्र गति से अविरल


मन सावन मन उमड़ते, अभिलाषाओ के बादल


गिरती जीवन धरा पर, विचारो की बूंदें हर पल

सोमवार, 10 मई 2010

' इजी मनी-इजी सेक्स' वन नाइट स्टैड़ ' --------------मिथिलेश दुबे

नैतिकता की ढहती दीवारें यौवन का विनाश करने में लगी हैं । मर्यादाओं एवं वर्जनाओं में आई दुष्प्रभाव एवं दरारों के बीच किशोर कुम्हला रहे हैं और युवा विनिष्ट हो रहे हैं जिस सुख और साधन की तलाश में युवा नैतिकता के तडबंध तोड़ रहे हैं, वह उन्हे मनोग्रंथियों एवं शारीरिक अक्षमता के अलावा और कुछ नहीं दे पा रहें हैं । यह सब हो रहा है स्वच्छंद सुख की तलाश में । आज का युवा जिस राह पर बढ़ रहा है , वहाँ स्वच्छंदता का उन्माद तो है , लेकिन सुख का सुकून जरा भी नहीं है , बस अपनी भ्रान्ति एवं भ्रम में जिन्दगी को तहस -नहस करने पर तुला है । युवाओं में यह प्रवृत्ति संक्रामक महामारी की तरह पूरे देश में फैलति जा रही है । बड़े शहरो की तरह अब छोटे शहर एवं कसबे भी इसकी चपेट में आने लगे है ।

अभी पिछले साल की बात है , एक स्कूल के बच्चो नें कांटी पार्टी आयोजित की । उनके द्वारा गढ़ा गया यह कांटी शब्द कांटीनुएशन का लघु रुप है । यह एक बड़े शहर का ऐसा स्कूल है , जिसमें अपने बच्चों के दाखिलें के लिए माँ बाप कुछ भी देंने और कुछ भी करने को तैयार रहते हैं । यह पार्टी ११ वीं कक्षा के छात्र-छात्राओं नें १२ वीं कक्षा के छात्र-छात्राओं की विदाई में आयोजित की थी । इन कांटी पार्टियों का चलन अब बड़े शहरो के साथ छोटे शहरों में भी आम हो गया है , इसमें खास बात यह थी कि यह पार्टी एक पब में आयिजित की गई थी । खोजी पत्रकारों का दल जब वहां पहुँचा तो उन्होनें देखा कि अंग्रेजी गानो पर कम से कम २०० नवयुवा कुछ इस कदर झूम रहें थे कि सिगरेट का घना धुआँ भी उनके चेहरे पर गहरी होती जा रही वासना की आकुलता को नहीं छिपा पा रहा था । इस डिस्को पब में ये नवयुवा भड़कीले और उत्तेजित परिधान, लहराते बाल एवं चमकदार मेकअप में आये थे । संगीत के तेज होने के साथ इन जोड़े की हरकते तेज होने के साथ-साथ नैतिक वर्जनाएँ कब और कहाँ खो गयीं पता ही नहीं चला । पत्रकारों के दल ने खबर जुटाने के लिए जब इसकी जाँच पड़ताल की तो पता चला कि स्कूल के अधिकारीयों के साथ-साथ छात्र-छात्राओं के अभिभावक दोंनो ही इस बात से अनजान थे । इन छात्र-छात्राओं ने अपने साथियों से ५००० हजार रुपये जुटायें थे और पब आरक्षित किया , उसके बाद नैतिकता संस्कृति और यौवन दाव पर लग गया ।

हमेशा की तरह सवाल यह है कि ऐसा क्यों हो रहा है ? जब इन छात्र-छात्राओं से ये पुछा गया तो इनका जवाब चौंकाने वाला था , इनका कहना था कि हमारे अभिभावक हमें पढ़ाई में अच्छा स्कोर करते हुए देखना चाहते हैं, और हम कर भी रहें है , हम पढ़ाई में अच्छे अंक लाते हैं । किसी भी प्रतियोगिता में चायनित हो जांने की क्षमता है हममें । अब यदि हम इसके बाद थोड़ा मनोरंजन कर लेते है तो क्या बुरा है , जो हम करते है , आखिर इसमें बुरा ही क्या है ? युवाओं के इस कथन में झलकती है उनकी भ्रामक मान्यताएँ और अभिभावकों व शिक्षकों की भ्रातिंपूर्ण अपेक्षाएँ । दरअसल समस्या आस्थाओं , मान्यताओं एवं मूल्यों की विकृति की है । जीवन में आगे निकलने के चक्कर में गलत मानद़डो की स्थापना की जा रही है । चितंन विकृति हो तो चरित्र की विकृति व व्यवहार का पतन नहीं रोका जा सकता । स्कूली छात्र-छात्राओं की भाँति नौकरी-पेशा युवा भी इस विकृति के शिकार हो रहे हैं । इनमें लिव-इन रिलेशन अर्थात बिन फेरे के साथ-साथ रहने का घातक रोग पनप रहा है । इसके लिए इन्हे स्वीकृति भी मिल रही है और अब उन्हे मकान मालिक से ममेरे या चचेरे भाई बहन होने का दिखावा भी नहीं करना पड़ता । युवाओं के बीच कालसेंटरो की लोकप्रियता 'इजी मनी-इजी सेक्स' एवं वन नाइट स्टैंड' जैसे सूत्रो का चलन जोर पकड़ता जा रहा है , जो की चिन्तनीय है ।

