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शुक्रवार, 15 मई 2009

घर का चूल्हा [एक कविता ] - प्रस्तुति " शम्भू चौधरी जी " की


घर का चूल्हा जलता देखा


चूल्हे में लकड़ी जलती देखी
उस पर जलती हाँड़ी देखी,
हाँड़ी में पकते चावल देखे,
फिर भी प्राणी जलते देखे।
घर का चूल्हा जलता देखा।।

हाय.. रे..घर...का..चूल्हा...
घर का चूल्हा जलता देखा।।

खेतों में हरियाली देखी
घर में आती खुशीयाली देखी
बच्चों की मुस्कान को देखा,
मन में कोलाहल सा देखा,
मंडी में जब भाव को देखा
श्रम सारा पानी सा देखा।

हाय.. रे..घर...का..चूल्हा...
घर का चूल्हा जलता देखा।।

घर का चूल्हा जलता देखा
बर्तन-भाँडे बिकता देखा
हाथ का कंगना बिकता देखा,
बिकती इज़्ज़त बच्चों को देखा
खेते -खलियानों को बिकता देखा
हल-जोड़े को बिकता देखा।

हाय.. रे..घर...का..चूल्हा...
घर का चूल्हा जलता देखा।।

बैल को जोता, खुद को जोता,
बच्चों और परिवार को जोता
ब्याज का बढ़ता बोझ को जोता
सरकार को जोता, फसल को जोता,
घरबार- परिवार को जोता
दरबारी-सरपंच को जोता,

हाय.. रे..घर...का..चूल्हा...
घर का चूल्हा जलता देखा।।

मुर्दों की संसद को देखा
बन किसान मौज करते देखा,
घर का चूल्हा जलता देखा
बेच-बेच ऋण चुकता देखा
फिर किसान को मरता देखा
फांसी पर लटकता देखा।

हाय.. रे..घर...का..चूल्हा...
घर का चूल्हा जलता देखा।।


शम्भु चौधरी, एफ.डी.-453/2,
साल्टलेक सिटी, कोलकाता-700106, मोबाइल: 0-9831082737.

वर्षा सिंह की कविता {आमंत्रित कवियत्री } - गर्भ में पल रहे शिशु के लिए प्रार्थना

हे!
तुम आना
ख़ुशियां लाना
और
बांटना भी
तुम मुस्कुराना
और
सबको मुस्कुराने की
वजह देना
हे!
तुम बोलना
बक-बक-बक-बक
पर किसी का
दिल न दुखाना
हे!
तुम्हें ये धरती मिलेगी
जिसे हम सबने
मिलकर उजाड़ा
सारा पानी सोख लिया
सारे पेड़ उखाड़ लिए
सारा तेल धुआं बनाया
सारी बिजली लुटा दी
जब तुम आना
पेड़ उगाना
पानी बचाना
प्रकृति पर जान देना
तुम्हारी ज़िंदगी
प्रकृति का ही तो वरदान है
हे!
तुम आना

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