(बहिन अल्पना वर्मा ने मेरी एक पोस्ट पर
टिप्पणी के रूप में इस गीत की लय पर
दो पंक्तियाँ प्रेषित की थीं।
उसी पर यह तुकबन्दी तैयार हो गयी।
इसे छोटी बहिन अल्पना को सादर समर्पित कर रहा हूँ।)
टिप्पणी के रूप में इस गीत की लय पर
दो पंक्तियाँ प्रेषित की थीं।
उसी पर यह तुकबन्दी तैयार हो गयी।
इसे छोटी बहिन अल्पना को सादर समर्पित कर रहा हूँ।)
सावन में बादल का छा जाना, अच्छा लगता है।
अल्पनाओं मे रंगों का आ जाना, अच्छा लगता है।।
सपनों में ही मन से, मन की बातें हो जाती थी।
चितवन की तिरछी चालों से, मातें हो जाती थी।
भूली-बिसरी यादों को पा जाना, अच्छा लगता है।।
कभी रूठना, कभी मनाना, मान-मनव्वल होती थी।
गाना हो या हो रोना, वो सबमें अव्वल होती थी।
दर्पण में भोली छवि का भा, जाना अच्छा लगता है।
कितना ही बिसरायें, वो क्षण याद बहुत आते हैं।
प्रेम-प्रीत मे सने हुए, सम्वाद बहुत भाते हैं।
कभी-कभी तीखा भोजन खा जाना, अच्छा लगता है।