इस समस्या का सच जीवन की श्रेष्ठता के गलत मानद़डो में निहित है । अच्छा विद्दार्थी कौन ? वही जो अच्छे नंबर लाए । अब तो आलम यह है कि ये विद्दार्थी अपने अभिभावक से यह कहने में भी नहीं चूकते कि मेरे मार्क्स तो ८० प्रतिशत है , अब थोडी सी शराब पी ली या सिगरेट ही पी ली तो कौन सा गलत काम कर दिया ? इसी तरह समाज एंव माँ बाप की नजरों में वही श्रेष्ट युवा है जो ज्यादा पैसे कमाता हो , ऐशो आराम के साधन जुटानें के लिए वह क्या कर रहा है, इससे किसी को क्या ? श्रेष्ठता की इस होड़ में नैतिकता , चरित्र , व्यवहार के कोई मायने नहीं हैं ।
इन ढहती नैतिकता को बचाना होगा । महाविद्दालायों-विश्वबिद्दालयों में पढने और कामकाजी युवक-युवतियों को नैतिकता का सच समझना ही चाहिए , समझना चाहिए कि हम कही कुछ ऐसा तो नहीं कर रहें जिससे हमारी मर्यादा, हमारी संस्कृति नष्ट हो रही है । नैतिकता है जिंदगी की उर्जा का सरंक्षण एवं उसके सदुउपयोग की निति । यह प्रकृति और समाज के साथ ऐसी सामंजस्य की अनुठी शैली है, जिसमें व्यक्ति प्रकृति से अधिकाधिक शक्तियों के अनुदान प्राप्त करता है । इससे सुख छिनते नहीं बल्कि सुखो को अनुभव करने की क्षमता बढ़ती है । आज के समय में विद्दार्थी एवं उनके अभिभावक दोंनो को यह समझना जरुरी है कि जिदंगी परीक्षा के नंबरो कि गणित तक ही सिमटी नहीं है , बल्कि इसका दायरा व्यक्तित्व की संपूर्ण विशालता एवं व्यापकता में फैला है । परीक्षा में नंबर लाने के बाद कुछ भी करने की छूट पाने के लिए हम जताना अर्थहीन है । इसी तरह कामकानजी युवाओं के लिए धन कमानें की योग्यता ही सबकुछ नहीं है । उन्हे अपनी जिदंगी को नए सिरे से समझने की कोशिश करनी चाहिए । अच्छा हो कि अनुभवी जन इसमें उनके सहायक बनें । इस विकृति के जो भी कारण हों, उन्हे दूर किया जाना चाहिए ।

रविवार, 9 मई 2010

माँ .......(कविता)..............मोनिका गुप्ता


माँ को है

विरह वेदना और आभास कसक का

ठिठुर रही थी वो पर

कबंल ना किसी ने उडाया

चिंतित थी वो पर

मर्म किसी ने ना जाना

बीमार थी वो पर

बालो को ना किसी ने सहलाया

सूई लगी उसे पर

नम ना हुए किसी के नयना

चप्पल टूटी उसकी पर

मिला ना बाँहो का सहारा

कहना था बहुत कुछ उसे

पर ना था कोई सुनने वाला

भूखी थी वो पर

खिलाया ना किसी ने निवाला

समय ही तो है उसके पास पर

उसके लिए समय नही किसी के पास

क्योंकि

वो तो माँ है माँ

और

माँ तो मूरत है

प्यार की, दुलार की, ममता की ठंडी छावँ की,

लेकिन

कही ना कही उसमे भी है

विरह, वेदना, तडप और आभास कसक का

शायद माँ को आज भी है इंतजार अपनो की झलक का

माँ..........(कविता)........श्यामल सुमन











मेरे गीतों में तू मेरे ख्वाबों में तू,
इक हकीकत भी हो और किताबों में तू।
तू ही तू है मेरी जिन्दगी।
क्या करूँ माँ तेरी बन्दगी।।

तू न होती तो फिर मेरी दुनिया कहाँ?
तेरे होने से मैंने ये देखा जहाँ।
कष्ट लाखों सहे तुमने मेरे लिए,
और सिखाया कला जी सकूँ मैं यहाँ।
प्यार की झिरकियाँ और कभी दिल्लगी।
क्या करूँ माँ तेरी बन्दगी।।

तेरी ममता मिली मैं जिया छाँव में।
वही ममता बिलखती अभी गाँव में।
काटकर के कलेजा वो माँ का गिरा,
आह निकली उधर, क्या लगी पाँव में?
तेरी गहराइयों में मिली सादगी।
क्या करूँ माँ तेरी बन्दगी।।

गोद तेरी मिले है ये चाहत मेरी।
दूर तुमसे हूँ शायद ये किस्मत मेरी।
है सुमन का नमन माँ हृदय से तुझे,
सदा सुमिरूँ तुझे हो ये आदत मेरी।
बढ़े अच्छाईयाँ दूर हो गन्दगी।
क्या करूँ माँ तेरी बन्दगी।।

कल की तलाश में भटकता आज------ (कविता)------- प्रीती "पागल"

देखा करती हूँ   मै ज़िन्दगी की खूबसूरती


रिस्तो की अहमियत, दोस्तों की ज़रूरत


मुहब्बत की नजाकत और पेड़ो की डालो से झडते हुए पत्ते


मुस्कुराते हुए बच्चे और घूमते युवा


उड़ते हुए पंक्षी, और फिर देखा करती हूँ


चौराहे पर खड़े वृद्ध की आँखें,


देखा करती हूँ मै किताबो की तह्जीने,


घरों में संस्कार, परिवारों में मर्यादा, लब्जों में प्यार


और फिर "कल की तलाश में भटकता हुआ आज "

शनिवार, 8 मई 2010

मेरी माँ......( मातृत्व दिवस पर समर्पित कविता ).....कवि दीपक शर्मा


“उसकी आवाज़ बता देती हैं मैं कहाँ हूँ ग़लत

मेरी माँ के समझाने की कुछ अदा निराली है .”


आओ ! सब मिलकर अपनी जननी के चरण स्पर्श करें और प्रभू से विनती करें कि हे !परम पिता हमे हर जन्म मे इसी माँ की कोख़ से पैदा करना ..हमारा जीवन इसी गोद मे सार्थक हैं. हमारा बचपन इसी ममता का प्यासा हैं और जन्मो -जन्मान्तर तक हम इसी ममत्व का नेह्पान करते रहें ..माँ आप हमारा प्रणाम स्वीकार करो और हमे आशीर्वाद दो .


आज फिर नेह से हाथ सिर पर फेर माँ
हूँ बहुत टूटा हुआ , बिखरा हुआ , घायल निराश 
मरू - भूमि में भटके पथिक- सा , लिप्त दुःख में हताश
है प्रेम को प्यासा ह्रदय , व्याकुल स्वाभाव ठिठोल को
अपनत्व को आकुल है मन, जीवन दो म्रदु बोल को .
बोल जिनको सुनकर मेरा , नयन नीर भी मुस्कुराये 
आज फिर उस नेह से नाम मेरा टेर माँ .

छोड़ आया मैं बहुत दूर , अपना चंचल , मधुर बचपन
जग की बाधाओं में उलझा, है मेरा अभिशाप यौवन 
गोद में तेरी रखे सिर , काल कितना बीत गया
कितने युग से किया नहीं, तेरे इस आँचल में क्रंदन
पीर जब तक बह न जाये, आंसुओं में मन की सारी
तब तक आँचल में छुपा रख, हो जाये कितनी देर माँ . 

पीर जो शैशव में देता था मुझे दंड तेरा
सोच अब बातें वही मुस्कुराते हैं अधर
बाद में दुःख से तेरे भी नम नयन हो जाते थे
याद कर बातें वही , अब भर आती मेरी नज़र
उम्र भर हँसता रहे , हर रक्त बिंदु मेरे तन का
इतनी ममता से सरोवर, मुझको कर अबकी बेर माँ

चिथड़ा चिथड़ा ....(कविता)....माणिक


मेरी चिथड़ा चिथड़ा ,

बेस्वाद और संकडी कहानी में अपने,

लिखा है बहुत कुछ,

तपती धरती,झरता छप्पर,

घर,पडोस,या फ़िर खेत-खलिहान,

कुन्डी में नहाते ढोर लिखे है कोने में कहीं,

बेमेल ही सही पर शामिल तो किया,

कम तौल कर कमा खाता ,

गांव का बनिया भी खुदा ने,

वार तेंवार की साग सब्जी,

बाकी रहा आसरा, नमक-मिरच का,

अनजान ही रहा क्यूं अब तक,

दिनों में नहाती मां की मजबुरी से,

चुज्जे,बछडे और मुर्गियां ,

साथ हमारे सोती थी,

बनिये के ब्याज वाले पहाडे ,

सुनने से पके कानों को,

स्कुल की घन्टी से ज्यादा सुरीली ,

अपनी मुर्गियों की बांग लगती थी,

लगता था बस्ते की किताब से सरल,

कबड्डी-सितौलियों का खेल,

राशन का आधा केसोरीन,

लालटेन खा जाती थी,

गुम जाने के डर से,

जूते नही पहने दिनों तक,

आधी भरधी बिजली का ,

पुरा बिल चुकाते पिताजी,

गोबर से सने हाथों वाली बहन का बालपन में ब्याह,

भुला नही हुं अभी भी,

गांव की गैर जरुरी आदतें,

सिमटी गई थी उनकी दुनियां 

चुल्हे-चोके से पडोस के गांव तक बस,

दारू,नोट,और बस फ़िर वोट,यही लोक्तन्त्र था उनका,

टुकडा टुकडा खेती किसानी,

टुकडों में बंटा है जीवन सारा,

उसी दुनियां का नंगजीराम हुं, 

मेरी कहानी खुल्लम खुल्ला,

आम आदमी के रंग वाली,

सादे कवर के किताब सी,

अनावरण के इन्तजार में 

बरसों से बनी पट्टिका सा,

शुक्रवार, 7 मई 2010

आईना से बहाना क्यूँ है.........(गजल)..........श्यामल सुमन

खुशी से दूर सभी फिर ये ठिकाना क्यूँ है?
अमन जो लूटते उसका ही जमाना क्यूँ है?

सभी को रास्ता जो सच का दिखाते रहते
रू-ब-रू हो ना आईना से बहाना क्यूँ है?

धुल गए मैल सभी दिल के अश्क बहते ही
हजारों लोगों को नित गंगा नहाना क्यूँ है?

इस कदर खोये हैं अपने में कौन सुनता है?
कहीं पे चीख तो कहीं पे तराना क्यूँ है?

बुराई कितनी सुमन में कभी न गौर किया
ऊँगलियाँ उठतीं हैं दूजे पे निशाना क्यूँ है?

टैगोर-------------------------सन्तोष कुमार "प्यासा"

आज गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर जी की १५० वा जन्म दिवश है !


टैगोर जी की रचनाए विश्व प्रसिध्ध है ! पुरे विश्व में सिर्फ टैगोर ही ऐसे थे जिनकी रचनाओ को दो देशों (भारत और बंगलादेश) में रास्त्रगन का सम्मान मिला !

टैगोर जी की याद में उनकी एक रचना प्रस्तुत कर रहा हूँ !



गुरुवार, 6 मई 2010

कविता में छंदानुशासन.......(आलेख)......Acharyaसंजीव 'सलिल'

शब्द ब्रम्ह में अक्षर, अनादि, अनंत, असीम और अद्भुत सामर्थ्य होती है. रचनाकार शब्द ब्रम्ह के प्रागट्य का माध्यम मात्र होता है. इसीलिए सनातन प्राच्य परंपरा में प्रतिलिपि के अधिकार (कोपी राइट) की अवधारणा ही नहीं है. श्रुति-स्मृति, वेदादि के रचयिता मन्त्र दृष्टा हैं, मन्त्र सृष्टा नहीं. दृष्टा उतना ही देख और देखे को बता सकेगा जितनी उसकी क्षमता होगी. 

रचना कर्म अपने आपमें जटिल मानसिक प्रक्रिया है. कभी कथ्य, कभी भाव रचनाकार को प्रेरित करते है.कि वह 'स्व' को 'सर्व' तक पहुँचाने के लिए अभिव्यक्त हो. रचना कभी दिल(भाव) से होती है कभी दिमाग(कथ्य) से. रचना की विधा का चयन कभी रचनाकार अपने मन से करता है कभी किसी की माँग पर. शिल्प का चुनाव भी परिस्थिति पर निर्भर होता है. किसी चलचित्र के लिए परिस्थिति के अनुरूप संवाद या पद्य रचना ही होगी लघु कथा, हाइकु या अन्य विधा सामान्यतः उपयुक्त नहीं होगी. 

गजल का अपना छांदस अनुशासन है. पदांत-तुकांत, समान पदभार और लयखंड की द्विपदियाँ तथा कुल १२ लयखंड गजल की विशेषता है. इसी तरह रूबाई के २४ औजान हैं कोई चाहे और गजल या रूबाई की नयी बहर या औजान रचे भी तो उसे मान्यता नहीं मिलेगी. गजल के पदों का भार (वज्न) उर्दू में तख्ती के नियमों के अनुसार किया जाता है जो कहीं-कहीं हिन्दी की मात्र गणना से साम्य रखता है कहीं-कहीं भिन्नता. गजल को हिन्दी का कवि हिन्दी की काव्य परंपरा और पिंगल-व्याकरण के अनुरूप लिखता है तो उसे उर्दू के दाना खारिज कर देते हैं. गजल को ग़ालिब ने 'तंग गली' और आफताब हुसैन अली ने 'कोल्हू का बैल' इसी लिए कहा कि वे इस विधा को बचकाना लेखन समझते थे जिसे सरल होने के कारण सब समझ लेते हैं. विडम्बना यह कि ग़ालिब ने अपनी जिन रचनाओं को सर्वोत्तम मानकर फारसी में लिखा वे आज बहुत कम तथा जिन्हें कमजोर मानकर उर्दू में लिखा वे आज बहुत अधिक चर्चित हैं. 

गजल का उद्भव अरबी में 'तशीबे' (संक्षिप्त प्रेम गीत) या 'कसीदे' (रूप/रूपसी की प्रशंसा) से तथा उर्दू में 'गजाला चश्म (मृगनयनी, महबूबा, माशूका) से वार्तालाप से हुआ कहा जाता है. अतः, नाज़ुक खयाली गजल का लक्षण हो यह स्वाभाविक है. हिन्दी-उर्दू के उस्ताद अमीर खुसरो ने गजल को आम आदमी और आम ज़िंदगी से बावस्ता किया. इस चर्चा का उद्देश्य मात्र यह कि हिन्दी में ग़ज़ल को उर्दू से भिन्न भाव भूमि तथा व्याकरण-पिंगल के नियम मिले, यह अपवाद स्वरूप हो सकता है कि कोई ग़ज़ल हिन्दी और उर्दू दोनों के मानदंडों पर खरी हो किन्तु सामान्यतः ऐसा संभव नहीं. हिन्दी गजल और उर्दू गजल में अधिकांश शब्द-भण्डार सामान्य होने के बावजूद पदभार-गणना के नियम भिन्न हैं, समान पदांत-तुकांत के नियम दोनों में मान्य है. उर्दू ग़ज़ल १२ बहरों के आधार पर कही जाती है जबकि हिन्दी गजल हिन्दी के छंदों के आधार पर रची जाती है. दोहा गजल में दोहा तथा ग़ज़ल और हाइकु ग़ज़ल में हाइकु और ग़ज़ल दोनों के नियमों का पालन होना अनिवार्य है किन्तु उर्दू ग़ज़ल में नहीं. 

हिन्दी के रचनाकारों को समान पदांत-तुकांत की हर रचना को गजल कहने से बचना चाहिए. गजल उसे ही कहें जो गजल के अनुरूप हो. हिन्दी में सम पदांत-तुकांत की रचनाओं को मुक्तक कहा जाता है क्योकि हर द्विपदी अन्य से स्वतंत्र (मुक्त) होती है. डॉ. मीरज़ापुरी ने इन्हें प्रच्छन्न हिन्दी गजल कहा है. विडम्बनाओं को उद्घाटित कर परिवर्तन और विद्रोह की भाव भूमि पर रची गयी गजलों को 'तेवरी' नाम दिया गया है. 

एक प्रश्न यह कि जिस तरह हिन्दी गजलों से काफिया, रदीफ़ तथा बहर की कसौटी पर खरा उतरने की उम्मीद की जाती है वैसे ही अन्य भाषाओँ (अंग्रेजी, बंगला, रूसी, जर्मन या अन्य) की गजलों से की जाती है या अन्य भाषाओँ की गजलें इन कसौटियों पर खरा उतरती हैं? अंग्रेजी की ग़ज़लों में पद के अंत में उच्चारण नहीं हिज्जे (स्पेलिंग) मात्र मिलते हैं लेकिन उन पर कोई आपत्ति नहीं होती. डॉ. अनिल जैन के अंग्रेजी ग़ज़ल सन्ग्रह 'ऑफ़ एंड ओन' की रचनाओं में पदांत तो समान है पर लयखंड समान नहीं हैं. 

हिन्दी में दोहा ग़ज़लों में हर मिसरे का कुल पदभार तो समान (१३+११) x२ = ४८ मात्रा होता है पर दोहे २३ प्रकारों में से किसी भी प्रकार के हो सकते हैं. इससे लयखण्ड में भिन्नता आ जाती है. शुद्ध दोहा का प्रयोग करने पर हिन्दी दोहा ग़ज़ल में हर मिसरा समान पदांत का होता है जबकि उर्दू गजल के अनुसार चलने पर दोहा के दोनों पद सम तुकान्ती नहीं रह जाते. किसे शुद्ध माना जाये, किसे ख़ारिज किया जाये? मुझे लगता है खारिज करने का काम समय को करने दिया जाये. हम सुधार के सुझाव देने तक सीमित रहें तो बेहतर है. 

गीत का फलक गजल की तुलना में बहुत व्यापक है. 'स्थाई' तथा 'अंतरा' में अलग-अलग लय खण्ड हो सकते है और समान भी किन्तु गजल में हर शे'र और हर मिसरा समान लयखंड और पदभार का होना अनिवार्य है. किसे कौन सी विधा सरल लगती है और कौन सी सरल यह विवाद का विषय नहीं है, यह रचनाकार के कौशल पर निर्भर है. हर विधा की अपनी सीमा और पहुँच है. कबीर के सामर्थ्य ने दोहों को साखी बना दिया. गीत, अगीत, नवगीत, प्रगीत, गद्य गीत और अन्य अनेक पारंपरिक गीत लेखन की तकनीक (शिल्प) में परिवर्तन की चाह के द्योतक हैं. साहित्य में ऐसे प्रयोग होते रहें तभी कुछ नया होगा. दोहे के सम पदों की ३ आवृत्तियों, विषम पदों की ३ आवृत्तियों, सम तह विषम पदों के विविध संयोजनों से नए छंद गढ़ने और उनमें रचने के प्रयोग भी हो रहे हैं. 

हिन्दी कवियों में प्रयोगधर्मिता की प्रवृत्ति ने निरंतर सृजन के फलक को नए आयाम दिए हैं किन्तु उर्दू में ऐसे प्रयोग ख़ारिज करने की मनोवृत्ति है. उर्दू में 'इस्लाह' की परंपरा ने बचकाना रचनाओं को सीमित कर दिया तथा उस्ताद द्वारा संशोधित करने पर ही प्रकाशित करने के अनुशासन ने सृजन को सही दिशा दी जबकि हिन्दी में कमजोर रचनाओं की बाढ़ आ गयी. अंतरजाल पर अराजकता की स्थिति है. हिन्दी को जानने-समझनेवाले ही अल्प संख्यक हैं तो स्तरीय रचनाएँ अनदेखी रह जाने या न सराहे जाने की शिकायत है. शिल्प, पिंगल आदि की दृष्टि से नितांत बचकानी रचनाओं पर अनेक टिप्पणियाँ तथा स्तरीय रचनाओं पर टिप्पणियों के लाले पड़ना दुखद है. 

छंद मुक्त रचनाओं और छन्दहीन रचनाओं में भेद ना हो पाना भी अराजक लेखन का एक कारण है. छंद मुक्त रचनाएँ लय और भाव के कारण एक सीमा में गेय तथा सरस होती है. वे गीत परंपरा में न होते हुए भी गीत के तत्व समाहित किये होती हैं. वे गीत के पुरातन स्वरूप में परिवर्तन से युक्त होती हैं, किन्तु छंदहीन रचनाएँ नीरस व गीत के शिल्प तत्वों से रहित बोझिल होती हैं.  

हिंद युग्म पर 'दोहा गाथा सनातन' की कक्षाओं और गोष्ठियों के ६५ प्रसंगों तथा साहित्य शिल्पी पर 'काव्य का रचना शास्त्र' में अलंकारों पर ५८ प्रसंगों में मैंने अनुभव किया है कि पाठक को गंभीर लेखन में रुची नहीं है. समीक्षात्मक गंभीर लेखन हेतु कोई मंच हो तो ऐसे लेख लिखे जा सकते हैं.

निराला की निराली कविता -----सन्तोष कुमार "प्यासा"

प्रस्तुत कविता निराला जी द्वारा रचित है ! ये कविता मेरे ह्रदय को अतल स्पर्श करती है !


आशा है की आपको भी ये कविता पसंद आएगी !

बुधवार, 5 मई 2010

शमशान........(कविता)......वंदना

दुनिया के कोलाहल से दूर

चारों तरफ़ फैली है शांति ही शांति

वीरान होकर भी आबाद है जो

अपने कहलाने वालों के अहसास से दूर है जो

नीरसता ही नीरसता है उस ओर

फिर भी मिलता है सुकून उस ओर

ले चल ऐ खुदा मुझे वहां

दुनिया के लिए कहलाता है जो शमशान यहाँ

किरदार.......श्यामल सुमन जी

बाँटी हो जिसने तीरगी उसकी है बन्दगी।
हर रोज नयी बात सिखाती है जिन्दगी।।

क्या फर्क रहनुमा और कातिल में है यारो।
हो सामने दोनों तो लजाती है जिन्दगी।। 

लो छिन गए खिलौने बचपन भी लुट गया।
है बोझ किताबों का दबाती है जिन्दगी।। 

है वोट अपनी लाठी क्यों भैंस है उनकी।
क्या चाल सियासत की पढ़ाती है जिन्दगी।। 

गिनती में सिमटी औरत पर होश है किसे।
महिला दिवस मना के बढ़ाती है जिन्दगी।।

किरदार चौथे खम्भे का हाथी के दाँत सा।
क्यों असलियत छुपा के दिखाती है जिन्दगी।।

देखो सुमन की खुदकुशी टूटा जो डाल से।
रंगीनियाँ कागज की सजाती है जिन्दगी।।

मन-मरुस्थल-----------------[कविता]----------------सन्तोष कुमार "प्यासा"

मन में है एक विस्तृत मरुस्थल



या मन ही है मरुस्थल


रेत के कणों से ज्यादा विस्तृत विचार है


रह-रह कर सुलगती है उम्मीदों की अनल


विषैले रेतीले बिच्छुओं की भांति

डंक मारते अरमाँ हर पल



मै "प्यासा" हूँ मन भी "प्यासा"



पागल है सब ढूढे मरुस्थल में जल



मन में है एक विस्तृत मरुस्थल


या मन ही है मरुस्थल



वक्त के इक झोके ने मिटा दिया



आशा-निराशा के कण चुन कर बनाया था जो महल



मन मरुस्थल, मन में है मरुस्थल

एक महान कवित्री-----------[कविता]-------------सन्तोष कुमार "प्यासा"

 मैंने एक महान कवित्री के बारे में पढ़ा


जिस पर था प्रकृति के प्रति असीम प्रेम चढ़ा


उनमे प्रतिभा थी प्रकृति प्रदत्त


कोलकाता में जन्मी नाम था तोरू दत्त


साहित्य सृजन अल्पायु में ही प्रारम्भ किया


मानव-प्रकृति के मर्म को सरलता से जान लिया


पिता के साथ विदेश किया प्रस्थान


प्रकृति प्रेम, साहित्य प्रेम का और बढ़ गया गुण महान


उम्र के साथ साथ प्रतिभा रूपी पुष्प खिलता रहा


प्रकृति के प्रति असीम प्रेम, उनकी कविताओ में मिलता रहा


२१ वर्ष के अल्पायु में कर गईं अमर अपना नाम


प्रकृति की पुत्री ने, प्रकृति की गोद में किया चिर विश्राम


इस महान कवित्री को, मेरी ये पंक्तियाँ अर्पित है

 
मेरे ह्रदय के सुमन, पुष्पांजलि बनकर, उनके चरणों में समर्पित है

मंगलवार, 4 मई 2010

जब पापा ने बनाए मटर के चावल ......(बाल कहानी).....मोनिका गुप्ता


हमेशा से ही मम्मी और रसोई का नाता रहा है.मैने आज तक पापा को रसोई से पानी का गिलास खुद लेकर पीते नही देखा. पापा सरकारी अफसर हैं इसलिए द्फ्तर के साथ साथ घर पर भी खूब रौब चलता है.

मम्मी सारा दिन घर पर ही रहती हैं.दिन हो या रात सारा समय काम ही काम हाँ भाई... नौकरों से काम लेना कोई आसान काम है क्या, हाँ.... तो मैं ये बता रही थी कि पिछ्ले कुछ दिनो से पापा खाने मे कोई ना कोई नुक्स निकाल रहे थे. इसीलिए मम्मी ने रसोइए की छुट्टी कर के रसोई की कमान खुद सम्भाल ली थी.

 पर पापा को इसमे भी तसल्ली नही हुई.नुक्स निकालने का काम चलता रहा.और साथ मे एक बात और जुड गई कि मेरी माता जी खाना ऐसे बनाती.माता जी खाना वैसे बनाती.खैर समय बीतता रहा.

शनिवार को पापा यह कह कर सोए कि कि वो कल सुबह नाश्ते मे बासी पराठा और आलू मैथी ही खाएगे.मम्मी ने बहुत मन से बनाया. पर वो भी पापा को पसंद नही आया.

उसी समय पापा ने एलान कर दिया कि वो दोपहर को खुद ही मटर के चावल बनाएगे. मम्मी के चेहरे पर मुस्कुराहट और मैं हैरान.पापा और खाना.मुझे समझ नही आ रहा था.
दोपहर के एक बजे मम्मी ने जबरदस्ती टी वी पर क्रिक्केट मैच देखते हुए पापा को

उठाया कि भूख लग रही है.खाना बनाओ. मैच बहुत मजेदार चल रहा था .... पापा अनमने भाव से उठे.मम्मी ने चावल पहले ही भीगो दिए थे इस पर पापा ने गुस्सा किया माता जी तो पहले कभी नही भिगोते थे . फिर पापा ने कूकर माँगा.मम्मी के कहने पर कि पतीले मे ज्यादा खिले- खिले बनेगें पर पापा तो पापा ठहरे. जो बोल दिया सो बोल दिया. वैसे आप यह मत समझना कि मैं मम्मी की चमची हूँ. मैं सच बात का ही साथ देती हूँ.फिर पापा ने देसी घी लिया और खूब सारा उसमे डाल दिया ताकि मटर अच्छी तरह भुन जाए इतने मे मैच मे छ्क्का लगा जल्दी जल्दी मैच देखने के चक्कर मे उन्होंने मसाला भी बिना नापे डाल दिया.मैं और मम्मी चुपचाप पापा का काम देखते रहे.मम्मी तो चुपचाप गदॅन हिलाती रही और मै वँहा स्लैब पर बैठी पापा का लाईव टेलिकास्ट देख रही थी. सच. मुझे बहुत मज़ा आ रहा था. उधर पापा ने मैच देखने के चक्कर मे मटर मे भी नुक्स निकालने शुरु कर दिए कि मटर तो मीठी है ही नही चावल कैसे अच्छा बनेगा. मैच मे फिर एक खिलाडी आउट हो गया.तभी दरवाजे पर घंटी बजी.मम्मी बाहर जाने को हुए तो पापा ने मना कर दिया कि पहले मसाला भुनने दो फिर जाना.मै उतर के जाने को हुई तो मुझे भी डाटं पड गई कि बार बार आने जाने से उनका ध्यान हट रहा है.तभी फिर एक खिलाडी आउट हो गया.बाहर फिर से घटीं बजी.उधर पापा से कूकर का ढ्क्कन बन्द ही नही हो रहा था. पापा बोले कि कूकर ही खराब है. मम्मी ने गदॅन मटकाते अगले ही पल उसे बन्द कर दिया. इस पर भी पापा बोलने से नही चूके कि उफ आज कल के ये बरतन और कुरते से हाथ पोंछ कर बैठक मे चले गए.दुबारा घंटी बजने पर मैं बाहर भागी.

अरे. सामने दादी खडी थीं.उन्होने बताया कि शहर आने का एकदम से मन बना और वो आ गई.सुबह ही मटर के चावल बनाए थे.तो वो भी ले आई.

 दादी ने पानी पीया ही था कि कूकर की सीटी भी बज गई.पापा ने एलान कर दिया था कि कूकर वो ही खोलेगे.दादी की मौजूदगी मे उसे खोला गया.पर. पर ...यह समझ ही नही आ रहा था कि यह चावल है या खिचडी.मटर के चावलो का पूरी तरह से हलवा बन चुका था.

पापा मैच देखते हुए धनिए की चटनी के साथ मजे से दादी वाले चावल खा रहे थे और हम. हम मटर वाली खिचडी. नाक मुहं बना कर. इसी बीच मे भारत मैच जीत गया.पर पापा खुश होकर बोले कि रात को वो आलू की परौठी बना कर खिलाएगे.यह सुनते ही मैं और मम्मी कान पर हाथ रख कर जोर से चिल्लाए.नही.अब और नही. यह सब देख कर दादी ठहाका लगा कर हँस दी और वो किस्सा सुनाने लगी जब मेरे दादा जी ने पहली और शायद आखिरी बार गुड के चावल बनाए थे ..

नज़्म .....कवि दीपक शर्मा

बात घर की मिटाने की करते हैं
तो हजारों ख़यालात जेहन में आते हैं

बेहिसाब तरकीबें रह - रहकर आती हैं
अनगिनत तरीके बार - बार सिर उठाते हैं ।
 

घर जिस चिराग से जलना हो तो
लौ उसकी हवाओं मैं भी लपलपाती है 

ना तो तेल ही दीपक का कम होता है
ना ही तेज़ी से छोटी होती बाती है ।
 

अगर बात जब एक घर बसाने की हो तो
बमुश्किल एक - आध ख्याल उभर के आता है

तमाम रात सोचकर बहुत मशक्कत के बाद
एक कच्चा सा तरीका कोई निकल के आता है ।
 

वो चिराग जिससे रोशन घरोंदा होना है
शुष्क हवाओं में भी लगे की लौ अब बुझा

बाती भी तेज़ बले , तेल भी खूब पिए दीया
रौशनी भी मद्धम -मद्धम और कम रौनक शुआ ।
 

आज फ़िर से वही सवाल सदियों पुराना है
हालत क्यों बदल जाते है मकसद बदलते ही

फितरतें क्यों बदल जाती है चिरागों की अक्सर
घर की देहरी पर और घर के भीतर जलते ही ।

लहर---------[कविता]----------सन्तोष कुमार "प्यासा"

तुम्हे याद है हम दोनों पहले यहाँ आते थे



घंटो रेत पर बैठ कर


एक दुसरे की बातों में खो जाते थे


तुम घुटनों तक उतर जाती थी सागर के पानी में



और मै किनारे खड़ा तुम्हे देखता था



पहले तो तुम बहुत चंचल थी



लेकिन अब क्यों हो गई हो



समुद्र की गहराई की तरह शांत


और मै बेकल जैसे समुद्र में उठती लहर

सोमवार, 3 मई 2010

पहचानो ... ........[व्य़ंग्य]----------मोनिका गुप्ता

मैं हू कौन .. जी हाँ, क्या आप जानते हैं कि मै हूँ कौन ...चलिए मैं हिंट देता हूँ .. सबसे पहले मै यह बता दू कि मैं आम आदमी नही हूँ . मुझसे मिलने के लिए लोगो की भीड लगी रहती है पर मै जिला उपायुक्त नही हूँ. मेरे आगे पीछे 4-4 अंगरक्षक घूमते हैं पर मैं पुलिस कप्तान भी नही हूँ .मेरे पीछे दिन रात जनता पडी रहती है पर मैं कोई स्वामी जी या कही का महाराज भी नही हूँ.

मेरे बच्चे स्कूल मे प्रथम आते हैं और सभी स्कूल के प्रोग्रामो मे हिस्सा लेते हैं सारा स्टाफ मेरा सम्मान करता है पर मै स्कूल का प्रिंसीपल भी नही हूँ.

जिले मे कोई भी कार्यक्रम होता है तो मुझे जरुर बुलाया जाता है . मेरे साथ फोटो खिचवाई जाती है. रिबन कट्वाया जाता है ताली बजा कर स्वागत किया जाता है मेरी बातो को समाचार पत्र मे मुख्य स्थान दिया जाता है पर मै किसी समाचार पत्र का सम्पादक भी नही हू.

मेरे पास सभी खास अफसरो के फोन आते रहते है या मै जब भी फोन करता हू तो वो तुरंत पहचान जाते हैं और मुझे और मेरे परिवार को भोजन पर बुलाते हैं.

मुझे देख कर कौन कितना जला भुना या कितना खुश हुआ मैं सब जानता हूँ. आप सोच रहे होगें कि मैं यकीनन ही कोई पागल हू जो ऐसे ही बात किए जा रहा है तो जनाब, मै बताता हू कि मै कौन हूँ
. मै हूँ चमचा”. एक दम चालू चक्रम चमचा .लोगो की चापलूसी करने मे सबसे आगे .थूक कर चाट्ने मे सबसे आगे . शहर मे कौन बडा अफसर है कौन नेता है उनकी पत्नी, बच्चे और तो और उनके कुतॆ का नाम उसकी पसंद ना पसंद सभी मुझे पता है . सभी को खुश रखना मेरा परम धर्म है तभी तो लोग मुझे फोन करके मुझसे मिलने को बैचेन रहते हैं क्योकि वो जानते है कि मै ही उनके काम करवा सकता हूँ.

मै भी महान हूँ पता है जब मेरा मन होता है तब फोन उठाता हूँ

जब मन नही होता तब फोन उठाता ही नही चाहे कितनी घंटी बजती रहे. मै जानता हूँ कि जिसने मेरे पास चक्कर लगाने है वो तो लगाएगा ही चाहे घंटो ही इंतजार ही क्यो ना करना पडे

ना सिर्फ बडे लोगो से बलिक मीडिया से भी मै बना कर रखता हूँ. समय समय पर मैं प्रैस कांफ्रैस करता रहता हूँ ताकि वो सैट रहे. लोगो के काम के लिए लंबी कतार मेरे घर या दफतर मे कभी भी देखी जा सकती है . पता है मै गिरगिट की तरह रंग बदलने मे माहिर हूँ. कल जो मेरा जानी दुश्मन था आज वो मेरे साथ बैठ कर चाय पी रहा होता है.या आज मै जिसके संग चाय पी रहा हू वो कल मेरा जानी दुश्मन बन सकता है काम निकलवाने के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूँ किसी भी हद तक जा सकता हूँ. बस अधिकारी लोग खुश रहने चाहिए.

ये चमचागिरि मुझे अपने बडो से विरासत मे नही मिली बलिक समय और हालात को देखते हुए मुझे सीखनी पडी .मै जानता हूँ कि भले ही लोग मुझे पीठ पीछे गाली देते होगें मुझे अकडू की उपाधि भी दे दी होगी पर मुझे कोई असर नही. मै आज जो भी हूँ बहुत खुश हूँ.

तो दोस्तो, अगर आप भी खुश रहना चाहते हैं तो एक बार चमचागिरी के मैदान मे आ जाओ यकीन मानो एक बार समय तो लगेगा, अजीब भी लगेगा पर कुछ समय बाद आपको खुद ही अच्छा लगने लगेगा.

सच पूछो तो आज का समय शराफत, महेनत और ईमानदारी का नही है क्योकि उनकी कोई कद्र ही नही है या ये कहे कि सबसे ज्यादा पिसता ही शरीफ आदमी है इसलिए तो मुझे भी चमचागिरी को अपनाना पडा. तो अगर आप सुखी रहना चाहते है अपने सारे काम भी निकलवाना चाहते हैं तो बनावट और दिखावे की दुनिया मे आपका स्वागत है बिना देरी किए तुरंत आए और अधिक जानकारी के लिए शहर के किसी भी बडे अफसर से आप मेरा पता पूछ सकते हैं...